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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1797
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
शि꣡क्षे꣢य꣣मि꣡न्म꣢हय꣣ते꣢ दि꣣वे꣡दि꣢वे रा꣣य꣡ आ कु꣢꣯हचि꣣द्वि꣡दे꣢ । न꣢꣯ हि त्वद꣣न्य꣡न्म꣢घवन्न꣣ आ꣢प्यं꣣ व꣢स्यो꣣ अ꣡स्ति꣢ पि꣣ता꣢ च꣣ न꣢ ॥१७९७॥
स्वर सहित पद पाठशि꣡क्षे꣢꣯यम् । इत् । म꣣हयते꣢ । दि꣣वे꣡दि꣢वे । दि꣡वे꣢ । दि꣣वे । रायः꣢ । आ । कु꣣हचिद्वि꣡दे꣢ । कु꣣हचित् । वि꣡दे꣢꣯ । न । हि । त्वत् । अ꣣न्य꣢त् । अ꣣न् । य꣢त् । म꣣घवन् । नः । आ꣡प्य꣢꣯म् । व꣡स्यः꣢꣯ । अ꣡स्ति꣢꣯ । पि꣣ता꣢ । च꣣ । न꣢ ॥१७९७॥
स्वर रहित मन्त्र
शिक्षेयमिन्महयते दिवेदिवे राय आ कुहचिद्विदे । न हि त्वदन्यन्मघवन्न आप्यं वस्यो अस्ति पिता च न ॥१७९७॥
स्वर रहित पद पाठ
शिक्षेयम् । इत् । महयते । दिवेदिवे । दिवे । दिवे । रायः । आ । कुहचिद्विदे । कुहचित् । विदे । न । हि । त्वत् । अन्यत् । अन् । यत् । मघवन् । नः । आप्यम् । वस्यः । अस्ति । पिता । च । न ॥१७९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1797
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
पदार्थ
यदि मैं धनपति हो जाऊँ तो (कुहचिद्विदे) जहाँ कहीं भी विद्यमान (महयते) परमेश्वरपूजक समाजसेवी मनुष्य को (दिवेदिवे) प्रतिदिन (रायः) धन (आ शिक्षेयम् इत्) अवश्य ही दान किया करूँ। हे (मघवन्) धनपति परमात्मन् ! (त्वत् अन्यत्) आपसे भिन्न कोई भी (नः) हमारा (आप्यम्) प्राप्तव्य और (वस्यः) अतिशय शरण देनेवाला (नहि) नहीं (अस्ति) है, (पिता च) और पिता के समान पालक भी (न) नहीं है ॥२॥
भावार्थ
दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए, कुपात्र को नहीं ॥२॥
पदार्थ
(मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (कुहचित्-विदे) कहीं भी सर्वत्र विद्यमान—(महयते) तुझ पूजा को प्राप्त होते हुए—पूजनीय१ के लिये (दिवेदिवे) दिन दिन—प्रतिदिन२ (रायः ‘रायं’) देने योग्य—समर्पण करने योग्य स्तुतिवचन हावभाव को (आशिक्षेयम्) मैं उपासक भली प्रकार देता हूँ—समर्पित करता हूँ३ (त्वत्-अन्यत्) तुझ से भिन्न (आप्यं न हि) प्राप्त करने योग्य नहीं (न वस्यः पिता च न-अस्ति) न ही अधिक वसाने वाला—साथ रखने वाला पिता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
उपालम्भ का उत्तर
पदार्थ
गतमन्त्र में स्तोता ने उपालम्भ दिया— उसे कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं हो रहीं और 'घृतलवणतण्डुलेन्धनचिन्ता' उसे सताने लगी है। प्रभु उत्तर देते हुए कहते हैं कि (‘महयते') = [मह पूजायाम्] लोकहित व सर्वभूतहित के द्वारा मेरी सच्ची उपासना करनेवाले के लिए मैं (इत्) = निश्चय से (रायः) = आवश्यक धनों को (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन (शिक्षेयम्) = देता ही हूँ । (आ) = इस ब्रह्माण्ड में चारों ओर (कुहचित्) = कहीं भी (विदे) = [विद् सत्तायाम्] होनेवाले अपने भक्त के लिए मैं आवश्यक धनों को अवश्य देता ही हूँ ।
यहाँ ‘दिवे-दिवे' शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है। प्रभु अपने भक्त की दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए ही धन देते हैं । व्यर्थ में जोड़कर रक्षा करने की चिन्ता से भी उसे मुक्त रखते हैं । ग़लती से अज्ञानी पुरुष उसे अपनी निर्धनता के रूप में देखता है । भूतहित की भावना से कार्य में प्रवृत्त हुआ यह कहीं भी होगा, प्रभु उसका ध्यान करेंगे ही। जो प्रभु के प्राणियों का ध्यान कर रहा है तो यह कभी सम्भव है कि प्रभु उसका ध्यान न करें?
