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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 281
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी अ꣣पा꣢दि꣣यं꣡ पूर्वागा꣢꣯त्प꣣द्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣢त्वा꣡ शिरो꣢꣯ जि꣣ह्व꣢या꣣ रा꣡र꣢प꣣च्च꣡र꣢त्त्रि꣣ꣳश꣢त्प꣣दा꣡ न्य꣢क्रमीत् ॥२८१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣣पा꣢त् । अ꣣ । पा꣢त् । इ꣣य꣢म् । पू꣡र्वा꣢꣯ । आ । अ꣣गात् । पद्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣣त्वा꣢ । शि꣡रः꣢꣯ । जि꣣ह्व꣡या꣢ । रा꣡र꣢꣯पत् । च꣡र꣢꣯त् । त्रिँ꣣श꣢त् । प꣣दा꣡नि꣢ । अ꣣क्रमीत् ॥२८१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी अपादियं पूर्वागात्पद्वतीभ्यः । हित्वा शिरो जिह्वया रारपच्चरत्त्रिꣳशत्पदा न्यक्रमीत् ॥२८१॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । अपात् । अ । पात् । इयम् । पूर्वा । आ । अगात् । पद्वतीभ्यः । हित्वा । शिरः । जिह्वया । रारपत् । चरत् । त्रिँशत् । पदानि । अक्रमीत् ॥२८१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 281
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्राग्नी देवता हैं। पहेली द्वारा श्रद्धा, उषा, विद्युत् आदि का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—श्रद्धा के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) परमात्मन् और जीवात्मन् ! तुम्हारे सान्निध्य से (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह पूर्व मन्त्र में वर्णित श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) पैरोंवाली प्रजाओं से (पूर्वा) पूर्व-गामिनी होती हुई (आ अगात्) आ गयी है। (शिरः) सिर को (हित्वा) छोड़कर भी, अर्थात् बिना सिरवाली होती हुई भी यह (जिह्वया) जिह्वा से (रारपत्) पुनः-पुनः बोलती हुई सी, अर्थात् अपना सन्देश सुनाती हुई सी (चरत्) विचर रही है और यह (त्रिंशत् पदानि) शरीरस्थ दस इन्द्रियों, दस प्राणों, पाँच कोशों और आत्मासहित अहङ्कारचतुष्टय इन तीसों स्थानों को (अक्रमीत्) व्याप्त कर रही है ॥ द्वितीय—उषा के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणो और क्षत्रियो ! (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह उषा (पद्वतीभ्यः) सोयी हुई पैरोंवाली प्रजाओं से (पूर्वा) पहले जागकर (आ अगात्) आ गयी है। यह उषा (शिरः) सिर को (हित्वा) छोड़कर भी अर्थात् बिना सिर के भी (जिह्वया) जिह्वा-सदृश अपनी प्रभा से (रारपत्) जागरण का सन्देश पुनः पुनः बोलती हुई सी (चरत्) विचर रही है। (त्रिंशत् पदानि) अहोरात्र के तीसों मूहूर्तों को (अक्रमीत्) पार करके आ गयी है, क्योंकि एक पूरे अहोरात्र के पश्चात् उषा का पुनः प्रादुर्भाव होता है ॥ तृतीय—विद्युत् के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) राजप्रजाजनो ! देखो, (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह विद्युत् (पद्वतीभ्यः) पैरोंवाली मनुष्य, पशु आदि प्रजाओं से (पूर्वा) तीव्रगामिनी होती हुई (आ अगात्) हमारे उपयोग के लिए हमें प्राप्त हुई है। यह विद्युत् (शिरः हित्वा) सिर के बिना भी (जिह्वया) सन्देशवाहक विद्युत्-तारयन्त्र द्वारा (रारपत्) पुनः-पुनः सन्देश-प्रेषक के सन्देश को बोलती हुई (चरत्) तार में चलती है। यह (त्रिंशत् पदानि) महीने के तीसों दिनों को व्याप्त करके (अक्रमीत्) प्रकाश-प्रदान, सन्देशवहन, यन्त्रचालन आदि कार्यों में पग रखती है अर्थात् इन कार्यों को करती है ॥९॥ इस मन्त्र में ‘पैर-रहित होती हुई भी पैरोंवालियों से पहले पहुँच जाती है’, ‘सिर-रहित होती हुई भी जिह्वा से बोलती है’, यहाँ बिना कारण के कार्योत्पत्ति का वर्णन होने से विभावना अलङ्कार है। श्रद्धा, उषा, विद्युत् आदि किसी का नाम लिये बिना संकेतों से सूचना देने के कारण प्रहेलिकालङ्कार भी है ॥९॥
भावार्थ
श्रद्धा के धारण से धर्म में प्रवृत्ति और वैयक्तिक तथा सामाजिक उन्नति होती है। उषा जागरण का सन्देश देती है। विद्युत् के प्रयोग से रात में भी दिन के समान प्रकाश प्राप्त होता है और दूरभाषयन्त्र, आकाशवाणीयन्त्र, ऐक्सरेयन्त्र, भार ऊपर उठाने, अस्त्र छोड़ने आदि के विविध यन्त्र और स्थलयान, जलयान एवं विमान चलाये जाते हैं। इस प्रकार श्रद्धा, उषा और विद्युत् सब जनों के लिए अतिलाभकारी हैं, अतः उनका यथोचित उपयोग सबको करना चाहिए ॥९॥
पदार्थ
(इन्द्राग्नी) हे ऐश्वर्यवन् और प्रकाशस्वरूप उभयरूप परमात्मन्! (पद्वतीभ्यः) विभागवाली श्रद्धाओं—कामनाओं से—गन्धकामना रसकामना रूपकामना स्पर्शकामना शब्दकामनाओं से “कणे मनसी श्रद्धाप्रतिधाते” [अष्टा॰ १.४.६५] (पूर्वा) प्रथम सत्ता वाली “प्रज्ञा पूर्वरूपं श्रद्धोत्तररूपम्” [शा॰ आ॰ ७.१८] (इयम्-अपात्) विभागरहित गन्धादिरहित—केवल परमात्मपरायण प्रज्ञा ऋतम्भरा प्रज्ञा (अगात्) उपासक को प्राप्त होती है (शिरः-हित्वा) संसार बन्धन के शिरोरूप राग को पृथक् करके हटाकर (जिह्वया) वाणी से “जिह्वा वाङ्नाम” [निघं॰ १.११] (रारपत् चरत्) पुनः पुनः तेरा जप करती हुई (त्रिंशत् पदानि) तीसों मुहूर्त “अत्यन्तसंयोगे द्वितीया” मानों दिन रात (न्यक्रमीत्) निकाल देती है।
भावार्थ
है ऐश्वर्यवन् एवं प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! अलग अलग अपने अपने पदों भौतिक विभागों वाली श्रद्धाओं—इच्छाओं से पूर्व सत्ता वाली यह भौतिक विभागरहित परमात्मपरायणा प्रज्ञा उपासक को प्राप्त होती हैं जो संसारबन्धन के शिर—राग को दूर करके हटाकर वाणी से तेरा जप करती हुई तीसों ही मुहूर्त—दिन रात निकाल देती है तू ऐसा प्रेमपात्र कृपा कर प्राप्त हो॥९॥
विशेष
ऋषिः—भारद्वाजः (परमात्मा के लिये उपासनारस को धारण करने वाला उपासक)॥ देवताः—इन्द्राग्नी देवते (ऐश्वर्यवान् एवं प्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
सभी घड़ी आगे और आगे [वह श्रद्धा ]
