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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 195
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    गि꣡र्व꣢णः पा꣣हि꣡ नः꣢ सु꣣तं꣢꣫ मधो꣣र्धा꣡रा꣢भिरज्यसे । इ꣢न्द्र꣣ त्वा꣡दा꣢त꣣मि꣡द्यशः꣢꣯ ॥१९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि꣡र्व꣢꣯णः । गिः । व꣣नः । पाहि꣢ । नः꣣ । सुत꣢म् । म꣡धोः꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯भिः । अ꣣ज्यसे । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣡दा꣢꣯तम् । त्वा । दा꣣तम् । इ꣢त् । य꣡शः꣢꣯ ॥१९५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिर्वणः पाहि नः सुतं मधोर्धाराभिरज्यसे । इन्द्र त्वादातमिद्यशः ॥१९५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गिर्वणः । गिः । वनः । पाहि । नः । सुतम् । मधोः । धाराभिः । अज्यसे । इन्द्र । त्वादातम् । त्वा । दातम् । इत् । यशः ॥१९५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 195
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और गुरु से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों व आदरवचनों से सेवनीय वा याचनीय परमात्मन् अथवा आचार्यप्रवर ! आप (नः) हमारे (सुतम्) अर्जित ज्ञानरस की अर्थात् विविध विद्याओं के विज्ञान की (पाहि) रक्षा कीजिए। आप (मधोः) मधुर ज्ञानराशि की (धाराभिः) धाराओं से (अज्यसे) सिक्त है। (इन्द्र) हे ज्ञानैश्वर्य से सम्पन्न परमात्मन् वा आचार्यप्रवर ! (त्वादातम्) आपके द्वारा शोधित, शोधन द्वारा धवलीकृत (इत्) ही (यशः) विविध विद्याओं एवं सदाचार से समुत्पन्न कीर्ति, हमें प्राप्त हो। अथवा, हे परमात्मन् अथवा आचार्यप्रवर ! (यशः) तप, ब्रह्मचर्य, विद्वत्ता, व्रतपालन आदि से उत्पन्न होनेवाली कीर्ति (त्वादातम् इत्) आपके द्वारा ही हमें दातव्य है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    गुरुकुल में अध्ययन कर रहे शिष्य आचार्य से प्रार्थना करते हैं कि हे आचार्यप्रवर ! आप अगाध पाण्डित्य के खजाने और शिक्षणकला में परम प्रवीण हैं। आप भ्रान्ति, अपूर्णता आदि दोषों से रहित स्वच्छ ज्ञान हमारे अन्दर प्रवाहित कीजिए और उसे स्थिर कर दीजिए। तभी हमारा उज्ज्वल यश सर्वत्र फैलेगा। सम्पूर्ण विद्याओं से भासित, स्वच्छ ज्ञान की निधि परमात्मा से भी वैसी ही प्रार्थना की गयी है। वही यश वस्तुतः यश है, जो परमात्मा के आशीर्वाद से धवल हुआ हो ॥२॥

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    पदार्थ

    (गिर्वणः-इन्द्र) हे स्तुतियों से वननीय परमात्मन्! “गिर्वणः-गीर्भिरेनं वनयन्ति” [निरु॰ ६.१४] (नः सुतं पाहि) हमारे निष्पादित उपासनारस को सम्भाल (मधोः-धाराभिः-अज्यसे) मीठे उपासना रस की धाराओं से सराबोर किया जाता है (त्वादातम्-इत्-यशः) बस तेरे द्वारा संस्कृत पवित्र यश—यशोमय जीवन हो।

    भावार्थ

    हे स्तुतियों से वननीय—भजनीय परमात्मन्! तू हमारे निष्पादित उपासनारस को रख—सम्भाल—अपना, तू इस मीठे उपासनारस की धाराओं से स्निग्ध किया जा रहा है, इस प्रकार करने से तेरे द्वारा शोधा हुआ—पवित्र किया हुआ यह मेरा यशोमय जीवन हो॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र—सबके लिये उदार जन)॥<br>

