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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 417
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    च꣣न्द्र꣡मा꣢ अ꣣प्स्वा꣢३꣱न्त꣡रा सु꣢꣯प꣣र्णो꣡ धा꣢वते दि꣣वि꣢ । न꣡ वो꣢ हिरण्यनेमयः प꣣दं꣡ वि꣢न्दन्ति विद्युतो वि꣣त्तं꣡ मे꣢ अ꣣स्य꣡ रो꣢दसी ॥४१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च꣣न्द्र꣡माः꣢ । च꣣न्द्र꣢ । माः꣣ । अप्सु꣢ । अ꣣न्तः꣢ । आ । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । पर्णः꣢ । धा꣣वते । दिवि꣢ । न । वः꣣ । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पद꣢म् । वि꣣न्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्त꣢म् । मे꣣ । अस्य꣢ । रो꣣दसीइ꣡ति꣢ ॥४१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चन्द्रमा अप्स्वा३न्तरा सुपर्णो धावते दिवि । न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥४१७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चन्द्रमाः । चन्द्र । माः । अप्सु । अन्तः । आ । सुपर्णः । सु । पर्णः । धावते । दिवि । न । वः । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पदम् । विन्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्तम् । मे । अस्य । रोदसीइति ॥४१७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 417
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र के विश्वेदेवाः देवता हैं। इसमें सूर्य, चन्द्र आदि की गति के प्रसङ्ग से इन्द्र की महिमा वर्णित है।

    पदार्थ

    (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में, और (सुपर्णः) किरणरूप सुन्दर पंखोंवाला सूर्य (दिवि) द्युलोक में (आ धावते) चारों ओर दौड़ रहा है, अर्थात् चन्द्रमा अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ पृथिवी और सूर्य के चारों ओर भी घूम रहा है, तथा सूर्य केवल अपनी धुरी पर घूम रहा है, इस बात को सब जानते हैं, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिम् चक्रोंवाले (विद्युतः) विद्योतमान चन्द्र, सूर्य, विद्युत् आदियो ! (वः) तुम्हारे (पदम्) गतिप्रदाता को, कोई भी (न विन्दन्ति) नहीं जानते हैं। हे (रोदसी) स्त्रीपुरुषो अथवा राजा-प्रजाओ ! तुम (मे) मेरी (अस्य) इस बात को (वित्तम्) समझो। अभिप्राय यह है कि उस इन्द्र परमात्मा को साक्षात्कार करने का तुम प्रयत्न करो, जिसकी गति से यह सब-कुछ गतिमान् बना है ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को प्राकृतिक पदार्थों के गति, प्रकाश आदि विषयक ज्ञान से ही सन्तोष नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भी जानना चाहिए जो इन पदार्थों को पैदा करनेवाला, इन्हें गति, प्रकाश आदि प्रदान करनेवाला और इनकी व्यवस्था करनेवाला है ॥९॥ इस ऋचा की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित- विषयक वही इतिहास लिखा है, जो पूर्व संख्या ३६८ के मन्त्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है। भरत स्वामी ने भिन्न इतिहास दिखाया है—एकत, द्वित और त्रित ये तीनों आप्त के पुत्र थे। वे जब यज्ञ कराकर, गौएँ लेकर लौट रहे थे, तब मरुस्थल में प्यास से व्याकुल होकर, वहाँ एक कुएँ को देखकर वहीं रुक गये और कुएँ में उतरने का विचार करने लगे। पहले त्रित कुएँ में उतर गया। शेष दोनों को बाहर ही पानी मिल गया और वे पानी पीकर तृप्त हो गये तथा कुएँ को एक चक्र से बन्द करके गौएँ लेकर चलते बने। इधर कुएँ में बन्द पड़ा हुआ त्रित देवों की स्तुति करने लगा। वह कुआँ निर्जल था, जिसमें त्रित प्यास से व्याकुल होकर उतरा था। वहीं पड़ा-पड़ा वह रात्रि में चन्द्रमा को देखकर विलाप करने लगा कि चन्द्रमा पानी में स्थित हुआ अन्तरिक्ष में दौड़ रहा है आदि। किसी तरह मेरी प्यास बुझ जाए, इसलिए उसका विलाप है। वह कहता है कि हे आकाश और भूमि, तुम मेरे इस संकट को जानो ॥’’ यहाँ माधव और भरत स्वामी के इतिहासों में अन्तर ही उनके कल्पनाप्रसूत होने में प्रमाण है ॥