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णित श्रद्धा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (अपात् इयम्) = बिना पाँववाली भी यह श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) = पाँववाली तर्क व क्रियाशक्तियों से (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्व तक (पूर्वा) = पहले (आगात्) = पहुँचती है। तर्क में चहल-पहल है, क्रिया तो है ही चहल-पहल का नाम । इन तर्क और क्रिया दोनों से विपरीत श्रद्धा शान्त है । मन्त्र में इसी बात को काव्यमय ढङ्ग से इस प्रकार कहा है कि श्रद्धा (अपात्) = बिना पाँववाली है और तर्क और क्रिया पाँववाले हैं। तर्क व क्रिया की अपेक्षा हमें शक्ति व ज्ञान तक पहुँचाने में श्रद्धा का अधिक स्थान है। श्रद्धा हमें शक्तिसम्पन्न और हमारे मस्तिष्क को प्रकाशमय बनाती है । इस श्रद्धा को धारण करनेवाला व्यक्ति (शिरः) = मस्तिष्क को अर्थात् ज्ञान को (हित्वा) = धारण करके चरत्=क्रियाशील होता हुआ (जिह्वया रारपत्) = जिह्वा से उस प्रभु के नामों का उच्चारण करता है।
यह श्रृद्धा (त्रिंशत् पदा) = दिन के तीस के तीस मुहूर्त (न्यक्रमीत्) = [नि=निश्चय] निश्चय से आगे और आगे बढ़ती है।
श्रद्धा सदा हमारी उन्नति का कारण बनती है। हमें शक्ति सम्पन्न करती है, अतः हम 'भरद्वाज' बनते हैं, हमें ज्ञान सम्पन्न करती हैं, अतः हम 'बार्हस्पत्य होते हैं।
भावार्थ
हम इस तत्त्व को समझकर चलें कि तर्क और क्रिया की अपेक्षा श्रद्धा का स्थान अधिक ऊँचा है। तर्क और क्रिया रजः प्रधान हैं, श्रद्धा सात्त्विक है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( इन्द्राग्नी ) = इन्द्र वायु और प्राण और अग्नि सूर्य और आत्मा के बलपर ( इयं ) = यह उषा या चित्-शक्ति ( अपात् ) = बिना पैरों के भी ( पद्वतीभ्यः ) = चरणवाली प्रजाओं से ( पूर्वा ) = पूर्व ही ( आगात् ) = आाजाती है । ( हित्वा शिरः ) = अपने शिर को त्याग कर ( जिह्वया ) = अपनी व्यापन शक्ति ग्रहणशक्ति से ( रारपत् ) = शब्द करती हुई ( चरत् ) = गति करती हुई ( त्रिंशत् पदानि ) = तीस पद ( अक्रमीत् ) = गति करती है ।
यजुर्वेद में इसका उषा देवता है । सायण ने उषा पक्ष में ३० पद ३० मुहूर्त कहे हैं । चितिशक्ति के पक्ष में ८ वसु ११ रुद्र और १२ आदित्य ये सब शरीर में ही हैं। उन पर वश करती है। यद्यपि ये ३१ हैं तो भी एकादश रुदों में दश प्राण ११ वां स्वयं आत्मा है । अतः वह ३० प्राण ही गिने जायेगे । आत्मा स्वतः चितिशक्ति से भिन्न नहीं । इन्द्र अग्नि उषा और ३० चरण सब मिलकर ३३ देवता हुए।
टिप्पणी
२८१ – 'हित्वीशिरो जिह्वया वावदच्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
देवता - इन्द्राग्नी ।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्राग्नी देवते। प्रहेलिकया श्रद्धोषर्विद्युदादयो वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
प्रथमः—श्रद्धापक्षे। इन्द्राग्नी सम्बोध्य पूर्वस्मिन् मन्त्रे प्रोक्ता श्रद्धा वर्ण्यते। ‘सा हि जननीव योगिनं पाति’ इति योगभाष्ये (योग १।२०) वेदव्यासः। अथ मन्त्रार्थः। हे (इन्द्राग्नी) परमात्मजीवात्मानौ ! युवयोः सान्निध्यात्। आमन्त्रितत्वात् षाष्ठेन ‘आमन्त्रितस्य च। अ० ६।१।१९८’ इति सूत्रेणाद्युदात्तत्वम्, न चाष्टमिकः (अ० ८।१।१९) प्रवर्तते पादादित्वात्। (अपात्) पादरहितापि सती (इयम्) एषा पूर्वमन्त्रोक्ता श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः प्रजाभ्यः (पूर्वा) पूर्वगामिनी सती (आ अगात्) समागतास्ति। (शिरः) मूर्धानम् (हित्वा) त्यक्त्वाऽपि, शिरोरहितापीत्यर्थः, ओहाक् त्यागे, क्त्वाप्रत्यये ‘जहातेश्च क्त्वि। अ० ७।