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    विषय

    ज्ञान+रस के साथ निरभिमानिता

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि विश्वामित्रो गाथिन:' है। सभी के साथ स्नेह करनेवाला, प्रभु का स्तोता-गायन करनेवाला । वस्तुतः जो प्रभु का गायन करना चाहता है, उसे सबके साथ स्नेह करनेवाला होना ही चाहिए। सबके साथ स्नेह वही कर सकता है जो सबमें ‘एकत्व' का दर्शन करे।( ‘यस्तु सर्वाणिभूतानि आत्मन्नेवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजगुप्सते') = से ऊपर उठ पाता है। ऊँचे ज्ञान की रक्षा के लिए प्रार्थना करता हुआ ऋषि कहता है कि हे (गिर्वणः)=[गीर्भिः वननीयः] वेदवाणियों से सेवन करने योग्य प्रभो! आप (नः) = हमारे (सुतम्) = ज्ञान की (पाहि)=रक्षा कीजिए। ज्ञान को ‘सुतम्' इसलिए कहते हैं कि जैसे किसी फल से उपकरणों द्वारा रस का सवन होता है, उसी प्रकार 'प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा' द्वारा ज्ञानियों से ज्ञान का सवन किया जाता है। यह ज्ञान ही विश्वामित्र को 'विश्व का मित्र = स्नेही' बनाता है। वही सभी को आत्मबुद्धि से [आत्मौपम्येन] देखता है। यह विश्वामित्र प्रभु से कहता है कि आप (मधोः धाराभिः)=मधु की धाराओं से (अज्यसे) = प्रकट होते हैं, अर्थात् आपका दर्शन उसी को होता है जिसके जीवन से माधुर्य की धारा का प्रवाह होता है। वास्तव में सच्चे ज्ञान का प्रकाश होता ही रस के रूप में है। अन्दर ज्ञान हो तो जीवन के व्यवहार में माधुर्य होना अनिवार्य है । प्रभु का स्वरूप भी यही है 'अन्दर ज्ञान, बाहर रस | ' वे प्रभु 'विशुद्धाचित्त' हैं, ('रसो वै सः') = [तै०] वे रस भी हैं। जीव भी ज्ञान व रसवाला बनकर प्रभु का ही छोटा रूप [ममैवांश:=After his image] बन जाता हैं और वास्तव में इस दिन ही वह प्रभु का सच्चा दर्शन कर पाता है।

    इन व्यक्तियों को सामान्य जनता आश्चर्य व आदर से देखती है। इन लोगों की कीर्ति - सुरभि चारों ओर फैलने लगती है, परन्तु यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि यह विश्वामित्र यही कहता है कि (इन्द्र) = हे सर्वेश्वर्यवाले प्रभो ! (यशः) = यह यश भी तो (इत्) = सचमुच (त्वा दातम्) = तेरे द्वारा ही दिया गया है, (या त्वा दातम्) - तेरा ही यश उज्ज्वल हो रहा है, इसमें मेरा क्या। यह यश तो तेरा ही है। यह विभूति भी सब विभूतियों की भाँति आपके ही तेज का अंश है, एवं यह विश्वामित्र निराभिमान बना रहता है।
     

    भावार्थ

    मेरा जीवन ज्ञान से पूर्ण हो, मेरे व्यवहार में माधुर्य हो और मन में अभिमानशून्यता हो।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( गिर्वणः ) = वेदवाणियों द्वारा कीर्त्तन करने योग्य ! तू ( नः ) = हमारा ( सुतं ) = सम्पादन किया स्तुतिरूप हव्य ( पाहि ) = पान कर, स्वीकार कर । ( मधोः ) = मधु=ब्रह्मज्ञान, अमृत, ऋग्वेद की ( धाराभि: ) = धारणाओं, ऋचाओं द्वारा ( अज्यसे ) = तुम्हारा स्तवन, सेवन, भजन, ज्ञान, किया जाता है । हे आत्मन् ! ( त्वादातम् इद् ) = यह तुम्हारा ही प्रकाशमान ( यशः ) = यश, सामर्थ्य है ।

