Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 351
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसः शंयुर्बार्हस्पत्यो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
यो꣢ र꣣यिं꣡ वो꣢ र꣣यि꣡न्त꣢मो꣣ यो꣢ द्यु꣣म्नै꣢र्द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः । सो꣡मः꣢ सु꣣तः꣡ स इ꣢꣯न्द्र꣣ ते꣡ऽस्ति꣢ स्वधापते꣣ म꣡दः꣢ ॥३५१॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । र꣣यि꣢म् । वः꣣ । रयि꣡न्त꣢मः । यः । द्यु꣣म्नैः꣢ । द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः । सो꣡मः꣢꣯ । सु꣣तः꣢ । सः । इ꣣न्द्र । ते । अ꣡स्ति꣢꣯ । स्व꣣धापते । स्वधा । पते । म꣡दः꣢꣯ ॥३५१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रयिं वो रयिन्तमो यो द्युम्नैर्द्युम्नवत्तमः । सोमः सुतः स इन्द्र तेऽस्ति स्वधापते मदः ॥३५१॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । रयिम् । वः । रयिन्तमः । यः । द्युम्नैः । द्युम्नवत्तमः । सोमः । सुतः । सः । इन्द्र । ते । अस्ति । स्वधापते । स्वधा । पते । मदः ॥३५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 351
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर की आनन्ददायकता का वर्णन है।
पदार्थ
(रयिन्तमः) अतिशय ऐश्वर्ययुक्त (यः) जो (वः) तुम्हारे लिए (रयिम्) ऐश्वर्य को देता है, और (द्युम्नवत्तमः) अतिशय तेजस्वी (यः) जो (द्युम्नैः) तेजों से, तुम्हें अलङ्कृत करता है, (सः) वह (सुतः) हृदय में प्रकट हुआ (सोमः) चन्द्रमा के समान आह्लादक और सोम ओषधि के समान रसागार परमेश्वर, हे (स्वधापते) अन्नों के स्वामी अर्थात् अन्नादि सांसारिक पदार्थों के भोक्ता (इन्द्र) विद्वन् ! (ते) तुम्हारे लिए (मदः) आनन्ददायक (अस्ति) है ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘रयिं, रयिं’ में लाटानुप्रास अलङ्कार है। ‘तमो, तमः’ ‘द्युम्नै, द्युम्न’ में छेकानुप्रास है। य्, स्, त् और म् की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥१०॥
भावार्थ
हृदय में प्रत्यक्ष किया गया परमेश्वर योगी को समस्त आध्यात्मिक ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस और आनन्द प्रदान करता है, अतः सबको यत्नपूर्वक उसका साक्षात्कार करना चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र के महिमागान का वर्णन होने, उसके प्रति श्रद्धारस आदि का अर्पण करने, उससे ऐश्वर्य माँगने, उसका आह्वान होने तथा उसकी स्तुति के लिए प्रेरणा होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में बारहवाँ खण्ड समाप्त ॥ यह तृतीय अध्याय समाप्त हुआ ॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (वः) ‘तुभ्यम्’ तेरे लिये “वचनव्यत्ययः” (यः) जो (रयिम्) “सुपां सुपो भवन्तीति, आम्स्थाने अम्” धनों की तुलना से (रयिन्तमः) अत्युत्कृष्ट धन है (यः) जो (द्युम्नैः-द्युम्नवत्तमः) द्योतन यश बलों की तुलना से अत्यन्त द्योतमान यशस्वी (सोमः-सुतः) उपासनारस निष्पन्न किया है (स्वधापते) हे अमृत रस के स्वामिन् “स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह” [श॰ ५.४.३.७] (सः) वह (ते) तेरा (मदः-अस्ति) हर्षकर है।
