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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1822
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
2
प्र꣡ सो अ꣢꣯ग्ने꣣ त꣢वो꣣ति꣡भिः꣢ सु꣣वी꣡रा꣢भिस्तरति꣣ वा꣡ज꣢कर्मभिः । य꣢स्य꣣ त्व꣢ꣳ स꣣ख्य꣡मावि꣢꣯थ ॥१८२२॥
स्वर सहित पद पाठप्रः꣢ । सः । अ꣣ग्ने । त꣡व꣢꣯ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । सु꣣वी꣡रा꣢भिः । सु꣣ । वी꣡रा꣢꣯भिः । त꣣रति । वा꣡ज꣢꣯कर्मभिः । वा꣡ज꣢꣯ । क꣣र्मभिः । य꣡स्य꣢꣯ । त्वम् । स꣣ख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । आ꣡वि꣢꣯थ ॥१८२२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सो अग्ने तवोतिभिः सुवीराभिस्तरति वाजकर्मभिः । यस्य त्वꣳ सख्यमाविथ ॥१८२२॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रः । सः । अग्ने । तव । ऊतिभिः । सुवीराभिः । सु । वीराभिः । तरति । वाजकर्मभिः । वाज । कर्मभिः । यस्य । त्वम् । सख्यम् । स । ख्यम् । आविथ ॥१८२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1822
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १०८ क्रमाङ्क पर हो चुकी है। परमात्मा की मैत्री का महत्त्व वर्णन करते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (सः) वह मनुष्य (सुवीराभिः) श्रेष्ठ वीरों को प्राप्त करानेवाली, (वाजकर्मभिः) बल एवम् उत्साह उत्पन्न करनेवाली (तव ऊतिभिः) आपकी रक्षाओं से (प्र तिरति) वृद्धि पा लेता है अथवा दुःखों को सर्वथा तर जाता है, (यस्य) जिसकी (त्वम्) महाबली आप (सख्यम्) मित्रता को (आविथ) स्वीकार कर लेते हो ॥१॥
भावार्थ
कौन उसे बाधा पहुँचाने वा दुःख देने में समर्थ हो सकता है, जिसका जगदीश सखा हो ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १०८)
विशेष
ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा को अपने अन्दर भरने धारण करने वाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (अग्रणेता परमात्मा)॥ छन्दः—विषमा ककुप्॥<br>
विषय
संसार सागर से तर जाता है
पदार्थ
हे (अग्ने) = सब प्रकार से अग्रगति के साधक प्रभो ! (यस्य) = जिसके (त्वम्) = आप (सख्यम्) = मैत्रीभाव को (आविथ) = प्राप्त होते हो (सः) वह व्यक्ति (तव) = आपकी (सुवीराभिः) = उत्तम वीर बनानेवाले तथा (वाजकर्मभिः) = शक्तिशाली कर्मोंवाले (ऊतिभिः) = रक्षणों से (प्रतरति) = भवसागर को तैर जाता है ।
जब जीव प्रभु को सदा अपनी आँखों के सामने रखने का प्रयत्न करते हैं तब वे प्रभु की मित्रता को प्राप्त करते हैं। प्रभु की मित्रता को प्राप्त करनेवाले इन व्यक्तियों को कभी कायरता नहीं छूतीप्रभु के रक्षण में कायरता का क्या काम ? पिता की गोद में स्थित बच्चा कभी घबराता नहीं, तो क्या उस अमर प्रभु से सर्वतोवेष्टित यह प्रभुभक्त कभी घबराएगा? इस प्रभुभक्त के कर्म शक्तिसम्पन्न होते हैं। इसने प्रभुस्तवन के द्वारा प्रभु के अधिक और अधिक निकट होते हुए, कण-कण करके बड़े उत्तम प्रकार से [सु] अपने में शक्ति को भरा है [भर], इसी से इसका नाम 'काण्व सोभरि' पड़ गया है। वस्तुत: प्रभु की मित्रता से जीव अपनी शक्ति को उत्तरोत्तर बढ़ाता चलता है। यह शक्ति ही इसे इस जीवन-यात्रा में सफल करती है ।
भावार्थ
मैं प्रभु का मित्र बनकर भवसागर को तैर जाऊँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १०८ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। परमात्मनः सख्यस्य महत्त्वं वर्णयति।
पदार्थः
हे (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (सः) असौ जनः (सुवीराभिः) श्रेष्ठाः वीराः प्राप्यन्ते याभिः ताभिः (वाजकर्मभिः) बलोत्साहकारिणीभिः (तव ऊतिभिः) त्वदीयाभिः रक्षाभिः (प्र तिरति) प्रवर्द्धते, दुःखानि अत्यन्तं तरति वा, यस्य जनस्य (त्वम्) महाबलः (सख्यम्) मैत्रीम् (आविथ) प्राप्नोषि, स्वीकरोषि ॥१॥
भावार्थः
कस्तं बाधितुं दुःखयितुं वा प्रभवेद् यस्य खलु जगदीशः सखा ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O fire, he, whom thou choosest as friend, overcomes all obstacles, aided by thy heroic safeguards, and deeds of power.
Translator Comment
He who makes proper use of electricity in industrial concerns, overcomes all obstacles in the way of worldly progress.
Meaning
Agni, lord of universal love and friendship, he whose love and friendship, devotion and dedication, you accept into your kind care thrives under your protection and promotion and advances in life with noble and heroic progeny, moving from victory to glory. (Rg. 8-19-30)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે અગ્રગતિના સાધક પરમાત્મન્ ! (त्वं यस्य सख्यं आविथ) તું જેની મિત્રતા કરે છે - જે તને મિત્ર બનાવી લે છે , (सः) તે મનુષ્ય (तव) તારી (सुवीराभिः) શોભિત પ્રાણોવાળી (वाजकर्मभिः) સ્વર્ગનું વિશેષ સુખ આપનાર કર્મ જેનાથી થઈ શકે એવા કર્મ કરાવનારી (ऊतिभिः) રક્ષાઓ - અનેકવિધ રક્ષાઓથી (प्रतरति) પ્રવૃદ્ધ બની જાય છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માન્ ! જ્યારે મનુષ્ય ઉપાસના દ્વારા તારી મિત્રતા કરી લે છે , તને મિત્ર બનાવી લે છે , તારો સ્નેહપાત્ર બની જાય છે , ત્યારે તે પ્રાણ પ્રદાન કરનારી અને સ્વર્ગીય વિશેષ સુખદાયક કર્મ કરાવનારી અનેક પ્રકારની રક્ષાઓથી વૃદ્ધિ પામે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याचा जगदीश्वर सखा असतो त्याला बाधा आणणारा किंवा दु:ख देण्यास कोण समर्थ आहे? ॥१॥
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