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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 402
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - इन्द्रः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    आ꣡ या꣢ह्य꣣य꣢꣫मिन्द꣣वे꣡ऽश्व꣢पते꣣ गो꣡प꣢त꣣ उ꣡र्व꣢रापते । सो꣡म꣢ꣳ सोमपते पिब ॥४०२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । या꣣हि । अय꣢म् । इ꣡न्द꣢꣯वे । अ꣡श्व꣢꣯पते । अ꣡श्व꣢꣯ । प꣣ते । गो꣡प꣢꣯ते । गो । प꣣ते । उ꣡र्व꣢꣯रापते । उ꣡र्व꣢꣯रा । प꣣ते । सो꣡म꣢꣯म् । सो꣣मपते । सोम । पते । पिब ॥४०२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याह्ययमिन्दवेऽश्वपते गोपत उर्वरापते । सोमꣳ सोमपते पिब ॥४०२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । याहि । अयम् । इन्दवे । अश्वपते । अश्व । पते । गोपते । गो । पते । उर्वरापते । उर्वरा । पते । सोमम् । सोमपते । सोम । पते । पिब ॥४०२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 402
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा आदि का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अश्वपते) घोड़ों के अथवा अश्व नाम से प्रसिद्ध अग्नि, बादल आदि के अधीश्वर, (गोपते) गाय पशुओं के अथवा सूर्यकिरणों के अधीश्वर, (उर्वरापते) उपजाऊ भूमियों के अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) यह आप (इन्दवे) आनन्दरस के प्रवाह के लिए (आ याहि) आओ, मेरे हृदय में प्रकट होवो। हे (सोमपते) मेरे मनरूप चन्द्रमा के अधीश्वर ! आप (सोमम्) मेरे श्रद्धारस का (पिब) पान करो ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (अश्वपते) इन्द्रिय रूप घोड़ों के स्वामी, (गोपते) वाणियों और प्राणों के स्वामी, (उर्वरापते) ऋद्धि-सिद्धि की उपजाऊ बुद्धि के स्वामी मेरे अन्तरात्मन् ! (अयम्) यह तू (इन्दवे) परमेश्वरोपासना का आनन्द पाने के लिए (आ याहि) तैयार हो। हे (सोमपते) मन के स्वामी ! तू (सोमम्) ब्रह्मानन्द-रस का (पिब) पान कर ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, ‘पते’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास और ‘सोम’ की आवृत्ति में यमक है ॥४॥

    भावार्थ

    जो जीवात्मा शरीरस्थ मन, बुद्धि, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि का तथा ज्ञान, कर्म आदि का अधिष्ठाता है, उसे चाहिए कि नित्य जगदीश्वर की उपासना से ब्रह्मानन्द-रस को प्राप्त करे ॥४॥

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    पदार्थ

    (अश्वपते) हे मेरे व्यापनशील मन के पालक (गोपते) मेरी इन्द्रियों के पालक (उर्वरापते) मेरी बहुत अरों—गतिक्रमों वाली देहशकटी के पालक (सोमपते) मेरे सौम्यभाव उपासनारस के पालक (इन्दवे-आयाहि) इस आर्द्र स्नेह भरे उपासनारस के लिये (सोमं पिब-अयम्) उपासनारस का पान कर—स्वीकार कर यह जो तेरे लिये निष्पन्न किया॥

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू मेरे मन का रक्षक है उसे स्थिर एवं पवित्र कर—रख, तू इन्द्रियों का रक्षक है। इन्हें संयम में रख, तू बहुत गति वाली देह—गाडी का रक्षक है इसे अच्छे मार्ग में चला, तू सोम्यभावों उपासनारसों का रक्षक है, उन्हें निरन्तर बनाए रख। तू आर्द्र स्नेह भरे उपासनारस के लिए आ—उपासनारस का पान कर—स्वीकार कर यह तैय्यार है—यह समर्पित है॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—सौभरिः (परमात्मस्वरूप को अपने अन्दर भली-भाँति भरण धारण करने से सम्पन्न)॥<br>

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    विषय

    प्रभु का आमन्त्रण

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि (आयाहि) = आ (अयम्) = यह सोम (इन्दवे) = तेरे परमैश्वर्य के लिए होगा। हे (सोमपते) = सोम की रक्षा करनेवाले या सोम के स्वामिन् जीव! तू (सोमं पिब) = सोम का पान कर। इस सोम के पान से तुझे (अश्वपते, गोपते, उर्वरापते) = इन शब्दों से सम्बोधित किया जा सकेगा। तू अश्वपति, गोपति और उर्वरापति कहलाएगा। कर्मों में व्याप्त होनेवाली कर्मेन्द्रियाँ ‘अश्व' कहलाती हैं। तू इनका पति बनकर इन्हें सदा यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में व्याप्त रक्खेगा।( गमयन्ति अर्थान्) = तत्त्वज्ञान को देने के कारण ज्ञानेन्द्रियाँ 'गो' कहलाती हैं। तू इनका पति बनेगा, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों का ठीक उपयोग करनेवाला होगा | नव-नव उन्मेषशालिनी-नये-नये विचारों को सुझानेवाली अथवा विचारों को नये-नये प्रकार से प्रकट करनेवाली प्रतिभा - बुद्धि को यहाँ ‘उर्वरा कहा गया है। सोम के पान से यह जीव उर्वरापति बनेगा।

