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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 221
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - मरुतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    उ꣢दु꣣ त्ये꣢ सू꣣न꣢वो꣣ गि꣢रः꣣ का꣡ष्ठा꣢ य꣣ज्ञे꣡ष्व꣢त्नत । वा꣣श्रा꣡ अ꣢भि꣣ज्ञु꣡ यात꣢꣯वे ॥२२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । उ꣣ । त्ये꣢ । सू꣣न꣡वः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । का꣡ष्ठाः꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । अ꣣त्नत । वाश्राः꣢ । अ꣣भिज्ञु꣢ । अ꣣भि । ज्ञु꣢ । या꣡त꣢꣯वे ॥२२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा यज्ञेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥२२१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उ । त्ये । सूनवः । गिरः । काष्ठाः । यज्ञेषु । अत्नत । वाश्राः । अभिज्ञु । अभि । ज्ञु । यातवे ॥२२१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 221
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र के अधीन रहनेवाले मरुतों का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—वायुओं के पक्ष में। (सूनवः) परमेश्वररूप अथवा सूर्यरूप इन्द्र के पुत्र (त्ये) वे मरुद्-गण अर्थात् पवन (यज्ञेषु) वृष्टि-यज्ञों में, जब (गिरः) विद्युद्गर्जनाओं को तथा (काष्ठाः) मेघजलों को (उद् अत्नत) विस्तीर्ण करते हैं, अर्थात् बिजली को गर्जाते हैं तथा बादलों के जलों पर आघात करते हैं, तब (वाश्राः) रिमझिम करते हुए वर्षाजल (अभिज्ञु) पृथिवी की ओर (यातवे) जाना आरम्भ कर देते हैं, अर्थात् वर्षा होने लगती है ॥ द्वितीय—सैनिकों के पक्ष में। (सूनवः) सेनापतिरूप इन्द्र के पुत्रों के समान विद्यमान (त्ये) वे सैनिकरूप मरुद्गण (यज्ञेषु) जिनमें मुठभेड़ होती है ऐसे संग्रामयज्ञों में (गिरः) जयघोषों को (उद् अत्नत) आकाश में विस्तीर्ण करते हैं, तथा (काष्ठाः) दिशाओं को (उद् अत्नत) लाँघ जाते हैं। (अभिज्ञु) घुटने झुका-झुकाकर (यातवे) चलने पर, उनके लिए (वाश्राः) उत्साहवर्धक उच्चारण किये जाते हैं ॥ हे मरुतो ! शत्रु को परे भगाने के लिए तुम्हारे हथियार चिरस्थायी हों और शत्रुओं का प्रतिरोध करने के लिए सुदृढ़ हों (ऋ० १।३९।२) इत्यादि वैदिक वर्णन मरुतों का सैनिक होना सूचित करते हैं ॥ तृतीय—अध्यात्म पक्ष में। जीवात्मारूप इन्द्र से सम्बद्ध (त्ये) वे (गिरः) शब्दोच्चारण के साधनभूत (सूनवः) प्रेरक प्राण (यज्ञेषु) योगाभ्यास-रूप यज्ञों में, जब (काष्ठाः) चित्त की दिशाओं को (उद् अत्नत उ) ऊर्ध्व-गामिनी कर देते हैं, तब (अभिज्ञु) घुटने मोड़कर पद्मासन बाँधकर (यातवे) मोक्ष की ओर जाने के लिए, उनके चित्त में (वाश्राः) धर्ममेघ समाधिजन्य वर्षाएँ होती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥

    भावार्थ

    पवन जैसे आकाश में बिजली की गर्जना करते हैं, वैसे ही सेनापति के अधीन रहनेवाले योद्धा लोग संग्रामरूप यज्ञ में जयघोषों से सब दिशाओं को भरपूर कर दें। जैसे पवन बादलों में स्थित जलों को भूमि पर बरसाते हैं, वैसे ही प्राण योगी की चित्तभूमि में धर्ममेघ समाधि को बरसावें ॥८॥

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    पदार्थ

    (यज्ञेषु) अध्यात्मयज्ञों में (ये-उ) वे निश्चय (गिरः) वाणी—स्तुति के (सूनवः) प्रकट करने वाले—उच्चारण करने वाले उपासक स्तोता जन (काष्ठाः-उद्-अत्नत) दिशाओं में “काष्ठा दिक्” [निघं॰ १.६] अपनी-अपनी दिशाओं का विस्तार करते हैं (वाश्राः-अभिज्ञु यातवे) ये स्तोता स्तवन करते हुए अल्पवयस्क बालक जैसे घुटने के बल चलते हैं ऐसे परमात्मा की ओर जाने को समर्पण करते हैं।