४।४३’ इति धातोर्हिः आदेशः। इयम् (जिह्वया) रसनया (रारपत्) लालपत् यथा स्यात् तथेव, इति लुप्तोपमम्। स्वं सन्देशं वदन्तीवेत्यर्थः। रप व्यक्तायां वाचि इति धातर्यङ्लुगन्तस्य शतरि रूपम्। (चरत्) विचरति। चर गतिभक्षणयोः, लेटि रूपम्। सैषा (त्रिंशत्पदानि२) शरीरवर्तीनि दशेन्द्रियाणि, दशप्राणाः, पञ्च कोशाः, आत्मसहितमहङ्कारचतुष्टयम् इत्येतानि त्रिंशदपि स्थानानि (अक्रमीत्) अभिव्याप्नोति ॥ अथ द्वितीयः—उषःपक्षे। उषा३ वर्ण्यते। हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणक्षत्रियौ ! ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी। कौ० ११।८। (अपात्) पादरहितापि (इयम्) एषा उषाः (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः सुप्ताभ्यः प्रजाभ्यः (पूर्वा) जागरिता सती (आ अगात्) आगतास्ति। एषा (शिरः हित्वा) शिरस्त्यक्त्वा, शिरो विनापि (जिह्वया) जिह्वासदृश्या प्रभया (रारपत्) जागरणस्य सन्देशं भूयो भूयो वदन्तीव (चरत्) विचरति। (त्रिंशत् पदानि) अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तान् (अक्रमीत्) व्यतिक्रम्य समायातास्ति। एकैकमहोरात्रं व्यतियाप्य (पुनरुषस) आविर्भावो भवति, तस्मादिदमुच्यते ॥ अथ तृतीयः—विद्युत्पक्षे। विद्युद् वर्ण्यते। हे (इन्द्राग्नी) राजप्रजाजनौ४! पश्यतम्, (अपात्) पादरहितापि (इयम्) एषा विद्युत् (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः मनुष्यमृगादिप्रजाभ्यः (पूर्वा) तीव्रगामिनी सती (आ अगात्) अस्मदुपयोगाय अस्मान् प्राप्तास्ति। एषा (शिरः हित्वा) शिरो विनापि (जिह्वया) सन्देशवाहकविद्युत्तारयन्त्रकलया (रारपत्) भूयो भूयः सन्देशप्रेषकस्य सन्देशं वदन्ती (चरत्) चलति। सैषा (त्रिंशत् पदानि) मासस्य त्रिंशदपि दिनान्यभिव्याप्य (अक्रमीत्) प्रकाशप्रदानसन्देशवहनयन्त्रचालनादिव्यापारेषु पदं निधत्ते ॥९॥५ ‘अपात् सती पद्वतीभ्यः पूर्वागात्, शिरोरहिता सती जिह्वया रारपत्’ इति विना हेतुं कार्योत्पत्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारः। नामग्राहं विना सङ्केतैः सूचनात् प्रहेलिकालङ्कारोऽपि ॥९॥६
भावार्थः
श्रद्धाया धारणेन धर्मे प्रवृत्तिर्वैयक्तिकी सामाजिकी चोन्नतिर्भवति। उषा जागरणसन्देशं प्रयच्छति। विद्युतः प्रयोगेण रात्रावपि दिवसवत् प्रकाशः प्राप्यते, दूरभाष-आकाशवाणी-क्षकिरण-भारोत्तोलक-अस्त्रप्रक्षेपकादिविविध- यन्त्राणि भूजलान्तरिक्षयानानि च संचाल्यन्ते। एवं श्रद्धा, उषाः, विद्युच्च सर्वेभ्यो जनेभ्योऽतिलाभकर्यः सन्तीति तासां यथोचितमुपयोगः सर्वैर्विधेयः ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।५९।६, य० ३३।९३। उभयत्र ‘हित्वा’ ‘रारपच्चरत्’ इत्येतयोः स्थाने क्रमेण ‘हित्वी’ ‘वावदच्चरत्’ इति पाठः। २. इतरैर्भाष्यकारैः प्रायशः ‘त्रिंशत्पदा न्यक्रमीत्’ इति मत्वा व्याख्यातम्। मुद्रितासु वेदसंहितास्वपि पृथगेव मुद्रितम्। अस्माभिस्तु ‘त्रिंशत् पदानि अक्रमीत्’ इति पदपाठोऽनुसृतः। ३. ऋगेषा माधवभरतस्वामिसायणैः उषःपक्षे व्याख्याता। ४. (इन्द्राग्नी) वायुवह्नी इव वर्तमानौ राजप्रजाजनौ इति ऋ० ६।५९।२ भाष्ये द०। ५. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् यजुर्भाष्ये उषर्विषये व्याख्यातः, ‘इन्द्राग्नी’ इति पदेन च अध्यापकोपदेशकौ गृहीतौ। ऋग्भाष्ये च विद्युद्विषयो वर्णितः, ‘इन्द्राग्नी’ पदेन च वायुविद्युतौ गृहीतौ। एष च ऋग्भाष्ये तत्प्रदर्शितो भावार्थः—‘हे विद्वांसो ! भवन्तो यदि विद्युद्विद्यां सङ्गृह्णीयुस्तर्हि सर्वेभ्यो यानेभ्यः सद्यो गन्तुमन्यानि कार्याणि च साद्धुं शक्नुवन्ति’ इति। ६. विभावना विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते। सा० द० १०।६६ इति तल्लक्षणात्।
इंग्लिश (2)
Meaning
This mental power with the force of breath and soul being footless, moves faster than those with feet. Leaving the field of deliberation, it traverses through the field of speech, whence, it enters the field of action and moves with thirty steps.
Translator Comment
Thirty steps: According to Sayana these are the thirty divisions of the day and night. A Muhurat is a period of 48 minutes duration. There are thirty Muhurats in a day and night. Pt. Jaidev Vidyalankar explains these as 8 Vasus, Ten Rudras, Pranas barring the soul, and 12 Adityas. Pt. Harish Chandra Vidyalankar considers these words to signify the Innumerable powers of the mind.^Mind first deliberates, then speaks, and afterwards acts with its manifold forces. Mind, being without feet, walks faster than those with feet.
Meaning
Lightning and fire divine, this light of the dawn, shaking up its locks of hair and proclaiming its rise with its flames, radiates before life on the earth is on wheels, and moves on thirty steps of time and space. (Rg. 6-59-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા પ્રકાશ સ્વરૂપ ઉભયરૂપ પરમાત્મન્ ! (पद्वतीभ्यः) વિભાગવાળી શ્રદ્ધાઓ-કામનાઓથી-ગંધકામના, રસકામના, રૂપકામના, સ્પર્શકામના અને શબ્દકામનાઓથી (पूर्वा) પ્રથમ સત્તાવાળી (इयम् अपत्) વિભાગરહિત-ગંધાદિથી રહિત-માત્ર પરમાત્મા પરાયણા પ્રજ્ઞા - ઋતંભરા બુદ્ધિ (अगात्) ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે (शिरः हित्वा) સંસાર બંધનના શિર રૂપ રાગને પૃથક્ કરીને - દૂર કરીને (जिह्वया) વાણી દ્વારા (रारपत् चरत्) ફરી ફરી તારો જપ કરતી (त्रिंशत् पदानि) ત્રીસો મુહૂર્ત્ત-રાત અને દિવસ (न्यक्रमीत्) પસાર કરે છે. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન અને પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! અલગ અલગ પોતાના પગોથી ભૌતિક વિભાગોવાળી શ્રદ્ધાઓ-ઇચ્છાઓથી પૂર્વ સત્તાવાળી એ ભૌતિક વિભાગ રહિત પરમાત્મ પરાયણ પ્રજ્ઞા બુદ્ધિ ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે, જે સંસારનાં બંધનના શિર-રાગને દૂર કરીને-હટાવીને વાણી દ્વારા તારો જપ કરતી ત્રીસો મુહૂર્ત-દિવસ અને રાત પસાર કરે છે, તું એવો પ્રેમ પાત્ર-કૃપા કરીને પ્રાપ્ત થા. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
شردھا سے ہی عابد معبُود کو پا لیتا ہے!