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    पदार्थ

    (चन्द्रमाः) मेरा आह्लादक इन्द्र—परमात्मा “अथ यस्स प्रजानां जनाय ताः....अप्स्वन्तः, चन्द्रमा हैव सः” [जै॰ ३.३५.५१] “चन्द्रमा एव धाता च विधाता च” [गो॰ २.१.१०] (अप्सु-अन्तः) मेरे प्राणों के अन्दर रमा हुआ वसा हुआ है “आपो वै प्राणाः” [श॰ ३.८.२.४] (सुपर्णः) और वह सुपालक धर्म वाला पुरु “पुरुषः सुपर्णः” [श॰ ७.४.२.५] (दिवि) मेरे मस्तिष्क में “अथ यत्कपालमासीत् सा द्यौरभवत्” [श॰ ६.१.२.३] (आधावते) समन्तरूप से प्राप्त है “धावति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (वः) ‘ते’ वे ‘पुरुषव्यत्ययः’ (हिरण्यनेमयः) सुनहरी नेमि वाले (विद्युतः) विशेष द्योतमान समस्त सूर्य आदि (अस्य) इस परमात्मा के (पदं न विन्दन्ति) स्वरूप को नहीं पा सकते हैं (ये रोदसी वित्तम्) मेरे लिए द्युलोक पृथिवीलोक प्राप्त हैं अर्थात् दोनों लोकों के शरीर के ऊपर नीचे वाले अङ्ग तथा उनके सुख जीवनरस और ज्ञान ज्योति सुखैश्वर्य भोग प्राप्त हैं।

    भावार्थ

    मेरा आह्लादक प्रजापति परमात्मा मेरे प्राणों के अन्दर रम गया, बस गया है और सुखपालक परमात्मा मेरे मस्तिष्क में भी समा गया है सुनहरी नेमिवाले विशेष द्योतमान—प्रकाशमान सूर्य आदि उसके स्वरूप के सम्मुख फीके हैं। मुझे द्युलोक, पृथिवी लोक प्राप्त हो गए—ये दोनों भाग, शरीर के उपरि अङ्ग मस्तिष्क और निम्न अङ्ग प्राण संस्थान प्राप्त हो गए, स्वाधीन हो गए। इनके सुख ज्ञान ज्योति और जीवनरस प्राप्त हो गए॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—त्रितः (परमात्मा में तीर्णतम—अत्यन्त प्रवेशशील उपासक)॥ देवता—विश्वेदेवाः—“इन्द्रसम्बद्धाः” (परमात्मा के दिव्यगुण सृष्टिरथचक)॥<br>

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    विषय

    दो महत्त्वपूर्ण बातें

    पदार्थ

    हमारे जीवन में दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहली तो यह कि (चन्द्रमा:) = हमारा मन [चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्] सदा (अप्सु अन्तरा) = व्यापक कर्मों में स्थित रहे। दूसरी यह कि (सुपर्णः) = अपना पालन करनेवाला जीव (दिवि) = प्रकाशमय ज्ञान में (धावते) = गतिशील होता है और उसमें सदा स्नान करता हुआ अपने को पवित्र करता है। अध्यात्म में 'चन्द्रमा' का अर्थ मन होता है। यहाँ चन्द्रमा शब्द का प्रयोग इस उद्देश्य से किया गया है कि [चदि आह्लादे] हम जिन कार्यों को करें उन्हें बड़े आह्लाद पूर्वक करें। प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ कार्य ही उत्तम फल पैदा करता है। दिन भर कार्यों में प्रसन्नता पूर्वक रमे रहने से हम वासनाओं के शिकार कभी नहीं होते।

    जीवात्मा का नाम ‘सुपर्ण' है क्योंकि वह उत्तम प्रकार से आसुरवृत्तियों के आक्रमण से अपने को बचाने का प्रयत्न करता है, उसी के लिए यह ज्ञान की नदी में स्नान करता है और अपने को शुद्ध बनाता है।

    प्रभु कहते हैं कि हे जीवों! (वः) = तुममें से (हिरण्यनेमयः) = स्वर्ण की परिधिवाले लोग, जो कि धन के चक्र में ही फँसे हुए हैं, वे (विद्युतः) = उस विशेष ज्ञानी के (पदम्) = स्थान को (न विन्दन्ति) = नहीं प्राप्त कर पाते। अर्थ में आसक्त को धर्म का ज्ञान नहीं होता। धन तो अन्धा है।

    जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि मे (रोदसी) = मेरे द्युलोक और पृथिवीलोक, अर्थात् मेरा मस्तिष्क व शरीर तो (अस्य वित्तम्) = इस पद को अवश्य पानेवाले हों। मैं अपने सब कोशों की ऐसी साधना करूँ कि मैं आप का ज्ञानी भक्त बन सकूँ। यह ज्ञानी भक्त ही प्रभु को प्राप्त करनेवालों में सर्वोत्तम है- 'आप्त्य' है, यह काम-क्रोध-लोभ सभी को तैर चुका है–‘त्रि-त' बन गया है। त्रिविध कष्टों से भी यह ऊपर उठ गया है। ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों का इसने अपने में विस्तार किया है।

    भावार्थ

    मेरा मन सदा प्रसन्नतापूर्वक कर्मों में लगा रहे और मैं ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सतत यत्नशील रहूँ। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( अप्सु अन्तरा ) = ध्यान धारणाओं, संकल्पों, विकल्पों या वासना जालों में से ( चन्द्रमा: ) = अत्यन्त आल्हादकारी, ( सुपर्ण: ) = उत्तम गतिशील आत्मा ( दिवि ) = द्यौ  लोक में चन्द्र के समान, या सूर्य में प्रकाश प्रतिस्वरूप परमात्मा की ओर ( धावते ) = गति करता है । हे ( विद्युत: ) = विशेषरूप में प्रकट होने वाली विद्युरस्वरूप कान्तियो ! हे ( हिरण्यनेमय: ) = सुवर्ण के समान चित्ताकर्षक धाराओं वाली कान्तियो  ! हमारे इन्द्रियगण या अज्ञानी जनसाधारण अज्ञान में होने से ( वः पदं न विन्दन्ति ) = तुम्हारा स्वरूप ज्ञान प्राप्त नहीं करते। हे ( रोदसी ) = द्यौ और पृथिवी, ऊर्ध्वगामी द्यौस्वरूप प्राण अधोगामी पृथिवीस्वरूप अपान, आप दोनों के ( अस्य  ) = इस रहस्य का ज्ञान ( मे वित्तं ) = मुझे लाभ कराओ । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - त्रित:।

    देवता - विश्वेदेवाः।

    छन्दः - पङ्क्तिश्छंद:।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विश्वेदेवा देवताः। अत्र सूर्यचन्द्रादिगतिप्रसङ्गेनेन्द्रस्य महिमानमाह।

    पदार्थः

    (चन्द्रमाः) चन्द्रः (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये। आपः इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। (सुपर्णः) किरणरूपचारुपक्षयुक्तः सूर्यश्च (दिवि) द्युलोके (आ धावते) समन्ततो गच्छति, (चन्द्रः) स्वधुरि पृथिवीं सूर्यं च परितः, सूर्यश्च स्वधुरि एव भ्रमतीत्यर्थः, इति सर्वे जानन्ति, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिमचक्राः (विद्युतः) विद्योतमानाः चन्द्रसूर्यनक्षत्रतडिद्वह्न्यादयः, (वः) युष्माकम् (पदम्) गतिप्रदातारम् इन्द्रं परमात्मानम्। पद गतौ, पदयति गमयतीति पदः, तम्। केचिदपि (न विन्दन्ति) न लभन्ते। विद्लृ लाभे तुदादिः, मुचादित्वान्नुम्। हे (रोदसी२) स्त्रीपुरुषौ राजप्रजे वा ! युवाम् (मे अस्य) एतत् कथनम् (वित्तम्) जानीतम्। अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी। तमिन्द्रं परमात्मानं साक्षात्कर्तुं युवां प्रयतेथां यस्य गत्या भासा च सर्वमिदं गतिमत् भास्वच्च तिष्ठतीत्याशयः, अत्र हिरण्यनेमयः, विद्युतः, रोदसी इति सर्वत्र आमन्त्रितनिघातः ॥९॥३