    कर्मेन्द्रियों का उत्तम होना, ज्ञानेन्द्रियों का सूक्ष्मता तक देखनेवाला होना और बुद्धि का तीव्र होना ये सोमपान के लाभ हैं। यही सर्वोच्च ऐश्वर्य है। सोम के पान से यह सोभरि इस ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाला बना है। इसीलिए तो प्रभु ने उसे आमन्त्रित किया था कि वह आये और इस सोम का पान करे।

    भावार्थ

    हम प्रभु के आमन्त्रण को स्वीकार करके सोमपान करनेवाले बनें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

      भा० =  हे ( अश्वपते ! ) = इन्दियों के स्वामिन् ! हे ( गोपते ) = वाणी के मालिक ! हे ( उर्वरापते ) = प्रजनन-शक्ति के स्वामिन् ! हे ( सोमपते  !) = ज्ञानवन् ! तू ( सोमं पिब ) = सोम, ज्ञान, आनन्द और बल का पान कर, उसका लाभ कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - सौभरि:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - ककुप्।

    स्वरः - ऋषभः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमात्मजीवात्मादीनाह्वयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अश्वपते) अश्वपशूनाम् अ्श्वनाम्ना ख्यातानाम् अग्निपर्जन्यादीनां२ वा अधीश्वर, (गोपते) गवां धेनूनाम् आदित्यकिरणानां वा अधीश्वर, (उर्वरापते) बहुसस्योत्पादनसमर्थानां भूमीनाम् अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) एष त्वम् (इन्दवे) आनन्दरसप्रवाहाय (आयाहि) आगच्छ, हृदये प्रकटीभव। हे (सोमपते३) मम मनश्चन्द्रस्य अधीश्वर ! त्वम् (सोमम्) मदीयं श्रद्धारसम् (पिब) आस्वादय ॥ अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे (अश्वपते) शरीरस्थे नियुक्तानाम् इन्द्रियरूपाणामश्वानां स्वामिन् ! आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। इन्द्रियाणि हयानाहुः। कठ० ३।३,४। (गोपते) गवां वाचां प्राणानां वा स्वामिन् ! गौरिति वाङ्नाम। निघं० १।११। प्राणो हि गौः। श० ४।३।४।२५। (उर्वरापते) ऋद्धिसिद्ध्युत्पादनक्षमायाः बुद्धेः स्वामिन् मम अन्तरात्मन् ! (अयम्) एष त्वम् (इन्दवे) परमात्मोपासनाया आनन्दं प्राप्तुम् (आयाहि) सन्नद्धो भव। हे (सोमपते) सोमस्य मनसः स्वामिन् ! त्वम् (सोमम्) ब्रह्मानन्दरसम् (पिब) आस्वादय ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः, ‘पते’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः, सोमावृत्तौ च यमकम् ॥४॥

    भावार्थः

    यो जीवात्मा देहस्थान् मनोबुद्धिप्राणचक्षुःश्रोत्रादीन् ज्ञानकर्मादींश्चाधितिष्ठति तेन नित्यं जगदीश्वरोपासनया ब्रह्मानन्दरसोऽधिगन्तव्यः ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२१।३ ‘आ याह्ययमिन्दवे’ इत्यत्र ‘आयाहीम इन्दवो’ इति पाठः। २. ‘प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम्’ ऋ० १०।१८८।१; ‘प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः’ ऋ० ५।८३।६ इति प्रामाण्याद् अग्निः पर्जन्यश्चाश्वो नाम। ३. अत्र चत्वारि पदानि सम्बोधनान्तानि। तेषु ‘सोमपते’ इत्यत्र ‘आमन्त्रितस्य च’ ८।१।१९ इति निघातः। ‘अश्वपते’ इत्यत्र पादादित्वान्न निघातः, किन्तु षाष्ठेन ‘आमन्त्रितस्य च’ ६।१।१९८ इत्यनेन आद्युदात्तत्वम्। ‘गोपते, उर्वरापते’ इत्यत्रापि ‘आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्’ ८।१।७२ इति न्यायेन पदात्परत्वाभावान्न निघातः, किन्तु आद्युदात्तत्वमेव।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of senses, lord of speech, lord of the strength of procreation, lord to knowledge, come hither, acquire knowledge for supreme happiness!

    Translator Comment

    A learned person should seek the company of other learned persons to advance his knowledge. Lord refers to a learned person.