    भावार्थ

    अध्यात्मयज्ञों में वाणी स्तुति को प्रकट करने वाले स्तोता अपनी दिशा-पद्धति या भूमि का विस्तार करते हैं पुनः स्तवन करते हुए अल्पायु वाले बालक जैसे चलने को घुटने के बल चलते हैं ऐसे परमात्मा के प्रति जाने के लिये अपना समर्पण करते हैं॥८॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रस्कण्वः (प्रकृष्ट मेधावी)॥<br>

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    विषय

    प्रभु की ओर

    पदार्थ

    (त्ये)=वे- गत मन्त्र की भावना के अनुसार प्राणापान की साधना करनेवाले (उत् उ)=प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठकर (यातवे) = प्रभु की ओर जाने के लिए यत्नशील होते हैं। आत्मा चतुष्पात् है। तीन पग चल चुकने पर, चौथे पग में हम प्रभु को पा लेते हैं। संसार के भोगों में उलझ जानेपर मनुष्य इन पगों को नहीं उठा पाता।

    बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम भोगों में न फँसकर आगे और आगे बढ़ने का ध्यान करें। ऐसा करनेवाला ही समझदार है- 'प्रस्कण्व' मेधावी है। यह प्रस्कण्व ही इस मन्त्र का ऋषि है। कण-कण करके मेधा का संचय करने के कारण यह काण्व है। इससे उठाये जानेवाले तीन पग इस प्रकार हैं

    १. यह प्रस्कण्व (गिर:) = वेदवाणियों के (सूनवः) = उत्पन्न करनेवाले होते हैं। प्रस्कण्व अपने को ज्ञान से परिपूर्ण कर लेता है तो उससे ज्ञानमय वाणियों का प्रवाह फूटने लगता है। यही ज्ञानकाण्ड का स्वीकार है ।

    २. (काष्ठा यज्ञेषु अत्नत) = ये प्रस्कण्व सदा यज्ञों में समिधाओं का विस्तार करते हैं। इनका जीवन यज्ञमय होता है । ('यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म') = यज्ञ ही सर्वोत्तम कर्म है। इनका मस्तिष्क ज्ञानकाण्ड का स्वीकार करता है तो इनके हाथ कर्मकाण्ड का । उत्तम कर्मों में व्याप्त रहकर ये अपने जीवन को विषयों का शिकार होने से बचा लेते हैं।

    ३. इसके बाद ये प्रस्कण्व (अभिज्ञु)=अभिगतजानु होकर - नमस् के आसन पर बैठकर (वाश्रा:)=अपनी प्रार्थनाओं को उस प्रभु के प्रति उच्चारित करते हैं [वाश् = शब्द - voice]। इनका हृदय भक्ति-भावना से ओत-प्रोत होता है और ये अपने स्तुति वचनों से प्रभु-महिमा के गीत गाते हैं। यह प्रभु-सम्पर्क उन्हें शक्तिशाली बनाता है और ये संसार के उथल-पुथल में कभी क्षुब्ध नहीं होते। यही उपासना काण्ड के स्वीकार का परिणाम है।

    एवं, प्रस्कण्व उस प्रभु की प्राप्ति के लिए आगे और आगे बढ़ता हुआ 'ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड व उपासनाकाण्ड' रूप तीन पगों को रखता है। चौथे पग में तो प्रभु को पा ही लेता है।

    भावार्थ

    हमारा जीवन ज्ञानमय, कर्ममय व भक्तिमय हो।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( त्ये ) = वे ( गिरः सूनवः ) = वाणी के उत्पादक मरुद्गण ( यज्ञेषु ) = अपने निवासस्थान इन्द्रिय स्थानों, कार्यव्यापारों में ( काष्ठा:) = अपने जाने की दिशाओं, मार्गों पर इस प्रकार गमन करते हैं जैसे ( वाश्राः ) = गौएं हंभारते समय ( यातवे ) = गति करने के लिये ( अभिज्ञु  ) = घुटने के प्रति झुककर ( अत्नत ) = जाती हैं। यहां प्राणों के संचार का स्वरूप बतलाया गया है ।

     


     

