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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 223
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
अ꣡ती꣢हि मन्युषा꣣वि꣡ण꣢ꣳ सुषु꣣वा꣢ꣳस꣣मु꣡पे꣢꣯रय । अ꣣स्य꣢ रा꣣तौ꣢ सु꣣तं꣡ पि꣢ब ॥२२३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ति꣢꣯ । इ꣣हि । मन्युषावि꣡ण꣢म् । म꣣न्यु । सावि꣡न꣢म् । सु꣣षुवाँ꣡स꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । आ । ई꣣रय । अस्य꣢ । रा꣣तौ꣢ । सु꣣त꣢म् । पि꣣ब ॥२२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अतीहि मन्युषाविणꣳ सुषुवाꣳसमुपेरय । अस्य रातौ सुतं पिब ॥२२३॥
स्वर रहित पद पाठ
अति । इहि । मन्युषाविणम् । मन्यु । साविनम् । सुषुवाँसम् । उप । आ । ईरय । अस्य । रातौ । सुतम् । पिब ॥२२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 223
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में यह कहा गया है कि इन्द्र किससे सोमरस का पान करे।
पदार्थ
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (मन्युषाविणम्) जो उदासीन भाव से अर्थात् हृदय में प्रीति रखे बिना उपासना करता है, उसे (अति इहि) लाँघ जाइये। (सुषुवांसम्) हार्दिक प्रीति से उपासनारस अभिषुत करनेवाले को (उप-आ-ईरय) अपने समीप ले आइये। (अस्य) इस यजमान के (रातौ) आत्म-समर्पण-प्रवृत्त होने पर (सुतम्) अभिषुत श्रद्धा रस का (पिब) पान कीजिए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! आप (मन्युषाविणम्) क्रोध उगलनेवाले दुष्ट शत्रु को (अति-इहि)पराजित कीजिए। (सुषुवांसम्) कर-प्रदानरूप सोमयाग करनेवाले प्रजाजन को (उप-आ-ईरय) प्राप्त होकर शुभ कर्मों में प्रेरित कीजिए। (अस्य) इस प्रजाजन के (रातौ) कर-प्रदान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) दिये हुए कर को (पिब) स्वीकार कीजिए। और स्वीकार करके उसे सहस्रगुणित रूप में प्रजा-कल्याण के कार्य में ही व्यय कर दीजिए, जैसे सूर्य भूमिष्ठ रसों को सहस्रगुणित रूप में बरसा देने के लिए ही ग्रहण करता है ॥ तृतीय—अध्ययनाध्यापन के पक्ष में। हे इन्द्र ! विद्युत् के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी ! तू (मन्युषाविणम्) क्रोध, द्वेष आदि से विद्यादान करनेवाले गुरु को (अति-इहि) त्याग दे, उसके पास विद्या पढ़ने के लिए मत जा। (सुषुवांसम्) प्रेम से विद्यादान करनेवाले के पास ही (उप-आ-ईरय) पहुँचकर विद्या पढ़ने के लिए प्रार्थना कर। (अस्य) उस गुरु के (रातौ) विद्यादान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) ज्ञानरस को (पिब) पी । इससे यह अभिप्राय सूचित होता है कि अध्यापक को छात्रों के प्रति दिव्य मन रखते हुए रमण-पद्धति से पढ़ाना चाहिए। अथर्ववेद में छात्रों की ओर से आचार्य को कहा गया है कि हे वाणी के अधिपति तथा विद्याधन के स्वामी आचार्यप्रवर ! आप दिव्य मन के साथ हमारे बीच में पुनः-पुनः आइये और ऐसी रमण-पद्धति से हमें विद्यादान दीजिए कि सुना हुआ शास्त्र कभी भूलें नहीं (अथ० १।१।२) ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर उसके श्रद्धारस को स्वीकार नहीं करता, जो उदासीन मन से देता है। राजा भी शत्रु को नहीं, अपितु कर (टैक्स) देनेवाले प्रजाजन को ही बढ़ाता है। गुरुओं को भी सरल पद्धति से और प्रेमपूर्वक ही छात्रों को पढ़ाना चाहिए, जटिल पद्धति से तथा क्रोध-विद्वेष आदि के वशीभूत होकर नहीं ॥१॥
पदार्थ
(मन्युषाविणम्-अतीहि) ‘मन्युं क्रोधं सुनोति यः स मन्युषावी तम्’ मन्यु-क्रोध स्रवित करनेवाले को तिरस्कृत कर (सुषुवांसम्-उपेरय) उपासनारसप्रस्रावी को ऊपर प्रेरित—उन्नत कर अपने समीप ले (अस्य रातौ) इस मुक्त सोमस्रावी के दान में—आत्मसमर्पण में (सुतं पिब) निष्पादित उपासनारस को स्वीकार कर।
भावार्थ
