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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 282
    ऋषिः - मेध्यः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    इ꣢न्द्र꣣ ने꣡दी꣢य꣣ ए꣡दि꣢हि मि꣣त꣡मे꣢धाभिरू꣣ति꣡भिः꣢ । आ꣡ शं꣢तम꣣ शं꣡त꣢माभिर꣣भि꣡ष्टि꣢भि꣣रा꣡ स्वा꣢꣯पे꣢꣯ स्वा꣣पि꣡भिः꣢ ॥२८२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्र꣢꣯ । ने꣡दी꣢꣯यः । आ । इत् । इ꣣हि । मित꣡मे꣢धाभिः । मि꣣त꣢ । मे꣣धाभिः । ऊति꣡भिः꣢ । आ । श꣣न्तम । श꣡न्त꣢꣯माभिः । अ꣣भि꣡ष्टि꣢भिः । आ । स्वा꣢पे । सु । आपे । स्वापि꣡भिः꣢ । सु꣣ । आपि꣡भिः꣢ । ॥२८२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र नेदीय एदिहि मितमेधाभिरूतिभिः । आ शंतम शंतमाभिरभिष्टिभिरा स्वापे स्वापिभिः ॥२८२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । नेदीयः । आ । इत् । इहि । मितमेधाभिः । मित । मेधाभिः । ऊतिभिः । आ । शन्तम । शन्तमाभिः । अभिष्टिभिः । आ । स्वापे । सु । आपे । स्वापिभिः । सु । आपिभिः । ॥२८२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 282
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर, राजा, विद्वान् आदि का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर, राजन् वा विद्वन् ! आप (मितमेधाभिः) मेधापूर्ण (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (नेदीयः इत्) हमारे अधिक समीप (आ इहि) आइए। हे (शन्तम) अतिशय कल्याण करनेवाले ! आप (शन्तमाभिः) अतिशय कल्याण करनेवाली (अभिष्टिभिः) अभीष्ट प्राप्तियों के साथ (आ) आइए। हे (स्वापे) सुबन्धु ! आप (स्वापिभिः) उत्कृष्ट बन्धुभावों के साथ (आ) आइए ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है। दकार, तकार, मकार की आवृत्ति में, ‘भि’ की आवृत्ति में और ‘रभि’, ‘भिरा’ में वृत्त्यनुप्रास है। ‘शन्तम, शन्तमा’ और ‘स्वापे, स्वापि’ में छेकानुप्रास है ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर की रक्षाएँ बुद्धिपूर्ण, दान कल्याणकारी और बन्धुभाव शुभ होते हैं, वैसे ही राष्ट्र में राजा और विद्वान् अध्यापक के भी हों ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र नाम से परमेश्वर, राजा, आचार्य आदि के गुण-कर्म-स्वभावों का वर्णन करके उनसे अभय आदि की याचना होने से, सूर्य नाम से भी इनकी स्तुति होने से और श्रद्धा आदि का भी महत्त्व वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ तृतीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (मितमेधाभिः-ऊतिभिः) मित—एकत्र स्थित—अविचलित अध्यात्म यज्ञ जिनसे हो रहें हैं ऐसी “मेधः-यज्ञः” [निघं॰ ३.१७] अपनी रक्षाओं के साथ (नेदीयः-इत्) अतिसमीप—हमारे आत्मा में (आ-इहि) आ—प्राप्त हो (शन्तम) हे अत्यन्त कल्याणस्वरूप परमात्मन्! तू (शन्तमाभिः-अभिष्टिभिः-आ) अत्यन्त कल्याणरूप इष्टपूर्तिकारक प्रवृत्तियों से आ—प्राप्त हो (स्वापे) हे अपनेपन को प्राप्त होने वाले बन्धु परमात्मन्! तू (स्वापिभिः-आ) स्व—अपनापन प्राप्त कराने वाली—अपना बनाने वाली भावनाओं के साथ आ—प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू एक—तुझ इष्टदेव पर निर्भर अध्यात्मयज्ञ सम्पादन वाली रक्षाओं के साथ अति समीप—आत्मा में ही प्राप्त हो तथा अति कल्याणस्वरूप! तू अत्यन्त कल्याणकारी इष्ट पूर्तिकारक प्रवृत्तियों के साथ आ—प्राप्त हो एवं हे अपनेपन से प्राप्त होने वाले बन्धु परमात्मन्! तू अपनापन कराने वाली—अपनाने वाली भावनाओं के साथ आ—प्राप्त हो॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—बालखिल्याः-ऋषयः (आत्मबलसीमा में कुशल जन)॥<br>

