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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 352
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    प्र꣡त्य꣢स्मै꣣ पि꣡पी꣢षते꣣ वि꣡श्वा꣢नि वि꣣दु꣡षे꣢ भर । अ꣣रङ्गमा꣢य꣣ ज꣢ग्म꣣ये꣡ऽप꣢श्चादध्व꣣ने꣡ न꣢रः ॥३५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣡ति꣢꣯ । अ꣣स्मै । पि꣡पी꣢꣯षते । वि꣡श्वा꣢꣯नि । वि꣣दु꣡षे꣢ । भर । अरङ्गमा꣡य꣢ । अ꣣रम् । गमा꣡य꣢ । ज꣡ग्म꣢꣯ये । अ꣡प꣢꣯श्चादध्वने । अ꣡प꣢꣯श्चा । द꣣ध्वने । न꣡रः꣢꣯ । ॥३५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यस्मै पिपीषते विश्वानि विदुषे भर । अरङ्गमाय जग्मयेऽपश्चादध्वने नरः ॥३५२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । अस्मै । पिपीषते । विश्वानि । विदुषे । भर । अरङ्गमाय । अरम् । गमाय । जग्मये । अपश्चादध्वने । अपश्चा । दध्वने । नरः । ॥३५२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 352
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अथ चतुर्थोऽध्यायः प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर और आचार्य के प्रति मनुष्यों का कर्त्तव्य बताया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—जगदीश्वर के पक्ष में। हे नर ! तू (पिपीषते) तेरी मित्रता के प्यासे, (विदुषे) सर्वज्ञ (अरङ्गमाय) पर्याप्तरूप में धनादि प्राप्त करानेवाले, (जग्मये) सहायता के लिए सदा आगे बढ़नेवाले, और (नरः) मनुष्यों को (अ-पश्चा-दध्वने) पीछे न धकेलनेवाले, प्रत्युत सदा विजयार्थ आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करनेवाले इन्द्र जगदीश्वर के लिए (विश्वानि) अपनी सब मित्रताओं को (प्रति भर) भेंट कर ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे राजन् वा प्रजाजन ! तुम (पिपीषते) गुरुकुल चलाने के लिए धनादि पदार्थों के प्यासे, (अरङ्गमाय) विद्या आदि में पारंगत, (जग्मये) क्रियाशील (अ-पश्चा-दध्वने) कभी पग न हटानेवाले, किन्तु सदा आगे बढ़नेवाले (विदुषे) विद्वान् आचार्य के लिए (विश्वानि) सब उत्तम धन आदियों को, और विद्याप्रदान तथा आचार-निर्माण के लिए (नरः) प्रतिभाशाली बालकों को (प्रतिभर) सौंपो ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    सब राजा-प्रजा आदि को चाहिए कि वे जगदीश्वर के साथ मित्रता करें और विद्वानों को धन, धान्य आदि से सत्कृत करके उन्हें विद्या तथा उपदेश देने के लिए निश्चित कर दें ॥१॥

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    पदार्थ

    (अस्मै) इस—(पिपीषते) पान करने के इच्छुक तथा (विश्वानि विदुषे) सब लोकों के जानने वाला—(अरङ्गमाय) समर्थ—(जग्मये) सर्वत्र व्याप्त (अपश्चादध्वने) अग्र मार्ग वाले (नरः) ‘नरे’ नेता परमात्मा के लिये (प्रतिभर) अपना सोम—उपासनारस अर्पित कर।

    भावार्थ

    उपासक के उपासनारस समर्पित करने में इष्टदेव सब लोकों का जानने वाला समर्थ सर्वव्यापक अग्रणेता परमात्मा ही है वह ही उपासक के उपासनारस का प्यासा है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः (अमृत अन्न को अपने में भरण करने वाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    पीछे कदम न रखनेवाला

    पदार्थ

    (अस्मै) = इस (प्रति) = प्रत्येक व्यक्ति के लिए (नरः) = [ना का द्वितीया बहुवचन] आगे ले चलने की भावनाओं को (भर) = पूर्ण कीजिए। किसके लिए=

    १. (पिपीषते) = जो रयि और प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए सोमपान करना चाहता है। इस सोमपान से उसमें रयि= चन्द्रमा व प्राण=आदित्य तत्त्वों का मेल होता है। यह व्यक्ति आदित्य के समान अन्धकार को दूर करता है, परन्तु चन्द्र की भाँति आह्लादमय बना रहता है।

    २. (विश्वानि) = हमारे न चाहते हुए भी अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाली काम, क्रोध व लोभ आदि भावनाओं को (विदुषे) अच्छी प्रकार समझनेवाले के लिए। लोकहित में लगे हुए व्यक्ति को इन भावनाओं को समझना ही चाहिए। हम शत्रु को समझेंगे ही नहीं तो उसे जीतेंगे कैसे?

    ३. (अरङ्गमाय) = [अरं = वारण] यह लोगों के दुःखों व अज्ञानों को दूर करने के लिए गतिशील होता है तथा अपने इस कार्य में
     
    ४. (जग्मये)= निरन्तर क्रियाशील बना रहता है। कार्य के गौरव व आयुष्य की सीमितता को समझता हुआ यह आलसी हो ही कैसे सकता है? 

