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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1867
    ऋषिः - शासो भारद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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    वि꣢꣯ रक्षो꣣ वि꣡ मृधो꣢꣯ जहि꣣ वि꣢ वृ꣣त्र꣢स्य꣣ ह꣡नू꣢ रुज । वि꣣ म꣣न्यु꣡मि꣢न्द्र वृत्रहन्न꣣मि꣡त्र꣢स्याभि꣣दा꣡स꣢तः ॥१८६७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि꣢ । र꣡क्षः꣢꣯ । वि । मृ꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि । वि꣢ । वृ꣣त्र꣡स्य꣢ । ह꣢꣯नूइ꣡ति꣢ । रु꣣ज । वि꣢ । म꣣न्यु꣢म् । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अमि꣡त्र꣢स्य । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯स्य । अ꣡भिदा꣡स꣢तः । अ꣣भि । दा꣡स꣢꣯तः ॥१८६७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज । वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥१८६७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि । रक्षः । वि । मृधः । जहि । वि । वृत्रस्य । हनूइति । रुज । वि । मन्युम् । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अमित्रस्य । अ । मित्रस्य । अभिदासतः । अभि । दासतः ॥१८६७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1867
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में जीवात्मा और सेनापति को उद्बोधन देते हैं।

    पदार्थ

    हे (वृत्रहन् इन्द्र) पापहन्ता जीवात्मन् और शत्रुहन्ता सेनापति !तुम (रक्षः) राक्षसी स्वभाव को वा राक्षसी स्वभाववाले दुर्जन को (विजहि) विनष्ट करो, (मृधः) सङ्ग्रामकारी काम-क्रोध आदियों को वा हिंसक मानवी शत्रुओं को (विजहि) विनष्ट करो, (वृत्रस्य) पुण्य पर पर्दा डालनेवाले पाप वा पापी के (हनू) आक्रमण और बचाव के उपायों को वा जबड़ों को (विरुज) चूर-चूर कर दो। (अभिदासतः) दंशन-छेदन-भेदन करनेवाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम्) प्रदीप्त-प्रभाव को वा क्रोध को (वि) विध्वस्त कर दो ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे राष्ट्र में सेनापति संहारकारी शत्रुओं का मर्दन करता है, वैसे ही शरीर में जीवात्मा राक्षसी स्वभाव को, हिंसक काम-क्रोध आदियों को, धर्म पर पर्दा डालनेवाले पाप को और बिच्छू के समान काटनेवाली कुटिलता को विध्वस्त करे ॥१॥

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    पदार्थ

    (वृत्रहन्-इन्द्र) हे पापनाशक परमात्मन्! तू (रक्षः-वि-जहि) जिससे अपनी रक्षा करनी चाहिए उस काम आदि को विशेषरूप से नष्ट कर (मृधः-वि) दूसरे के प्रति होने वाले हमारे अन्दर संग्रामभावों हिंसाभावों को२ नष्ट कर (वृत्रस्य हनू विरुज) पाप३ के हनन साधनों लोभ और मोह को विनष्ट कर (अभिदासतः-अमित्रस्य मन्युं वि) हमें अभिक्षीण करते हुए शत्रुरूप द्वेष को विनष्ट कर॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः शासः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने वाले से सम्बद्ध अध्यात्म शिक्षक)॥<br>देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥

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    विषय

    लोभ, काम व क्रोध का भङ्ग [ crushing ]

    पदार्थ

    संसार में ‘अप्रतिरथ’=अद्वितीय योद्धा [a matchless warrior] तो वही है जो बाह्य शत्रुओं को जीतने की भाँति आन्तर शत्रुओं को कुचलने का ध्यान करता है। कामादि वासनाओं का अनुशासन = नियन्त्रण करने के कारण यह 'शास' कहलाता है, इसी के परिणामरूप अपने जीवन में शक्ति भरनेवाला होने से यह ‘भारद्वाज' है । इसने प्रभु की इस प्रेरणा को सुना है व इस आदेश का पालन किया है |

    १. (रक्षः) = अपने रमण के लिए [र] औरों के क्षय [क्ष] की वृत्ति को, (मृधः) = औरों की हत्या कर देने की भावना को तू (विजहि) = विशेषरूप से नष्ट कर डाल । मनुष्य जिस समय अपने आमोदप्रमोद [enjoyment] को प्रधानता दे देता है तब वह इसके प्रधान साधनभूत धन का दास बन जाता है और सभी टेढ़े-मेढ़े साधनों से धन कमाने लगता है— औरों की हत्या करनी पड़े तो उसमें भी हिचकता नहीं। लोभ उससे क्या पाप नहीं करवा डालता ? इसी से इस लोभ की वृत्ति को यहाँ ‘रक्षः व मृधः' शब्दों से स्मरण किया है ।

    २. हे जीव! तू (वृत्रस्य) = ज्ञान के ऊपर पर्दा [आवरण] डाल देनेवाले इस वृत्र वा काम के (हनू) - जबड़ों को (रुज) = तोड़ डाल । काम की शक्ति को नष्ट कर दे । काम तुझपर प्रबल न हो जाए। ३. (वृत्रहन्) = काम का हनन करनेवाले ! (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! अब तू (अमित्रस्य) = स्नेह के अभावरूप द्वेष के, (अभिदासतः) = जो तुझे सब ओर से अन्दर व बाहर से उपक्षीण [दसु-क्षये destroy] करता है, इस द्वेष से उत्पन्न (मन्युम्) = क्रोध को (विजहि) = पूर्णरूप से नष्ट कर ।