इस उत्तर को सुनकर स्तोता साहस का संचय करके कहता है कि -
हे (मघवन्) = सब ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! (त्वत् अन्यत्) = आपसे भिन्न (नः) = हमारा (वस्यः) = उत्तम (आप्यम्) = मित्र (न हि) = है ही नहीं । आप ही तो हमारा कभी साथ न छोड़नेवाले मित्र हैं और वस्तुतः आपके सिवाय पिता चन-हमारा रक्षक भी तो नहि अस्ति नहीं है। आप ही हमारे पिता हैंआपने ही हमारा पालन करना है ।
भावार्थ
प्रभुभक्त को चाहिए कि प्रभु पर विश्वास रखते हुए ‘सर्वभूतहिते रतः' होने का प्रयत्न करे। यही उसकी सच्ची उपासना होगी। प्रभु उसके सतत सेवक हैं जो औरों का सेवक बना है।
विषय
missing
भावार्थ
परमेश्वर का संकल्प है कि (महयते) दानशील या मेरी स्तुति करने हारे (कुहचिद्विदे) कहीं भी हो वहां ही उसे (दिवे दिवे) प्रतिदिन (रायः) धनों को (आ शिक्षेयम्) दान दिया करता हूं। इस प्रकार की ईश्वर की दयादृष्टि होने से भक्त का भी संकल्प होता है कि हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (त्वदन्यत्) तेरे से दूसरा कोई और व्यक्ति (नः) हमारे लिये (वस्यः) आवास देने हारा, (आप्यं) प्राप्त करने योग्य, इष्टदेव, उत्तम वस्तु (नहि) नहीं है और तुझ से उत्तम दूसरा (पिता च) पिता पालक भी (न) नहीं है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
यदि अहं धनपतिर्भवेयं तर्हि (कुहचिद्विदे२) यत्र कुत्रापि विद्यमानाय (महयते) परमेश्वरपूजकाय समाजसेवकाय जनाय। [महयतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४।] (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (रायः) धनानि (आ शिक्षेयम् इत्) दद्याम् एव। [शिक्षतिः ददातिकर्मा। निघं० ३।२०।] हे (मघवन्) धनाधिप परमात्मन् ! (त्वद् अन्यत्) त्वद्भिन्नं किञ्चित् (नः) अस्माकम् (आप्यम्) प्राप्तव्यम् किञ्च (वस्यः) अतिशयेन आच्छादयितृ, शरणप्रदमित्यर्थः (नहि) नैव (अस्ति) विद्यते, (पिता च) पितृवत् पालकश्चापि (न) न विद्यते ॥२॥३
भावार्थः
दानं सदा सुपात्र एव देयं न तु कुपात्रे ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Each day would I enrich the man who is charitably disposed, in whatsoever place he be. O God, no kinsman is a better shelter than Thee. No father is a better guardian than Thee!
Translator Comment
I' refers to God. In the half of the verse God reveals His resolve to bestow riches on a charitable person. In the second half a devotee expresses his firm faith in the guardianship of God.
Meaning
Every day I would wish to give wealth and support for the person who seeks to rise for enlightenment wherever he be. O lord of wealth, power and honour, there is none other than you worthy of love and attainment as our own, as father indeed. (Rg. 7-32-19)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मघवन्) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (कुहचित् विदे) ક્યાંય પણ સર્વત્ર વિદ્યમાન, (महयते) તારી પૂજાને પ્રાપ્ત થતાં-પૂજનીયને માટે (दिवे दिवे) દિન પ્રતિદિન (रायः "रायं") આપવા યોગ્ય-સમર્પણ કરવા યોગ્ય સ્તુતિ વચન હૃદયના ભાવથી (आशिक्षेयम्) હું ઉપાસક સારી રીતે આપું છું-સમર્પિત કરું છું. (त्वत् अन्यत्) તારાથી જુદો બીજો કોઈ (आप्यं न हि) પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય નથી(न वस्यः पिता च न अस्ति) અધિક વસાવનાર બીજો કોઈ નથી, સાથે રાખનાર પિતા પણ બીજો કોઈ નથી.
मराठी (1)
भावार्थ
दान नेहमी सुपात्राला द्यावे, कुपात्राला देऊ नये ॥२॥
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