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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1803
    ऋषिः - सुदासः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    2

    वि꣢꣯ षु विश्वा꣣ अ꣡रा꣢तयो꣣ऽर्यो꣡ न꣢शन्त नो꣣ धि꣡यः꣢ । अ꣡स्ता꣢सि꣣ श꣡त्र꣢वे व꣣धं꣡ यो न꣢꣯ इन्द्र꣣ जि꣡घा꣢ꣳसति । या꣡ ते꣢ रा꣣ति꣢र्द꣣दि꣢꣫र्वसु꣣ न꣡भ꣢न्तामन्य꣣के꣡षां꣢ ज्या꣣का꣢꣫ अधि꣣ ध꣡न्व꣢सु ॥१८०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि꣢ । सु । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯तयः । अ । रा꣣तयः । अर्यः꣢ । न꣣शन्त । नः । धि꣡यः꣢꣯ । अ꣡स्ता꣢꣯ । अ꣣सि । श꣡त्र꣢꣯वे । व꣣ध꣢म् । यः । नः꣣ । इन्द्र । जि꣡घा꣢꣯ꣳसति । या । ते꣣ । रातिः꣢ । द꣣दिः꣢ । व꣡सु꣢꣯ । न꣡भ꣢꣯न्ताम् । अ꣣न्यके꣡षा꣢म् । अ꣣न् । यके꣡षा꣢म् । ज्या꣣काः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯सु ॥१८०३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि षु विश्वा अरातयोऽर्यो नशन्त नो धियः । अस्तासि शत्रवे वधं यो न इन्द्र जिघाꣳसति । या ते रातिर्ददिर्वसु नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥१८०३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वा । अरातयः । अ । रातयः । अर्यः । नशन्त । नः । धियः । अस्ता । असि । शत्रवे । वधम् । यः । नः । इन्द्र । जिघाꣳसति । या । ते । रातिः । ददिः । वसु । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । अन् । यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वसु ॥१८०३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1803
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा का शत्रु-विनाश और धन देने के गुण का वर्णन है।

    पदार्थ

    (विश्वाः) सब (अर्यः) आक्रमण करनेवाली; (अरातयः) दान-हीन शत्रु-सेनाएँ और विघ्न-सेनाएँ (सु) पूर्णरूप से (विनशन्त) विनष्ट हो जाएँ, (नः) हमें (धियः) योग की धारणा, ध्यान और समाधियाँ प्राप्त हों। हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यः) जो शत्रु (नः) हमारा (जिघांसति) वध कर देना चाहता है, उस (शत्रवे) काम, क्रोध आदि शत्रु पर, आप (वधम्) मौत (अस्ता असि) डालनेवाले हो। (या) जो (ते) आपकी (रातिः) दान की प्रवृत्ति है, वह हमारे लिए (वसु) निवासक दिव्य ऐश्वर्य की (ददिः) देनेवाली हो। (अन्यकेषाम्) शत्रुओं की (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ायी हुई (ज्याकाः) डोरियाँ (नभन्ताम्) टूट जाएँ, अर्थात् वे साधनहीन असहाय होकर विनष्ट हो जाएँ ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे राजा वा सेनापति शत्रुओं को मार कर प्रजाओं को धन आदि देता है, वैसे ही अध्यात्ममार्ग में बाधा डालनेवाले विघ्नों और काम, क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करके जगदीश्वर उपासक को दिव्य ऐश्वर्य प्रदान करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) परमात्मन्! (नः) हमारे लिये (विश्वाः) सारी (अर्यः) आक्रमणकारी१ (अरातयः-धियः) न देने वाली अपितु जीवनीय तत्त्व लेने वाली अन्य दुर्बुद्धियाँ (सुविनशन्तु) भली प्रकार नष्ट हो जावें (यः-न-जिघांसति) जो हमें पापभाव से मारना चाहता है (शत्रवे वधम्-अस्ता-असि) तू परमात्मन्! उस शत्रु के लिये हिंसासाधन को फेंकने वाला है (ते या रातिः-वसुः-ददिः) तेरी जो दानक्रिया है वह वसाने वाले धन को दे, शेष पूर्ववत्॥३॥

    विशेष

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    विषय

    पिजवन की आराधना

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (विश्वाः) = हमारे न चाहते हुए भी हममें प्रवेश करनेवाले (अरातयः) = लोभादि शत्रु (वि-नशन्त) = विशेषरूप से नष्ट हो जाएँ । काम-क्रोध-लोभादि की अवाञ्छनीय वासनाएँ आपकी कृपा से हममें प्रविष्ट न हो पाएँ । हमारी हृदयस्थली से इनका विनाश हो जाए।

    २. (नः) = हमें (अर्यः) = [अर्यस्य] जितेन्द्रिय-इन्द्रियों के स्वामी की (धियः) = बुद्धियाँ (सु नशन्त) = उत्तम प्रकार से प्राप्त हों। [नश्=to reach, attain] हम जितेन्द्रिय पुरुष की बुद्धि को प्राप्त करनेवाले हों ।

    ३. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का द्रावण करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो शत्रु (न:) = हमें (जिघांसति) = मारना चाहता है (शत्रवे) = उस शत्रु के लिए आप (ही वधम्) = वध के साधनभूत अस्त्र को (अस्तासि) = फेंकनेवाले हैं। कामादि वासनाएँ हमारी शक्तियों को क्षीण करके हमारा नाश करती हैं, अतः वे हमारी शत्रु हैं। उन्हें प्रभु ही नष्ट करते हैं, मेरी शक्ति उन्हें नष्ट करने की नहीं । मेरे लिए तो वे बड़ी प्रबल हैं ।

