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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1868
ऋषिः - शासो भारद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
वि꣡ न꣢ इन्द्र꣣ मृ꣡धो꣢ जहि नी꣣चा꣡ य꣢च्छ पृतन्य꣣तः꣢ । यो꣢ अ꣣स्मा꣡ꣳ अ꣢भि꣣दा꣢स꣣त्य꣡ध꣢रं गमया꣣ त꣡मः꣢ ॥१८६८॥
स्वर सहित पद पाठवि । नः꣣ । इन्द्र । मृ꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि । नीचा꣢ । य꣣च्छ । पृतन्यतः꣢ । यः । अ꣣स्मा꣢न् । अ꣣भिदा꣡स꣢ति । अ꣣भि । दा꣡स꣢꣯ति । अ꣡ध꣢꣯रम् । ग꣣मय । त꣡मः꣢꣯ ॥१८६८॥
स्वर रहित मन्त्र
वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । यो अस्माꣳ अभिदासत्यधरं गमया तमः ॥१८६८॥
स्वर रहित पद पाठ
वि । नः । इन्द्र । मृधः । जहि । नीचा । यच्छ । पृतन्यतः । यः । अस्मान् । अभिदासति । अभि । दासति । अधरम् । गमय । तमः ॥१८६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1868
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे पुनः वही विषय कहा गया है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) जीवात्मन् वा सेनापति ! तुम (नः) हमारे (मृधः) हिंसकों को (विजहि) विनष्ट करो, (पृतन्यतः) सेना से आक्रमण करनेवाले काम-क्रोध आदि को वा बाहरी शत्रुओं को (नीचा यच्छ) नीचा दिखाओ। (यः) जो आन्तरिक वा बाहरी शत्रु (अस्मान्) हम धार्मिकों को (अभिदासति) सर्वथा क्षीण करना चाहता है, उसे (अधरं तमः गमय) घोर दुर्गति प्राप्त कराओ वा निचले कारागार में डाल दो ॥२॥
भावार्थ
जैसे सेनापति दुष्ट शत्रुओं का वध कर देता है अथवा उन्हें कारागार में डाल देता है, वैसे ही शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा सब आन्तरिक शत्रुओं की घोर दुर्गति करके वा उन्हें विनष्ट करके अपने निष्कण्टक साम्राज्य को स्थापित करे ॥२॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (नः) हमारे प्रति (किम्) कैसे भी (मृधः-वि जहि) हिंसक दुर्भावनाओं को विनष्ट कर (पृतन्यतः-नीचा यच्छ) हमारे प्रति संघर्ष करने वाले विचारों को नीचे पहुँचा दे (यः-अस्मान्-अभिदासति) जो दोष हमें अभिक्षीण करता है, उसे (अधरं तमः-गमय) नीचे गहरे अन्धकार में पहुँचा दे॥२॥
विशेष
<br>
विषय
तमोगुण का अधरीकरण
पदार्थ
प्रभु ने जीव को आदेश दिया था कि 'लोभ, काम, क्रोध' को दूर भगा दे। प्रभु का उपासक इस आदेश को सुनता है और प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (नः) = हमारी (मृधः) = हत्या करनेवाले इन लोभ, काम, क्रोधादि भावों को (विजहि) = आप पूर्णरूप से नष्ट कर दें । (पृतन्यतः) = सेना के रूप में हमपर आक्रमण करनेवाले इन आसुर भावों को (नीचा यच्छ) = नीचा दिखाओ, अर्थात् युद्ध में हम इनसे हार न जाएँ — हम सदा इनके पराजित करनेवाले बनें । हे प्रभो ! (यः) = जो (तमः) = तमोगुण अथवा अज्ञान (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) = सब प्रकार से अपना दास बना लेता है और इस प्रकार हमारे दोनों लोकों का क्षय करनेवाला होता है, उस तम को (अधरं गमय) = आप इस अध्यात्म-संग्राम में नीचा दिखाइए - पराजित करा दीजिए। आपकी कृपा से मैं इनसे पराजित न होऊँ और आपकी शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर इन्हें पराजित करनेवाला बनूँ('त्वा युजा वनेम तत्')=आप मित्र के साथ मैं इन्हें जीत लूँ ।
वासनाओं का जीतना आवश्यक है नहीं तो ये हमारा नाश कर देंगी, इनकी विजय प्रभु की सहायता के बिना सम्भव नहीं ।
भावार्थ
प्रभु का सच्चा भक्त इसी रूप में प्रार्थना करता है कि आप कामादि को नष्ट कीजिए । इनके नाश के लिए मेरे तम को दूर कीजिए, अज्ञान के नाश से ही इनका नाश होगा ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (नः) हमारे (मृधः) शत्रुओं को (वि जहि) नाशकर और (पृतन्यतः) अपनी सेनाएं बढ़ाना चाहने वाले लोगों को भी (नीचा यच्छ) नीचे डाल दे। (यः) और जो (अस्मान्) हमें (अभिदासति) सब प्रकार से विनाश करता या दास के समान पराधीन करता है उसको (तमः) तृष्णा में या अन्धकार में (गमय) डाल। अध्यात्म पक्ष में—आभ्यन्तर शत्रुओं को इन्द्र आत्मा नाश करे। हृदय का स्पर्श करने वाले दुर्भावों का नियमन करे और विनाशक मोहादि भावों को दूर करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे (इन्द्र) जीवात्मन् सेनापते वा ! त्वम् (नः) अस्माकम् (मृधः) हिंसकान् (विजहि) विनाशय, (पृतन्यतः) सेनया अभिगच्छतः कामक्रोधादीन् बाह्यांश्च शत्रून् (नीचा यच्छ) नीचीनं गमय। (यः) आन्तरो बाह्यो वा शत्रुः (अस्मान्) धार्मिकान् (अभिदासति) सर्वतः उपक्षयति [दसु उपक्षये, लेटि वर्णव्यत्ययेनाऽकारस्य स्थाने आकारः] तम् (अधरं तमः गमय) घोरां दुर्गतिम् अधरं कारागारं वा प्रापय ॥२॥२
भावार्थः
यथा सेनापतिर्दुष्टान् शत्रून् हन्ति कारागारे वा प्रक्षिपति तथैव देहाधिष्ठाता जीवात्मा सर्वानान्तरान् सपत्नान् घोरां दुर्गतिं नीत्वा विनाश्य वा निष्कण्टकं स्वसाम्राज्यं स्थापयेत् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Commander of the army, win battles, humble the men who challenge us, send down to neither darkness, him, who seeks to enslave us!
Translator Comment
See Yajur 8-44, 18-70.
Meaning
Indra, throw off those powers and tendencies which seek to destroy us. Subdue those who seek to fight and subdue us. Take those down to deep darkness who seek to subdue and enslave us. (Rg. 10-152-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમારી સામેની (किम्) કોઈ પણ (मृधः वि जहि) હિંસક ભાવનાઓનો નાશ કર. (पृतन्यतः नीचा यच्छ) અમારી સામે સંઘર્ષ કરનારા વિચારોને નીચે પહોંચાડી દે. (यः अस्मान् अभिदासति) જે દોષ અમને વારંવાર કરે છે, તેને (अधरं तमः गमय) નીચે ગાઢ અંધકારમાં પહોંચાડી દે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सेनापती दुष्ट शत्रूंचा वध करतो किंवा त्यांना कारागृहात घालतो, तसेच शरीराचा अधिष्ठाता असलेल्या जीवात्म्याने सर्व आंतरिक शत्रूंची भयंकर दुर्गती करून किंवा त्यांना नष्ट करून आपले निष्कंटक साम्राज्य स्थापित करावे. ॥२॥
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