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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 314
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
यो꣡नि꣢ष्ट इन्द्र꣣ स꣡द꣢ने अकारि꣣ त꣡मा नृभिः꣢꣯ पुरूहूत꣣ प्र꣡ या꣢हि । अ꣢सो꣣ य꣡था꣢ नोऽवि꣣ता꣢ वृ꣣ध꣢श्चि꣣द्द꣢दो꣣ व꣡सू꣢नि म꣣म꣡द꣢श्च꣣ सो꣡मैः꣢ ॥३१४॥
स्वर सहित पद पाठयो꣡निः꣢꣯ । ते꣣ । इन्द्र । स꣡द꣢꣯ने । अ꣣कारि । त꣢म् । आ । नृ꣡भिः꣢꣯ । पु꣣रूहूत । पुरु । हूत । प्र꣢ । या꣢हि । अ꣡सः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । नः꣣ । अविता꣢ । वृ꣣धः꣢ । चि꣣त् । द꣡दः꣢꣯ । व꣡सू꣢꣯नि । म꣣म꣡दः꣢ । च꣣ । सो꣡मैः꣢꣯ ॥३१४॥
स्वर रहित मन्त्र
योनिष्ट इन्द्र सदने अकारि तमा नृभिः पुरूहूत प्र याहि । असो यथा नोऽविता वृधश्चिद्ददो वसूनि ममदश्च सोमैः ॥३१४॥
स्वर रहित पद पाठ
योनिः । ते । इन्द्र । सदने । अकारि । तम् । आ । नृभिः । पुरूहूत । पुरु । हूत । प्र । याहि । असः । यथा । नः । अविता । वृधः । चित् । ददः । वसूनि । ममदः । च । सोमैः ॥३१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 314
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और राजा को सम्बोधित किया गया है।
पदार्थ
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुःखविदारक सुखप्रद परमेश्वर ! (ते) आपके (सदने) बैठने के निमित्त (योनिः) हृदय-गृह (अकारि) हमने संस्कृत कर लिया है। हे (पुरुहूत) बहुस्तुत ! (तम्) उस हृदय-गृह में (नृभिः) उन्नति करानेवाले सत्य, अहिंसा, दान, उदारता आदि गुणों के साथ (आ प्र याहि) आप आइए, (यथा) जिससे, आप (नः) हमारे (अविता) रक्षक और (वृधः चित्) वृद्धिकर्ता भी (असः) होवें, (वसूनि) आध्यात्मिक एवं भौतिक धनों को (ददः) देवें, (च) और (सोमैः) शान्तियों से (ममदः) हमें आनन्दित करें ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक शान्तिप्रदाता राजन् ! (ते) आपके (सदने) बैठने के निमित्त (योनिः) सिंहासन (अकारि) बनाया गया है। हे (पुरुहूत) बहुत-से प्रजाजनों द्वारा निर्वाचित राजन् ! आप (नृभिः) नेता राज्याधिकारियों के साथ (आ) आकर (प्रयाहि) विराजिए, (यथा) जिससे, आप (नः) हम प्रजाओं के (अविता) रक्षक और (वृधः चित्) उन्नतिकर्ता भी (असः) होवें, (वसूनि) धनों को (ददः) देवें, (च) और (सोमैः) शान्तियों से (ममदः) हम प्रजाजनों को आनन्दित करें ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर हृदयासन पर और राजा सिंहासन पर बैठकर सबको आध्यात्मिक तथा भौतिक रक्षा, वृद्धि, सम्पदा और शान्ति प्रदान कर सकते हैं ॥२॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! (सदने) हृदयसदन में (ते योनिः-अकारि) तेरा घर—अवकाशरूप स्थान बनाया है “योनिः-गृहम्” [निघं॰ ३.४] (पुरुहूत) हे बहुत प्रकार से बुलाने योग्य परमात्मन्! (नृभिः-आ प्र याहि) हम दिव्य प्रजाओं उपासक आत्माओं के साथ “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९] समन्तरूप से प्राप्त हो—विराजो (यथा नः-अविता वृधः-चित्-असः) जिस प्रकार हमारा रक्षकवर्धक भी हो—बने (वसूनि ददः) धनों को दे (च) और (सोमैः-ममदः) हमारे उपासनारसों से तू हर्षित हो।
भावार्थ
हम उपासक जन अपने हृदय में परमात्मा के लिये अवकाश बनावें जिससे वह हम उपासक आत्माओं के साथ भली प्रकार विराजमान हो सके और विराजकर हमारा रक्षक तथा वृद्धिकर्ता भी हो सके हमारे वसाने योग्य उपयोगी ज्ञान धन भी दे सके यह सब हमारे उपासनारसों से प्रसन्न होकर ही कर सकेगा॥२॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