    देखो – “य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्" इत्यादि (कठ० व० ४ ।५।)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्र:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा गुरुश्च प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (गिर्वणः२) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः आदरवचनैर्वा वननीय संसेव्य याचनीय वा परमात्मन् आचार्य वा ! त्वम् (नः) अस्माकम् (सुतम्) अभिषुतम् अर्जितं ज्ञानरसं विविधविद्याविज्ञानम् (पाहि) रक्ष। त्वम् (मधोः) मधुरस्य ज्ञानराशेः (धाराभिः) प्रवाहैः (अज्यसे) संसिक्तोऽसि, अगाधज्ञानविज्ञानराशेः सागरोऽसीत्यर्थः। अज गतिक्षेपणयोः। गतिरत्र संसेचनमभिप्रेतम्। (इन्द्र) हे ज्ञानैश्वर्यवन् परमात्मन् आचार्य वा ! (त्वादातम्) त्वया दातं शोधितं, संशोध्य धवलीकृतम्। दातम् इति दैप् शोधने धातोर्निष्ठायां रूपम्। ततो युष्मद्दातपदयोः समासः। (इत्) एव (यशः) विविधविद्यासदाचरणसमुत्पन्नं कीर्तिजातम् नः अस्तु इति शेषः। यद्वा, हे परमात्मन् आचार्यप्रवर वा ! (यशः) तपोब्रह्मचर्यवैदुष्यव्रतपालनादिजन्यं कीर्तिजातम् (त्वादातम्३ इत्) त्वयैव दातव्यमस्ति, तत् त्वं देहीत्यर्थः। त्वादातम् त्वया दातव्यम् इति निरुक्तम्। ४।४ ॥२॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    गुरुकुलेऽधीयानाश्छात्रा आचार्यं प्रार्थयन्ते यद् भो आचार्यप्रवर ! त्वमगाधपाण्डित्यनिधिः शिक्षणकलायां च परमप्रवीणोऽसि। भ्रान्त्यपूर्णतादिदोषैर्निर्मुक्तं स्वच्छं ज्ञानमस्मदभ्यन्तरे प्रवाहय, स्थिरं च कुरु। तदैवास्माकं धवलं यशः सर्वत्र प्रसरिष्यति। तथैव समग्रविद्याविद्योतितः स्वच्छज्ञाननिधिः परमात्मापि प्रार्थ्यते। तदेव यशो वस्तुतत्वेन यशोऽस्ति यत् परमात्मन आशीर्वादेन धवलितं भवति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।४०।६, अथ० २०।६।६। २. द्रष्टव्यम्—१६५ संख्यकमन्त्रस्य भाष्यम्। ३. त्वादातम् त्वया दत्तम्—इति वि०, भ०। त्वया शोधितं विशदीकृतम्—इति सा०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणाऽयं मन्त्रो राजप्रजापक्षे व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, praised through Vedic hymns, protect the worshipper midst us. Thou art worshipped with Vedic verses. Glory is Thy gift.

