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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 194
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    उ꣡त्त्वा꣢ मन्दन्तु꣣ सो꣡माः꣢ कृणु꣣ष्व꣡ राधो꣢꣯ अद्रिवः । अ꣡व꣢ ब्रह्म꣣द्वि꣡षो꣢ जहि ॥१९४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । त्वा꣣ । मन्दन्तु । सो꣡माः꣢꣯ । कृ꣣णुष्व꣢ । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । अ꣡व꣢꣯ । ब्र꣣ह्मद्वि꣡षः꣢ । ब्र꣣ह्म । द्वि꣡षः꣢꣯ । ज꣣हिः ॥१९४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्त्वा मन्दन्तु सोमाः कृणुष्व राधो अद्रिवः । अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥१९४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । त्वा । मन्दन्तु । सोमाः । कृणुष्व । राधः । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अव । ब्रह्मद्विषः । ब्रह्म । द्विषः । जहिः ॥१९४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 194
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र सोमरस से प्रसन्न होकर क्या करे।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सोमाः) हमारे द्वारा अभिषुत श्रद्धारस, ज्ञानरस और कर्मरस (त्वा) तुझे (उत् मन्दन्तु) अत्यधिक आनन्दित करें। हे (अद्रिवः) मेघों के स्वामिन् ! वर्षा करनेवाले ! तू हमारे लिए (राधः) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धारणा, ध्यान, समाधि, योगसिद्धि आदि आध्यात्मिक ऐश्वर्य (कृणुष्व) प्रदान कर। (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मविरोधी काम, क्रोध, नास्तिकता आदि मानसिक शत्रुओं को (अवजहि) मार गिरा ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (सोमाः) वीर-रस (त्वा) तुझे (उत् मन्दन्तु) उत्साहित करें। हे (अद्रिवः) वज्रधारी, विविध शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित, धनुर्वेद में पारङ्गत राजन् ! तू प्रजाओं के लिए (राधः) सब प्रकार के धनधान्यादि (कृणुष्व) उत्पन्न कर, प्रदान कर। (ब्रह्मद्विषः) ईश्वरविरोधी, विद्या-विरोधी, सत्यविरोधी, धर्मविरोधी, न्यायविरोधी एवं प्रजाविरोधी डाकू, चोर आदियों को (अवजहि) विनष्ट कर ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    उपासना किया हुआ परमेश्वर और वीर-रसों से उत्साहित राजा प्रजाओं के ऊपर भौतिक व आध्यात्मिक सम्पत्तियों की वर्षा करते हैं और ब्रह्मद्वेषी शत्रुओं को विनष्ट करते हैं। इसलिए सबको परमेश्वर की उपासना करना और राजा का सत्कार करना तथा उसे प्रोत्साहित करना उचित है ॥१॥

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    पदार्थ

    (अद्रिवः) हे अद्रिवन्-आनन्दघनवन्—आनन्द बरसाने वाले परमात्मन्! (त्वा) तुझे (सोमाः) हमारे द्वारा निष्पादित—विविध उपासनारस (उत्-मदन्तु) हमारी ओर उद्धर्षित करें—उल्लसित करें, इस प्रकार कि तू (राधः कृणुष्व) समृद्ध करने वाले धन को प्रदान कर (ब्रह्मद्विषः-अवजहि) तुझ ब्रह्म से द्वेष करने वाले तुझसे विमुख करने वाले नास्तिक विचार या मुझे ब्रह्म—ब्राह्मणत्व पद पाने के विरोधी नास्तिकपने को दबा दें।

    भावार्थ

    हे आनन्द घन वाले परमात्मन्! मेरे विविध उपासनारस तुझे मेरी ओर उल्लसित करें उल्लास पूर्ण करें, जिससे तू समृद्ध करने वाले ऐश्वर्य मोक्षैश्वर्य को प्रदान करे तथा तेरी ओर आने में बाधक को मुझे ब्राह्मण बनने में विरोधी नास्तिक विचार को हटा दें॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रगाथः (प्रकृष्ट गाथा—वाणी—स्तुति जिसकी है ऐसा उपासक)॥<br>

