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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 222
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    इ꣣दं꣢꣫ विष्णु꣣र्वि꣡ च꣢क्रमे त्रे꣣धा꣡ नि द꣢꣯धे प꣣द꣢म् । स꣡मू꣢ढमस्य पाꣳसु꣣ले꣡ ॥२२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣द꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि । च꣣क्रमे । त्रेधा꣢ । नि । द꣣धे । पद꣢म् । स꣡मू꣢꣯ढम् । सम् । ऊढम् । अस्य । पासुले꣢ ॥२२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूढमस्य पाꣳसुले ॥२२२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । विष्णुः । वि । चक्रमे । त्रेधा । नि । दधे । पदम् । समूढम् । सम् । ऊढम् । अस्य । पासुले ॥२२२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 222
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कैसे विष्णु तीन प्रकार से अपने कदम भरता है।

    पदार्थ

    यहाँ मन्त्र का देवता इन्द्र है, अतः विष्णु इन्द्र का विशेषण समझना चाहिए। प्रथम—परमात्मा पक्ष में। (विष्णुः) चराचर जगत् में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर (इदम्) इस सब जगत् में (वि चक्रमे) व्यापक है। (त्रेधा) तीन प्रकार से—अर्थात् उत्पादक, धारक और विनाशक इन तीन रूपों में उस जगत् में वह (पदम्) अपने पैर को अर्थात् अपनी सत्ता को (निधदे) रखे हुए है। किन्तु (अस्य) इस परमेश्वर का, वह पैर अर्थात् अस्तित्व (पांसुले) पाञ्चभौतिक इस जगत् में (समूढम्) छिपा हुआ है, चर्म-चक्षुओं से अगोचर है। जैसे धूलिवाले प्रदेश में (समूढम्) छिपा हुआ (पदम्) किसी का पैर दिखाई नहीं देता है, यह यहाँ ध्वनि निकल रही है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (विष्णुः) अपने प्रकाश से सबको व्याप्त करनेवाला सूर्य (इदम्) इस सब ग्रहोपग्रह-चक्र में (विचक्रमे) अपने किरणरूप चरणों को रखे हुए है। (त्रेधा) भूगर्भ, भूतल और आकाश इन तीनों स्थानों पर, उसने (पदम्) अपने किरणसमूह-रूप पैर को (निधदे) रखा हुआ है। किन्तु (पांसुले) धूलिमय भूगर्भ में (अस्य) इस सूर्य का किरणरूप पैर (समूढम्) तर्कणा-गम्य ही है, प्रत्यक्ष नहीं है ॥९॥ यहाँ श्लेषालङ्कार और उपमाध्वनि है ॥९॥

    भावार्थ

    विष्णु सूर्य अपनी किरणों से व्याप्त होकर सब ग्रहोपग्रहों को प्रकाशित करता है। सूर्य के ही ताप से ओषधि, वनस्पति आदि पकती हैं। सूर्य यद्यपि तीनों स्थानों पर अपने किरण-रूप पैर रखे हुए है, तो भी उसकी किरणें पृथ्वीतल पर और आकाश में ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं, भूगर्भ में भी पहुँचकर कैसे वे मिट्टी के कणों को लोहे, ताँबे, सोने आदि के रूप में परिणत कर देती हैं, यह सबकी आँखें नहीं देख सकतीं, अपितु भूगर्भवेत्ता वैज्ञानिक लोग ही इस रहस्य को जानते हैं। वैसे ही विष्णु परमेश्वर ने अपनी सत्ता से ब्रह्माण्ड को व्याप्त किया हुआ है। वह सब पदार्थों को सृष्टि के आरम्भ में पैदा करता है, पैदा करके धारण करता है और प्रलयकाल में उनका संहार कर देता है। यह तीन रूपोंवाला उसका कार्य तीन प्रकार से पैर रखने के रूप में वर्णन किया गया है। यद्यपि वह सभी जगह अपना पैर रखे हुए है, तो भी जैसे किसी का धूल में छिपा हुआ पैर नहीं दीखता है, वैसे ही उसका सर्वत्र विद्यमान स्वरूप भी दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥९॥ इस दशति में इन्द्र के गुणवर्णनपूर्वक उसका आह्वान करने के कारण, उसके सहायक मित्र, वरुण और अर्यमा के नेतृत्व की याचना के कारण और मित्रावरुण, मरुत् तथा विष्णु के गुणकर्मों का कीर्तन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (विष्णुः) व्यापक एवं तीनों लोकों में और तीनों से बाहर भी इन्द्र—परमात्मा “विष्णुर्विषितो भवति” “विशतेर्वा व्यश्नोतेर्वा” [नि॰ १२.१९] (इदं विचक्रमे) इस समस्त जगत् को स्वाधीन किए हुए हैं (त्रेधा-पदं-निदधे) तीन—तीनों स्थानों—द्युलोक में, अन्तरिक्ष में और पृथिवी लोक में अपना शक्तिस्वरूप रखता है (अस्य-पांसुले (रे) समूढम्) इसका स्वरूप इसके एकदेशी न होने से धूल राशि में पड़े पद की भाँति पद दृष्टिपथ नहीं होता, उसे तो योगी उपासक जन ही उस अन्तर्निहित स्वरूप को अपने आत्मा में देखता है।