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    Meaning

    Indra, lord of honour, excellence and majesty, honoured by songs of celebration, served and pleased with streams of sweet soma in homage, pray protect and promote our soma-yajna of life and endeavour. By you alone is acknowledged the honour, joy and value of life and karma. (Rg. 3-40-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गिर्वणः इन्द्र) હે સ્તુતિઓના વનનીય પરમાત્મન્ ! (नः सुतं पाहि) અમારા નિષ્પાદિત ઉપાસનારસને સંભાળ (मधोः धाराभिः अज्यसे) મધુર ઉપાસનારસની ધારાઓથી તરબોળ કરવામાં આવે છે. (त्वादातम् इत् यशः) બસ, તારા દ્વારા સંસ્કૃત પવિત્ર યશ - યશમય જીવન બની જાય. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે સ્તુતિઓથી વનનીય - ભજનીય પરમાત્મન્ ! તું અમારા ઉપાસનારસને રાખ, સંભાળ, અપનાવ, તું એ મધુર ઉપાસનારસની ધારાઓથી સ્નિગ્ધ બની રહ્યો છે, આ રીતે કરવાથી તારા દ્વારા શુદ્ધ કરેલ - પવિત્ર કરેલ એ મારું યશમય જીવન બને. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سَچایَش وہی ہے جو پَربھُو دیتا ہے!

    Lafzi Maana

    (گِرونہ) وید بانیوں کے ذریعے بھجن کرنے یوگیہ اِیشور! (نہ سُتم یا ہی) ہمارے اکٹھے کئے ہوئے بھگتی اُپاسنا رسوں کی رکھشا کیجئے (مدھو دھارا بھی) (جیسے) مدھر بھگتی رس کی دھاراؤں دوارا آپ سنچے جاتے ہیں (اِندر تُوا داتم یش اِت) ہے اِندر پرمیشور! آپ کا دیا ہُوا یش ہی سّچا یش ہے۔

    Tashree

    وید بانی سے سدا گائے گئے پرمیشور، بھگتی رس کو پیجئے یش دیجئے جگدیشور۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गुरुकुलमध्ये अध्ययन करणारे शिष्य आचार्याला प्रार्थना करतात, की हे आचार्यश्रेष्ठा! तुम्ही अगाध पांडित्याचा खजिना व शिक्षणकलेत अत्यंत प्रवीण आहात. तुम्ही भ्रांती, अपूर्णता इत्यादी दोषांनी रहित स्वच्छ ज्ञान आमच्यामध्ये प्रवाहित करा व ते स्थिर करा, तेव्हाच आमचे उज्ज्वल यश सर्वत्र पसरेल. संपूर्ण विद्यांनी युक्त, स्वच्छ ज्ञानाचा निधी असलेल्या परमात्म्याला तशीच प्रार्थना केलेली आहे. तेच खरे यश आहे, जे परमात्म्याच्या आशीर्वादाने धवल झालेले आहे. ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात इन्द्र नावाने परमेश्वराला व गुरूला प्रार्थना केली आहे -

    शब्दार्थ

    हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणीद्वारे सेवनीय परमात्मा वा आदरपूर्ण वचनांद्वारे याचनीय आचार्य प्रवर, आपण ९नः) आम्ही (सुतम्) अर्जित ज्ञानरूप रसाची म्हणजे विविध विद्या- विज्ञानाची (पाहि) रक्षा करा हे आचार्य आपण ९मदोः) स्वतः मधुर ज्ञानराशीच्या (धाराभिः) धारांनी (अज्यसे) नखशिखांत भिजलेले आहात. हे (इन्द्र) ज्ञान - ऐश्वर्य संपन्न परमात्मा वा आचार्य (त्वादातम्) आपणांद्वारे शोधित, शुद्धीकृत धवल ज्ञानाची (यशः) (इत्) विद्या, आचार संपन्न कीर्ती, हीदेखील आम्हाला प्राप्त होऊ द्या. (तुमच्यासारखे विद्या क्षेत्रात आम्ही शिष्यगणदेखील कीर्तिमंत होऊ द्या) अथवा हे परमात्मा / हे आचार्य प्रवर (यशः तप, ब्रह्मचर्य, पुरुषार्थ करण्यासाठी प्रवृत्त केले पाहिजे. ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மொழியால் பற்றப்படுபவனே! எங்கள் சோமனைப் பருகவும். இந்திரனே! (ஆத்மாவே) நீ சோமதாரைகளால் நனைந்துள்ளாய். உன் அளிப்பு கீர்த்தியுள்ளதாகட்டும்.

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