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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 189
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    पा꣣वका꣢ नः꣣ स꣡र꣢स्वती꣣ वा꣡जे꣢भिर्वा꣣जि꣡नी꣢वती । य꣣ज्ञं꣡ व꣢ष्टु धि꣣या꣡व꣢सुः ॥१८९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा꣣वका꣢ । नः꣣ । स꣡र꣢꣯स्वती । वा꣡जे꣢꣯भिः । वा꣣जि꣡नी꣢वती । य꣣ज्ञ꣢म् । व꣣ष्टु । धिया꣡व꣢सुः । धि꣣या꣢ । व꣣सुः ॥१८९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥१८९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पावका । नः । सरस्वती । वाजेभिः । वाजिनीवती । यज्ञम् । वष्टु । धियावसुः । धिया । वसुः ॥१८९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 189
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में वाणी और विदुषी का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    प्रथम—वेदवाणी के पक्ष में। ऋचा का देवता इन्द्र होने से इन्द्र को सम्बोधन किया जाना चाहिए। हे इन्द्र परमेश्वर ! आपकी (वाजिनीवती) क्रियामयी अथवा कर्म का उपदेश देनेवाली (सरस्वती) ज्ञानमयी वेदवाणी (वाजेभिः) विज्ञान-रूप बलों से (नः) हमें (पावका) पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) ज्ञान और कर्म के उपदेश से बसानेवाली वह (यज्ञम्) हमारे जीवन-यज्ञ को (वष्टु) भली-भाँति चलाये, संस्कृत करे ॥ द्वितीय—गुरुओं की वाणी के पक्ष में। गुरुजन कामना कर रहे हैं। हे इन्द्र परमात्मन् ! आपकी कृपा से (नः) हमारी (वाजिनीवती) विद्या से पूर्ण (सरस्वती) वाणी (वाजेभिः) सदाचार-रूप धनों से (पावका) शिष्यों को पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) बुद्धिपूर्वक शिष्यों में ज्ञान को बसानेवाली वह (यज्ञम्) शिक्षा-रूप यज्ञ का (वष्टु) भलीभाँति वहन करे ॥ तृतीय—विदुषी के पक्ष में। हे (इन्द्र) ! हे विद्वान् गृहपति ! (वाजिनीवती) क्रियाशील (सरस्वती) विदुषी माता (वाजेभिः) सात्त्विक, स्वास्थ्यकर अन्न आदि भोज्य पदार्थों, बल-प्रदानों और सदाचार की शिक्षाओं से (नः) हम सन्तानों के (पावका) शरीर और मन को पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) बोध-प्रदान के द्वारा बसानेवाली वह (यज्ञम्) गृहस्थ-यज्ञ को (वष्टु) वहन करने की कामना रखे ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर की वेदवाणी श्रोताओं का हित-साधन करती है, और जैसे गुरुओं की वाणी शिष्यों का हित-साधन करती है, वैसे ही विदुषी माताएँ सन्तानों का हित सिद्ध करें ॥५॥

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    पदार्थ

    (सरस्वती) वाक्-स्तुति वाणी (वाजेभिः) विविध बलों से—शरीर मन आत्मबलों से “वाजः-बलम्” [निघं॰ २.९] (वाजिनीवती) बलवती प्रवृत्ति वाली होती हुई (नः पावकाः) हमें पवित्र करने वाली (धियावसुः-यज्ञं वष्टु) कर्म से वसी हुई कर्मपरायण क्रियाशील—प्रगति वाली होती हुई “धियावसुः कर्मवसुः” [निरु॰ ११.२६] “तृतीयायाः अलुक्” अध्यात्म यज्ञ को चाहे—सम्पन्न करे—बढ़ावे—चमकावें।

    भावार्थ

    शरीर मन आत्मा के बलों की अपेक्षा स्तुति में होती है “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः” [मुण्ड॰ ३.२.४] इन तीनों बलों से स्तुति वाक् बलवती होकर हमें पवित्रकारिणी होती है वह ऐसी स्तुति वाणी प्रगतिशील कर्म प्रगति में बसी हुई अध्यात्म यज्ञ को चाहा या चमकाया करती है॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छा वाला मधु अध्यात्म परायण जन)॥<br>