भावार्थ
निष्पन्न उपासनारस रसीले परमात्मा के प्रति उपहार दिया हुआ धनों की तुलना से अत्यन्त उत्कृष्ट धन भेंट तथा द्योतमान यश प्रशंसा की तुलना से अत्यन्त द्योतमान—यश प्रशंसनीय है वह और भौतिक भेंट नहीं चाहता॥१०॥
विशेष
ऋषिः—शंयुर्बार्हस्पत्यः (पूर्ण विद्वान् का पुत्र या शिष्य कल्याणरूप परमात्मा की ओर जाने वाला)॥<br>
विषय
रय और प्राण
पदार्थ
सोमः सुतः स इन्द्र तेऽस्ति स्वधापते मदः ॥ १०॥ आत्मनीरीक्षण करनेवाला तिरश्ची यह अनुभव करता है कि सोम की रक्षा होने पर उसका जीवन उल्लासमय होता है और सोम-रक्षा के अभाव में उसे निराशा व उदासी प्रतीत होती है। इस शरीर को व्याधिशून्य व मन को आधिशून्य बनाने का एक ही उपाय है कि हम शरीर की रयि व प्राण दोनों शक्तियों को सुरक्षित करें। तिरश्ची ऋषि कहते हैं कि (वः) = तुम्हारा (यः) = जो (रयिं रयिन्तमः) = रयियों के रयि अर्थात् सर्वोत्तम रयि है और (या) = जो तुम्हारा (द्युम्नै:) = [प्राणो वा आदित्यः] आदित्य के समान ज्योतियों से (द्युमनवत्तमः) = सर्वाधिक चमकता हुआ प्राण है, (सः) = वह वस्तुतः (सुतः सोमः) = उत्पन्न हुआ यह सोम ही है। रयि अपान का वाचक है। स्थूल दृष्टि से अपान दोषों के दूर करने की शक्ति है और प्राण बल का संचार करनेवाली शक्ति है। इन दोनों प्राणापानों का मूल ‘सोम' = वीर्यशक्ति है। प्रभु ने आहार से रस आदि के क्रम द्वारा इसके उत्पादन की व्यवस्था की है। हे इन्द्र- इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव (सः) = वह सोम (ते) = तेरे लिए अर्थात् तेरी उन्नति के लिए (अस्ति) = है।
इस सोम के धारण से तू (स्व) = अपना (धा:) = धारण करनेवाला बनता है। जो भी व्यक्ति इस प्रकार अपना धारण करते हैं वे सब स्वधा हैं। इनमें भी धुरन्धर बननेवाले हे स्(वधापते) = स्वधारकों के मुखिया जीव! (मद:) = तू हर्षयुक्त हो, तेरा जीवन उल्लासमय हो । इस स्वधापति ने सोम रक्षा से अपने जीवन को शक्तिशाली बनाया है, इसीसे यह ‘आङ्गिरस' कहलाया है। अन्तर्मुख यात्रावाला व्यक्ति ‘आङ्गिरस' होना ही चाहिए । बहिर्मुख यात्रा में ही भोग-विलास में फँसकर मनुष्य जीर्ण शक्ति होता है, अन्तर्मुख यात्रा में नहीं।
भावार्थ
हम स्वधापति बनें और अपने जीवन को उल्लासमय बनाएँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( यः ) = जो स्वयं ( रयिन्तमः ) = सबसे उत्तम ऐश्वर्य, है और ( यः द्युम्नैः ) = जो कान्तियों, ओजों और ऐश्वर्यौ से ( द्युम्नवत्तमः ) = अत्यन्त अधिक कान्तिसम्पन्न, ऐश्वर्यवान् है ( सः ) = वह परमेश्वर ( वः ) = आप लोगों को ( रयिम् ) = जीवन, धन दे । हे परमेश्वर ! ( हे स्वधापते ) = हे समस्त स्वयं अपने को धारण करने हारे जीवों के पालक, ( सुतः ) = तैयार किया हुआ ( सोमः ) = सोम ज्ञान, आनन्दरस या समस्त ऐश्वर्य ही ( ते मदः ) = तेरे हर्ष का साधन ( अस्ति ) = है ।
टिप्पणी
३५१ - 'यो रयिवो' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्य:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अनुष्टुभ् ।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्यानन्दकरत्वं वर्णयति।