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    Meaning

    Come lord of cows, horses and fertile lands, giver and protector of the nation and its glory, knowledge and wisdom and our creative activities, the somas of our success are for you to appreciate. O lord of life and lifes joy of soma, come and join the ecstasy of our achievement and its celebration. (Rg. 8-21-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्वपते) હે મારા વ્યાપનશીલ મનના પાલક (गोपते) મારી ઇન્દ્રિયોના પાલક (उर्वरापते) મારી અનેક આરા-ગતિક્રમવાળી દેહ ગાડીના પાલક (सोमपते) મારા સૌમ્યાભાવ ઉપાસનારસના પાલક ! (इन्दवे आयाहि) એ આર્દ્ર સ્નેહ ભરેલ ઉપાસનારસને માટે (सोमं पिब अयम्) ઉપાસનારસનું પાન કર - સ્વીકાર કર જે તારા માટે નિષ્પન્ન કરેલ છે. (૪)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું મારા મનનો રક્ષક છે, તેને સ્થિર અને પવિત્ર કર-રાખ. તું ઇન્દ્રિયોનો રક્ષક છે, તેને સંયમમાં રાખ. તું તીવ્ર ગતિવાળી દેહ ગાડીનો રક્ષક છે, તે તેને સંયમમાં રાખ. તું તીવ્ર ગતિવાળી દેહગાડીનો રક્ષક છે, તેને સન્માર્ગમાં ચલાવ. તું સૌમ્યભાવો ઉપાસનારસોનો રક્ષક છે, તેને નિરંતર સ્થિર રાખ. તું આર્દ્ર સ્નેહ પૂર્ણ ઉપાસનારસને માટે આવ-ઉપાસનારસનું પાન કર-સ્વીકાર કર,એ તૈયાર છે-એ સમર્પિત છે. (૪)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    دیہہ کی ہریالی بُھومی کے مالک

    Lafzi Maana

    پرمیشور دیو! آپ ہمارے من اور اِندریوں (حواسِ خمسہ) کے مالک ہیں، اِس ہری بھری دیہہ کی بھومی کے پتی ہیں اور سوم آنند کی بھی پتی ہیں، اِس لئے اِس سوم آنند بھگتی کے رس کو ہے چندرماں سمان شیتل پرکاش والے پربھو! آپ کے لئے ہی ہردے میں رکھا ہے، آئیے اور اِسے سویکار کیجئے!

    Tashree

    آپ سوامی ہیں شریروں، اِندریوں ور سوم کے، سویکار اِس کو کیجئے ہیں بھگتی رس یہ ہوم کے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो जीवात्मा शरीरातील मन, बुद्धी, प्राण, चक्षु, श्रोत्र इत्यादींचा व ज्ञान, कर्म इत्यादींचा अधिष्ठाता आहे, त्याने नित्य जगदीश्वराच्या उपासनेने ब्रह्मानंद रस प्राप्त करावा ॥४॥

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    विषय

    इंद्र नावाने परमात्मा व जीवात्म्याला आवाहन

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) )परमात्मपर) - हे (अश्वपते) अश्वांचे वा ज्यांचे अश्व नाव आहे, अशा अग्नी, मेघ आदींचे ़अधिपती, हे (गोपते) गौ आदी पशूंचे अथवा सूर्यकिरणांचे अधीश्वर, (उर्वरापते) उर्वरा भूमीचे अधीश्वर हे इन्द्र परमेश्वर, (अयम्) से आपण (इन्दवे) आनंद - रसाच्या प्रवाहासाठी (आ याहि) या म्हणजे माझ्या हृदयात प्रकट व्हा. हे (सोमपते) माझ्या ममरूप चंद्राचे अधीश्वर, आपण (सोमम्) माझ्या श्रद्धारसाचे (पिब) प्राशन करा.।। द्वितीय अर्थ - (जीवात्मापर) - हे (अश्वपते) इंद्रियरूप अश्वांचे स्वामी. हे (गोपते) वाणी व प्राणांचे स्वामी, हे (उर्वरापते) ः ऋद्धि-सिद्धीच्या उर्वरा बुद्धीचे स्वामी, हे माझ्या अंतरात्मा, (अयम्) हे तू (इन्दवे) परमेश्वर - उपासनेच्या आनंद प्राप्तीसाठी (आ याहि) तत्पर हो. हे (सोमपते) मनाचे स्वामी, तू (सोमम्) ब्रह्मानंद रसाचे (पिब) प्राशन कर.।। ४।।

    भावार्थ

    जो जीवात्मा शरीरस्य मन, बुद्धी, प्राण, चक्ष, श्रोत्र आदींचा तसेच ज्ञान, कर्म आदींचा अधिष्ठाता आहे. त्याने नित्य जगदीश्वराच्या उपासनेद्वारे ब्रह्मानंद रसाचे अवश्य सेवन केले पाहिजे.।। ४।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ‘पते’च्या आवृत्तीत लाटानुप्रास व ‘सोय’च्या आवृत्तीत यमक अलंकार आहे. ।। ४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    குதிரைகளின் (சக்திகளின்) தலைவனே! பசுக்களைக் காப்பவனே! தான்ய நிலத்தின் தாயகமே! சோமனுக்காக (சிறந்த பொருளிற்கு) வரவும். (சோமபதியே)! சோமனைப் பருகவும்.

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