Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1823
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    2

    त꣡व꣢ द्र꣣प्सो꣡ नील꣢꣯वान्वा꣣श꣢ ऋ꣣त्वि꣢य꣣ इ꣡न्धा꣢नः सिष्ण꣣वा꣡ द꣢दे । त्वं꣢ म꣣ही꣡ना꣢मु꣣ष꣡सा꣢मसि प्रि꣣यः꣢ क्ष꣣पो꣡ वस्तु꣢꣯षु राजसि ॥१८२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣡व꣢꣯ । द्र꣣प्सः꣢ । नी꣡ल꣢꣯वान् । वा꣣शः꣢ । ऋ꣣त्वि꣡यः꣢ । इ꣡न्धा꣢꣯नः । सि꣣ष्णो । आ꣢ । द꣣दे । त्व꣢म् । म꣣ही꣡ना꣢म् । उ꣣ष꣡सा꣢म् । अ꣣सि । प्रियः꣢ । क्ष꣣पः꣢ । व꣡स्तु꣢꣯षु । रा꣣जसि ॥१८२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव द्रप्सो नीलवान्वाश ऋत्विय इन्धानः सिष्णवा ददे । त्वं महीनामुषसामसि प्रियः क्षपो वस्तुषु राजसि ॥१८२३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तव । द्रप्सः । नीलवान् । वाशः । ऋत्वियः । इन्धानः । सिष्णो । आ । ददे । त्वम् । महीनाम् । उषसाम् । असि । प्रियः । क्षपः । वस्तुषु । राजसि ॥१८२३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1823
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा की महिमा के वर्णन-पूर्वक उससे मिलनेवाले आनन्द का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (सिष्णो) प्रेमपाश में बाँधनेवाले जगदीश्वर ! (नीलवान्) आधारभूत, (वाशः) प्रियः, (ऋत्वियः) जिसे प्राप्त करने का समय आ गया है ऐसा, (इन्धानः) तेज प्रदान करनेवाला (तव) आपका (द्रप्सः) आनन्द-रस (आददे) हमसे ग्रहण किया जा रहा है। (त्वम्) आप (महीनाम्) महती (उषसाम्) उषाओं के (प्रियः) प्यारे सखा (असि) हो। आप (क्षपः) रात्रि के (वस्तुषु) आच्छादक अन्धकारों में भी (राजसि) प्रदीप्त होते हो ॥२॥

    भावार्थ

    जो जगदीश्वर रात्रियों में, उषाओं में, सूर्योदयों में, मध्याह्न-कालों में सायंकालीन संध्याओं में सर्वत्र अपनी महिमा से विराजमान है, उसके साथ मैत्री करके उसके पास के अति मधुर आनन्द-रस सबको प्राप्त करना चाहिए ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (सिष्णो) हे सर्वत्र प्राप्त८ अग्रणेता परमात्मन्! (तव द्रप्सः) तेरा अणु—९ अणु परिमाण वाला उपासक आत्मा, तू तो विभु है (नीलवान्=) शरीररूप घर में१० रहने वाला एकदेशी है, (वाशः) तुझे चाहने वाला (ऋत्वियः) पितरों—माता पिता आदि से सम्बन्ध रखने वाला११ (इन्धानः) उपासना द्वारा तुझे अपने अन्दर प्रकाशित करने के हेतु (आददे) ग्रहण करता है—अपनाता है (त्वम्) तू (महीनाम्-उषसां प्रियः-असि) कामना करने वाली१ उपासक प्रजाओं का प्रिय है (क्षपः-वस्तुषु-राजसि) रात्रि में वसने वालों अन्धकार में रहने वालों के ऊपर राजमान है—प्रकाशमान है उन्हें प्रकाश देता है॥३॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मेरे जीवन में प्रभु चमकें

    पदार्थ

    ये प्रभु ‘सिष्णु' हैं— अपनी ज्योति के प्रकाश से हमें बाँधनेवाले हैं। एक विचारक प्रभु की महिमा का अनुभव करता है और उस ओर आकृष्ट होता है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हे (सिष्णो) = अपने में बाँधनेवाले प्रभो ! (तव) = आपका (द्रप्सः) = ज्योतिष्कण [spark] (नीलवान्) = शुभ उद्घोषणावाला है [नील – An auspicious proclaimation] । यदि मैं प्रभु की ज्योति को देखता हूँ तो यह मेरे जीवन के शुभ के लिए सुन्दर घोषणा है । (वाशा:) = यह एक पुकार है, यह ज्योतिष्कण मुझे प्रभु की ओर चलने के लिए पुकार रहा है । (ऋत्वियः) = यह पुकार समय-समय पर होनेवाली है।