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    विषय

    बुद्धि, शान्ति, मित्रता

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ('मेध्य') = पवित्र जीवनवाला है। वह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! (आ) = सर्वथा (नेदीयः इत्) = बहुत ही समीप (इहि) = आइए । मेध्य की कामना है कि प्रभु उससे दूर न हों - वह सदा प्रभु के समीप रहे । वह प्रार्थना करता है आप (ऊतिभिः)=अपने रक्षणों के साथ हमें प्राप्त होओ। आपके रक्षण (मित-मेधाभिः) = ऐसे हैं जो बुद्धि का निर्माण करते हैं। वस्तुतः प्रभु जिसे समाप्त करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि का विपर्यास कर देते हैं और जिसे सुरक्षित करना चाहते हैं उसकी बुद्धि को निर्मल कर देते हैं । हे (आशन्तम) = सर्वतः, सर्वाधिक शान्त प्रभो! आप (शन्तमाभिः)=अत्यन्त शान्त (अभिष्टिभिः) = इच्छाओं से हमें प्राप्त होओ, अर्थात् हम संसार में शान्ति फैलानेवाले ही बनें नकि घातपात करते हुए अपने कोश भरने का ध्यान करें! हे (स्वापे)=उत्तम मित्रभूत प्रभो! आप हमें (स्वापिभिः)= उत्तम मित्रताओं से युक्त कीजिए | जब संसार में सभी साथ छोड़ देते हैं, उस समय प्रभु ही हमारे मित्र होते हैं, ये कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते। हम भी उत्तम मित्रतावाले हों ।

    उल्लिखित शब्दों में कहा गया है कि प्रभु के संरक्षण हममें १. बुद्धियों का निर्माण करेंगे, २. हमें शान्त इच्छाओं से भरेंगे और ३. हमें मित्र बनाएँगे। ऐसे जीवनवाला व्यक्ति ही (मेध्य)=पवित्र है। यही व्यक्ति (काण्व) = मेधावी है।