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    विषय

    प्रभु के तीन उपदेश

    पदार्थ

    प्रभु 'प्रगाथ काण्व' से कहते हैं कि यदि तुझे सचमुच प्रकृष्ट गायन करनेवाला बनना है, यदि तुझे सचमुच काण्व मेधावी बनना है तो तू निम्न तीन बातों का ध्यान कर। मेरा सच्चा गायन व कीर्तन यही होगा कि तू मेरे इन आदेशों को अपने जीवन का अङ्ग बनाए- इसी में बुद्धिमत्ता है, यही तेरी क्रियात्मक भक्ति होगी।

    पहली बात यह कि (त्वा) = तुझे (सोमः) = सोम के कण-शक्ति के बिन्दु (उत् मन्दन्तु) = उत्कृष्ट हर्ष प्राप्त करानेवाले हों। शक्ति के अभाव में मनुष्य का जीवन बड़ा हीन [ depresed ] - सा बना रहता है। शक्ति के ये कण सुरक्षित होकर जीवन में एक अद्भुत मस्ती देनेवाले होते हैं। नि:शक्त का जीवन निरानन्द व चिड़चिड़ा होता है।

    प्रभु का दूसरा उपदेश यह है कि हे (अद्रिवः)=[अ+दृ-not to be torn away] चट्टान के समान दृढ़ जीव [as firm as rock]! तू (राधः कृणुष्व) = सिद्धि का सम्पादन कर। समय-समय पर होनेवाली असफलताएँ तुझे व्याकुल न कर दें, तेरा धैर्य स्थिर रहे और तू अध्यवसाय के द्वारा सफलता को प्राप्त करनेवाला बन ।

    प्रभु का तीसरा कथन यह है कि (ब्रह्मद्विष:)- ज्ञान के साथ अप्रीति की भावनाओं को तू (अवजहि)=अपने से दूर करके नष्ट कर दे। ज्ञान तेरे लिए सदा रुचिकर हो, ज्ञान का तुझे व्यसन ही लग जाए। यह व्यसन तुझे संसार में अन्य व्यसनों से बचानेवाला सिद्ध होगा। 

    भावार्थ

    मनुष्य का जीवन सोमपान के द्वारा उत्कृष्ट मदवाला हो । वह सदा दृढ़तापूर्वक सफलता की ओर बढ़े तथा ज्ञान की रुचिवाला बने ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे (अद्रिवः१  ) = संहारकारी अभेद्यशक्ति से युक्त  ! हे आत्मन्, जीव ! ( त्वा ) = तुझको ( सोमाः ) = सोम ज्ञान और ऐश्वर्य ( मदन्तु ) = हर्ष दें । तू ( राध:२ ) = ज्ञान, धन कृणुष्व सम्पादन कर ( ब्रह्मद्विषः ) = वेद ज्ञान से द्वेष करने हारे पुरुषों और द्वेषयुक्त  भावों को ( अव जहि ) = नाश कर । 