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    विषय

    तीन मधुर अभिलाषाएँ

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘मधुच्छन्दा'=मधुर इच्छाओंवाला प्रार्थना करता है कि (नः) = हमारे लिए (सरस्वती)=प्रवाह से चलनेवाला ज्ञान (पावका)=पवित्र करनेवाला हो। यह ज्ञान की देवी हमारे लिए (वाजेभिः)=मनोमय, प्राणमय व अन्नमयकोशों के बलों से (वाजिनीवती) = बलों को देनेवाली, शक्तिशाली बनानेवाली हो तथा (धियावसुः) = ज्ञानरूप धन का धनी यह व्यक्ति (यज्ञं वष्टु) = यज्ञमय कर्म की कामना करे।

    मधुच्छन्दा की तीन मधुर अभिलाषाएँ इस प्रकार हैं -

    १. (ज्ञान मेरे जीवन को निर्मल बनाए) - वस्तुतः ज्ञान ही हमारे जीवन को पवित्र करता है। जिस प्रकार अग्नि में पड़कर सोना निखर जाता है, इसी प्रकार ज्ञानाग्नि में तपकर मानव निखरकर निर्मल हो जाता है।

    २. (यह ज्ञान मुझे शक्तिशाली बनाए)- विज्ञानमयकोश का बल हमारे निचले सभी कोशों को बलयुक्त करेगा, क्योंकि सभी कोशों में चल रही क्रियाओं को उसे ही पवित्र करना है।

    ३. पवित्र और शक्तिशाली बनकर (मैं सदा यज्ञिय जीवनवाला बनूँ)। मेरे जीवन से कुछ-न-कुछ लोकहित का कार्य सदा चलता रहे। मैं अपने में ही रमा न रह जाऊँ, दूसरों के दुःखों में भी प्रवेश कर सकूँ । 
     