पदार्थः
(रयिन्तमः२) रयिवत्तमः, अतिशयेन ऐश्वर्ययुक्तः (यः वः) तुभ्यम्। वस् इति बहुवचनस्य विहितो युष्मदादेशश्छन्दस्येकवचनेऽपि बहुशो दृश्यते। (रयिम्) ऐश्वर्यम्, ददातीति शेषः, (द्युम्नवत्तमः) अतिशयेन तेजोयुक्तश्च (यः द्युम्नैः) तेजोभिः, त्वामलङ्करोतीति शेषः, (सः) असौ (सुतः) हृदये प्रकटितः (सोमः) चन्द्रवदाह्लादकः सोमौषधिवद् रसागारश्च परमेश्वरः, हे (स्वधापते) अन्नपते, सांसारिकपदार्थानाम् उपभोक्तः इत्यर्थः, स्वधा इत्यन्ननाम, निघं० २।७। (इन्द्र) विद्वन् ! (ते) तुभ्यम् (मदः) आनन्दकरः (अस्ति) भवति ॥१०॥३ अत्र ‘रयिं-रयिं’ इति लाटानुप्रासः, ‘तमो-तमः’ ‘द्युम्नै-द्युम्न’ इति छेकानुप्रासः। यकार-सकार-तकार-मकाराणां पृथक्-पृथग् असकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासश्च ॥१०॥
भावार्थः
हृदि प्रत्यक्षीकृतः परमेश्वरो योगिने सकलमाध्यात्मिकमैश्वर्यं ब्रह्मवर्चसमानन्दं च प्रयच्छतीत्यसौ सर्वैर्यत्नेन साक्षात्करणीयः ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य महिमगानवर्णनात्, तं प्रति श्रद्धारसादीनामर्पणात्, तत ऐश्वर्ययाचनात्, तदाह्वानात्, तत्स्तुत्यर्थ प्रेरणाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विदाङ्कुर्वन्तु। इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः ॥ इति तृतीयेऽध्याये द्वादशः खण्डः ॥ समाप्तश्चायं तृतीयोऽध्यायः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।४४।१। तत्र ‘रयिं वो’ इत्यत्र ‘रयिवो’ इति निरनुस्वारः समस्तः पाठः। २. रयिशब्दात् व्रीह्यादित्वादिनिः—इति म०। तत्र ‘व्रीह्यादिभ्यश्च। अ० ५।२।११६’ इति पाणिनिसूत्रम्, व्रीह्यादिषु पाठश्चोन्नेयः। नलोपे ‘नाद् घस्य। अ० ८।२।१७’ इति नुडागमः। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘राजादिभिः किं कर्तव्य’मिति विषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
That God, Who is most wealthy and most illustrious in splendour, makes you rich. O God, the Nourisher of soul, may Thy calm and son-like subjects be a source of happiness to Thee.
Meaning
Indra, supreme lord of your own nature, power and law, that soma beauty and bliss of the world of existence created by you, which is most abundant in wealth and brilliance, which is most glorious in splendour and majesty, is all yours, all for yourself, all your own pleasure, passion and ecstasy. (Rg. 6-44-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (वः) તારા માટે (यः) જે (रयिम्) ધનની સમાનતાથી (रयिन्तमः) અતિ ઉત્કૃષ્ટ ધન છે (यः) જે (द्युम्नैः द्युम्नवत्तमः) દ્યોતન યશ બળોની તુલનાથી અત્યંત દ્યોતમાન યશસ્વી (सोमः सुतः) ઉપાસનારસ તૈયાર કરેલ છે (स्वधावते) હે અમૃતરસના સ્વામિન્ ! (सः) તે (ते) તારો (मदः अस्ति) હર્ષકર છે. (૧૦)
भावार्थ