उपासना के लाभ
पदार्थ
(उपासना)–गत मन्त्र का सात्त्विक आहार का सेवन करनेवाला अपनी सात्त्विक अन्तःकरण की वृत्ति के कारण प्रभु का स्तोता बनता है। यही सात्त्विक आहार का पञ्चम लाभ था। वह प्रभु से कहता है कि (इन्द्र) = हे सर्वैर्यशाली प्रभो! (सदने) = इस तेरे द्वारा दिये गये मृण्मय गृह में (ते) = तेरे लिए (यीनि:) = हृदयरूपी स्थान (अकारि) = मेरे द्वारा ही बनाया गया है -निश्चित किया गया है। मैंने इस घर में हृदय को तेरे बिठाने के लिए ही अशुद्ध भावनाओं से खाली कर शुद्ध कर डाला है।
हे (नृभिः पुरुहूतः) = मनुष्यों से बहुत पुकारे गये प्रभो! आपको ही तो प्रत्येक कष्ट पतित पुरुष कष्ट-निवृत्ति के लिए पुकारता है। वे आप (तम्) = उस हृदयरूप स्थान में (आ-प्र-याहि) = सर्वतः प्रकर्षेण प्राप्त होओ, अर्थात् मैं अपने हृदय में आपका ही स्मरण करूँ।
लाभ - १. (यथा) = जिससे (आप नः) = हमारे (अविता) = रक्षक (असः) = हों। उपासक प्रभु को अपना रक्षक मानता है - अतएव वह निर्भीक है। उसी प्रकार निर्भीक जैसेकि मातृगोद में स्थित बच्चा। यह उपासक प्रभु को ही उपस्तरण व अपिधान के रूप में देखता है। २. वृधे च = आप हमारी वृद्धि के लिए होओ। अग्नि के सम्पर्क में जब तक गोला रहता
2. (वृधे च)=आप हमारी वृद्धि के लिए होओ। अङ्गिन के सम्पर्क में जब तक गोला रहता है तेजस्वी बना रहता है, अलग हुआ और ठण्ढ़ा हुआ। वही अवस्था जीव की है—प्रभु के सम्पर्क मे तेजस्वी, अलग हुआ और निस्तेज, फिर वृद्धि कहाँ?
३. (दद: वसूनि) = हे प्रभो अपने उपासक का योगक्षेम आप ही तो चलाते हैं। निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुएँ आप मुझे देते हो ।
४. भोगविलास से दूर रख यह उपासना मनुष्य को शक्तिशाली बनाती है, अतः कहते हैं कि ('सोमैः ममदः च) = आप शक्ति के द्वारा मेरे जीवन को उल्लासमय बनाते हो।
भावार्थ
उपासना के चार लाभ हैं- १. प्रभु द्वारा रक्षण २. वृद्धि - विकास, ३. वसुओं की प्राप्ति और ४. शक्ति के कारण उल्लासमय जीवन ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( ते सदने ) = तेरे निवास योग्य गृह, इस देह में ( योनिः अकारि ) = तेरे प्रकट होने का स्थान बना है । ( तम् ) = उस स्थान पर हे ( पुरुहूत ) = इन्दियों या बहुतसे भक्तों द्वारा निरन्तर स्मर किये गये आत्मन् ! ( नृभिः ) = अपने नेता, प्रागारूप मरुतो के सहित तू ( आ प्र याहि ) = सब और से हटकर वहां ही प्रकट हो और ( यथा ) = जिस प्रकार से ( नः ) = हमारा ( वृध:) = बढ़ाने हारा ( चित् ) = और ( अविता ) = पालनकर्त्ता ( असः ) = बन और ( वसूनि ) = धन, आनन्द ( ददः ) = दान कर ( सोमः च ) = और सोमों द्वारा ( ममदः ) = आनन्द का उपभोग कर ।
अन्तरेण तालुके य एष स्तन इवावलम्बते सा इन्द्रयोनिः । यत्रासौ केशान्तो विवर्त्तते व्यपोह्य शीर्षकपालं सत्यात्मप्राणारामं मनः आनन्दम् शान्तिसमृद्धममृतम् इति प्राचीनयोग्योपास्स्व ( तैतिरीयोपनि० अनु० ६ वल्ली १ । )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुबभ् ।