    ५. (अपश्चादध्वने)= यह अपने जीवन में पीछे कदम नहीं रखता। जब लोकहित के मार्ग को अपनाता है तो काम, • क्रोध व लोभ से वह अपने मार्ग से विरत नहीं होता। लोगों के अपशब्द, लोगों के पत्थर व विषदान भी उसे अपने कार्य से उपरत नहीं कर पाते।

    शरीर से अपने को शक्ति-[वाज] - सम्पन्न बनाता है, इन्द्रियों को क्रियाशील [वाज=क्रिया] मन को त्याग की भावना से युक्त [वाज - sacrifice] और बुद्धि को ज्ञान परिपूर्ण [ वाज- ज्ञान ] बनाता हुआ यह ‘भारद्वाज' निरन्तर लोकहित के मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता है। यह ज्ञान पुञ्ज ‘बार्हस्पत्य' बनकर औरों के अज्ञान को भी दूर करता है।

    भावार्थ

    हम ‘बार्हस्पत्य भारद्वाज' बनकर औरों को भी आगे ले चलनेवाले बनें। इस कार्य में सफलता के लिए हम अपने में चन्द्र व सूर्य- माधुर्य और प्रकाश - दोनों तत्त्वों का समन्वय करें।

    टिप्पणी

    नोट – नेता की तो यही भावना होनी चाहिए कि न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नापुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्ति नाशनम् ॥

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (  अस्मै  पिपीषते ) = इस सोम पान करने की इच्छा वाले, ( विश्वानि विदुषे ) = समस्त पदार्थों के जानने हारे, ( अरंगमाय ) = सर्वव्यापक, ( अपश्चात् जग्मये ) = कभी पीछे न जाने वाले, प्रत्युत सब के अग्रनेता ( नरः दध्वेन ) = मनुष्यों को सन्मार्ग पर ले  जानेहारे परमेश्वर रूप नेता के लिये ( प्रति भर ) = प्रतिदिन अपने आपको समर्पण कर । 
     

    टिप्पणी

    ३५२ – 'दध्वने नरे' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - अनुष्टुभ् ।

    स्वरः - गान्धारः

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ चतुर्थोऽध्यायः। अथ जगदीश्वरमाचार्यं च प्रति जनानां कर्त्तव्यमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—जगदीश्वरपरः। हे मनुष्य ! त्वम् (पिपीषते) पिपासते, तव सख्यं प्राप्तुमिच्छते। पीङ् पाने दिवादिः, ततः सनि शतरि रूपम्। (विदुषे) सर्वज्ञाय, (अरङ्गमाय) अरं पर्याप्तं धनादिकं गमयति प्रापयति तस्मै, बहुधनादिवर्षकायेत्यर्थः, (जग्मये) सहायतार्थं सदैव अग्रगामिने। गत्यर्थाद् गम्लृ धातोः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१’ इति किः प्रत्ययः लिड्वद्भावश्च। (नरः) मनुष्यान्। नृ शब्दस्य द्वितीयाबहुवचने रूपम्। (अपश्चादध्वने२) न पश्चा पश्चात् दध्यति प्रेरयतीति तस्मै, सर्वदा विजयार्थं अग्रे गन्तुं समुत्साहयते इत्यर्थः, इन्द्राय जगदीश्वराय। दध्यति गतिकर्मा। निघं० २।१४, तत्र ‘दध्यति’ इत्यपि पाठान्तरम्। पश्चा इति ‘पश्च पश्चा च छन्दसि। अ० ५।३।३३’ इति पश्चादर्थे निपात्यते। (विश्वानि) सर्वाणि स्वकीयानि सख्यानि (प्रति भर) समर्पय, उपायनीकुरु। अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे राजन् प्रजाजन वा ! त्वम् (पिपीषते) गुरुकुलस्य सञ्चालनाय धनादीनां पिपासते, (अरङ्गमाय३) विद्यादेः पर्याप्तं पारङ्गताय, (जग्मये) क्रियाशीलाय (अ-पश्चा-दध्वने) कदापि पश्चात् पदं न निदधानाय, किन्तु सदैव अग्रेसराय (विदुषे) विद्वद्वराय आचार्याय (विश्वानि) सर्वाण्युत्तमानि धनादीनि, विद्याप्रदानायाचारनिर्माणाय च (नरः) नॄंश्च, प्रतिभाशालिनो बालकांश्चेत्यर्थः (प्रतिभर) समर्पय ॥१॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    सर्वै राजप्रजादिभिर्जगदीश्वरेण सख्यं योजनीयम्, विद्वांसश्च धनधान्यादिना सत्कृत्य विद्योपदेशप्रदानाय निश्चिन्ताः कर्त्तव्याः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।४२।१ ‘अपश्चाद्दध्वने नरे’ इति पाठः। साम० १४४०। २. क्वचित्तु ‘अपश्चादध्वने’ इति पाठः। तद् दध्यते रूपम्। अर्थस्तु स एव। ३. (अरङ्गमाय) यो विद्याया अरं पारं गच्छति तस्मै—इति ऋ० ६।४२।१ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, grant all sorts of pleasures to the learned and highly educated person, who is thirsty for delight, never retraces his step in the journey of life, and leads others on the right path.