परमात्मन्! तू क्रोधस्रावी क्रोध करनेवाले जन को तिरस्कृत करता है किन्तु उपासनारस स्रावी को तू ऊपर उठाता अपने पास लेता है यह तेरा स्वभाव है अतः मुझ इस उपासनारसस्रावी के आत्मसमर्पण प्रसङ्ग में निष्पन्न उपासनारस को तू स्वीकार करता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से गमनशील प्रवेशशील)॥<br>
विषय
प्रभु दे रहे हैं, पी तो सही
पदार्थ
गत मन्त्र में तीन पगों के रखने का उल्लेख था। उन पगों को रखते हुए कितने ही विघ्न उपस्थित होते हैं, कितनी ही बार असफलता का मुख देखना पड़ता है। यदि इस व्यक्ति को कोई उत्साहित न कर निरन्तर निरुत्साहित करेगा, तब यह कभी भी संसार में सफल न हो सकेगा। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (मन्युषाविणम्) = [मन्यु=शोक] शोक, दु:ख व निराशा के बीजों को बोनेवाले व्यक्ति को (अति-इहि) = लाँघ जा। ऐसे व्यक्तियों के समीप मत उठ-बैठ (सुषुवांसम्) = सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाले के (उप) = समीप (ईरय) = गति कर । संसार में निरुत्साहित करनेवाले व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर किसी ने सफलता प्राप्त नहीं की, इसलिए उत्साह बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि हमारा सम्पर्क निराशावादियों से न होकर सदा आशावादियों से रहे। आशावाद में भरे हुए मनुष्य को चाहिए कि (अस्य) = प्रभु की (रातौ) = दोनों— (सुतम्)=शक्ति व ज्ञान का (पिब) = पान करे। प्रभु तुझे ज्ञान दे रहे हैं, तू उस ज्ञान को पी। प्रभु ने आहार से वीर्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया से शक्ति दी है - तू उसे अपने में सुरक्षित कर। मनुष्य निरुत्साहित न हो, ज्ञान का संचय करता चले और शक्ति को अपने में भरता चले तो वह उल्लिखित तीनों पगों को रखने में अवश्य समर्थ होगा।
भावार्थ
आशावादियों के सम्पर्क में चलो, ज्ञान व शक्ति का संचय करो। यही मेधातिथि का मार्ग है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे आत्मन् ! तू ( मन्युषाविणं ) = क्रोध को उत्पन्न करने वाले भाव को ( अति इहि ) = छोड़ दे । ( सुसुवांसम् ) = उत्तम रूप से संचालन करने या उत्तम रस सम्पादन करने वाले के ( उप ईरय ) = पास ही सदा स्वस्थ रूप से प्राप्त हो । ( अस्य रातौ ) = उसके आनन्द की दशा में ही तू ( सुतं ) = उत्तम ज्ञान का ( पिब ) = आस्वादन कर ।
टिप्पणी
२२३ – समुपारये’, ‘इम रातं सुतं पित्र' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मेधातिथिः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रः कस्य सोमरसं पिबेदित्याह।
पदार्थः
प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्र परमेश्वर ! त्वम् (मन्युषाविणम्२) यो मन्युना उन्मनस्त्वेन हार्दिकप्रीतिराहित्येन सुनोति उपास्ते तम् (अति इहि) अतिक्रम्य गच्छ। (सुषुवांसम्) हार्दिकप्रीत्या उपासनारसमभिषुतवन्तम्। षुञ् अभिषवे, लिटः क्वसुः। (उप-आ-ईरय) स्वान्तिके आनय। ईर गतौ कम्पने च, ण्यन्तः। अस्य यजमानस्य (रातौ) आत्मसमर्पणे प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतम् श्रद्धारसम् (पिब) आस्वादय ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! त्वम् (मन्युषाविणम्) क्रोधोद्वमितारं दुष्टशत्रुम् (अति-इहि) पराजयस्व। (सुषुवांसम्) करप्रदानरूपं सोमसवनं कृतवन्तं प्रजाजनम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य शुभकर्मसु प्रेरय। (अस्य) प्रजाजनस्य (रातौ) करप्रदाने प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतं करम् (पिब) स्वीकुरु, स्वीकृत्य च “प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्। “सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः” (रघु० १।१८) इति न्यायेन सहस्रगुणं कृत्वा प्रजाहितायैव व्ययस्व ॥ अथ तृतीयः—अध्ययनाध्यापनपरः। हे इन्द्र विद्युद्वत्तीव्रबुद्धे विद्यैश्वर्यजिज्ञासो विद्यार्थिन्३ ! त्वम् (मन्युषाविणम्) मन्युना कोपविद्वेषादिना सुनोति विद्यां ददाति यस्तं गुरुम् (अति-इहि) अतिक्रमस्व, तत्सकाशे विद्यामध्येतुं मा यासीः। (सुषुवांसम्) यः प्रेम्णा विद्यां ददाति तम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य विद्यां दातुं प्रार्थय। (अस्य) प्रेम्णा विद्यादातुः गुरोः (रातौ) विद्यादाने प्रवृत्ते (सुतं) ज्ञानरसं (पिब) आस्वादय। देवेन मनसा रमणपद्धत्या च छात्राणामध्यापनमुचितमिति भावः। यथाह श्रुतिः—“पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मन॑सा स॒ह। वसो॑ष्पते॒ निर॑मय॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम्। अथ० १।१।२” इति ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
परमेश्वरस्तस्य श्रद्धारसं न स्वीकरोति य उदासीनेन मनसा प्रयच्छति। राजापि शत्रुं न, प्रत्युत करप्रदातारं प्रजाजनमेव वर्द्धयति। गुरुभिरपि सरलपद्धत्या प्रेम्णा च छात्राः पाठनीयाः, न तु जटिलपद्धत्या क्रोधविद्वेषादिवशीभूतैर्वा ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।३२।२१ ‘मुपेरय’ इत्यत्र ‘मुपारणे’, ‘अस्य रातौ’ इत्यत्र च ‘इमं रातं’ इति पाठः। २. अति इहि अतीत्य आगच्छेत्यर्थः। मन्युषाविणं दीप्तस्य सोमस्य अभिषोतारं मेधातिथिं मां प्रति—इति वि०। ३. “(इन्द्रम्) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धिम्” इति “(इन्द्र) योगैश्वर्यजिज्ञासो” इति च क्रमेण ऋ० ६।४८।१४ भाष्ये, ऋ० १।१७६।६ भाष्ये च द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, thou shunnest the wrathful and approaches! the devotee. Enjoy the height of pleasure derived through his self-dedication!
Meaning
Indra, lord of life, ignore the man who offers yajnic soma in a mood of anger, frustration and protest. Ignore the man who offers yajna and soma but in a joyless and conflictive mood. Accept this soma of homage distilled and offered in a state of delight, love and faith. (Rg. 8-32-21)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मन्युषाविणम् अतीहि) ક્રોધ સ્રવિત કરનારને તિરસ્કૃત કર (सुषुवांसम् उपेरय) ઉપાસના રસ પ્રસ્રાવીને ઉપર પ્રેરિત-ઉન્નત કર, પોતાની સમીપ લે (अस्य रातौ) એ મુક્ત સોમ સ્રાવીના દાનમાં આત્મસમર્પણમાં (सुतं पिब) નિષ્પાદિત ઉપાસનારસનો સ્વીકાર કર.
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું ક્રોધસ્રાવી-ક્રોધીજનનો તિરસ્કાર કરે છે, પરન્તુ ઉપાસનારસ સ્રાવીને તું ઉપર ઉઠાવે છે, પોતાની પાસે લે છે, એ તારો સ્વભાવ છે; તેથી મારા એ ઉપાસનારસસ્રાવીનાં આત્મસમર્પણ પ્રસંગમાં નિષ્પન્ન ઉપાસનારસનો તું સ્વીકાર કરે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
کرودھی کا تیاگ!
Lafzi Maana
ہے پرمیشور! (منیُو شاوِنم) کرودھی بھگت کو (اتی ہی) آپ چھوڑ دیتے ہیں (سُوشو وانسم اُپے ریہ) شانتی پریہ امن پسند کو آپ لے لیتے اور اپنی پریرنا بھی دیتے رہتے ہیں (راتؤ) اور اُس کے بھگتی بھاونا پر (اسیہ سُتم پِب) اُس کی شردھا بھگتی بھینٹ کو آپ منظورِ نظر بھی کرتے ہیں۔
Tashree
غُصّے سے پیدا کئے بھگتی کے رس کو چھوڑتے، شانتی اور پیار کرنے والوں کو ہو جوڑتے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जो उदासीन मनाने हृदयात प्रेम न ठेवता परमेश्वराला श्रद्धारस देतो, त्याचा परमेश्वर स्वीकार करत नाही. राजाही शत्रूला नव्हे, तर कर देणाऱ्या प्रजेला वाढवितो, तसेच गुरुंनीही सरळ पद्धतीने व प्रेमाने विद्यार्थ्यांना शिक्षित केले पाहिजे. कठोर व कडक पद्धतीने व क्रोध-विद्वेष इत्यादीच्या वशीभूत होऊन नव्हे. ॥१॥
विषय
इंद्राने सोमरस प्यावा कुणाचा ?
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (अध्यात्मपर) - हे इन्द्र परमेश्वर, आपण (मन्युषा विणम्) जो मनुष्य उदासीन भाव हृदयात ठेवून म्हणजे नात तुम्चयाविषयी प्रीतीभाव नसताना उपासना करतो, त्याला तुम्ही (अति इहि) ओलांडून जा (म्हणजे त्याची उपेक्षा करा, त्याची प्रार्थना स्वीकार करू नका) (सुषुवांसम्) पूर्ण श्रद्धेने जो उपासना रस तुमच्यासठी गाळतो (खऱ्या प्रीतीयुक्त मनाने तुमची उपासना करतो) तुम्ही (उप आ ईरय) त्याला तुमच्याजवळ घ्या (त्याची प्रार्थना स्वीकार करा) (अस्य) या यजमानाने (सुतम्) (सतौ) आत्म समर्पणमय उपासनेद्वारे (सुतम्) जो श्रद्धारस तुमच्यासाठी तयार केला आहे, ते (पिव) तुम्ही प्या. (त्याच्या श्रद्धेचा स्वीकार करा.)।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) हे इन्द्र राजा, तुम्ही (मन्युषाविणम्) क्रोध ओकणाऱ्या दुष्ट शत्रूला (अति इहि) पराजित करा. (सुषुवांसम्) कर देणाऱ्या प्रजाजनाला, जो कर-दान रूपाने एका प्रकारे सोम याग करीत आहे, त्याला (उप आईरय( प्राप्त व्हा आणि त्याला शुभ कर्म करण्यास प्रवृत्त करा. (अस्य) या प्रजाजनाच्या की जो (सतौ) कर देण्याविषयी जागरूक आहे, त्यो (सुतम्) दिलेले राजा कर (पिब) स्वीकार करा आणि त्या कररूपाने संग्रहीत धनाला सहस्त्र गुणित करून त्याचे प्रजा कल्याण कार्यातच व्यय करा. नेमके त्याच पद्धतीने हे प्रजाकार्य करा की जसा सूर्य भूमीवरील जल घेतो आणि त्या जलाला सहस्त्र गुणित करून पृथ्वीला परत करतो.।। तृतीय अर्थ - (अध्ययन - अध्यायन पर) - इन्द्र, विद्युतप्रमाणे तीव्र बुद्धी असणाऱ्या हे शिष्योत्तमा, तू (मन्युषाविणम्) क्रोध, द्वेष आदी भाव मनात ठेवून विद्यादन करणाऱ्या गुरूचा (अति इहि) त्याग कर, विद्या- प्राप्तीकरिता त्याच्याजवळ जाऊ नको. (सुषुवांसम्) जो तुला प्रेमाने विद्या शिकवील, तू त्याच्याजवळ जाऊन (उप आईरय) विद्या दानाची प्रार्थना कर. (अस्म) तो गुरू जेव्हा तुला (रातौ) विद्या दान करण्यासाठी तत्पर होईल, तेव्हा (सुतम्) तो देत असलेल्या ज्ञान मोठ्या श्रद्धेने (पिब) पान कर.।। या अर्थावरून हा आशय ध्वनित होत आहे की अध्यापकाने विद्यार्थ्याविषयी दिव्य मन ठेवावे, त्याला रमण पद्धतीने शिकवावे. अर्थ वेदात शिष्यांनी आचार्याला विनंती करीत म्हटले आहे की ङ्गवाणीचे अधिपती आणि विद्या धनाचे स्वामी, हे आचार्य प्रवर, आपण मो ज्या मनाने (उदार व प्रेमळ) मन ठेवून) आमच्याकडे पुन्हा पुन्हा या आणि अशा उत्तम रमण पद्धतीने आम्हाला अध्यापन करा की एकदा ऐकलेले शास्त्र आम्ही कधीही विसरू नये.।। १।। (अथर्व. १/१/२)
भावार्थ
जो उदासीन मनाने परमेश्वरास श्रद्धारस देतो, परमेश्वर त्याच्या रसाचा (उपासनेचा) स्वीकार करत नाही. एक राजादेखील कर रूपाने प्राप्त धनाचा उपयोग शत्रु उत्कर्षासाठी करीत नाही, तर तो प्रजाजनांचीच समृद्धी वाढवितो. गुरूनेदेखील आपल्या शिष्यांना सऱळ सोप्या पद्धतीने व मोठ्या प्रेमाने शिकविले पाहिजे. जटि वा क्लिष्ट पद्धतीने अथवा मनात क्रोध- द्वेषादी भाव ठेऊन गुरूने शिष्यास कधीही कदापि शिकवू नये.।।१।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।१।।
तमिल (1)
Word Meaning
கோபமுடன் அளிப்பவனைக் கடந்து செல்லவும். சோமன் பொழிபவனை அருகில் வரத்தூண்டவும். அவன் யக்ஞத்தில் (செயலில்) , அளிக்கப்படும் சோமனைப் பருகவும் (சித்தத்தைக் கவரவும்).
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