    टिप्पणी

    २२१ - 'अज्मेष्वत्नत' इति पाठः, ऋ० । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - प्रस्कण्वः.।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्राधीना मरुतो वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    प्रथमः—वायुपरः। (सूनवः) इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा पुत्राः (त्ये) ते मरुतः पवनाः (यज्ञेषु) वृष्टिरूपेषु अध्वरेषु, यदा (गिरः२) वाचः, स्तनयित्नुशब्दान् (काष्ठाः) मेघस्थाः अपः च। आपोऽपि काष्ठा उच्यन्ते। निरु० २।१५। (उद् अत्नत) उत्तन्वन्ति, स्तनयित्नुगर्जनशब्दान् उत्पादयन्ति मेघजलानि चालयन्ति चेत्यर्थः। ‘अत्नत अतनिषत, निरु० १२।३४।’ तनु विस्तारे, लडर्थे लुङ्, विकरणस्य लुक् छान्दसः। ‘तनिपत्योश्छन्दसि’ अ० ६।४।९९ अनेनोपधालोपः। तदा (वाश्राः) वाशन्ते शब्दायन्ते इति वाश्राः। वाशृ शब्दे धातोरौणादिको रक् प्रत्ययः। रिमझिमशब्दसहिताः आपः इत्यर्थः। वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु। अथ० ४।१५।१ इति वचनात्। (अभिज्ञु३) पृथिव्यभिमुखम् (यातवे) यातुं प्रक्रमन्ते। या प्रापणे धातोस्तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—सैनिकपक्षे। इन्द्रस्य सेनापतेः (सूनवः) पुत्रा इव (त्ये) ते मरुतः सैनिकाः (यज्ञेषु) सङ्गमनीयेषु संग्रामेषु (गिरः) जयघोषान् (उद् अत्नत) आकाशे विस्तारयन्ति, (काष्ठाः) दिशश्च। काष्ठा दिशो भवन्ति क्रान्त्वा स्थिता भवन्ति। निरु० २।१५। (उत् अत्नत) उल्लङ्घयन्ति। (अभिज्ञु) सैनिकपद्धत्या जान्वभिमुखम् (यातवे) प्रयाणाय, तेषां कृते (वाश्राः) वाशृ शब्दे, उत्साहवर्धकाः शब्दाः भवन्तीति शेषः। स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑ ऋ० १।३९।२। इत्यादिवर्णनानि मरुतां सैनिकत्वं सूचयन्ति ॥ अथ तृतीयः—अध्यात्मपरः। इन्द्रेण जीवात्मना संबद्धाः (त्ये) ते (गिरः) शब्दोच्चारणसाधनीभूताः। गीर्यन्ते शब्दा एभिस्ते (गिरः)(सूनवः४) प्रेरकाः प्राणाः। षू प्रेरणे धातोः ‘सुवः कित्’ उ० ३।३५ इति नु प्रत्ययो ज्ञेयः। (यज्ञेषु) योगाभ्यासरूपेषु, यदा (काष्ठाः) चित्तदिशः (उत् अत्नत उ) ऊर्ध्वं विस्तारयन्ति खलु तदा (अभिज्ञु) जानुनी आकुञ्च्य पद्मासनबन्धपूर्वकम् (यातवे) मोक्षमधिगन्तुं तेषां चित्ते (वाश्राः) धर्ममेघसमाधिजाः वर्षाः भवन्ति। यथोक्तं पातञ्जले योगशास्त्रे “प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिरिति” ४।२९ ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥

    भावार्थः

    पवना यथा गगने स्तनयित्नुशब्दं कुर्वन्ति, तथैव सेनापतेरधीना योद्धारः संग्रामयज्ञे जयघोषैः सर्वा दिश आपूरयेयुः। यथा पवना भूमौ मेघस्थानि जलानि वर्षन्ति, तथैव प्राणा योगिनश्चित्तभूमौ धर्ममेघसमाधिं वर्षेयुः ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३७।१०, ‘यज्ञेष्वत्नत’ इत्यत्र ‘अज्मष्वत्नत’ इति पाठः। मरुतो देवताः। कण्वो घौरः ऋषिः। २. गिरः गर्जितलक्षणा वाचः। काष्ठाश्च वृष्टिलक्षणा आपः—इति वि०। ३. अभिज्ञु अभिज्मां पृथिवीमभि—इति भ०। ४. सूनवः प्रेरका विश्वस्य। षू प्रेरणे—इति भ०। ५. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं वाचकलुप्तोपमामाश्रित्य वायूनामुदाहरणेन राजप्रजाजनविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Airs, the source of speech, thus, tread on their paths, in organs, their residence, as cows bend on the knees for walking at the time when they bellow for the calf.