स्वरः - नेवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरो राजा च सम्बोध्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्र) दुःखविदारक सुखप्रद परमेश्वर, शत्रुविदारक शान्तिप्रद राजन् वा ! (ते) तव (सदने) उपवेशनार्थम्। अत्र निमित्तार्थे सप्तमी। (ते) तुभ्यम् (योनिः) हृदयरूपं गृहम् सिंहासनं वा। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (अकारि) संस्कृतम् रचितं वा अस्माभिः। हे (पुरुहूत) बहुस्तुत, बहुभिः प्रजाजनैः निर्वाचित वा ! (तम्) हृदयगृहं सिंहासनं वा (नृभिः) उन्नायकैः सत्याहिंसादानदक्षिणादिभिः गुणैः नेतृभिः राज्याधिकारिभिर्वा सह (आ प्रयाहि) प्रकर्षेण आगच्छ, (यथा) येन तत्र स्थितस्त्वम् (नः) अस्माकम् (अविता) रक्षकः (वृधः चित्) वर्धकश्चापि। अत्र वृधु वृद्धौ धातोः ‘इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः’ अ० ३।१।१३५ इति कः प्रत्ययः। (असः) भवेः। अस भुवि धातोर्लेटि मध्यमैकवचने रूपम्। (वसूनि) आध्यात्मिकानि भौतिकानि च धनानि (ददः) प्रयच्छेः। डुदाञ् दाने धातोर्लेटि रूपम्। (सोमैः च) शान्तिभिश्च (ममदः) तर्पयेः। मद तृप्तियोगे इति धातोः ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इति शपः श्लौ, द्वित्वे लेटि रूपम् ॥२॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
परमेश्वरो हृदयासनं नृपतिश्च सिंहासनमधिष्ठाय सर्वेभ्य आध्यात्मिकीं भौतिकीं च रक्षां, वृद्धिं, सम्पदं, शान्तिं च प्रदातुमर्हति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।२४।१, ‘वृधश्चिद् ददो’ इत्यत्र ‘वृधे च ददो’ इति पाठः। २. ऋग्वेदे दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं राजप्रजापक्षे व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, this body is a home made for thee to dwell in. O much invoked soul, go thither with thy powers of meditation. Thou dost guard, increase and give us wealth, and joyest in knowledge.
Meaning
Indra, lord ruler and commander of the world, the holy seat for you is created and reserved in the house of nations. Elected and invited by all equally, pray come and take it with the leading lights of humanity in the manner that you may be our saviour and protector for advancement, receive and disburse the means and materials of lifes wealth and comfort, and be happy and celebrate the joy of life with the soma of the worlds excellence. (Rg. 7-24-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (सदने) હૃદયગૃહમાં તે (ते योनिः अकारि) તારું ઘર-અવકાશરૂપ સ્થાન બનાવેલ છે (पुरुहूत) હે અનેક પ્રકારથી બોલવવા યોગ્ય પરમાત્મન્ ! (नृभिः आ प्र याहि) અમે દિવ્ય પ્રજાઓ ઉપાસક આત્માઓની સાથે સમગ્ર રૂપથી પ્રાપ્ત થા-બિરાજ (यथा नः अविता वृधः चित्त असः) જે રીતે અમારા રક્ષક વર્ધક પણ છે-બન (वसूनि ददः) ધનને આપ (च) અને (सोमैः ममदः) અમારા ઉપાસનારસોથી તું (हर्षित) આનંદિત થા. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમે ઉપાસકજનો પોતાનાં હૃદયમાં પરમાત્માને માટે અવકાશ બનાવીએ, જેથી તે અમારી-ઉપાસકોની સાથે સારી રીતે બિરાજમાન થઈ શકે અને બિરાજમાન થઈને અમારો રક્ષક અને વૃદ્ધિ કર્તા પણ બની શકે, અમને વસાવવા યોગ્ય ઉપયોગી જ્ઞાનધન પણ આપી શકે. આ સર્વ અમારા ઉપાસનારસૌથી પ્રસન્ન બનીને જ કરી શકશે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
خانئہ دِل میں اپنا گھر کیجئے!
