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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 315
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    अ꣡द꣢र्द꣣रु꣢त्स꣣म꣡सृ꣢जो꣣ वि꣢꣫ खानि꣣ त्व꣡म꣢र्ण꣣वा꣡न्ब꣢द्बधा꣣ना꣡ꣳ अ꣢रम्णाः । म꣣हा꣡न्त꣢मिन्द्र꣣ प꣡र्व꣢तं꣣ वि꣢꣫ यद्वः सृ꣣ज꣢꣫द्धा꣣रा अ꣢व꣣ य꣡द्दा꣢न꣣वा꣢न्हन् ॥३१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡द꣢꣯र्दः । उ꣡त्स꣢꣯म् । उत् । स꣣म् । अ꣡सृ꣢꣯जः । वि । खा꣡नि꣢꣯ । त्वम् । अ꣣र्णवा꣢न् । ब꣣द्बधा꣣नान् । अ꣢रम्णाः । महा꣡न्त꣢म् । इ꣣न्द्र प꣡र्व꣢꣯तम् । वि । यत् । व꣡रिति꣢ । सृ꣣ज꣢त् । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । यत् । दा꣣नवा꣢न् । ह꣣न् ॥३१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदर्दरुत्समसृजो वि खानि त्वमर्णवान्बद्बधानाꣳ अरम्णाः । महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजद्धारा अव यद्दानवान्हन् ॥३१५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदर्दः । उत्सम् । उत् । सम् । असृजः । वि । खानि । त्वम् । अर्णवान् । बद्बधानान् । अरम्णाः । महान्तम् । इन्द्र पर्वतम् । वि । यत् । वरिति । सृजत् । धाराः । अव । यत् । दानवान् । हन् ॥३१५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 315
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर के वर्षा आदि तथा मुक्तिप्रदानरूपी कार्य का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम्) सकलसृष्टि के व्यवस्थापक आप, अपने द्वारा रचित सूर्य को साधन बनाकर (उत्सम्) जल के आधार बादल का (अदर्दः) विदारण करते हो, (खानि) उसके बन्द छिद्रों को (वि असृजः) खोल देते हो। (बद्बधानान्) न बरसनेवाले बादल में दृढ़ता से बँधे हुए (अर्णवान्) जल के पारावारों को (अरम्णाः) छोड़ देते हो। इस प्रकार वृष्टिकर्म के वर्णन के बाद पहाड़ों से जलधाराओं के प्रवाह का वर्णन है। (यत्) जब (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) बर्फ के पर्वत को (विवः) पिघला देते हो और (यत्) जब (दानवान्) जल-प्रवाह में बाधक शिलाखण्ड आदियों को (हन्) दूर करते हो, तब (धाराः) नदियों की धाराओं को (अव सृजत्) बहाते हो ॥ इससे राजा का विषय भी सूचित होता है। जैसे परमेश्वर वा सूर्य वृष्टि-प्रतिबन्धक मेघ को विदीर्ण कर उसमें रुकी हुई जलधाराओं को प्रवाहित करते हैं, वैसे ही राजा भी राष्ट्र की उन्नति में प्रतिबन्धक शत्रुओं को विदीर्ण कर उनसे अवरुद्ध ऐश्वर्य की धाराओं को प्रवाहित करे ॥ द्वितीय—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम्) आप (उत्सम्) ज्ञान से रुके हुए स्रोत को (अदर्दः) खोल देते हो, (खानि) अन्तरात्मा से पराङ्मुख हुई बहिर्मुख इन्द्रियों को (वि-असृजः) बाह्य विषयों से पृथक् कर देते हो, (बद्बधानान्) आनन्दमय कोशों में रुके हुए (अर्णवान्) आनन्द के पारावारों को (अरम्णाः) मनोमय आदि कोशों में फव्वारे की तरह छोड़ देते हो। (यत्) जब, आप (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) योगमार्ग में विघ्नभूत व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदियों के पहाड़ को (विवः) विदीर्ण कर देते हो, और (यत्) जब (दानवान्) अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश रूप दानवों को (हन्) विनष्ट कर देते हो, तब (धाराः) कैवल्य प्राप्त करानेवाली धर्ममेघ समाधि की धाराओं को (अव सृजत्) प्रवाहित करते हो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर जैसे वर्षा करना, नदियों को बहाना आदि प्राकृतिक कार्य सम्पन्न करता है, वैसे ही योगाभ्यासी मुमुक्षु मनुष्य के योगमार्ग में आये हुए विघ्नों का निवारण कर उसकी आत्मा में आनन्द की वृष्टि करके उसे मोक्ष भी प्रदान करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वम्) तू (उत्सम्-अदर्दः) उत्सदन “उत्स उत्सदनात्” [निरु॰ १०.९] “दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्” [अथर्व॰ १०.७.३] ऊपर मस्तिष्क स्थान को “असौ द्युलोक उत्सः” [जै॰ १.१२.२१] खोलता है जिसमें से ज्ञान प्रवाह चलते हैं (खानि वि-असृजः) छिद्रों—इन्द्रियों को विसर्जित करता है विकसित करता है जिनमें से बाहर से गन्ध आदि अन्दर प्रविष्ट होते हैं (बद्बधानान्-अर्णवान्) नाडियों में रक्त को बाँधने वाले “बध बन्धने” [भ्वादि॰] प्राणों को “प्राणो वा अर्णवः” [श॰ ७.५.२.५१] (अरम्णाः) विसर्जित किया—छोड़ा “रम्णाति विसर्जनकर्मा” [निरु॰ १०.९] (यत्) जबकि (महान्तं पर्वतं विवः) महान् महत्त्वपूर्ण पर्व वाले—अङ्गों जोड़ों वाले शरीर को स्पष्ट—व्यक्त किया (यत्) ‘यतः’ (धाराः-सृजत्) जीवन धाराओं—जीवन शक्तियों को सर्जित किया—छोड़ा (दानवान्-अवहन्) पुनः पुनः जन्म देने वाले कारणों को “दानवं दानकर्माणम्” [निरु॰ १०.९] नष्ट करता है।