    भावार्थ

    मैं प्रभु के सामीप्य में रहकर बुद्धिमान्, शान्त व सभी का मित्र बनूँ। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( मितमेधाभिः ) = ज्ञानयुक्त  धारणावती बुद्धियों वाली ( ऊतिभिः ) = अपनी रक्षण शक्तियों के साथ तू ( आ एहि इत् ) = हमें प्राप्त हो । हे ( शन्तम ) = सुखकारक ! ( शन्तमाभिः ) = अत्यन्त शान्तिदायक ( अभि ष्टिभिः ) = हमारी सुख कामनाओं सहित और हे ( स्वापे !) = सुख को प्राप्त करने हारे हे सुबन्धो ! ( स्वापिभिः) = सुखदायक शक्तियों द्वारा तू ( आ ) = हमें प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वालखिल्या: ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरनृपविद्वदादय आहूयन्ते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) परमेश्वर राजन् विद्वन् वा ! त्वम् (मितमेधाभिः२) परिपूर्णप्रज्ञाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः सह (नेदीयः इत्) अस्माकं निकटतरम् एव। अन्तिक शब्दादीयसुनि ‘अन्तिकबाढयोर्नेदसाधौ’ अ० ५।३।६३ इति अन्तिकस्य नेदादेशः। (आ इहि) आगच्छ। हे (शन्तम) अतिशयेन सुखयितः ! त्वम् (शन्तमाभिः) अतिशयेन सुखयित्रीभिः (अभिष्टिभिः३) प्राप्तिभिः सह। इष्टिः प्राप्तिः, इष गतौ। अभि पूर्वात् ‘एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्’। अ० ६।१।९४ वा० इति पररूपम्। (आ) आ इहि आगच्छ। हे (स्वापे) सुबन्धुभूत ! त्वम् (स्वापिभिः) सुबन्धुत्वैः सह (आ) आ इहि आगच्छ। उपसर्गावृत्तेः क्रियापदावृत्तिः स्वत एव भवतीति वैदिकभाषायाः शैली ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः। दकारतकारमकारणाम् ‘भि’ इत्यस्य चावृत्तौ, ‘रभि-भिरा’ इत्यत्र च वृत्त्यनुप्रासः। ‘शन्तम, शन्तमा’, ‘स्वापे, स्वापि’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरस्य रक्षा मेधापूर्णा दानानि कल्याणकराणि बन्धुत्वानि च शुभानि भवन्ति, तथैव नृपतेर्विदुषोऽध्यापकस्य चापि भवेयुः ॥१०॥ अत्रेन्द्रनाम्ना परमेश्वरनृपत्याचार्यादीनां गुणकर्मस्वभावमुपवर्ण्य ततोऽभयादियाचनात्, सूर्यनाम्नापि तत्सवनात्, श्रद्धादेरपि महत्त्ववर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति तृतीयप्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति तृतीयाध्याये पञ्चमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।५३।५, ऋषिः मेध्यः काण्वः। २. मितः प्रक्षिप्तो मेधो यज्ञो यासु ऊतिषु ताः मितमेधाः ताभिः—इति वि०। निर्मितयज्ञाभिः निर्मितयज्ञभागाभिः ऊतिभिः मरुद्भिः सह—इति भ०। परिमितप्रज्ञाभिः ऊतिभिः रक्षाभिः। यद्वा निर्मितयज्ञाभिः मरुद्भिः सह—इति सा०। ३. आभिमुख्येन इज्यन्ते यासु देवतास्ता अभिष्टयः इष्टय इत्यर्थः—इति वि०। त्वम् अभिगच्छन्तीभिः ऊतिभिः सह—इति भ०। प्राप्तिभिः अभिमताभिर्वा—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, come very near to ns, with aids of firmly based resolve! Come, Most Auspicious with Thy most valuable gifts. O Good kinsman, come with Thy pleasant powers!

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    Meaning

    Indra, closest power divine, come at the earliest with sure protections of definite resolution of mind. Lord of supreme peace, come with most peaceful fulfilment of desire, come, dear friend, with most friendly powers of protection and progress. (Rg. 8-53-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (मितमेधाभिः ऊतिभिः) મિત = એકત્ર રહેલ અવિચિત્ત અધ્યાત્મયજ્ઞ જેનાથી થઈ રહેલ છે એવી પોતાની રક્ષાઓની સાથે (नेदीयः इत्) અતિ સમીપ અમારા આત્મામાં (आ इहि) આવ-પ્રાપ્ત થા. (शन्तम्) અત્યંત કલ્યાણ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (शन्तमाभिः अभिष्टिभिः आ) હે અત્યંત કલ્યાળ રૂપ ઇષ્ટપૂર્તિકારક પ્રવૃત્તિઓથી આવ-પ્રાપ્ત થા. (स्वापे) હે પોતાના પણાને પ્રાપ્ત કરાવનાર બંધુ પરમાત્મન્ ! તું (स्वापिभिः आ) સ્વ પોતાપણું પ્રાપ્ત કરાવનારી પોતાપણાવાળી ભાવનાઓની સાથે આવ-પ્રાપ્ત થા. (૧૦)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું એક-તારા-ઈષ્ટદેવ પર નિર્ભર અધ્યાત્મયજ્ઞ સંપાદનવાળી રક્ષાઓની સાથે અતિ સમીપ-આત્મામાં જ પ્રાપ્ત થા. હે અત્યંત કલ્યાણ સ્વરૂપ ! તું અત્યંત કલ્યાણકારી ઈષ્ટ પૂર્તિકારક પ્રવૃત્તિઓની સાથે આવ-પ્રાપ્ત થા. પોતાપણાથી પ્રાપ્ત થનાર બંધુ પરમાત્મન્ ! તું પોતાપણું કરાવનારી - અપનાવનારી ભાવનાઓની સાથે આવ-પ્રાપ્ત થા. (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پرم بندھُو ہمارے لئے شانتی لائیں!