    भावार्थः

    जनैः प्राकृतिकपदार्थानां गतिद्युत्यादिविषयकज्ञानेनैव न सन्तोष्टव्यं, किन्तु सोऽपि विज्ञातव्यो य एतेषां पदार्थानां जनको गतिद्युत्यादिप्रदाता व्यवस्थापकश्च विद्यते ॥९॥ अस्या ऋचो व्याख्याने विवरणकृता माधवेन ३६८ संख्यकमन्त्रभाष्ये पूर्वप्रदत्तः त्रितविषयक इतिहास एव प्रदर्शितः। भरतस्त्वाह— एकतश्चद्वितश्चैवत्रितश्चाप्तस्य सूनवः। ते याजयित्वा सर्वा गा निवृत्ता मरुधन्वसु ॥ पिपासयार्तास्तत्रैकं कूपं लब्ध्वा हि तत्स्थिताः। अवरोढुं तमिच्छन्तस्त्रितस्तत्रावरूढवान् ॥ इतरौतुबहिर्लब्ध्वा पीत्वोदकमतृप्यताम्। कूपंपिधायचक्रेण तं गा आदाय जग्मतुः ॥ त्रितस्तु कूपे पिहितो देवान् स्तौतीति नः श्रुतम्। स कूपोनिर्जलो नूनंयत्रासौपतितस्तृषा ॥ तस्यचन्द्रमसंरात्रौ पश्यतःपरिदेवना ॥ चन्द्रमा अप्स्वन्तः अम्मये मण्डले स्थितः आधावते दिवि अन्तरिक्षे....।....पिपासा मे शाम्येदिति परिदेवना....हे द्यावाभूमी, वित्तं विजानीत मे मदीयस्य अस्य व्यसनस्य...इति। अत्र माधवभरत- स्वामिनोरितिहासेऽन्तरमेव तत्कल्पनाप्रसूतत्वे प्रमाणम् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।१०५।१ ऋषिः आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा। य० ३३।९०, ‘रयिं पिशङ्गं बहुलं पुरुस्पृह हरिरेति कनिक्रदत्’ इत्युत्तरार्धः। अथ० १८।४।८९, ऋषिः अथर्वा, देवता चन्द्रमाः। २. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ इति ऋ० १।१०५।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं चन्द्रविद्युद्विद्याविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In all resolves and doubts, the delightful, active soul moves on to the Refulgent God. O beauties of Nature, bewitching the heart like gold, ignorant persons cannot appreciate Ye. O Prana and Apana, let me gain the knowledge of this secret!

    Translator Comment

    Ordinary ignorant persons cannot appreciate the beauty of nature, a self controlled, intellectually advanced person alone can do it.

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    Meaning

    The moon glides in the middle regions of Antariksha in the midst of waters and pranic energies. So does the sun of wondrous rays run fast in the heaven of light. But the golden-rimmed flashes of lightning reveal themselves not to your state of consciousness. May the heaven and earth know the secret of this mystery and reveal it to men, the ruler and the people. (Rg. 1-105-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (चन्द्रमाः) મારા આહ્લાદક ઇન્દ્ર-પરમાત્મા (अप्सु अन्तः) મારા પ્રાણોની અંદર રમી રહેલવસી રહેલ છે (सुपर्णः) અને તે સુપાલક ધર્મવાળા પુરુષ (दिवि) મારા મસ્તિષ્કમાં (आधावते) સમગ્રરૂપમાં પ્રાપ્ત છે (वः) તે (हिरण्यनेमयः) સુવર્ણની પરિધિવાળા (विद्युतः) વિશેષ પ્રકાશમાન સમસ્ત સૂર્ય આદિ (अस्य) એ પરમાત્માના (पदं न विन्दन्ति) સ્વરૂપને જાણી-પામી શકતા નથી. (ये रोदसी वित्तम्) મારા માટે દ્યુલોક અને પૃથિવીલોક પ્રાપ્ત છે અર્થાત્ બન્ને લોકોનાં શરીરનાં ઉપર નીચેવાળા અંગો તથા તેના સુખ જીવન રસ અને જ્ઞાન જ્યોતિ ઐશ્વર્ય ભોગ પ્રાપ્ત છે. (૯)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મારો આહ્લાદક પ્રજાપતિ પરમાત્મા મારા પ્રાણોમાં ઓતપ્રોત થઈ ગયો-વસી ગયો છે અને સુખપાલક પરમાત્મા મારા મસ્તિષ્કમાં પણ સમાવિષ્ટ થઈ ગયો છે, સોનેરી પરિધિવાળા વિશેષ પ્રકાશમાન સૂર્ય આદિ તેના સ્વરૂપથી સામે ફિક્કા છે. મને દ્યુલોક અને પૃથિવી લોક પ્રાપ્ત થઈ ગયાએ બન્ને ભાગ, શરીરના ઊર્ધ્વ અંગ મસ્તિષ્ક અને નિમ્ન અંગ પ્રાણ સંસ્થાન પ્રાપ્ત થઈ ગયા, સ્વાધીન બની ગયા, તેના સુખ જ્ઞાનજ્યોતિ અને જીવનરસ પ્રાપ્ત થઈ ગયા. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    چندرماں اور من کا وِگیان