Lafzi Maana
(اِندر اگنی) مال و زر کے مرکز والئی دُنیا (دیمّ اپات) شردھا (عقیدت) کے پاؤں نہیں ہیں، تب بھی عابد کے دِل میں (پوڑوا آگات) پہلے ہی آ جاتی ہے۔ جب کہ پیروں والے سب صبح صادق میں بھی سوے رہتے ہیں، (شرہ ہتوا جہویا رارپت) شردھا کا سر نہیں ہے، پھر بھی اُپاسک کی زبان پر ایش گُن گاتی ہے، اور یہ شردھا (ترِنشت پدانی اکرمیت) 30 مہورتوں (دن کے 30 حصوں) یعنی ساری زندگی میں اُس کے اندر بھری رہتی ہے۔
Tashree
سورہا ہوتا ہے جگ جب شردھا تب ہے جاگتی، دِل میں زباں پر اور من میں اِیش نام ہے جاپتی۔
मराठी (2)
भावार्थ
श्रद्धा धारण करण्यामुळे धर्मात प्रवृत्ती व वैयक्तिक व सामाजिक उन्नती होते. उषा जागृत होण्याचा संदेश देते, विद्युतच्या प्रयोगाने रात्रीही दिवसाप्रमाणे प्रकाश प्राप्त होतो व दूरभाषयंत्र, आकाशवाणी यंत्र, एक्स-रे यंत्र, ओझे उचलण्याचे, अस्त्र सोडण्याचे विविध यंत्र व स्थलयान, जलयान व विमान चालविले जातात. या प्रकारे श्रद्धा, उषा व विद्युत सर्वांसाठी अतिलाभकारी आहे. त्यासाठी त्यांचा यथायोग्य उपयोग सर्वांनी करावा ॥९॥
विषय
पुढील मंत्रात इन्द्राग्नी देवता। प्रहेलिका (कोडे) रूपाने श्रद्धा, उषा आणि विद्युत आदीचे वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) - (श्रद्धापरक) - हे (इन्द्राग्नी) परमात्मा आणि हे जीवात्मा, तुमच्या साहचर्यामुळे (अपात्) पाय नसताना देखील (इयम्) ही पूर्व मंत्रात वर्णिलेली श्रद्धा (पद्थीभ्यः) पाय असलेल्या लोकांपेक्षा (पूर्वा) आधी (आ अगात्) आली आहे. (माणूस पायाने चालत कुठे तरी जातो पण ही श्रद्धा भावना हृदयातच त्वरित प्रकट ोहते.) तसेच (शिरः) मस्तक (हित्वा) सोडूनदेखील म्हणजे मस्तकारहित असूनही ही (जिहृया) जिव्हासम असलेल्या आपल्या प्रथेमुळे (रारपत्) पुन्हा पुन्हा जागरणाचा संदेश देत (चरत्) अत्र-तत्र विचरण करीत आहे (श्रद्धेला शरीर नसते, पण ती माणसाला ध्येय प्राप्तीसाठी सतत प्रेरित करीत असते). ही (त्रिंशत् पदावि) शरीरस्य दहा इंद्रिये, दहा प्राण, पाच कोष आणि आल्यासह अहंकार चतुष्टय या तीस स्थानांना (अक्रमीत्) व्याप्त करीत आहे.।। द्वितीय अर्थ - (उषापर) - हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणहो व क्षत्रियहो, (अपात्) पाय नसलेली (इयम्) ही उषा (पद्धतीभ्या) अशा लोकांपेक्षा (की जे हात-पाय असूनही आळशासारखे अंथरूणात लोळत असतात) (पूर्वा) त्यांच्या आधीच जागृत होऊन (इथे पूर्व