    Lafzi Maana

    (نے دی یا اِندر) ہمارے نزد ترین دل میں ہی بس رہے بھگوان (اِت آ اہی) آپ پرگٹ ہوویں، (رُوتی بھی مِت میدھا بھی) رکھشا کے لئے ہمارے سدا سنگ رہیں، تاکہ ہم اپنی حفاظت کے لئے فکرمند نہ رہیں (سننتم شنتما بھی) اننت شانتی روُپ پربھُو! ہمارے لئے شانتی لائیں، (آسُو آپے سُو آپی بھی آ) ہے پرم بندھو! آؤ اور ہمارے لئے زیادہ سے زیادہ شانتی کی سمپدا کو لاؤ۔ آپ کی خواہشات اعلےٰ ہمیشہ ہماری شانتی کے لئے ہوں۔

    Tashree

    ہو پرم بندھو ہمارے اور نکٹ تر آپ ہو، شانتی کے منبع ہو اور شانتی کے داتا آپ ہو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे परमेश्वराचे रक्षण बुद्धिपूर्वक, दान, कल्याणकारक व बंधुभाव शुभ असतो, तसेच राष्ट्रात राजा व विद्वान अध्यापकही असावेत ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्र या नावाने परमेश्वर, राजा, आचार्य इत्यादींच्या गुण कर्म स्वभावाचे वर्णन करून त्यांच्याकडून अभय इत्यादीची याचना असल्यामुळे, सूर्य नावानेही त्यांची स्तुती असल्यामुळे व श्रद्धा इत्यादीचेही महत्त्व वर्णित असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाशी संगती आहे.

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    विषय

    इन्द्र नावाने पमरेश्वर, राजा आणि विद्वान यांना आवाहन

    शब्दार्थ

    हे (इन्द्र) परमश्वर, हे राजा, हे विद्वान, तुम्ही (मितमेधाभिः) मेधापूर्ण, कौशल्याने परिपूर्ण अशा तुमच्या (अतिभिः) रक्षणाच्या (उपामा - साधनांसह) (नेदीयः इत्) आमच्या अधिक जवळ या. हे (शन्तम) अतिशय कल्याणकारी परमेश्वर, राजा व विद्वान, तुम्ही (शन्तमाभिः) अतिशय कल्याण करणाऱ्या (अभिष्टिभिः) इच्छित पदार्थांसह (आ) या. हे (स्वापे) सुबंधु, आपण (स्वापिभिः) उत्कृष्ट बंधुभावासह (आ) आम्हा उपासकांकडे / प्रजाजनांकडे / अविद्वानांकडे या. ।। १०।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे परमेश्वराद्वारे उपासकांचे रक्षण बुद्धिपूर्ण रीतीने होते, त्याने दिलेले दान मनुष्यासाठी कल्याणकारी असते आणि त्याचा बंधुभाव शुभ असतो. तद्वत राष्ट्रात राजा आणि विद्वान अध्यापकाचे रक्षण, दान व बंधुत्व सर्वांसाठी शुभ असावे. ।। १०।। या दशतीमध्ये इंद्र नामाने परमेश्वर, राजा व आचार्य यांच्या गुण- कर्म- स्वभावाचे वर्णन आहे व त्यांच्याजवळ अभयदानाची याचना केली आहे. तसेच सूर्य नावाने त्यांचीच स्तुती केली आहे आणि श्रद्धेचे महत्त्व प्रतिपादित आहे. यामुळे या दशतीतील मंत्राच्या अर्थाची संगती मागील दशतीच्या मंत्र्याशी आहे, असे जाणावे.।। तृतीय प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची चतुर्थ दशती समाप्त. तृतीय अध्यातातील पंचम खंड समाप्त.

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே எங்கள் சமீபம் வெகு பல அறிவோடான ரட்சைகளோடு வரவும், சுகமுள்ளவனே சுகம் நிறைந்து எங்களிடம் வரவும், நல்ல பந்துவே நல்ல பந்துக்களுடன் எங்களிடம் வரவும்.

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