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि सोभरि कहता है कि (इन्धानः) = अपने अन्दर ज्ञान को दीप्त करता हुआ मैं (आददे) = इस ज्योतिष्कण को ग्रहण करता हूँ । प्रभु का जो प्रकाश, विद्युत् चमक की भाँति मुझे दिखता है, मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूँ। इसी उद्देश्य से हे प्रभो ! (महीनाम्) = [मह पूजायाम् ] पूजा के लिए उचिततम (उषसाम्) = उष:कालों में तो (त्वम्) = आप (प्रियः असि) = मुझे प्रिय हैं ही, उष:कालों में तो मैं आपका स्मरण करता ही हूँ आप तो (क्षपो वस्तुषु) = रात्रि और दिन के [वस्तु –day] सब कालों में (राजसि) = मेरे जीवन में चमकते हो, अर्थात् मैं सदा आपका ध्यान करने का प्रयत्न करता हूँ ।

    प्रभु की चमक कभी-कभी तो सभी को दिखती ही है, प्रयत्न यह करना चाहिए कि हम उस चमक को पकड़नेवाले बनें – वह चमक हमें विस्मृत न हो जाए । यह प्रकाश तो 'वाश' हैपुकार-पुकार कर हमारे कर्त्तव्य का हमें स्मरण करा रहा है । यह ऋत्वियः = उस उस समय के ठीक अनुकूल होता है। इसका ग्रहण करना ही एक पुजारि का सच्चा कर्त्तव्य है। मैं उष:कालों में क्या दिन-रात प्रभु का स्मरण करूँ और उसके प्रकाश को देखूँ तथा उस उस काल में होनेवाली पुकार को सुनूँ ।

    भावार्थ

    हमारे जीवन में प्रभु की ज्योति चमके, उसके न चमकने पर हमारा जीवन अन्धकारमय हो जाता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनो महिमवर्णनपूर्वकं तदानन्दविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (सिष्णो२) प्रेमपाशबन्धक अग्ने जगदीश ! [षिञ् बन्धने, बाहुलकात् क्स्नुः प्रत्ययः।] (नीलवान्) नीलः नीडः आश्रयः तद्वान्, अस्मदाश्रयभूतः इत्यर्थः, (वाशः) प्रियः। [वश कान्तौ, उश्यते काम्यते इति वाशः।] (ऋत्वियः) ऋतुः आदानकालः प्राप्तोऽस्य तादृशः। [‘छन्दसि घस्’ अ० ५।१।१०६ इति ऋतुशब्दात् तदस्य प्राप्तमित्यर्थे घस् प्रत्ययः।] (इन्धानः) दीप्तिं कुर्वाणः (तव) त्वदीयः (द्रप्सः) आनन्दरसः (आददे) अस्माभिः आदीयते। (त्वम्) जगदीश्वरः (महीनाम्) महतीनाम् (उषसाम्) प्रभातसन्ध्यानाम् (प्रियः) सखा (असि) वर्तसे। त्वम् (क्षपः) क्षपायाः रात्रेः (वस्तुषु) आच्छादकेषु तमस्सु अपि (राजसि) दीप्यसे ॥२॥

    भावार्थः

    यो जगदीश्वरो रात्रिषूषःसु सूर्योदयेषु मध्याह्नेषु सायंसन्ध्यासु सर्वत्र स्वमहिम्ना विराजते तेन सह सख्यं विधाय तत्सकाशान्मधुरमधुर आनन्दरसः सर्वैः प्राप्तव्यः ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, competent to fill the heart with joy, the ever-flowing delight is an afforder of shelter, beautiful, and a dweller in vital breaths; being kindled, it is taken up by the mind. Thou art the dear friend of venerable, bright intellects. Like the night that assuages all sufferings, thou manifestest in all objects the strength that destroys afflictions!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Agni, giver of the showers of joy in life, the world of your creation flows on like drops of soma from the press, colourful, crackling voluble, exciting and fresh through the seasons, bright and beautiful, passionately lovable. You are darling of the glory of dawns and you shine ever in the glimmerings of the dusk and reflect in the ripples of water. (Rg. 8-19-31)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सिष्णो) હે સર્વત્ર પ્રાપ્ત અગ્રણી પરમાત્મન્ ! (तव द्रप्सः) તારો અણુ-અણુ પરિમાણવાળો ઉપાસક આત્મા, તું તો વિભુ છે. (नीलवान) શરીરરૂપ ઘરમાં રહેનાર એક દેશી છે, (वाशः) તને ચાહનાર (ऋत्वियः) પિતરો-માતા પિતા આદિથી સંબંધ રાખનાર (इन्धानः) ઉપાસના દ્વારા તને પોતાની અંદર પ્રકાશિત કરવા માટે (आददे) ગ્રહણ કરે છે-અપનાવે છે. (त्वम्) તું (महीनाम् उषसां प्रियः असि) કામના કરનારી ઉપાસક પ્રજાઓનો પ્રિય છે. (क्षपः वस्तुषु राजसि) રાતમાં વસનાર અંધારામાં રહેનારાની ઉપર રાજમાન છે-પ્રકાશમાન છે. તેને પ્રકાશ આપે છે. (૨)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो जगदीश्वर रात्र, उषा, सूर्योदय, मध्यान्ह काळी, संध्याकाळी सर्वत्र विराजमान आहे, त्याच्याबरोबर मैत्री करून त्याच्यापासून अति मधुर आनंदरस सर्वांनी प्राप्त केला पाहिजे. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top