    भावार्थ

    परमात्मा सब मनुष्यों के सामान्यरूप से और उपासकों के विशेषरूप से मूर्धा—मस्तिष्क को खोलता है जिससे ज्ञान प्रवाह चलें, इन्द्रियों को विकसित करता है जिनमें गन्धादि प्रविष्ट होते हैं, नाड़ियों में रक्त को बान्धने वाले प्राणों को छोड़ता है जिनसे रक्तसञ्चार शरीर में होता है, महत्त्वपूर्ण जोड़ों वाले शरीर को व्यक्त बनाता है जीवन धाराओं को भी उसमें छोड़ता है। पुनः पुनः जन्म देने वाले कारणों को भी नष्ट करता है, ऐसा परमात्मा सदा उपासनीय है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—गातुः (परमात्मा का गान करने वाला)॥<br>

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    विषय

    उपासना के मुख्य दो लाभ - शक्ति का रहस्य - विषय निवृत्ति में

    पदार्थ

    (प्रथम) – गत मन्त्र में स्तुति का अन्तिम लाभ यह कहा गया था कि 'शक्ति के द्वारा जीवन में उल्लास।' उस शक्ति का रहस्य इस मन्त्र में वर्णित हुआ है। मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों में गईं, और उनकी शक्ति जीर्ण हुई। हे प्रभो! आप (उत्सम्) = प्रस्त्रवण को, इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को (अदर्द:) = विदीर्ण कर देते हो [दृ-जव जमंत] प्रभु स्मर-हर हैं, इन विषयों की उत्कण्ठा का हरण करनेवाले हैं। विषयोत्कण्ठा का समाप्त करके (खानि) = इन्द्रियों को (वि असृजः) = आप विषयों से मुक्त करते हो। ये विषय मनुष्य के लिए अतिग्रह नहीं रह जाते । इस प्रकार (त्वम्) = हे प्रभो! आप (बद्वधानाम्) = मुझे बुरी तरह से बाँधनेवाले (अर्णवान्) = विषय - समुद्रों को ['कामो हि समुद्र: ' उ] (अरम्णाः) = थाम देते हो। इस प्रकार विषयोत्कण्ठा की निवृत्ति, इन्द्रियों की विषयों से मुक्ति, अत्यन्त पीड़ित करते विषय समुद्र का रुक जाना, यह उपासना का प्रथम लाभ है, इसी का परिणाम शक्ति का न नष्ट होना है और जीवन का उल्लासमय बनना है।