    भावार्थ

    मुझे पवित्रता, शक्ति तथा यज्ञमय जीवन प्राप्त हो ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( सरस्वती ) = वेदवाणी ( पावका ) = हृदय को पवित्र करने वाली ( वाजेभि: ) = ज्ञान और कर्मों द्वारा ( वाजिनीवती ) = शक्तिसम्पन्न होकर ( धियावसुः ) = ध्यान, धारणा और ज्ञानाभ्यास द्वारा अन्तःकरण में वास करने हारी ( यज्ञं वष्टु ) = हमारे जीवन-यज्ञ को धारण करे। ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग द्वारा ही वेद के मन्त्र हृदय को पवित्र करते और जीवन को चिरायु और सफल करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - मधुच्छन्दा :।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वाग्विषयं विदुषीविषयं चाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—वेदवाक्पक्षे। ऋचः इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोध्यः। हे इन्द्र परमेश्वर ! त्वदीया (वाजिनीवती२) क्रियामयी कर्मोपदेशिका वा। वाजोबलं यास्वस्ति ताः वाजिन्यः क्रियाः, तद्वती। (सरस्वती) ज्ञानमयी वेदवाणी। सरस्वती इति वाङ्नामसु पठितम्। (वाजेभिः) वाजैः विज्ञानबलैः (नः) अस्माकम् (पावका३) पाविका पावयित्री, भवतु इति शेषः। पावकादीनां छन्दस्युपसंख्यानम्। अ० ७।३।४५ वा० इत्यनेन प्रत्ययस्थात् कात्० अ० ७।३।४४ इति प्राप्तस्य इकारस्य निषेधः। (धियावसुः४) धिया ज्ञानक्रमोपदेशेन वासयित्री सा। धीः इति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं० २।१, ३।९। वाग् वै धियावसुः। ऐ० आ० १।११४। धिया इत्यत्र सावेकाचः अ० ६।१।१६८ इति विभक्तिरुदात्ता। तृतीयातत्पुरुषत्वात् तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीया अ० ६।२।२ इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (यज्ञम्) अस्माकं जीवनयज्ञम् (वष्टु) निर्वहतु, संस्करोतु। वश कान्तौ। यज्ञं वष्टु इति यदाह यज्ञं वहतु इत्येव तदाह। ऐ० आ० १।१।४ ॥ अथ द्वितीयः—गुरुवाक्पक्षे। गुरवः कामयन्ते। हे इन्द्र परमात्मन् ! त्वत्कृपया (नः) अस्माकम् (वाजिनीवती) विद्यावती५ (सरस्वती६) वाणी (वाजेभिः) सदाचारधनैः (पावका) शिष्याणां पावयित्री, भवत्विति शेषः। (धियावसुः) धिया बुद्धिपूर्वकं शिष्येषु ज्ञानस्य वासयित्री सा (यज्ञम्) शिक्षायज्ञम् (वष्टु) सम्यग् निर्वहतु ॥ अथ तृतीयः—विदुषीपक्षे। हे इन्द्र विद्वन् गृहपते ! (वाजिनीवती) क्रियाशीला (सरस्वती७) विदुषी माता। सरः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्याः सा सरस्वती। (वाजेभिः) सात्त्विकैः स्वास्थ्यकरैः अन्नादिभिः भोज्यपदार्थैः, बलप्रदानैः, सदाचारशिक्षणैश्च (नः) सन्तानानामस्माकम् (पावका) देहस्य मनसश्च पावयित्री, भवतु। (धियावसुः) बोधप्रदानेन वासयित्री सा (यज्ञम्) गृहस्थयज्ञम् (वष्टु) निर्वोढुं कामयताम् ॥५॥८ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याचष्टे—पावका नः सरस्वती अन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः। निरु० ११।२६ इति ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरस्य वेदवाणी श्रोतॄणां हितं साध्नोति, यथा वा गुरूणां वाणी शिष्याणां हितं साध्नोति, तथैव विदुष्यो मातरः सन्तानानां हितं साध्नुयुः ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३।१०, य० २०।८४, उभयत्र देवता सरस्वती। २. वाजेभिः मदीयैः रत्नैः हविर्लक्षणैर्वा अन्नैः वाजिनीवती अन्नवती इत्यर्थः। अथवा—वाजः बलं वेगो वा, तद् यस्यां विद्यते सा वाजिनी सेना तद्वती—इति वि०। वाजसमूहः वाजिनी तद्वती—इति भ०। वाजोऽन्नमास्विति वाजिन्यः क्रियाः। अत इनिठनौ। अ० ५।२।११५ इति इनिप्रत्ययः. ताः क्रिया यस्याः सन्ति सा सरस्वती वाजिनीवती—इति ऋ० १।३।१० भाष्ये सा०। वाजिनीवती सर्वविद्यासिद्धक्रियायुक्ता। वाजिनः क्रियाप्राप्तिहेतवो व्यवहारास्तद्वती। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।६। अनेन वाजिनीति गमनार्था प्राप्त्यर्था च क्रिया गृह्यते कृति तत्रैव ऋग्भाष्ये द०। ३. तुलनीयम्—स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। अथ० १९।७१।१ इति। ४. धीः वसुभूता यस्यां सा धियावसुः कर्मधना प्रज्ञाधना वा। अथवा वसुरित्येतद् वस आच्छादने इत्येतस्येदं रूपम्। प्रज्ञया आच्छादयित्री सर्वस्य जगतः—इति वि०। (धियावसुः) शुद्धकर्मणा सह वासप्रापिका। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। अ० ६।३।१४ अनेन तृतीयातत्पुरुषे विभक्त्यलुक्—इति ऋ० १।३।१० भाष्ये द०। ५. (वाजिनीवती) प्रशस्तविद्यायुक्ता इति य० २०।८४ भाष्ये द०। ६. (सरस्वती) सरसः प्रशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक्। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९ अनेन गत्यर्थात् सृ धातोरसुन् प्रत्ययः। सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत् सरः। अस्मात् प्रशंसायां मतुप् इति ऋ० १।३।१० भाष्ये द०। ७. (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता (विदुषी स्त्री)—इति य० २०।८५ भाष्ये द०। ८. दयानन्दर्षिर्ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च मन्त्रमिमं वाक्पक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vedic speech, our purifier, powerful through knowledge and action, residing in our mind through contemplation and light of knowledge, beautify the Yajna of our life.

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    Meaning

    May Sarasvati, goddess of divine speech, mother knowledge of arts, science and divinity, come with gifts of food for the mind and intellect and purify us with the light of knowledge. May the mother grace our yajna of arts and sciences and bless us with the light divine. (Rg. 1-3-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सरस्वती) વાક્ = સ્તુતિવાણી (वाजेभिः) વિવિધ બળોથી-શરીર, મન, આત્મબળોથી (वाजिनीवती) બળવાન પ્રવૃત્તિવાળી બનીને (नः पावकाः) અમને પવિત્ર કરનારી (धियावसुः यज्ञं वष्टु) કર્મથી વસેલી કર્મપરાયણ ક્રિયાશીલ-પ્રગતિવાળી થતી અધ્યાત્મયજ્ઞને ચાહે-સંપન્ન કરે-વધારે-ચમકાવે. (૫)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : શરીર, મન, આત્માના બળોની અપેક્ષા સ્તુતિ રહેલી છે, એ ત્રણેય બળોથી સ્તુતિ વાક્ બળવાન બનીને અમને પવિત્ર કરનારી બને છે, તે સ્તુતિ વાણી પ્રગતિશીલ કર્મ પ્રગતિમાં વસેલી હોવાથી અધ્યાત્મયજ્ઞને ચાહે છે અથવા ચમકાવ્યા કરે છે. (૫)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ویدبانی کے گیان سے کرم یوگ میں لگے رہیں!