Lafzi Maana
ہے اِندر پرمیشور! (تے سد نے یونی اکاری) آپ کے رہنے کے لئے ہم نے اپنے دِل کو آپ کا گھر بنا لیا ہے، (نِربھی پُوروہُوت) آدم زاد بُہتوں عابدوں سے بُلائے گئے خداوند کریم! (تم آیا ہی) آئیے جلدی سے اِن گھروں میں، (یتھا نہ اوِتا اسہ) جس سے ہم محفوظ ہو جائیں، (ورھ چت) اور بڑھتے جائیں۔ (وسُونی ددہ) آپ ہمیں روحانی دولتوں کو بخشئے، (چہ سومئی ممدہ) اور ہمارے جذباتِ مُحبانہ سے آنندت ہوں۔
Tashree
آپ کے رہنے کو ہم نے گھر بنایا اپنا دِل، تاکہ ہو محفوظ بڑھتے جائیں ہر ساعت میں مل۔
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वर हृदयासनावर व राजा सिंहासनावर बसून सर्वांना आध्यात्मिक व भौतिक रक्षण, वृद्धी संपदा व शांती प्रदान करू शकतो ॥२॥
विषय
इंद्र नावाने परमेश्वराला व राजाला संबोधून -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) - हे (इन्द्र) दुःखविदारक, सुखप्रद पमरेश्वरा, (ते) तुझ्या (सदने) बसण्यासाठी आम्ही हे (योनिः) हृदय-गृह (अकारि) सुसज्जित केले आहे. हे (पुरुहूत) बहुस्तुत परमेश्वरा, (तम्) त्या हृदय - गृहामध्ये (नृभिः) उन्नतीचे जी साधने, सत्य, अहिंसा, दान आदी गुण आहेत, त्या गुणांसह (आ प्र याहि) तू ये. (यथा) ज्यामुळे तू (नः) आमचा (अविता) रक्षक आणि (बुधःचित्) बुद्धिदातादेखील (असः) होशील. आम्हाला (वसूनि) आध्यात्मिक व भौतिक धन (ददः) देणारे हो (च) आणि (सोमैः) शांतिभावाद्वारे आम्हाला (ममदः) आनंदित कर.।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) - हे (इन्द्र) शत्रुविदारक, शांतिप्रदाता राजा, (ते) तुच्या (सदने) बसण्यासाठी (योनिः) सिंहासन (असारि) मी (एक कलाकार याने) तयार केले आहे. हे (पुरुहूत) अनेक प्रजाजनांद्वारे निर्वाचित अथवा ज्याला अनेक प्रजानन संकटाच्या वेळी बोलावतात ते). हे राजा, तुम्ही (नृभिः) राज्याधिकारी लोकांसह (आ) येऊन (प्रयाहि) इथे स्थानापन्न व्हा. (यथा) ज्यायोगे तुम्ही (नः) आम्हा प्रजाजनांचे (अविता) रक्षक आणि (वृधः चित्) उन्नतिकर्ता (असः) होऊ शकाल, व्हाल. हा राजा आम्हाला (वसूनि) धन संपत्ती (ददः) देवो (च) आणि (सोमैः) शांततेद्वारे वा सर्वत्र शांती स्थापित करून (ममदः) आम्हा प्रजाजनांना आनंदित करावे. ।। २।।
भावार्थ
परमेश्वर हृदयासनावर आणि राजा सिंहासनावर बसून सर्वांना आध्यात्मिक संपत्ती व भौतिक रक्ष, वृदधी, संपदा व शांती प्रदान करू शकतात. ।। २।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। २।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே!(ஆத்மாவே)நீ வசிக்க வாழ்க்கை நிலயமானது செய்யப்பட்டுள்ளது. [1](புருஹுதனே!) மனிதர்களோடு அங்கு செல்லவும்.எங்களைக் காக்கவும்.ஓங்கச் செய்ய, ஐசுவரியத்தையும் சோமனில் சந்தோஷத்தையும் அளிக்கவும்.
FootNotes
[1] புருஹுதனே - பல முறை அழைக்கப்படுபவனே
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