    Lafzi Maana

    عارفو! جیسے آنند کی روشنی دینے والا چندرماں پانی کڑ مرکز زمین اور روشنی کے مرکز آسمان کے درمیان دوڑ رہا ہے، اِسی طرح آنند اور پرکاش دینے والا من پانی کا آدھار جسم کے نچلے حصے اور روشنی کا آدھار سر کا حصہ، اِن دونوں کے درمیان ہردیہ آکاش میں دوڑ رہا ہے، اِس من کی گتی کو سونے کی طرح چمک دار بجلی بھی نہیں جان سکتی یعنی اس کی دوڑ کا مقابلہ نہیں کر سکتی، بھگوان کے سوا اِس کی گتی کو کوئی نہیں پا سکتا۔

    Tashree

    آسماں میں چندر جیسے لوک میں من ہے یہی، روشنی آنند اور برکات اِس کی ہیں سبھی۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी प्राकृतिक पदार्थांची गती, प्रकाश इत्यादीविषयक ज्ञानानेही संतोष करता कामा नये तर ज्याने हे पदार्थ उत्पन्न केलेले आहेत त्यालाही जाणले पाहिजे. त्यानेच गती, प्रकाश इत्यादी प्रदान केलेले आहे व त्यांची व्यवस्था करणाराही तोच आहे. ॥९॥

    टिप्पणी

    या ऋचेच्या व्याख्येत विवरणकार माधवने त्रितविषयक तोच इतिहास लिहिलेला आहे, जो पूर्व संख्या ३६८ च्या मंत्रात प्रदर्शित केलेला आहे. भरत स्वामीने भिन्न इतिहास दर्शविलेला आहे - एकत, द्विती व त्रित हे तीन आप्तचे पुत्र होते, ते जेव्हा यज्ञ करवून गाई घेऊन परत येत होते तेव्हा वाळवंटात तृषार्त होऊन एका विहिरीला पाहून तेथे थांबले व विहिरीत उतरण्याचा विचार करू लागले. प्रथम त्रित विहिरीत उतरला, उरलेल्या दोघांना बाहेरच पाणी मिळाले व ते पाणी पिऊन तृप्त झाले व विहिरीला एका चक्राने बंद करून गाई घेऊन निघून गेले. इकडे विहिरीत पडलेला त्रित देवांची स्तुती करू लागला. ती विहीर निर्जल होती, ज्यात त्रित तहानेने व्याकूळ होऊन उतरला होता. तेथे पडल्या पडल्या तो चंद्राला पाहून विलाप करू लागला की चंद्र पाण्यात स्थित होऊन आकाशात पळत आहे इत्यादी. कोणत्याही प्रकारे माझी तहान भागली पाहिजे त्यासाठी त्याचा विलाप होता. तो म्हणत होता की हे आकाश व भूमी तुम्ही माझ्या संकटाला जाणा. माधव व भरत स्वामीच्या इतिहासात अंतर आहे. त्यातच त्यांचे कल्पनाप्रसूत असल्याचे प्रमाण आहे ॥

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    विषय

    विश्वेदवाः देवता। सूर्य, चंद्र आदींच्या परिभ्रमणावरून इन्द्राच्या महिमेचे वर्णन -