    टिप्पणी

    १९४ -'स्तोमा' इति । ऋ० ।
    १. अत्तेरद्रिः ।
    २. राधसाध संसिद्धौ, स्वादिः ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - प्रगाथः। 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रः सोमरसैः प्रहृष्टः सन् किं कुर्यादित्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सोमाः) अस्माभिरभिषुताः श्रद्धारसा ज्ञानरसाः कर्मरसाश्च (त्वा) त्वाम् (उत् मन्दन्तु२) उत्कृष्टतया आनन्दयन्तु। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, अन्तर्णीतण्यर्थः। परस्मैपदं छान्दसम्। हे (अद्रिवः) मेघानां स्वामिन् वृष्टिकर्तः। अद्रिः इति मेघनाम। निघं० १।१०। ततो मतुप्। अद्रयो मेघा अस्य सन्तीति अद्रिवान्। छन्दसीरः। अ० ८।२।१५ इति मतुपो मकारस्य वत्वम्। सम्बुद्धौ मतुवसो रु सम्बद्धौ छन्दसि। अ० ८।३।१ इति नकारस्य रुः आदेशः। त्वमस्मभ्यम् (राधः) अहिंसासत्यास्तेयधारणाध्यानसमाधियोगसिद्ध्यादिकम् आध्यात्मिकम् ऐश्वर्यम्। राधस् इति धननाम। निघं० २।१०। (कृणुष्व) प्रदेहि, (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मविरोधिनः कामक्रोधनास्तिकत्वादीन् मानसान् रिपून् (अवजहि) अवपातय ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे इन्द्र राजन् ! (सोमाः) वीररसाः३ (त्वा) त्वाम् (उत् मन्दन्तु) उद्धर्षयन्तु उत्साहयन्तु। हे (अद्रिवः) वज्रवन्, विविधशस्त्रास्त्रसज्जित, धनुर्वेदपारंगत राजन् ! त्वं प्रजाभ्यः (राधः) सर्वविधं धनधान्यादिकम् (कृणुष्व) उत्पादय, प्रदेहि वा। (ब्रह्मद्विषः) ईश्वरविरोधिनो विद्याविरोधिनः सत्यविरोधिनो धर्मविरोधिनो न्यायविरोधिनः प्रजाविरोधिनश्च दस्युतस्करादीन् (अवजहि) विनाशय ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    उपासितः परमेश्वरो वीररसैरुत्साहितो राजा च प्रजानामुपरि भौतिकाध्यात्मिकसम्पदां वृष्टिं करोति, ब्रह्मद्विषः शत्रूंश्च दण्डयति हिनस्ति वा। अतः सर्वैः परमेश्वर उपासनीयो राजा च सत्करणीयः प्रोत्साहनीयश्च ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६४।१, अथ० २०।९३।१, साम० १३५४। २. मदी हर्षे, मद तृप्तौ इत्यस्य वेदं रूपम्। मदिश्चान्तर्णीतण्यर्थो द्रष्टव्यः। मदयन्तु हर्षयन्तु तर्पयन्तु वेत्यर्थः—इति वि०। उत् अधिकं मन्दन्तु मोदयन्तु—इति भ०। ३. (सोमम्) वीररसादिकम्—इति ऋ० १।४७।३ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, let mild worshippers make Thee glad. Grant us wealth of knowledge, cast aside anti-vedic feelings.

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    Meaning

    Indra, lord almighty, commander, controller and inspirer of clouds, mountains and great men of generosity, may our hymns of adoration win your pleasure. Pray create and provide means and methods of sustenance and progress in life, and cast off jealousies and enmities against divinity, knowledge and prayer, our bond between human and divine. (Rg. 8-64-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अद्रिवः) હે અદ્રિવન-આનંદધનવન્-આનંદની વર્ષા કરનાર પરમાત્મન્ ! (तने) તને (सोमाः) અમારા દ્વારા નિષ્પાદિત-વિવિધ ઉપાસનારસ (उत् मदन्तु) અમારી તરફ ઉદ્ધર્ષિત કરે-ઉલ્લાસિત કરે, એવી રીતે કે તું (राधः कृणुष्व) સમૃદ્ધ કરનાર ધન પ્રદાન કર  (तिषः) અવનદિ-તારાથી-બ્રહ્મથી દ્વેષ કરનારા તારાથી વિમુખ કરનારા નાસ્તિક વિચારો અથવા મને બ્રહ્મ = બ્રાહ્મણત્વ પદ પ્રાપ્ત કરવાના વિરોધી નાસ્તિકપણાને દબાવી દે. (૧)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આનંદઘન પરમાત્મન્ ! મારા વિવિધ ઉપાસનારસ તને મારી તરફ ઉલ્લાસિત કરે, ઉલ્લાસ પૂર્ણ કરે, જેથી તું સમૃદ્ધિદાયક ઐશ્વર્ય મોક્ષૈશ્વર્યને પ્રદાન કરે તથા તારી તરફ આવવામાં બાધકને, મને બ્રાહ્મણ બનવામાં વિરોધી નાસ્તિક વિચારને દૂર કર. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    وید گیان کے دُشمن نشٹ ہوں!