    भावार्थ

    व्यापक ऐश्वर्यवान् परमात्मा इस सारे जगत् को अपनी व्याप्ति से स्वाधीन किए हुए है और द्युलोक अन्तरिक्ष पृथिवी लोक—तीनों लोकों में इसका स्वरूप निहित है वह धूलि में रखे पद की भाँति दृष्टि पथ नहीं होता, परन्तु उपासक जन अपनी अन्तरात्मा में निहित उसके पद-स्वरूप का साक्षात् करता है॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से परमात्मा में गमन प्रवेश—करने वाला)॥<br>

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    विषय

    कहीं हम केवल कूड़ा तो जमा नहीं कर रहे?

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि 'मेधातिथि काण्व' (इदं त्रेधा पदम्) = गत मन्त्र में वर्णित तीन प्रकार से पग (निदधे) = रखता है। ये तीन पग मस्तिष्क में ज्ञानकाण्ड को भरना, भुजाओं में कर्मकाण्ड को भरना और अभिगतजानु होकर हृदय में उपासना की भावना को भरना थे। यदि यह ऐसा न करके केवल ज्ञान को अपना ध्येय बनाता तो इसकी यह उन्नति अधूरी होती । इसी प्रकार केवल कर्म व केवल उपासना को अपनानेवाले व्यक्ति भी अपूर्ण विकासवाले होते हैं। ठीक विकास तो उसी का हुआ जिसने कि शरीर, मन व बुद्धि अथवा कर्म, श्रद्धा व ज्ञान तीनों को अपना ध्येय बनाया । वस्तुतः इसी ने (विचक्रमे) = विशेष पुरुषार्थ किया-व्यापक उन्नति की। इस व्यापक उन्नति को करने के कारण यह (विष्णु:) = [विष्- व्याप्तौ] विष्णु नामवाला हुआ ।

    इस संसार में मनुष्य जब केवल ज्ञान को अपनाता है तो वैज्ञानिकों की भाँति ऐसे अस्त्र बनाता है, जो संसार का विनाश कर दें। यह कूड़े के ढेर को ही तो जुटाना है। जो व्यक्ति केवल कर्मकाण्ड का उपासक बन यज्ञों को ही महत्त्व देता है, वह अभिचार यज्ञों को करने में लगता है। ये भी तो यज्ञों का मल ही हैं। केवल श्रद्धा व उपासना के मार्ग पर चलनेवाले व्यक्ति परमेश्वर के नाम पर दूसरे का खून करते हैं। इन्होंने भी प्रेम को न अपनाकर द्वेष को अपनाया, इस प्रकार इनके भी भाग में कूड़े का ही जमा करना रहा । वस्तुतः इस पांसुले = धूल को ही अपनानेवाले लोगों से भरे संसार में (अस्य) = इस व्यापक उन्नति करनेवाले विष्णु ने ही (सम् ऊढम् ) = प्रभु की आज्ञा को सम्यक् शिरोधार्य किया और जीवन यात्रा का ठीक निर्वहण किया । वस्तुतः यही मेधया अतति बुद्धिमत्ता से चला, अतः इसका नाम मेधातिथि है। यही इस मन्त्र का ऋषि है। 