    मनुष्य में संकुचित हृदयता के कारण ईर्ष्या-द्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती है । उत्पन्न होकर यह मनुष्य को नाश की ओर ले जाती है । वह अन्दर - ही - अन्दर जलता रहता है – क्षीणशक्ति हो जाने से या शक्ति के दुरुपयुक्त होने से वह ऐहलौकिक उन्नति भी नहीं कर पाता । एवं, यह ईर्ष्या उसे अन्दर-बाहर दोनों ओर से हानि पहुँचाती है। क्रोध को जन्म देकर यह उसे जलाती चलती है और सदा अशान्त रखती है । यह द्वेष उत्पन्न इसलिए होता है कि हम औरों के प्रति स्नेह की भावना को जागरित नहीं करते । मन्त्र में इसे ' अमित्र' से उत्पन्न कहा है। सच्चा उपासक सभी से प्रेम करता है और ईर्ष्या का शिकार नहीं होता ।

    भावार्थ

    हम प्रभु के सच्चे उपासक बनें। ‘लोभ, काम, क्रोध' से ऊपर उठें।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे इन्द्र ! हे वृत्रहन् ! (रक्षः) राक्षस पुरुष को (वि जहि) विनाश कर। और (मृधः विजहि) हमारे उत्तम द्रव्यों पर लोभ करने हारे पुरुषों को भी विनाश कर। (वृत्रस्य) हमें घेर कर नाश करने हारे विघ्नरूप शत्रु के (हनू) आघातकारी उन दाढ़ों को (विरुज) तोड़ डाल, जिन्हें वे हमारे ऊपर गढ़ाना चाहता है। और (अभिदासतः) हमारे नाश करने हारे और हमें दास की तरह पराधीन करने वाले (अमित्रान्) आभ्यन्तर व्यसनों के समान शत्रुओं के (मन्युं) अभिमान और क्रोध को भी (वि) विनाश कर।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ जीवात्मानं सेनापतिं चोद्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (वृत्रहन् इन्द्र) पापहन्तः जीवात्मन् शत्रुहन्तः सेनापते वा ! त्वम् (रक्षः) राक्षसं स्वभावं दुर्जनं वा (विजहि) विनाशय, (मृधः) संग्रामकारिणः कामक्रोधादीन्, हिंसकान् मानवान् रिपून् वा (विजहि) विनाशय, (वृत्रस्य) पुण्याच्छादकस्य पापस्य पापिनो वा (हनू) आक्रामकनिरोधकोपायौ जम्भौ वा (विरुज) विभङ्ग्धि। अभिदासतः दंशनं छेदनं भेदनं वा कुर्वतः (अमित्रस्य) शत्रोः। [अभिदासतः, दस दंशनदर्शनयोः चुरादिः, णिगर्भः शतृप्रयोगः।] (मन्युम्) दीप्तं प्रभावं क्रोधं वा (वि) विजहि विध्वंसय ॥१॥

    भावार्थः

    यथा राष्ट्रे सेनापतिः संहारकारिणः शत्रून् मृद्नाति तथैव देहे जीवात्मा राक्षसं स्वभावं, हिंसकान् कामक्रोधादीन्, धर्माच्छादकं पापं, वृश्चिकवद् दंशकं कौटिल्यं च विहन्यात् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Drive the violent and the greedy away, break thou the jaws of the Oppressor who impedes our progress. O foe-slaying King, quell the foeman’s wrath who wants to enslave us!

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    Meaning

    Destroyer of the demon and the destroyer, break the jaws of evil. O Indra, destroyer of evil and darkness, shatter the mind and morale of the enemy who tries to suppress, subdue and enslave us. (Rg. 10-152-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृत्रहन् इन्द्र) હે પાપનાશક પરમાત્મન્ ! તું (रक्षः वि जहि) જેનાથી અમારી રક્ષા કરવી જોઈએ તે કામ આદિને વિશેષરૂપથી નષ્ટ કર. (मृधः वि) બીજાઓનાં પ્રત્યે અમારી અંદર થનારા સંગ્રામ ભાવો હિંસક ભાવોને નષ્ટ કર. (वृत्रस्य हनू विरुज) પાપના કરાવનારા સાધનો-લોભ અને મોહને વિનષ્ટ કર. (अभिदासतः अमित्रस्य मन्युं वि) અમને અભિક્ષીણ કરતાં શત્રુરૂપ દ્વેષને વિનષ્ટ કર. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे राष्ट्रात सेनापती संहार करणाऱ्या शत्रूंचे मर्दन करतो, तसेच शरीरात जीवात्म्याने राक्षसी स्वभावाला, हिंसक काम-क्रोध इत्यादींना धर्मावर पडदा पाडणाऱ्या पापाला व विंचवाप्रमाणे चावणाऱ्या कुटिलतेचा विध्वंस करावा. ॥१॥

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