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    Meaning

    Those children of space, the winds, in their motions, carry and expand the waves of sound and the currents of waters and other energies across the dynamics of space so that they reach their destinations like the mother cows hastening on their legs to their stalls. (Rg. 1-37-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञेषु) અધ્યાત્મયજ્ઞોમાં (ये उ) તેઓ નિશ્ચય (गिरः) વાણી-સ્તુતિને (सूनवः) પ્રકટ કરનારા-ઉચ્ચારણ કરનારા, ઉપાસકો સ્તોતાજન-સ્તુતિ કરનારાઓ (काष्ठाः उद् अत्नत) દિશાઓમાં-પોતપોતાની દિશાઓનો વિસ્તાર કરે છે (वाश्राः अभिज्ञु) એ સ્તોતાઓ-સ્તુતિ કરનારાઓ સ્તવન કરતા અલ્પવયસ્ક બાળકની માફક ગોઠણ ભેર ચાલે છે, તેમ પરમાત્માની તરફ જવા માટે સમર્પણ કરે છે. (૮) 

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અધ્યાત્મયજ્ઞોમાં વાણી-સ્તુતિને પ્રકટ કરનારા સ્તોતા-સ્તુતિ કરનારા પોતાની દિશા-પદ્ધતિ અથવા ભૂમિનો વિસ્તાર કરે છે, પુનઃ સ્તવન કરતા જેમ અલ્પ વયસ્ક બાળક સમાન ગોઠણભેર ચાલે છે, તેમ પરમાત્માની તરફ જવા માટે પોતાનું સમર્પણ કરે છે. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ہمارے پُتر بھی ویدک مشنری ہوں

    Lafzi Maana

    (تئی سُونوہ کاشٹھاہ گرہ یگئے شواتنت) ہمارے سُپتر جل کی طرح شانتی شکتی اوتی سُورج کی طرح گیان روشنی پھیلانے والی وید بانی کو پھیلاتے رہیں۔ تاکہ وہ (ابھی گئیو یاتوے واشراہ) زندگی میں راہِ راست کو جان اُن پر ایسے چلتے جائیں جیسے رنبھاتی ہوئی گئوئیں اپنے اپنے گھروں کی طرف سیدھی چلی جاتی ہیں۔

    Tashree

    پیارے پُترو وید کے پڑھنے پڑھانے میں سدا کوشاں رہو، اِیش کے ملنے کی ہے راہ گامزنِ اِس پر رہو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    वायू जसे आकाशात विद्युतची गर्जना करतात, तसेच सेनापतीच्या अधीन राहणारे योद्धे संग्रामरूपी यज्ञात जयघोषाने सर्व दिशा निनादून टाकतात, जसे वायू मेघात स्थित जलाला भूमीवर बरसतात, तसेच प्राणांनी योग्याच्या चित्तभूमीत धर्ममेध समाधीची बरसात करावी ॥८॥