ભાવાર્થ : નિષ્પન્ન ઉપાસનારસ રસીલા પરમાત્માના પ્રતિ ઉપહાર આપેલ ધનોની તુલનાથી અત્યંત ઉત્કૃષ્ટ ધન ભેટ છે તથા દ્યોતમાન યશ-પ્રશંસાની તુલનાથી અત્યંત દ્યોતમાન-યશ પ્રશંસનીય છે, તે પરમાત્મા અન્ય ભૌતિક ભેટ ઇચ્છતો નથી. (૧૦)
उर्दू (1)
Mazmoon
دَھنوں اور شُہرتوں کے مالک
Lafzi Maana
ہے اُپاسکو! (رِین تمہ یہ وہ) جو دھنوں کا سوامی ہے وہ تمہیں یوگ دھن بخشے، (یہ دئیو من وتمّہ) جویش کا سوامی (عالمی شہرت کا مالک) ہے، وہ تمہیں یش کیرتی عطا کرے، (سومہ سُتہ) ہم میں بھگتی رس پیدا ہو گیا ہے، ہے اِندر (سہ تے استی) وہ آپ کے لئے ہے، (سودھا پتے مدہ) ہے بھگتی رس اَنّ کے سوامی! ہمارا بھگتی رس بھی آپ کی نذر ہے۔
Tashree
برگ سبز است تحفئہ درویش، گر قبول اُفتد زہے عز و شرف۔
मराठी (2)
भावार्थ
हृदयात साक्षात् झालेला परमेश्वर योग्याला संपूर्ण आध्यात्मिक ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस व आनंद प्रदान करतो, त्यासाठी सर्वांनी यत्नपूर्वक त्याचा साक्षात्कार केला पाहिजे ॥१०॥
टिप्पणी
या दशतिमध्ये इंद्राच्या महिमागानाचे वर्णन असल्यामुळे, त्याला श्रद्धारस इत्यादी अर्पण करण्यामुळे, त्याला ऐश्वर्याची याचना केल्यामुळे, त्याला आह्वान असल्यामुळे व त्याच्या स्तुतीसाठी प्रेरणा असल्यामुळे, या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे
विषय
परमेश्वर आनंदकारी आहे -
शब्दार्थ
(रयिन्तमः) अतिशय ऐश्वर्यवान (यः) जो (वः) तुम्हाला (रयिम्) ऐश्वर्य देतो आणि (द्युम्नवत्तमः) अतिशय तेजस्वी (यः) जो (द्युम्नैः) तेजाने तुम्हाला अलंकृत करणे (ज्ञः) तो (सुतः) हृदयात प्रकट झालेला (सोमः) चंद्राप्रमाणे आल्हाददायक आणि सोम औषधीप्रमाणे रसांचे आगर असलेला परमेश्वर, (स्वधापते) अन्नांचे स्वामी म्हणजे अन्नादी सांसारिक पदार्थांचा भोक्ता असलेले हे विद्वान, तो परमेश्वर (ते) तुमच्यासाठी मदः) आनंददायक (अस्त) आहे.।।१०।।
भावार्थ
या मंत्रात ‘रयिं, रयिं’मध्ये लाटानुप्रास आहे. ‘तमो तमः’ व ‘द्युम्नै, द्युम्न’मध्ये छेकानुप्रास आहे. य्, स्, त् आणि म् या वर्णांची वेगवेगळ्या ठिकाणी अनेक वेळा आवृत्ती असल्यामुळे वृत्त्यनुप्रास अलंकार आहे. ।। १०।।
विशेष
हृदयात प्रकट झालेला ईश्वर योगी व्यक्तीला समस्त आध्यात्मिक ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस् आणि आनंद प्रदान करतो. म्हणून सर्वांनी यत्नपूर्वक त्याचा साक्षात्कार केला पाहिजे.।। १०।। या दशतीमध्ये इंद्राच्या महिमेचे गायन, त्याच्याप्रत श्रद्धा - रस आदींचे अर्पण, त्याच्याकडून ऐश्वर्याची याचना, त्याचे आवाहन व त्याची स्तुतिविषयी प्रेरणा केली असल्यामुळे या दशतीतील विषयांची संगती मागील दशतीच्या विषयांशी आहे, असे जाणावे.।। चतुर्थ प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची प्रथम दशती समाप्त. तृतीय अध्यायातील बारावा खंड समाप्त. इथे तृतीय अध्याय समाप्त.
तमिल (1)
Word Meaning
அதிக ஐசுவரியமுடனும் உங்களை ஐசுவரிய முள்ளவனாகச் செய்பவனும், கீர்த்திகளால் அதிசயஒளியுள்ளவனுமான வன்மையின்பதியே ! சோமன் பொழியப்பட்டவனாய் உனக்கு சந்தோஷமளிப்பவனாயிருக்கிறான்.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal