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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1805
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    उ꣣क्थं꣢ च꣣ न꣢ श꣣स्य꣡मा꣢नं꣣ ना꣡गो꣢ र꣣यि꣡रा चि꣢꣯केत । न꣡ गा꣢य꣣त्रं꣢ गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥१८०५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣क्थ꣢म् । च꣣ । न꣢ । श꣣स्य꣢मा꣢नम् । न । अ꣡गोः꣢꣯ । अ । गोः꣣ । रयिः꣢ । आ । चि꣣केत । न꣢ । गा꣣य꣢त्रम् । गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥१८०५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थं च न शस्यमानं नागो रयिरा चिकेत । न गायत्रं गीयमानम् ॥१८०५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थम् । च । न । शस्यमानम् । न । अगोः । अ । गोः । रयिः । आ । चिकेत । न । गायत्रम् । गीयमानम् ॥१८०५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1805
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    द्वितीय ऋचा पूर्वार्चिक में २२५ क्रमाङ्क पर व्याख्यात हो चुकी है। इन्द्र जगदीश्वर में श्रद्धा न रखनेवाले की क्या गति होती है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    (अगोः) सर्वव्यापक इन्द्र जगदीश्वर में श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य का (न) न तो (शस्यमानम्) बोला जाता हुआ (उक्थम्) स्तोत्र, (न)(रयिः) दिया जाता हुआ धन, (न) और न ही (गीयमानम्) गाया जाता हुआ (गायत्रम्) गायत्र नामक सामगान (आ चिकेत) किसी से आदर किया जाता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर में श्रद्धा न करनेवाले मनुष्य का स्त्रोत्रपाठ, धनदान, सामगान आदि सब निष्फल होता है, क्योंकि वह किसी स्वार्थ से ही प्रेरित होकर उन कार्यों को करता है। सब सत्कर्म ईश्वरार्पण-बुद्धि से ही शोभा पाते हैं ॥२॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या २२५)

    विशेष

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    विषय

    प्रभु का ज्ञानीभक्त या उक्थशंस व गायत्र

    पदार्थ

    २२५ संख्या पर इस मन्त्र का व्याख्यान हो चुका है। सामान्य अर्थ इस प्रकार है (अ-गो-रयिः) = जो ज्ञानरूप धनवाला नहीं है, वह व्यक्ति ऋग्वेद के (उक्थम्) = उक्थों कोपदार्थों के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा प्रभु की महिमा के प्रतिपादक मन्त्रों को (च न) = तथा (शस्यमानम्) = यजुर्वेद के शंसों को— जीवों के कर्त्तव्यों में छिपी परस्पर सम्बद्धता के द्वारा प्रभु के रचना-सौन्दर्य को (गीयमानम्) = गाये जाते हुए (गायत्रम्) = प्रभु के ज्ञान द्वारा त्राण करनेवाले सामों को न आचिकेत-पूरे रूप से नहीं समझता है । प्रभु की महिमा को ज्ञानधनी ही समझ पाता है । 

    भावार्थ

    मैं ज्ञानी बनूँ, जिससे प्रभु का ज्ञानी भक्त बन पाऊँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके २२५ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। इन्द्रेऽश्रद्दधानस्य का गतिर्भवतीत्युच्यते।

    पदार्थः

    (अगोः) न विद्यते गौः सर्वगतः इन्द्रो जगदीश्वरो यस्य स अगुः तस्य अगोः इन्द्रेऽश्रद्दधानस्य जनस्य (न) नैव (शस्यमानम्) उच्यमानम् (उक्थम्) स्तोत्रम्, (न) नैव (रयिः) दीयमानं धनम्, (न) नापि च (गीयमानम्) गानविषयीक्रियमाणम् (गायत्रम्) गायत्रनामकं सामगानम् (आचिकेत) आचिकिते आद्रियते केनापि ॥२॥

    भावार्थः

    परमेश्वरेऽश्रद्दधानस्य जनस्य स्तोत्रपाठधनदानसामगानादिकं सर्वं निष्फलं जायते, यतः स केनचित् स्वार्थेनैव प्रेरितस्तानि कृत्यानि करोति। सर्वाणि सत्कर्माणीश्वरार्पणबुद्ध्यैव शोभन्ते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Doesn’t a learned King understand the praise uttered by an ignorant person, or the song of praises that is sung? He understands them.

    Translator Comment

    See verse 225.

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    Meaning

    Indra, lord of power and piety, the man attached to divinity in faith and opposed to doubt and disloyalty knows the words of praise spoken by a man of doubtful faith as much as he knows the songs of adoration sung by a man of faith (and makes a distinction between the two). (Rg. 8-2-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अगोः) નાસ્તિક જનના (न उक्थम्) ન પ્રાર્થના વચનને (च) અને (न शस्यमानम्) ન સ્તુતિ વચનને (न गीयमानं गायत्रम्) ન ગાવા યોગ્ય ઉપાસનાને (रयिः) ઐશ્વર્યવાન ઇન્દ્ર-પરમાત્મા (आचिकेत) માને છે-સ્વીકાર કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरावर श्रद्धा न ठेवणाऱ्या माणसांचा स्तोत्रपाठ, धनदान, सामगान इत्यादी सर्व निष्फल होतात, कारण तो एखाद्या स्वार्थानेच प्रेरित होऊन ते कार्य करतो, सर्व सत्कर्म ईश्वरार्पण-बुद्धीनेच शोभित होतात. ॥२॥

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