दिशेत) प्रकट झाली आहे. ही उषा (शिरः) (हित्वा) डोके सोडून देऊनदेखील म्हणजे मस्तक नसतानाही (जिहृमा) आपल्या जिव्हा सदृश लाल - लाल प्रथेमुळे (रारपत्) सर्वांना जागरणाचा संदेश देत (चरत्) दिशांतामध्ये विचरण करीत आहे. ही (त्रिंशत् पदानि) दिवस- रात्रीचे तीस प्रहर पार करून आली आहे, म्हणजे एक रात्र व एक दिवसानंतर पुन्हा उषेचे आगमन होत असते.।। तृतीय अर्थ - (विद्युतपर) हे (इन्द्राग्नी) राजा आणि हे प्रजाजनहो, पहा, (अपात्) पाय नसलेली (इयम्) ही विद्युत (पद्धतीभ्यः) पाय असलेले मनुष्य, पशू आदी प्राण्यांच्या (पूर्वा) आधी म्हणजे अति तीव्र गतीने (आ अगात्) उपयोग करावा, यासाठी आमच्यापर्यत आली आहे. ही विद्युत (शिरः हित्वा) अस्तकाशिवाय देखील (जिहृया) आपल्या संदेशवाहक तारयंत्राद्वारे (रारपत्) संदेश प्रेषकाचा संदेश आम्हाला पुन्हा पुन्हा सांगत (चरत्) तारेद्वारे विचरण करीत आहे. ही (त्रभिंशत् पदानि) एका महिन्याच्या तीस दिवसांना व्यापून (अक्रमीत्) प्रकाश- प्रदान, संदेश-वहन, यंत्र चालम (यान चालन) आदी कार्यांमध्ये आपले पाय रोवून आहे म्हणजे ही कामे करीत आहे. ।। ९।।
भावार्थ
श्रद्धेमुळे माणसाची धर्माकडे प्रवृत्ती वाढते आणि वैयक्तिक व सामाजिक उन्नती होते. उषा सर्वांना जागरणाचा संदेश देत असते. विद्युतेमुळे रात्रीदेखील दिवसाप्रमाणे प्रकाश मिळतो आणि विजेद्वारेच दूरभाष यंत्र, आकाशवाणी मंत्र, एक्स रे यंत्र, वजन उचलणारे यंत्र, अस्त्र सोडण्याचे यंत्र आदी विविध मंत्रांचे संचालन होते तसेच स्थलमान, जलमानव व विमान चालविले जातात. अशा प्रकारे श्रद्धा, उषा व विद्युत सर्वांकरिता लाभकारी आहेत. त्यामुळे सर्वांनी त्यापासून लाभ प्राप्त केले पाहिजेत. ।। ९।।
विशेष
या मंत्रातील पाय नसतानादेखील पाय असलेल्या लोकापे७ा लवकर पोचते. ‘डोके नसूनही जिव्हेने बोलते’ या कथनात कारणाशिवाय कार्योत्पत्ती दाखविली आहे. यामुळे इथे ङ्गविभावनाफ अलंकार आहे. श्रद्धा, उषा, विद्युत आदींचा नामोल्लेख न करता संकेताद्वारे सूचित केले असल्यामुळे इथे ‘प्रहेलिका आहे. ।। ९।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே அக்கினியே பாதமற்ற இந்த உஷை பாதங்களோடு பிரஜைகளுக்கு வருகிறாள். சிரசை அவள் நீளமுடனாக்கி நாக்கினால் சப்தித்துக் கொண்டு செல்லுபவனாய் [1] முப்பது அடி கீழே செல்லுகிறாள்.
FootNotes
[1] முப்பது அடி -முப்பது முகுர்த்தங்கள்.
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