    भावार्थ

    इस संसार में हम धूल जमा करनेवाले ही न बने रहें ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( विष्णुः ) = व्यापक परमात्मा ने  ( इदम् ) = इस जगत् को  ( त्रेधा ) = पृथिवी, अन्तरिक्ष और  द्युलोक इन तीन प्रकार से ( विचक्रमे ) = पुरुषार्थयुक्त किया है  ( अस्य ) = इस जगत् के  ( पांसुले ) = प्रत्येक रज वा परमाणु में  ( समूढम् ) = अदृश्य  ( पदम् ) = स्वरूप को  ( निदधे ) = निरन्तर धारण किया है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = आप विष्णु ने तीन लोक और लोकान्तर्गत अनन्त पदार्थ तथा सब प्राणियों के शरीर उत्पन्न किए हैं। इन सबको आपने ही धारण किया है और इन सब पदार्थों में अन्तर्यामी होकर व्याप रहे हैं। कोई लोक वा पदार्थ ऐसा नहीं, जहाँ आप विष्णु व्यापक न हों तो भी सूक्ष्म होने से हमारे इन चर्ममय नेत्रों से नहीं देखे जाते। कोई महात्मा ही अन्तर्मुख होकर आपको ज्ञाननेत्रों से जान  सकता है, बहिर्मुख संसार के भोगों में सदा लम्पट मनुष्य तो हज़ारों जन्मों में भी आप जगन्नियन्ता परमात्मा को नहीं जान सकते ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( विष्णुः ) = देह में सर्वव्यापक वह आत्मा ( इदं ) = इस प्रकार ( विचक्रमे ) = गति करता है कि ( त्रेधा ) = तीन प्रकार से ( पदम्१  ) =  अपनी शक्ति को ( निदधे ) = स्थापन करता है। और ( अस्य ) = इसकी वह शक्ति सामर्थ्य ( पांसुले२   ) = इन्द्रियों के शयन करने के स्थान देह में ( स मूढम् ) = उत्तम रूप से प्रकट है। परमात्मा पक्ष में ईश्वर की शक्ति तीनो लोकों में है। 'पांसवो  लोकाः' । इस ब्रह्माण्ड भर में उसकी शक्ति समूहित   या व्याप्त है । 
    आत्मा की त्रेधा शक्ति अन्न से रस का ग्रहण इन्द्रिय से ज्ञान निष्पादन और देह में प्राण और रस का संचरण ।

    टिप्पणी

    २२२-'पांशुरे’, ‘पांसुरे’ इति पाठः, य० । 
    १. पदं पद्यतेर्गतिकर्मणः ।
    २. पांसवः पादै: सूयन्ते इति वा पन्नाः शेरत इति वा ( नि० ११/१८) 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिः।

    देवता -इन्द्र: ।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कथं विष्णुः त्रिधा चरणचङ्क्रमणं कुरुत इत्युच्यते।

    पदार्थः

    ऋच इन्द्रदेवताकत्वाद् विष्णुरितीन्द्रस्य विशेषणं ज्ञेयम्। प्रथमः— परमात्मपरः। (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् यः स इन्द्रः परमेश्वरः। विष्लृ व्याप्तौ जुहोत्यादिः, विश प्रवेशने तुदादिः, वि अशू व्याप्तौ स्वादिः। “विष्णुर्विषितो भवति, विशतेर्वा, व्यश्नोतेर्वा” इति निरुक्तम् १२।१९। (इदम्) एतत् सर्वं जगत् (वि चक्रमे) पादन्यासेन व्याप्तवानस्ति। क्रमु पादविक्षेपे, कालसामान्ये लिट्। (त्रेधा) त्रिप्रकारेण—उत्पादकत्वेन, धारकत्वेन, प्रलायकत्वेन च, तत्र (पदम्) पादम्, सत्ताम् (निदधे) निहितवानस्ति। किन्तु, (अस्य) विष्णोः परमेश्वरस्य, तत् पदम् (पांसुले३) पाञ्चभौतिकेऽस्मिन् जगति। पांसवः पृथिव्यादीनां चतुर्णां भूतानां परमाणव आकाशश्चास्मिन् सन्तीति पांसुलं जगत्। ‘सिध्मादिभ्यश्च’। अ० ५।२।९७ इति मत्वर्थे लच्। (समूढम्) अन्तर्हितं, चर्मचक्षुषोरगोचरं विद्यते। यथा धूलिमये प्रदेशे निगूढं कस्यचित् पदं न दृग्गोचरं भवतीति ध्वन्यते। सम्पूर्वाद् ऊह वितर्के धातोर्निष्ठायां रूपम् ॥ अथ द्वितीयः—सूर्यपरः। (विष्णुः) स्वप्रकाशेन व्यापनशीलः इन्द्रः सूर्यः (इदम्) एतत् सर्वं ग्रहोपग्रहचक्रम् (विचक्रमे) स्वकिरणचरणन्यासेन व्याप्तवानस्ति। (त्रेधा) भूगर्भ-भूतल-गगनरूपेषु त्रिषु स्थानेषु (पदम्) किरणजालम् (निदधे) निहितवानस्ति। किन्तु पांसुले पांसुमये भूगर्भे (अस्य) सूर्यस्य किरणरूपं पदम् (समूढम्४) अन्तर्हितमस्ति, तर्कणीयमेव भवति, न तु प्रत्यक्षमित्यर्थः ॥९॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः, उपमाध्वनिश्च ॥९॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे—यदिदं किञ्च तद् विक्रमते विष्णुः, त्रिधा निधत्ते पदम् त्रेधाभावाय पृथिव्याम् अन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यत इति। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा, पन्नाः शेरत इति वा, पंसनीया भवन्तीति वा। निरु० १२।१९ ॥