    Lafzi Maana

    (سرسوتی) گیان و گیان کی سرچشمہ وید بانی (نہ پاوکا) ہمیں پوتّر کرنے والی ہے (واجے بھی واجئی وتی) یہ وید بانی گیان بل اور اَنّ وغیرہ کا اُپدیش دینے والی ہے، وہ (دھیا وسُو) گیان کے ساتھ کرم کا راستہ بتلاتی ہے (یگیم) وشٹُو) لہٰذا اس وید بانی سرسوتی کے ذریعے ہم سدا یگیہ کرموں میں لگے رہیں۔

    Tashree

    وید بانی مال و زر بل گیان وِدّیا دے سدا، جس سے پاکیزہ عمل ہوں یگیہ کرموں میں سا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जशी परमेश्वराची वेदवाणी श्रोत्यांचे हित साधत असते व जशी गुरुची वाणी शिष्यांचे हित साधणारी असते, तसेच विदुषी मातांनी संतानांचे हित सिद्ध करावे ॥५॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात वाणी व विदुषी हे विषय वर्णिले आहेत -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (वेदवाणीपर) - या ऋचेची देवता इन्द्र असल्यामुळे इन्द्राला उद्देशून म्हटले आहे - हे इन्द्र परमेश्वर, तुमची (वाजिनीवती) क्रिायमयी अथवा कर्म करण्यासाठी प्रेरणा देणारी (सरस्वती( ज्ञानमयी वेदवाणी (वाजेभिः) आपल्या विशेष ज्ञानरूप शक्तीद्वारे (नः) आम्हाला (पावका) पवित्र करणारी व्हावी. (घियावसुः) ज्ञान आणि कर्म यांच्या उपदेश देत आम्हा उपासकांना स्थिर वा दृढ श्रद्ध करणारी ती वेदवाणी (यज्ञम्) आमच्या जीवनरूप यज्ञाला (वष्टु) चांगल्या प्रकारे संचालित करो, सुसंस्कृत करो।। (द्वितीय अर्थ) (गुरुवाणीपर) - गुरुजन कामना करीत आहेत - हे इन्द्र परमात्मा, तुमच्या कृपेने आमची (वाजिनीवती) विद्यामयी (सरस्वती) वाणी (वाजेभिः) सदाचाररूप धनाने (पावका) शिष्यांना पवित्र करणारी व्हावी. तसेच आमची वाणी (घियावसुः) शिष्यांच्या बुद्धीला मननशक्ती, त्यांना निश्चयात्मक करणारी होऊन (यज्ञम्) या आमच्या शिक्षणरूप यज्ञाचे (वष्टु) उत्तम प्रकारे वहन करणारी व्हावी (अशी आम्ही कामना करतो)।। तृतीय अर्थ - (विदुषीपर) - हे इन्द्र, हे विद्वान गृहपती (संताने म्हणत आहेत) (वाजिनीवती) क्रियाशील (सरस्वती) आणि विदुषी अशी आमची माता (वाजेभिः) सात्त्विक, स्वास्थप्रद अन्न आदी पदार्थाद्वारे, शारीरिक शक्ती आणि उपदेशाद्वारे सदाचाराचे शिक्षण देत आम्हा मुलामुलींचे (पावका) तन व मन पवित्र करणारी असो. तसेच (धियावसुः) आम्हास बोध व उपदेश द्वेत स्थिर व दृढ निश्चयी करणारी असून (यज्ञम्) या गृहाश्रमरूप यज्ञाला (वष्टु) वहन करण्याचे सामर्थ्य धारण करो. ।। ५।।

    भावार्थ

    परमेश्वराची वेदवाणी ज्याप्रमाणे श्रोत्यांचे हित करते आणि जसे गुरूंची वाणी शिष्यांचे कल्याण कते, तद्वत घरातील विदुषी मातांनी आपापल्या संतानांचे भले करावे. ।। ५।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे।। ५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஐசுவரியத்தில் வசிக்கும் (சரஸ்வதி) (அறிவு)புனிதஞ் செய்யும் வெகு பலமுள்ளவளாய்
    ஐசுவரிய நிமித்தங்களால் எங்களின் (யக்ஞத்தை) விரும்பட்டும்.

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