    (द्वितीय)- इस उपासना का दूसरा परिणाम यह है (यत्) = कि (इन्द्र) = हे इस अज्ञान राशि को विदीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (महान्तं पर्वतम्) = महान् ग्रन्थियों-[पर्वों] - वाली अविद्या को (विवः) = विवृत कर देते हो-खोल डालते हो, उलझनों को सुलझा देते हो । संशयों की सब गांठें खुल जाती हैं और इस प्रकार (धारा) = ज्ञान - धाराओं को (विसृजत्) = आप प्रवाहित करते हो। पर्वत के विदीर्ण होने से जलप्रवाह बह उठता है, उसी प्रकार संशय पर्वत की विदीर्णता से ज्ञान की जलधारा बह उठती है। (ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा) = उपासना की पराकाष्ठा में सत्यपोषक बुद्धि तो प्राप्त होती ही है और (यत्) = वह ज्ञान (दानवान) = दानव-वृत्तियों को (अवहत्) = दूर नष्ट कर देता है। उपासना से ज्ञानाग्नि भी अशुभ वृत्तियों को भस्म कर देती है और हमें शक्तिशाली बनाती है।

    उपासना के इन दो लाभों का ध्यान करते हुए जो व्यक्ति सदा उस प्रभु का गायन करता है वह ‘गातु:' है और इस गायन का ही यह परिणाम है कि वह ‘त्रिविध' तापों से उठा हुआ आत्रेय बनता है।

    भावार्थ

    शक्ति व ज्ञान की प्राप्ति के लिए हम प्रभु के उपासक बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( त्वं ) = तू ने ( उत्सम् ) = ऊर्ध्वस्थान मूर्धा भाग को ( अदर्द: ) = विदारण किया, और ( खानि ) = इन्द्रिय द्वारों को ( वि-असृजः ) = तू ने स्वयं रचा और ( त्वम् ) = तूने ( अणर्वान् ) = गति शील ( वद्वधानान् ) = आघात प्रतिघात करते हुए प्राणों को ( अरम्ण: ) = व्यवस्थित किया । और ( यद् ) = जब तूने ( महान्तं ) = बड़ाभारी ( पर्वतं  ) = पोरुओं वाला देह ( विवः ) = प्रकट किया और ( यत् ) = जो ( दानवान् ) = ज्ञान देने हारे इन प्राणों को ( आवहन् ) = प्रेरित करता और ( धारा: ) = ज्ञान स्मृतिरूप धाराओं को, या अन्नरस की धाराओं को, या इन्द्रिय नाड़ियों को उन छिद्रों में प्रवाह रूप से ( विसृजद् ) = विशेष रूप से प्रेरित करता है। इसका स्पष्टीकरण ऐतरेयोपनिषत् १म, २य, ३य खण्ड में देखिये वहां ही इन्द्र का स्पष्टीकरण भी है। और देखो ( वृहदारण्यक उप० अ० १ ब्रा०४ )

    'उत्स उत्सरणाद् उत्सहनाद्वोनत्तेर्वा ( निरु० १० ।  १ ।  ४ ) खानि इन्द्रियाणि, ( काठक उ० ) ।  परान्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः ।' रम्णाति विसर्जनकर्मा, संयमनकर्मा वा ( नि० १० । १।४ )
     

    टिप्पणी

    ३१५ – ‘अरम्णा' इति, सृजोविघार अवदानव इन् इति च ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - गातुरात्रेयः गृत्सदयो वा ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ् 

