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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1804
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    रे꣣वा꣢꣫ꣳ इद्रे꣣व꣡त꣢ स्तो꣣ता꣡ स्यात् त्वाव꣢꣯तो म꣣घो꣡नः꣢ । प्रे꣡दु꣢ हरिवः सु꣣त꣡स्य꣢ ॥१८०४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रे꣣वा꣢न् । इत् । रे꣣व꣡तः꣢ । स्तो꣣ता꣢ । स्यात् । त्वा꣡व꣢꣯तः । म꣣घो꣢नः꣢ । प्र । इत् । उ꣣ । हरिवः । सुत꣡स्य꣢ ॥१८०४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवाꣳ इद्रेवत स्तोता स्यात् त्वावतो मघोनः । प्रेदु हरिवः सुतस्य ॥१८०४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रेवान् । इत् । रेवतः । स्तोता । स्यात् । त्वावतः । मघोनः । प्र । इत् । उ । हरिवः । सुतस्य ॥१८०४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1804
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (हरिवः) दोषों को हरनेवाले इन्द्र जगदीश्वर ! (सुतस्य) अन्तरात्मा में प्रकट किये गए, (रेवतः) ऐश्वर्यवान् (मघोनः) दानी (त्वावतः) आप जैसे ही आपका अर्थात् जिसके तुल्य या जिससे बढ़कर संसार में अन्य कोई नहीं है, ऐसे आपका (स्तोता) उपासक (इत् उ) अवश्यमेव (रेवान् इत्) ऐश्वर्यवान् ही (प्र स्यात्) होवे ॥१॥ ‘त्वावतः’ में अनन्वय अलङ्कार है। ‘रेवाँ इद् रेवतः स्तोता’ में समालङ्कार व्यङ्ग्य है ॥१॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् परमेश्वर अपने उपासक को भी ऐश्वर्यवान् कर देता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (हरिवः) हे दुःखहरणकर्ता सुखाहर्ता परमात्मन्! (देवतः स्तोता रेवान्-इत् स्यात्) धनवान् का स्तोता—प्रशंसक धनवान् ही हो जाता है पुनः (त्वावतः-सुतस्य मघोनः) तेरे जैसे साक्षात् किए हुए ऐश्वर्य वाले परमात्मा का स्तोता (प्र-इत्) प्रकृष्ट धनवान्—मोक्षैश्वर्य वाला अवश्य हो जावे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः प्रियमेधो वा (परमात्मा में मेधा से गमन अतन करने वाला या प्रिय है मेधा जिसको ऐसा उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    'ब्रह्म' का उपासक 'ब्रह्म-सा' बन जाता है

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘मेधातिथि काण्व प्रियमेध [आङ्गिरस] ' हैं । इन दोनों की मौलिक भावना समान है। मेधातिथि का अर्थ है—‘निरन्तर मेधा की ओर चलनेवाला' तथा प्रियमेध का अर्थ है‘प्रिय है बुद्धि जिसको' । बुद्धि को महत्त्व देनेवाला यह प्रियमेध प्रभु से कहता है कि संसार में सामान्यत: देखा जाता है कि (रेवतः) = धनवाले का (स्तोता) = उपासक (इत्) = निश्चय से (रेवान्) = धनवाला (स्यात्) = हो जाता है । वस्तुतः जो जिसका उपासक बनता है वह वैसा ही हो जाता है । ('हीयते हि मतिस्तात हीनै: सह समागमात् । समैश्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम्'), हीनबुद्धिवालों के समीप उठने-बैठने से मनुष्य हीनबुद्धिवाला हो जाता है, अपने-जैसों में रहने से वैसा ही बना रहता है और विशिष्ट पुरुषों के सम्पर्क में विशिष्टता का लाभ करता है। ऐसी स्थिति में हे (हरिवः) = सब प्रकार के अपकर्ष के हरण करनेवाले प्रभो ! (त्वावतः) = आपके समान (मघोनः) = ज्ञानैश्वर्यसम्पन्न के तथा (सुतस्य) = सम्पूर्ण निर्माण व ऐश्वर्य के प्रभु के सम्पर्क में (प्र इत् उ) = आपका स्तोता निश्चय से प्रकर्ष को प्राप्त करेगा ही ।

    लौकिक धनी का उपासक धन की कमी से ऊपर उठ जाता है तो क्या प्रभु का उपासक सब प्रकार की कमियों से ऊपर न उठ जाएगा? हे प्रभो! क्या आप अपने उपासक की न्यूनता का हरण करके अपने ‘हरिवान्' नाम को सार्थक न करेंगे ? क्या 'मघवान्' के सम्पर्क में आकर यह स्तोता भी मघवान् न बनेगा? आप 'सुत' हैं– निर्माण व ऐश्वर्य के स्वामी हैं। आपका स्तोता भी निर्माता व ऐश्वर्य-सम्पन्न ही बनेगा । लौकिक धनी का स्तोता लौकिक धन प्राप्त करता है तो आपका स्तोता आपको ही प्राप्त करेगा ।

    भावार्थ

    स्तोता, जिसकी स्तुति करता है, उस जैसा ही बन जाता है ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (हरिवः) दोषहरणगुणोपेत इन्द्र जगदीश्वर ! (सुतस्य) अन्तरात्मनि प्रकटीकृतस्य (रेवतः) ऐश्वर्यवतः (मघोनः) दानवतः (त्वावतः) त्वत्सदृशस्य तव (स्तोता) उपासकः (रेवान् इत्) ऐश्वर्यवानेव (इत् उ) अवश्यमेव ( प्र स्यात्) प्रजायेत। [हरिवः, हरिवन् ‘मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि’ अ० ८।३।१ इति नकारस्य रुत्वम्। रेवतः, ‘रयेर्मतौ बहुलम्’ वा० ६।१।३४ इति रयेर्यकारस्य सम्प्रसारणम्। मघोनः, मंहतिर्दानकर्मा। निरु० १।६। त्वावतः, ‘युष्यदस्मदोः सादृश्ये वतुब् वाच्यः’ वा० ५।१।६१ इति सादृश्यार्थे वतुप्] ॥१॥ ‘त्वावतः त्वत्सदृशस्य तव’ इत्यत्रानन्वयालङ्कारः। ‘रेवाँ इद् रेवतः स्तोता’ इत्यत्र समालङ्कारो ध्वन्यते ॥१॥

    भावार्थः

    ऐश्वर्यवान् जगदीश्वरः स्वोपासकमप्यैश्वर्यवन्तं करोति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Lord of the rotating planets, the praiser of a rich man becomes rich in this world, the praiser of Thee, unique in knowledge and riches will certainly become highly learned and rich!

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    Meaning

    Indra, master and commander of dynamic forces, may the celebrant of the brilliant, bountiful and renowned like you be brilliant, prosperous and celebrated. That is but natural. (Rg. 8-2-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हरिवः) હે દુ:ખનાશક, સુખદાતા પરમાત્મન્ ! (देवतः स्तोता रेवान् इत् स्यात्) ધનવાનનો સ્તોતા-પ્રશંસક પણ ધનવાન બની જાય છે, તો પછી (त्वावतः सुतस्य मघोनः) તારા જેવા ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માનો સાક્ષાત્ કરેલ સ્તોતા (प्र इत्) પ્રકૃષ્ટ ધનવાન-મોક્ષ ઐશ્વર્યવાન અવશ્ય બની જાય તેમાં નવાઈ શી ? (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान परमेश्वर आपल्या उपासकालाही ऐश्वर्यवान करतो. ॥१॥

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