    शब्दार्थ

    (चन्द्रमा) चंद्रमा (अप्सु अन्तः) अंतरिक्षामध्ये आणि (सुपर्णः) सुंदर पंख म्हणजे किरणे असलेला सूर्य (दिवि) द्यूलोकात (आ धावते) सगळीकडे धावत आहे म्हणजे चंद्र स्वतःच्या धुरीवर फिरत असून त्याचबरोबर तो पृथ्वी व सूर्याच्या भोवतीही फिरत आहे. सूर्य मात्र केवळ आपल्या धुरीवर फिरत आहे. सर्वजण हे जाणतातच, पण हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिम चक्रवन (विद्युतः) विघोतमान चंद्र, सूर्य, विद्युत आदी शक्तीसमूहांनो, (वः) तुम्हाला जो (पदम्) मति देतो, कक्षेत स्थिर करतो, त्याला मात्र (न विन्दति) कोणीही जमत नाही. हे (रोदसी) स्त्री - पुरुषहो, अथवा राजा - प्रजाजनहो, तुम्ही (मे) माझी (अस्य) ही गोष्ट (वित्तम्) समजून घ्या. तात्पर्य हे की ज्याच्या गतिशक्तीमुळे हे सर्व ग्रह - उपग्रह गतिमान आहेत. त्या इन्द्र परमेश्वराला तुम्ही जाणून घ्या.।। ९।।

    भावार्थ

    मनुष्यांनी प्राकृतिक पदार्थांच्या गती, प्रकाश आदींविषयी ज्ञान प्राप्त करूनच समाधान मानू नये, तर हादेखील विचार करावा की या पदार्थांचा उत्पत्ति कर्ता आणि नियामक, व्यवसपकदेखील कोणीतरी अवश्य आहे.।। ९।। या मंत्राची व्याख्या करताना विवरणकार माधव याने त्रित संबंधीचा तोच इतिहास लिहिला आहे. (तो इतिहास मं. सं. ३६८ च्या खाली लिहिलेला आहे.) भरतस्वामी याने त्याहून भिन्न इतिहास सांगितला आहे - ‘‘एकत, द्वित आणि त्रित हे तिघे आप्त ऋषीचे पुत्र होते. जेव्हा ते यज्ञ संपन्न करून, दान म्हणून मिळालेल्या गायी घेऊन परत जात होते, तेव्हा वाळवंटात ते तहानेने व्याकूळ झाले. तिथे एक विहीर पाहून ते तिथेच थांबले. विहिरीत उतरायचा विचार करू लागले. आधी त्रित विहिरीत उतरला. दुसऱ्या दोघांना बाहेरच पाणी मिळाले. ते पाणी पिऊन तृप्त झाले आणि विहिरीला एका चक्राने बंद करून ते दोघे गायी घेऊन चालते झाले. तिकडे विहिरीत अडकून पडलेला त्रित देवांची स्तुती करू लागला. विहिरीत पाणी नव्हते म्हणून त्रित तहानेने खूपच व्याकूळ होऊ लागला. तो रात्री ंद्राला पाहून विलाप करू लागला की चंद्र पाम्यात का नाही, अंतरिक्षात मात्र तो व्यर्थच पळत आहे. - आदि। हा मंत्र म्हणजे त्रितचा विलाप आहे. तो म्हणत आहे ‘हा। कसे तरी करून माझी तृषा शांत व्हावी.’’ आकाशाला व भूमीला उद्देशून तो म्हणत आहे ‘‘तुम्ही दोघे माझी संकटावस्था ओळखा.’’ येथे हे उघड होत आहे की माधव आणि भरतस्वामी दोघांनी दाखविलेला इतिहासात एकमेकांशी विरोध असून तो केवळ त्यांच्या कल्पनेतील उत्पत्ती आहे. (वास्तविक पाहता निसर्गातील ग्रह - उपग्रह आदींचे विज्ञान व परमेश्वर नावाच्या नित्य सत्तेचे महन ज्ञान या मंत्रात सांगितले आहे, पण तो वास्तविक अर्थ न समजून केवळ कथा जंजाल निर्माण करणे वेदांवर अन्याय नाही का ?)

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    உதயமண்டல சலத்தின் நடுவிலுள்ள நல்ல ரசிமிகளுடனான (சந்திரன்) சோதியுலகில் ஓடுகிறான். மின்னல்களே! ரசிமிகளே! உங்கள் (பொன் சக்கிரங்களாலும்) மனிதர்கள் உங்கள் பாத நிலையை, நிலயத்தை காண்பதில்லை. வானமே [1]பூமியே! என் இந்தத் துதியை அறியவும்.

    FootNotes

    [1].பூமியே - வானம், பூமி,அசுவினிகள் ஆகியவை ஈசனைக் குறிக்கும்.

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