     स्वरः - नेवत:। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य वृष्ट्यादिकं कैवल्यप्रदानरूपं च कर्म वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम्) सकलसृष्टिव्यवस्थापकः त्वम्, स्वरचितं सूर्यमुपकरणीकृत्य (उत्सम्) जलाधारं मेघम् (अदर्दः) भृशं विदारयसि। दॄ विदारणे धातोर्यङ्लुगन्ताल्लङि सिपि छान्दसं रूपम्। (खानि) पिहितानि छिद्राणि (वि असृजः) उद्घाटयसि। (बद्बधानान्) अवर्षके मेघे दृढं बद्धान्। बध बन्धने धातोः क्र्यादेः चानश्, ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इति शपः श्लुः, हलादिशेषाभावः। (अर्णवान्) पयसः पारावारान् (अरम्णाः) विसृजसि। रम्णातिः संयमनकर्मा विसर्जनकर्मा वा। निरु० १०।९। एवं वृष्टिकर्म वर्णयित्वा पर्वतेभ्यो जलधाराप्रवाहं वर्णयति। (यत्) यदा (महान्तम्) विशालम् (पर्वतम्) पर्वताकारं हिमीभूतं जलसंघातम् (विवः२) विवृणोषि विशेषेण द्रावयसि। वः इति ‘वृञ्’ वरणे धातोर्लुङि सिपि, ‘मन्त्रे घसह्वरणशवृदहाद्वृच्कृगमिजनिभ्यो लेः’ अ० २।४।८० इति च्लेर्लुकि अडागमाभावे रूपम्। यद्योगाद् ‘यद्वृत्तान्नित्यम्’ इति निघातप्रतिषेधाद् धातुस्वरेणोदात्तत्वम्। (यत्) यदा च (दानवान्) जलप्रवाहप्रतिबन्धकान् शिलाखण्डादीन् (हन्) हंसि चूर्णयसि। हन हिंसागत्योः, लङि अडागमाभावश्छान्दसः। तदा (धाराः) नदीः (अवसृजत्) अवासृजः। सृज विसर्गे धातोर्लङि छान्दसः पुरुषव्यत्ययः अडागमाभावश्च ॥ एतेन राजविषयोऽपि सूच्यते। यथा परमेश्वरः सूर्यो वा वृष्टिप्रतिबन्धकं मेघं विदार्य तत्रावरुद्धा जलधाराः प्रवाहयति, तथैव राजापि राष्ट्रोन्नतिप्रतिबन्धकान् शत्रून् विदार्य तैरवरुद्धा ऐश्वर्यधारा राष्ट्रे प्रवाहयेत् ॥३ एतं मन्त्रं यास्काचार्य एवं व्याचष्टे—अदृणा उत्सम्। उत्स उत्सरणाद् वा उत्सदनाद् वा उत्स्यन्दनाद् वा, उनत्तेर्वा। व्यसृजोऽस्य खानि। त्वमर्णवान् अर्णस्वत एतान् माध्यमिकान् संस्त्यानान् बाबध्यमानान् अरम्णाः, रम्णातिः, संयमनकर्मा विसर्जनकर्मा वा। महान्तम् इन्द्र पर्वतं मेघं यद् व्यवृणोः, व्यसृजोऽस्य धाराः। अवहन्नेनं दानवं दानकर्माणम्। निरु० १०।९ ॥ अथ द्वितीयः—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम् उत्सम्) अवरुद्धं ज्ञानस्रोतः (अदर्दः) विदार्य उद्घाटयसि, (खानि) अन्तरात्मनः पराङ्मुखानि बहिर्मुखानि इन्द्रियाणि। ‘पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः’। कठ० ४।१ इति प्रामाण्यात् खानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते। (वि असृजः) बाह्यविषयेभ्यः पृथक् करोषि। (बद्बधानान्) आनन्दमयकोशेषु बद्धान् (अर्णवान्) आनन्दपारावारान् (अरम्णाः) मनोमयादिकोशेषु विसृजसि। (यत्) यदा (महान्तम्) विशालम् (पर्वतम्) योगमार्गे विघ्नभूतानां व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादीनां शैलम् (विवः) विदारयसि, (यत्) यदा च (दानवान्) अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशरूपान् दैत्यान् (हन्) हंसि, तदा (धाराः) कैवल्यप्रापिकाः धर्ममेघसमाधिधाराः४ (अव सृजत्) प्रवाहयसि ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    परमेश्वरो यथा वृष्टिप्रदाननदीप्रवाहादिरूपं प्राकृतिकं कर्म सम्पादयति तथैव योगमभ्यस्यतो मुमुक्षुजनस्य मार्गे समागतान् विघ्नान् निवार्य तदात्मन्यानन्दवृष्टिं कृत्वा तस्मै मोक्षमपि प्रयच्छति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ५।३२।१ ‘सृजो वि धारा अव दानवान् हन्’ इति पाठः। २. विवः विवृतवानसि—इति वि०, भ०, सा०। केचित्तु ‘वः’ इति पदं युष्मदादेशरूपेण व्याचख्युः, तदसमञ्जसं स्वरविरोधात् पदपाठविरोधाच्च। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजप्रजापक्षे व्याख्यातवान्। ४. द्रष्टव्यम्—योग० १।३०, ३१; २।३; ४।२९।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, thou cleavest the skull, hast let loose the gates of organs, hast controlled the moving, struggling breaths, hast manifested the huge mountain- wise body full of pores, urgest these breaths, the messengers of knowledge, and impellest the streams of knowledge.