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    विषय

    इन्द्राच्या अधीन आहेत मरुत

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (वायुपर अर्थ) - (सूनवः) परमेश्वर रूप पित्याचे अथवा सूर्यरूप इन्द्राचे पुत्र (त्ये) ते जे मरुद्गण म्हणजे पवन आहेत, ते (यज्ञेषु) वृष्टि-यज्ञात जेव्हा (गिरः) विद्युत- गर्जन आणि (काष्ठाः) मेघजल (उद् अ त्नत) प्रसारित वा विस्तृत करतात. अर्थात विद्युत - गर्जना करीत मेघातील जलावर प्रहार करतात, तेव्हा (वाश्राः) रिमझिम रिमझिम करीत वृष्टि-जल (अभिज्ञु) पृथ्वीकडे (यातवे) जाण्यासाठी निघतात म्हणजे पाऊस पडणे सुरू होते.।। द्वितीय अर्थ - (सैनिकपर) (सूनवः) सेवाषतिरूप इन्द्राच्या व्याप्त असणारा परमेश्वर (इदम्) या सर्व विश्वात (वि चक्रमे) व्यापक आहे. त्याने (त्रेधा) तीन प्रकारे म्हणजे उत्पत्तिकर्ता, धारणकर्ता आणि विनाशकर्ता या तीन रूपात त्या विश्वामध्ये (पदम्) आपला पाप (निदधे) ठेवलेला आहे (म्हणजे जगावर या तीन रूपात आपली सत्ता प्रस्थापित केली आहे.) पण (अस्य) त्या परमेश्वराचा तो पाय म्हणजे त्याचे अस्तित्व (पोसुले) या पंचभौतिक जगात (समूढम्) गुप्त रूपाने आहे, या चर्मचक्षूंसाठी दृश्य वा गोचर नाही. ज्याप्रमाणे धुळीने भरलेल्या खोल मातीवरच्या जागेवर (समूढम्) (पदम्) कोणाच्या पायाचा ठसा दिसत नाही. तद्वत परमेश्वर सर्वत्र असूनही दिसत नाही, हा ध्वनित आशय आहे.।। तृतीय अर्थ - (सूर्यपर अर्थ) (विष्णुः) आपल्या प्रकाशाने सर्वांना व्यापून टाकणारा सूर्य (इदम्) या सर्व ग्रह- उपग्रह मंडळांमध्ये (विचकुमे) आपले किरण रूप पाय व सर्वत्र पसरून विद्यमान आहे. (त्रेधा) तो भूगर्भ, भूजल आणि आकाश या तिन्ही ठिकाणी आपले (पदम्) किरण रूप पाय (विवधे) ठेवून आहे. पण (पांसुले) धुळीने बनलेल्या या भूगर्भामध्ये मात्र (अस्य) या सूर्याचा किरणरूप पाय (समूढम्) गम्य वा दृश्य स्वरूपात नाही. मात्र तर्क वा अनुमानाने त्याचे तेथील अस्तित्व जाणता येते.।।९।।

    भावार्थ

    विष्णु म्हणजे सूर्य आपल्या किरणांद्वारे व्याप्त होऊन सर्व ग्रह- उपग्रहांना प्रकाशित करतो. सूर्याच्या उष्णतेमुळेच औषधी, वनस्पती आदी पक्व होतात. सूर्य जरी आपले किरणरूप पाय तिन्ही ठिकाणी ठेवून आहे. तथापि त्याची किरणे पृथ्वीतलावर आणि आकाशात प्रत्यक्ष दिसून येतात. ती किरणे भूगर्भात प्रविष्ट होऊन तेथील मातीच्या कणांना लोखंड, तांबे, सोने आदी धातू रूपात परिणत करतात. हे परिवर्तन चक्षूंना दिसत नाही, पण भूगर्भवेत्ता वैज्ञानिक या मागील रहस्य जाणतात. त्याचप्रमाणे विष्णु परमेश्वराने ब्रह्मंडात सर्वत्र आपली सत्ता स्थापित केली आहे. तो सृष्टीच्या आरंभी सर्व पदार्थ उत्पन्न करतो, उत्पन्न करून त्यांना धारण करतो आणि प्रलयकाळी त्या पदार्थांचा संहार करतो. विष्णू परमेश्वराचे ही त्रिरूप कार्ये तीन पाऊल ठेवल्याच्या रूपाने वर्णित केली आहेत. जरी तो सर्वत्र आपले पाऊल ठेवून विद्यमान आहे (म्हणजे सर्वव्यापी आहे) तरीही जसे एखाद्याचा मातीत खोल गेलेला पाय दिसत नाही, तद्वत सर्वत्र विद्यमान असूनही परमेश्वराचे अस्तित्व जाणवत नाही।।९।। या दशतीमध्ये इंद्राचे गुणवर्णन, त्याला केलेले आवाहन, त्याचे सहायक मित्र, वरुण आणि अर्यमा यांच्या नेतृत्वा़विषयी केलेली याचना, तसेच मित्रावरुण, मरुत्, विष्णु, त्याचे गुण, कर्म यांचे कीर्तन एवढे विषय वर्णित आहेत. त्यामुळे या दशतीतील विषयांची मागील दशतीच्या अर्थांशी संगती आहे, असे जाणावे.

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आणि उपमा ध्वनी आहे।।९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    பசுக்கள் முழங்காலாழம் (பசுக்கள் திருப்தியாகும் வரை) நடக்க எங்கள் யக்ஞத்தில் உன் ப்ரசித்தமான வாக்கை விளக்கும் மருத்துக்கள் (வேதோபதேசங்கள்) மழை லட்சண சலம் மகிழ்ச்சியாவது போல், விஸ்தாரமாகின்றன. விஷ்ணுவானவர் இந்த உலகத்தை உத்தேசித்து தூரமாய் நடக்கிறார்.

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