    भावार्थः

    विष्णुः सूर्यः स्वरश्मिभिर्व्याप्तः सन् सर्वान् ग्रहोपग्रहान् प्रकाशयति। सूर्यस्यैव तापेनौषधिवनस्पत्यादयः पच्यन्ते। सूर्यो यद्यपि त्रिष्वपि स्थानेषु किरणचरणचङ्क्रमणं विधत्ते, तथापि तद्रश्मयः पृथ्वीतले दिवि चैव प्रत्यक्षरूपेण दृश्यन्ते; भूगर्भमपि प्राप्तास्ते कथं मृत्कणान् लोहताम्रसुवर्णादिरूपेण परिणमयन्तीति न सर्वेषां चक्षुर्गोचरं, प्रत्युत भूगर्भविदो वैज्ञानिका एव तद्रहस्यं जानन्ति। तथैव विष्णुः परमेश्वरः स्वसत्तया सकलमपि ब्रह्माण्डं व्याप्नोति। स समस्तपदार्थान् सृष्ट्यारम्भे सृजति, सृष्ट्वा धारयति, प्रलयकाले च संहरतीति त्रिधा तस्य व्यापारस्त्रिधा पादन्यासेन वर्णितः। यद्यपि स सर्वत्रैव स्वपदं निधत्ते तथापि कस्यचित् पांसुविलीनं पदमिव तस्य सर्वत्र विद्यमानमपि पदं दृग्गोचरं न भवति ॥९॥ अत्रेन्द्रगुणवर्णनपूर्वकं तदाह्वानात्, तत्सहायकानां मित्रवरुणार्यम्णां नेतृत्वप्रार्थनाद्, मित्रावरुणयोर्मरुतां विष्णोश्चापि गुणकर्मकीर्तनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विजानीत ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति द्वितीयाध्याय एकादशः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।२२।१७, य० ५।१५, अथ० ७।२६।४, सर्वत्र देवता विष्णुः, ‘पांसुले’ इत्यत्र च ‘पांसुरे’ इति पाठः। साम० १६६९। २. विवरणकृता मन्त्रोऽयं द्विधा व्याख्यातः। ‘इदं त्रैलोक्यं बलिबन्धनकाले विष्णुर्विचक्रमे विविधं चक्रमे क्रान्तवान्’ इत्येकम्। “अथवा विष्णुरादित्यः। स इदं सर्वम् अहरहर्विक्रमन् त्रिधा निदधे पदम् उदयगिरौ, मध्ये च नभसः, अस्तिगिरौ च। अथवा त्रिधा निदधे पदं पृथिव्याम् अग्न्यात्मना, अन्तरिक्षे वैद्युतात्मना, दिवि आदित्यात्मना। तच्च पदत्रयमस्य समूढं पांसुरे इव देशे। अथवा समूढमिति मुहेर्मोहनार्थस्य रूपम्। संमूढं संछन्नम्, यदस्य वैद्युतात्मना पदं तत् संमूढं संछन्नम्” इति द्वितीयम्। व्यचेर्व्याप्तिकर्मणो, विशेर्वा प्रवेशकर्मणः, व्यश्नोतेः व्याप्तिकर्मणो वा विष्णुः—इति भ०। विष्णुः त्रिविक्रमावतारधारी—इति सा०। ३. लुप्तोपममेतद् द्रष्टव्यम्। पांसुरे इव प्रदेशे—इति वि०। पांसुले प्रदेशे—इति भ०। धूलियुक्ते पादस्थाने—इति सा०। ४. यत् सम्यग् ऊह्यते तर्क्यते तर्केण विज्ञायते तत्—इति ऋ० १।२२।१७ भाष्ये द०। ५. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये व्यापकेश्वरपक्षे व्याख्यातः। टिप्पणी चेयमुट्टङ्किता तत्र—“सायणाचार्यादिभिर्विलसनाख्येन चास्य मन्त्रस्यार्थस्य वामनाभिप्रायेण वर्णितत्वात् स पूर्वपश्चिमपर्वतस्थो विष्णुरस्तीति मिथ्यार्थोऽस्तीति वेद्यम्” इति।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The soul moves thus, and establishes its powers in three ways. Its power is finely manifest in the body.