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    Meaning

    Indra, maker and breaker of things, you break open the springs, open the doors, let the streams a flow, and free the bonded to live free and enjoy, you who break the cloud and the mountain, let out the streams to flow into rivers and the sea, having destroyed the demons and broken the cloud. (Rg. 5-32-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (उत्सम् अददः) ઉત્સદન-ઉપર મસ્તિષ્ક સ્થાનને ખોલે છે જેમાંથી જ્ઞાન પ્રવાહ વહે છે. (खानि वि असृजः) છિદ્રો-ઇન્દ્રિયોને વિસર્જિત કરે છે વિકસિત કરે છે જેથી બહારથી ગંધ આદિ અંદર પ્રવિષ્ટ થાય છે. (बद्बधानान् अर्णवान्) નાડીઓમાં રક્તને બાંધનાર (अरम्णाः) વિસર્જિત કર્યું-છોડ્યું (यत्) જ્યારે (महान्तं पर्वतं विवः) મહાન મહત્ત્વપૂર્ણ પર્વવાળાઅંગો સંધિઓ વાળા શરીરને સ્પષ્ટ-વ્યક્ત કર્યું (यत्) જે (धाराः सृजत्) જીવનધારાઓ-જીવન શક્તિઓને સર્જિત કરી-છોડી (दानवान् अवहन्) ફરી-ફરી જન્મ આપનાર કારણોને નષ્ટ કરે છે. (૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા સામાન્ય રૂપથી સર્વ મનુષ્યોનો અને વિશેષરૂપથી ઉપાસકોનાં મૂર્ધા-મસ્તિષ્કને ખોલે છે, જેથી જ્ઞાન પ્રવાહ ચાલે છે. ઇન્દ્રિયોને વિકસિત કરે છે, જેથી ગંધ આદિ પ્રવિષ્ટ થાય છે. નાડીઓમાં રક્તને બાંધનાર પ્રાણોને છોડે છે, જેથી શરીરમાં રક્ત સંચાર થાય છે. મહત્ત્વપૂર્ણ સંધિઓ વાળા શરીરને વ્યક્ત બનાવે છે, જીવન ધારાઓને તેમાં છોડે છે. ફરી-ફરી જન્મ લેવાના કારણોનો પણ નાશ કરે છે, એવો પરમાત્મા સદા ઉપાસનીય છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    جہالت کے پہاڑوں کو توڑ دِیا!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر پربھو! آپ نے ہمارے اندر بھگتی رس کا (اُت سم ادردہ) دریا بہا دیا۔ (اُت کھانی اسمرج) اور ہمارے حواس خمسہ کو بنایا، (ارن وان بددھانان توّم ارمناہ) ہمارے پریم، محبت، بھگتی کے سمندروں کو جو ابھی تک بندھے پڑے تھے۔ اُن کو آپ نے چلا دیا۔ اس کے بھاؤ کے آگے جو بڑے بڑے (مہانتم پرونتم) جہالت کے پہاڑ راستہ روکے کھڑے تھے (ہت وی وہ دھارا وِسرجت) اُنہیں توڑ کر آپ نے بھگتی رس کو بہایا اور (دان وان اَوہن) خیالات بد کو نکال دیا۔

    Tashree

    راستہ روکے ہوے پربت جہالت کے کھڑے، توڑ کر اُن کو بہائے بھگتی کے دریا بڑے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर जसे वृष्टी करणे, नद्या प्रवाहित करणे इत्यादी प्राकृतिक कार्य संपन्न करतो, तसेच योगाभ्यासी मुमुक्षु माणसाच्या योगमार्गात आलेल्या विघ्नांचे निवारण करून त्याच्या आत्म्यात आनंदाची वृष्टी करून त्याला मोक्षही प्रदान करतो. ॥३॥