    Lafzi Maana

    ہے پرمیشور! ہمارے (سوما) بھگتی اُپاسنا کے امرت رس (تُوا اُت مند نتُو) آپ کو پرسن کرنے والے ہوں (اِدروہ) تمام شکتیوں کے سوامی آنند برسانے والے (رادھا کِرنشُو) ہم کو بُدھی دینے والا وِدّیا بھگتی اور گیان دھن دیجئے اور ہماری (برہم دِوشہ) برہم دویشی وید گیان کی شتُرو بھاوناؤں کو (اوجہی) نشٹ کیجئے۔

    Tashree

    سدّھ ہوں کارج ہمارے گیان دھن وہ دیجئے، وید گیان کے دُشمنوں کو دُور ہم سے کیجئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उपासित परमेश्वर व वीर रसांनी उत्साहित राजा प्रजेवर भौतिक व आध्यात्मिक संपत्तीचा वर्षाव करतात व ब्रह्मद्वेषी शत्रूंना नष्ट करतात, त्यासाठी सर्वांनी परमेश्वराची उपासना करणे व राजाचा सत्कार करणे व त्याला प्रोत्साहित करणे योग्य आहे. ॥१॥

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    विषय

    प्रथम मंत्रात हे सांगितले आहे की सोमरसाने तृप्त होऊन इंद्राने काम करावे -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) हे इन्द्र परमात्मा, (सोमाः) आम्हा उपासकांतर्फे अभिषुत (गाळलेला) श्रद्धारस, ज्ञानरस आणि कर्मरस (त्वा) आपणाला (उत् मदन्तु) अति आनन्दित करो. हे (अद्रिवः) मेघांचे स्वामी, वृष्टि प्रदान करणारे परमात्मा, आपण आम्हाला (राधः) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धारणा, ध्यान, समाधी, योगसिद्धी आदी आध्यात्मिक संपत्ती (कृणुष्व) प्रदान करा. (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मविरोधी काम, क्रोध, नास्तिकपणा आदी मानसिक शत्रूंना (अवजहि) ठार कर।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) - हे इन्द्र राजा, (सोमाः) वीर रस (अथवा वीर रसाने ओतप्रोत वीर सैनिक) (त्वा) तुला (उत् मदन्तु) अती उत्साहित करो. हे (अद्रिवः) वज्रधारी, विविध शस्त्रास्त्रांनी सुसज्जित, धनुर्वेद पारंगत राजा, तू प्रजेसाठी (राधः) सर्व प्रकारचे धन- धान्यादी पदार्थ (कृणुष्व) उत्पन्न कर वा प्रदान कर. तसेच (ब्रह्मद्विषः) ईश्वरविरोधी, विद्या विरोधी, सत्यविरोधी, धर्मविरोधी, न्यायविरोधी व प्रजाविरोधी असे जे चोर, लुटारू, दरोडेखोर आदी असतील, त्यांना (अवजहि) ठार कर, नष्ट कर।। १।।

    भावार्थ

    उपासकांद्वारे प्रार्थित परमेश्वर उपासकांवर आणि वीररसाने उत्साहित राजा प्रजेवर भौतिक व आध्यात्मिक धनाची वृष्टी करतो आणि ब्रह्मद्वेषी शत्रूंचा विनाश करतो. यामळे सर्वांनी परमेश्वराची उपासना अवश्य करावी आणि प्रजाजनांनी (विजयी होऊन आल्यावर अथवा प्रजाहिताचे विशेष कर्म केल्यानंतर) आपल्या राजाचा सत्कार करून त्याला प्रोत्साहित केले पाहिजे. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    உன்னை (சோம பானங்கள்) உத்தம உற்சாகத்துடன் ஆக்கட்டும், வச்சிராயுதமுள்ளவனே! ஐசுவரியத்தை அளிக்கவும். அறிவின் பகைவனை துரத்தவும்.

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