    Translator Comment

    The verse is applicable to God as well. See Yajur veda 5-15.^In three ways: (1) Acquiring essence from food (2) Knowledge from organs (3) Spreading breath In the body.

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    Meaning

    Vishnu created this threefold universe of matter, motion and mind in three steps of evolution through Prakriti, subtle elements and gross elements, shaped the atoms into form and fixed the form in eternal space and time. (Rg. 1-22-17)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विष्णुः) ત્રણેય લોકોમાં વ્યાપક અને ત્રણેય લોકોની બહાર પણ વ્યાપક ઇન્દ્ર પરમાત્માએ (इदं विचक्रमे) આ સમસ્ત જગતને સ્વાધીન કરેલ છે (त्रेधा पदं निदधे)   ત્રણેય સ્થાનોમાં દ્યુલોક, અન્તરિક્ષ અને પૃથિવી લોકમાં પોતાનું શક્તિસ્વરૂપ રાખે છે. (अस्य पांसुले (रे) समूढम्) તેનું સ્વરૂપ એકદેશી ન હોવાથી ધૂળના ઢગલામાં પાડેલા પગની સમાન પગલાં દેખાતા નથી, તેને તો યોગી ઉપાસકજન જ તેના અંદર રહેલા સ્વરૂપને પોતાના આત્મામાં નિહાળે છે - દેખે છે. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کے پاؤں کے پاؤں تِینوں لوکوں میں

    Lafzi Maana

    (وِشنو اِدم وِچکرمے) وِشنو بھگوان سارے جگ میں موجود ہے (ترے دھاپدم ندھے) زمینں، آسمان اور عرشِ بریں تینوں پر اُس کا راج ہے (رسیہ پانسلے سموڈھم) مگر اُس نے اپنی صورت کو چھپایا ہوا ہے، جیسے خاک میں ملی ہوئی کوئی چیز۔

    Tashree

    اگیانیوں سے رہتا ہے کیول وہ دُور دُور، کُھل جائے گیان آنکہ تو وہ ہے ملا ہوا۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विष्णू सूर्य आपल्या किरणांद्वारे सर्व ग्रहोपग्रहांना व्याप्त करून प्रकाशित करतो. सूर्याच्या तापाने औषधी, वनस्पती इत्यादी परिपक्व होते. सूर्य जरी तिन्ही स्थानी आपले किरणरूपी पाय रोवतो, तरीही त्याची किरणे पृथ्वी व आकाशातही प्रत्यक्ष रूपाने दिसून येतात. भूगर्भातही ती मातीच्या कणांना लोखंड, तांबे, सोने इत्यादी रूपात परिणत करतात. हे सर्वांचे नेत्र पाहू शकत नाहीत, तर भूगर्भवेत्ता वैज्ञानिक लोकच हे रहस्य जाणू शकतात. तसेच विष्णू परमेश्वराने आपल्या सत्तेने ब्रह्मांडाला व्याप्त केलेले आहे. तो सर्व पदार्थ सृष्टीच्या आरंभी उत्पन्न करतो, धारण करतो व प्रलयकाळी त्यांचा संहार करतो. हे तीन रूपाचे त्याचे कार्य तीन प्रकारे पाय ठेवण्याच्या रूपात वर्णिलेले आहे. जरी त्याने सर्व स्थानी पाय ठेवलेले आहेत तरी जसे एखाद्याचा धुळीने माखलेला व लपलेला पाय दिसत नाही तसेच त्याचे सर्वत्र विद्यमान स्वरूपही दृष्टिगोचर होत नाही. ॥९॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राचे गुणवर्णनपूर्वक त्याला आवाहन करण्यामुळे, त्याचे सहायक मित्र, वरुण व अर्यमाच्या नेतृत्वाची याचना करण्यामुळे व मित्रावरुण, मरुत आणि विष्णूच्या गुणकर्माचे कीर्तन करण्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மூன்று அடிகளால் தன் பாதத்தை வைக்கிறார். இவர் தூளியுடனான பாதத்தில் அனைத்தும் ஒன்று சேர்கிறது.

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