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    विषय

    परमेश्वराचे वृष्टिकारक व मुक्तिप्रदान रूप कार्य -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमेश्वरपर) हे (इन्द्र) परमेश्वर, (त्वम्) समस्त सृष्टीचे उत्पादक, व्यवस्थापक तुम्ही आहात. सूर्याची रचना केल्यानंतर त्या साधनाद्वारे तुम्ही (उत्सम्) जलाचा जो आधार, मेघ, त्याचे (अदर्दः) विदारण करता. (खानि) ढगांच्या छिद्रांना (वि असृजः) उघडे कतरा (त्यामुळे पाूस पडतो) तसेच (बद्बधानान्) न बरसणाऱ्या ढगामध्ये दृढतेने बंद झालेल्या (अर्णवान्) जल-धारा तुम्ही (अरम्णाः) मुक्त कतरा अशा प्रकारे वृष्टि कर्माचे वर्णन केल्यानंतर मंत्रात पर्वतावरून वाहत येणाऱ्या जलधारांचे वा निर्झरादीचे वर्णन आहे. (यत्) तुम्ही जेव्हा (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) हिम पर्वताचे (विवः) वितकणे कार्य आरंभ करता आणि जेव्हा त्या (दानवान्) जल प्रवाहात बाधक असलेल्या शिळा आदींना (हत्) दूर सारता (आणि अशा प्रकारे नदी-जल पुढे पुढे राहत जाते.) तेव्हा (धाराः) नदी-धारा (अव सृजत्) प्रवाहित होत राहते. (पर्वत, हिम, निझर, जलधारा, नदी हे सर्व लोकोपकारी कार्ये तुमच्याच कृपेने होत आहेत.)।। या वर्णनावरून राजाविषयी कथन देखील सूचित होत आहे. जसे परमेश्वर वा सूर्य वृष्टि प्रतिबंधक मेघाला विच्छिन्न करून त्यात अडकून राहिलेल्या जलधारा मुक्त करतो. तद्वत राजानेही राष्ट्रोन्नतीत बाधक शत्रूला विदीर्ण करून त्यांनी अवरुद्ध केलेल्या ऐश्वर्य-धारा मुक्त कराव्यात.।। द्वितीय अर्थ - परमेश्वरपर (हा अर्थही परमेश्वरपरच आहे, पण शब्दाचा अर्थ नेमका व आध्यात्मिक स्वरूपातील आहे.) हे (इन्द्र) परमेश्वर, (त्वम्) तुम्ही (उत्सम्) ज्ञानाचा अवरुद्ध स्त्रोत (अदर्दः) उघडा वा मोकळा करणारे आहात (खानि) अंतरात्म्यापासून पराड्मुख झालेल्या व बहिर्मुख झालेल्या इंद्रियांना तुम्ही (वि असृजः) बाह्य विषयांपासून पृथक करता, तसेच (बद् बधानाम्) आनंदमय कोशात अडकलेल्या (अर्णवान्) आनंद पारावाराला (अरम्णाः) मनोमय कोशामध्ये कारंज्याप्रमाणे वेगाने पाठविता. (यत्) जेव्हा तुम्ही (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) योग मार्गात विघ्न होऊन येणाऱ्या व्याधी, सत्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदी पर्वतांना (विवः) विदीर्ण करता आणि (यत्) जेव्हा तुम्ही (दानवान्) अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेशरूप दानवांना (हत्) विनष्ट करता, तेव्हा (धाराः) कैवल्य प्राप्त करविणाऱ्या धर्म मेघ समाधीच्या धारांना तुम्ही (अव सृजत्) प्रवाहित करता.।। ३।।

    भावार्थ

    परमेश्वर जसे पाऊस पाडणे, नद्या वाहणे आदी निसर्ग कार्ये संपन्न करतो, तसेच योगाभ्यासी मुमुक्षु मनुष्याच्या योग मार्गात येणाऱ्या विघ्नांचेही निवारण करून त्याच्या आत्म्यात आनंदाची वृष्टी करून त्यास मोक्ष देतो.।। ३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நீ கிணற்றைக் கிளப்புகிறாய்.[1]ஊற்றை விடுதலையாக்குகிறாய். தடுக்கப்பட்டிருந்த அலைமேகங்களை எங்கும் விஸ்தாரமாக்குகிறாய்.
    [2]தானவர்களைக் (தமோ குணங்களை) கொன்று மகத்தான மலையை, மேகத்தைத் திறந்து பெருந் தாரைகளைப் பெருகச் செய்கிறாய்.

    FootNotes

    [1]ஊற்றை - சனங்களுக்கு மழையைப் பொழிகிறாய்
    [2]தானவர்களை - சத்துருக்களை.

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