    ४. हे प्रभो! वस्तुत: (या) = जो (ते) = तेरी (राति:) = देन है वह (वसु) = निवास के लिए आवश्यक धन को (ददिः) = देनेवाली है। जो भी व्यक्ति प्रभु का अनन्य भक्त बनता है— अनन्य भक्त बनकर कामादि वासनाओं के नाश के लिए प्रयत्नशील होता है, वह नित्याभियुक्त व्यक्ति भूखा थोड़े ही मरता है। प्रभु की देन उसे निवास के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराती है। उसका योगक्षेम कभी रुक नहीं जाता।

    ५. अन्त में पिजवन यही आराधना करता है कि (अन्यकेषाम्) = इन विलक्षण शक्तिवाले कामादि शत्रुओं की (ज्याकाः) = धनुषों की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = इनके कमानों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ । हे प्रभो ! आपने ही इनसे मेरी रक्षा करनी है ।

    भावार्थ

    मैं भी पिजवन की इस पञ्चविध प्रार्थना को करनेवाला बनूँ, परन्तु स्वयं भी [अपि] प्रयत्नशील [जवन] बना रहूँ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः शत्रुविनाशकत्वं धनदत्वं चाह।

    पदार्थः

    (विश्वाः) सर्वाः (अर्यः) आक्रान्त्र्यः (अरातयः) अदात्र्यः शत्रुसेनाः विघ्नसेनाश्च (सु) सम्यक् (वि नशन्त) विनश्यन्तु, (नः) अस्मान् (धियः) योगस्य धारणाध्यानसमाधयः प्राप्नुवन्तु। हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति तस्मै (शत्रवे) रिपवे कामक्रोधादिकाय, त्वम् (वधम्) मृत्युम् (अस्ता असि) प्रक्षेप्ता भवसि। (या ते) तव (रातिः) दानप्रवृत्तिः अस्ति, सा अस्मभ्यम् (वसु) निवासकं दिव्यमैश्वर्यम् (ददिः) दात्री भवतु। (अन्यकेषाम्) शत्रूणाम् (धन्वसु अधि) धनुःषु अधिरोपिताः (ज्याकाः) प्रत्यञ्चाः (नभन्ताम्) त्रुट्यन्ताम्, ते निःसाधना असहायाः सन्तो विनश्यन्तामिति भावः। [अर्यः, ‘अरी’ इति दीर्घान्तस्य जसि रूपम्। अनशन्त, णश अदर्शने,लोडर्थे लुङि अडागमाभावश्छान्दसः । व्यत्ययेनात्मनेपदम्। ददिः,ददातेः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च’ अ० ३।२।१७१ इति किः प्रत्ययः] ॥३॥

    भावार्थः

    यथा राजा सेनापतिर्वा शत्रून् हत्वा प्रजाभ्यो धनादिकं प्रयच्छति तथैवाध्यात्ममार्गे बाधकभूतान् विघ्नान् कामक्रोधादिशत्रूंश्च विनाश्य जगदीश्वरो दिव्यमैश्वर्यमुपासकाय प्रयच्छति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, destroyed be all our feelings against charity. May our intellects develop. Thy bolt, Thou castest at the foe, who would smite us dead. Thy liberal bounty gives us wealth. The weak bow-strings of our weak internal foes like lust and anger break upon Thy sight!

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    Meaning

    Indra, may the facts and forces of enmity, adversity and ungenerosity be eliminated from life and the world. May all our thoughts and actions be inspired by love and generosity. You strike the thunderbolt of justice and punishment upon the enemy who wants to destroy us or frustrate our love and generosity. May your grace and generosity bring us wealth, honour and excellence of life. Let the strings of enemy bows snap by the tension of their own negativities. (Rg. 10-133-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) પરમાત્મન્ ! (नः) અમારે માટે (विश्वाः) સમસ્ત (अर्यः) આક્રમણકારી-શત્રુઓ (अरातयः धियः) આપનારી નહિ, પરંતુ જીવનીય તત્ત્વોને લઈ લેનારી અન્ય દુર્બુદ્ધિઓ (सुविनशन्तु) સારી રીતે નાશ પામે. (यः न जिघांसति) જે અમને પાપ ભાવથી મારવા ઇચ્છે છે (शत्रवे वधम् अस्ता असि) તું પરમાત્મન્ ! તે શત્રુને માટે હિંસા સાધનને ફેંકનાર છે. (ते या रातिः वसुः ददिः) જે તારી દાન ક્રિયા છે તેના દ્વારા તે વસાવનાર ધનને આપજે (अन्यकेषां ज्याकाः अधि धन्वसु) અન્ય કુત્સિતજનોની અમને હરાવવાની દબાવવાની દુર્ભાવનાઓ તેઓના હૃદયાવકાશોમાં (नभन्ताम्) નાશ પામે અથવા દુર્ભાવના ન થાય-ન રહે.
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा राजा किंवा सेनापती शत्रूंना मारून प्रजेला धन इत्यादी देतो, तसेच अध्यात्ममार्गात बाधा आणणाऱ्या विघ्नांना व काम, क्रोध इत्यादी शत्रूंना नष्ट करून जगदीश्वर उपासकाला दिव्य ऐश्वर्य प्रदान करतो. ॥३॥

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