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    Meaning

    O people, lovers of yajna, provide all facilities of the world for this Indra, ruler and patron of knowledge and culture, bold and courageous leading scholar thirsting for knowledge and constantly going forward to reach the expansive bounds of his subject, never tarrying, never looking back. (Rg. 6-42-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्मै)(पिपीषते) પાન કરવાની ઈચ્છા કરનાર તથા (विश्वानि विदुषे) સર્વ લોકોને જાણનાર , (अरङ्गमाय) સમર્થ , (जग्मये) સર્વત્ર વ્યાપ્ત (अपश्चादध्वने) અગ્ર માર્ગગામી માટે (नरः) નેતા - પરમાત્માને માટે (प्रतिभर) પોતાનો સોમ - ઉપાસનારસ અર્પણ કર. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકનો ઉપાસનારસ સમર્પિત કરવા માટે ઇષ્ટદેવ સર્વલોકોના જ્ઞાતા, સમર્થ, સર્વવ્યાપક, અગ્રગામી પરમાત્મા જ છે, તે જ ઉપાસકના ઉપાસનારસના પ્યાસા છે. (૧) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اپنے آپ کو سمرپت کردے!

    Lafzi Maana

    (پپی شتے وِدُشے) تمہیں بڑھانے والے اور تمہاری بھگتی کو چاہنے والے عالمِ کل (ارنگ مائے جگمئے) گتی رہت ہوتے ہوئے بھی حرکت پذیر اور (اپشچات ادھونے اسمئی) کبھی پیچھے نہ ہٹنے والے سب کے اگُووانیتا اس پرمیشور کے لئے ہے اُپاسک! تُو (وِشوانی بھر) اپنا سب کچھ ارپن کر دے، (خرہ) اور ہے نرناریو! (پرتی) تم میں سے بھی ہر ایک اپنا سب کچھ بھگوان کے حوالے کر دو۔

    Tashree

    نیتا ہے سارے جگت کا سروگیہ جو پرماتما، اُس کے لئے ارپن کرو جو کچھ بھی ہے سب آپنا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा व प्रजा या सर्वांनी जगदीश्वराशी मैत्री करावी व विद्वानांना धनधान्य इत्यादींनी सत्कार करून त्यांना विद्या व उपदेश देण्याबाबत निश्चिंत करावे ॥१॥

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    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (जगदीश्वरपर अर्थ) - हे मनुष्या, तू (पिपीषते) तुझ्या मैत्रीसाठी जो तहानलेला वा अति उत्सुक आहे, अशा (विदुषे) सर्वज्ञ व (अरड्गमाय) पुष्कळ धन प्राप्त करून देणाऱ्या (जगदीश्वराशी मैत्री कर) तो (जग्मये) साह्याकरिता नेहमी पुढे येतो, (नरः) तो माणसांना (अ-पश्चा- दध्वने) मागे ढकलत नसून नेहमी पुढे जाण्यास उत्साह देतो. अशा जगदीश्वरासाठी तू आपला (विश्वानि) सर्व मैत्रीभाव (प्रति भर) अर्पण कर.।। द्वितीय अर्थ - (आचार्यपर अर्थ) - हे राजा वा हे प्रजाजन, तुम्ही (पिपीषते) गुरुकुलाचे व्यवस्थापन व संचालन करण्यासाठी आवश्यक धनाची प्राप्ती करणाऱ्या तसेच (जग्मये) विद्यार्थ्यांच्या व तमच्या साह्यासाठी सदैव पुढे येणाऱ्या आणि (नरः) मनुष्यांना (अ- पश्चा- दध्वने) मागे न ढकळणाऱ्या उलट त्यांना सदा प्रगती करण्यासाठी प्रोत्साहन देणाऱ्या (विदुषे) विद्वान आचार्यासाठी (विश्वानि) सर्व उत्तम धन, पदार्थ आदी द्या आणि विद्यावान व सदाचार- निर्माणासाठी (नरः) प्रतिभावान बालक (प्रति भर) गुरुकुलात पाठवा.।। १।।

    भावार्थ

    राजा असो वा प्रजा, सर्वांनी जगदीश्वराशी मैत्री केली पाहिजे. तसेच विद्वानांना धन, धान्य आदी देऊन सत्कृत व सम्मानित करावे की ज्यामुळे ते सर्वांना विद्या व उपदेश देण्यासाठी तत्पर राहतील व त्यांना त्याविषयी काही काळजी राहणार नाही. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    பருக விரும்பும் எதையும் அறியும், பின் தயங்காதவனாய் சுற்றுபவனாய் அருகில் துரிதமாய் வரும் வீரனான தேவரான இந்திரனுக்கு (உன்னையே) அளிக்கவும்.

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