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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 418
    ऋषिः - अवस्युरात्रेयः देवता - आश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    प्र꣡ति꣢ प्रि꣣य꣡त꣢म꣣ꣳ र꣢थं꣣ वृ꣡ष꣢णं वसु꣣वा꣡ह꣢नम् । स्तो꣣ता꣡ वा꣢मश्विना꣣वृ꣢षि꣣ स्तो꣡मे꣢भिर्भूषति꣣ प्र꣢ति꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥४१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣡ति꣢꣯ । प्रि꣣य꣡त꣢मम् । र꣡थ꣢꣯म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣣सुवा꣡ह꣢नम् । वसु । वा꣡ह꣢꣯नम् । स्तो꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्विनौ । ऋ꣡षिः꣢꣯ । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । भू꣣षति । प्र꣡ति꣢ । माध्वी꣣इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥४१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति प्रियतमꣳ रथं वृषणं वसुवाहनम् । स्तोता वामश्विनावृषि स्तोमेभिर्भूषति प्रति माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥४१८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । प्रियतमम् । रथम् । वृषणम् । वसुवाहनम् । वसु । वाहनम् । स्तोता । वाम् । अश्विनौ । ऋषिः । स्तोमेभिः । भूषति । प्रति । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥४१८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 418
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र के देवता अश्विनौ हैं। इसमें शरीर-रथ और शिल्प-रथ का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    प्रथम—शरीर-रथ के पक्ष में। हे (अश्विनौ) परमात्मन् और जीवात्मन् ! (प्रियतमम्) सर्वाधिक प्रिय, (वृषणम्) बलवान्, (वसुवाहनम्) वासक इन्द्रियों द्वारा वहन किये जानेवाले (रथम्) शरीररूप रथ को (प्रति) लक्ष्य करके (स्तोता) स्तुतिकर्ता (ऋषिः) तत्त्वार्थद्रष्टा विद्वान् (स्तोमेभिः) तुम्हारे स्तोत्रगानों के साथ (वाम्) तुमसे (प्रतिभूषति) याचना कर रहा है, अर्थात् मैं याचना कर रहा हूँ। हे (माध्वी) मधुर परमात्मन् और जीवात्मन् ! तुम (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (प्रतिश्रुतम्) सुनो। भाव यह है कि मैं आगामी जन्म में मानवशरीर ही प्राप्त करूँ, पशु, पक्षी, सरकनेवाले जन्तु, स्थावर आदि का शरीर नहीं ॥ द्वितीय—शिल्प-रथ के पक्ष में। हे (अश्विनौ) रथों के निर्माता और चालक शिल्पिजनो ! (प्रियतमम्) अतिशय प्रिय, (वृषणम्) शत्रुसेना के ऊपर शस्त्रास्त्रों की वर्षा के साधनभूत, (वसुवाहनम्) धन-धान्य आदि को देशान्तर में पहुँचानेवाले (रथम्) विमानादि यान को (वाम्) तुम्हारा (स्तोता) प्रशंसक (ऋषिः) विद्वान् मनुष्य (स्तोमेभिः) देशान्तर में ले जाये जानेवाले पदार्थ-समूहों से (प्रतिभूषति) अलङ्कृत करता है। हे (माध्वी) मधुर गति की विद्या को जाननेवाले शिल्पी जनो ! तुम (मम) मेरी (हवम्) विमानादि यानों के निर्माण करने तथा उन्हें चलाने विषयक पुकार को (प्रति श्रुतम्) पूर्ण करो ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को ऐसे कर्म करने चाहिएँ, जिससे पुनर्जन्म में मानवशरीर ही प्राप्त हो। इसी प्रकार राष्ट्र में शिल्पविद्या की उन्नति से वेगवान् भूयान, जलयान और अन्तरिक्षयान बनवाने चाहिएँ और देशान्तरगमन, व्यापार, युद्ध आदि में उनका प्रयोग करना चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र की सहयोगिनी गौरियों का, इन्द्र के स्वराज्य का, उसके आह्वान, उद्बोधन और स्तवन का, चन्द्र-सूर्य आदि की गतियों के तत्कर्तृक होने का और उसके द्वारा दातव्य रथ का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (वाम्-अश्विनौ) परमात्मा के उन दोनों—जीवन ज्योति और जीवनरस देने वाले दया और प्रसाद व्यापन धर्मो! (प्रियतमम्) अतिप्रिय—(वृषणम्) सुखवर्षक (वसुवाहनम्) मोक्षैश्वर्य के वहन करने वाले—(रथम्) शरीर रथ के (प्रति) प्रति वर्तमान हुए तुम दोनों को (स्तोता-ऋषिः) प्रशंसित करने वाला ऋषि (स्तोमेभिः) प्रशंसित वचनों से (प्रतिभूषति) उत्तम गुण युक्त करता है (माध्वी मम हवं श्रुतम्) हे जीवन मधु के रस सम्पादन करने वाले मेरी पुकार को सुनो।

    भावार्थ

    परमात्मा से सम्बद्ध जीवनज्योति और जीवनरस के देने वाले दया और प्रसाद व्यापन धर्मो! तुम दोनों अति प्रिय सुखवर्षक मोक्षैश्वर्य के वाहन शरीररथ के प्रति वहन करने वालों की उपासक विद्वान् प्रशंसा करता है। तुम मेरे भाव को स्वीकार करो॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—अवस्युः (परमात्मप्राप्ति का इच्छुक)॥ देवता—अश्विनौ (ऐश्वर्यवान् परमात्मसम्बन्धी ज्योति और रस शक्ति दया और प्रसाद)॥<br>

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    विषय

    रथ का सजाना

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अवस्यु' है जोकि अपने शरीर आदि की रक्षा की कामनावाला है। यह अपने प्राणापानों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे (अश्विनौ)  = प्राणापानों! (वाम्) = आप के (स्तोमेभिः) = एकत्रीकरण के द्वारा [Asemblage ] – अथवा आपकी सम्पत्ति के द्वारा [स्तोमम्=riches] (स्तोता) = प्रभु का स्तवन करनेवाला, (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (प्रियतमम्) = इस अत्यन्त प्रिय-तर्पण के योग्य (वृषणम्) = शक्तिशाली (वसुवाहनम्) = अष्ट वसुओं के वाहनभूत (रथम्) = इस शरीररूप रथ को (प्रतिभूषति) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में अलंकृत करता है। यह शरीर प्रभु की ओर से दिया गया रथ है, जिससे जीव अपनी जीवनयात्रा पूरी करनी है। यह रथ तर्पण के योग्य है [प्री-तर्पण], इसमें होनेवाली कमी को तत्काल दूर करना चाहिए। शरीर की इच्छा को पूरा करना ही चाहिए। वह तो शरीर की आवश्यकता है; मन की इच्छा का संयम करना आवश्यक है क्योंकि उसे पूरा करने में लगें तो हम शरीर को हानि पहुँचा लेते हैं। मनः संयम व शरीर तर्पण से यह शरीररूप रथ शक्तिशाली [वृषणम्] बनता है। यह अष्ट वसु-अष्ट धातुएँ–रस, रुधिर, मांस, मेदस्, अस्थि, मया, वीर्य तथा ओजस् वाहनभूत हैं। प्रभु का स्तोता व तत्त्वज्ञानी इस शरीर को प्राणों की साधना के द्वारा स्वास्थ्य व सौन्दर्य से अलंकृत करता है। जहाँ कहीं भी प्राणों का संयम किया वहीं उसके अङ्ग निर्मल व स्वस्थ हो जाते हैं। यह स्तोता ऋषि जब जिस अङ्ग में प्राणों को एकत्रित करता है उस प्राणों के स्तोम से [प्राणायामैर्दहेद् दोषान्] उस स्थान में उत्पन्न दोषों को जला देता है। वे अङ्ग स्वास्थ्य की ज्योति से चमक उठते हैं। एवं, ये प्राणापान कितने महत्त्वपूर्ण, मधुर व सुन्दर हैं। अवस्यु कहता है कि (माध्वी) = हे मधुर प्राणापानो! मधुतुल्य महिमावाले प्राणापानो। (ममहवं प्रति श्रुतम्) = मेरी इस प्रार्थना को सुनो। मैं तुम्हारी कृपा से इस रथ को शक्तिशाली व वसुओं का वाहन बना पाऊँ। अपने मन को प्रभु के स्तवन में लगाऊँ और मस्तिष्क को ज्ञानज्योति से परिपूर्ण करके तत्त्वद्रष्टा बन पाऊँ। यह सब प्राणसाधना से ही होता है। प्राणसाधना करनेवाला ही 'अवस्य' बन पाता है।
     

    भावार्थ

    मेरी प्राण- साधना मेरे शरीर को दृढ़, मन को प्रभुप्रवण, मस्तिष्क को तीव्र ज्ञान ज्योति से जगमगाता हुआ बनाए ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( अश्विनौ ) = प्राण और अपान ! ( वसु-वाहनं ) = आवासकारी आत्मा को वहन करने हारे, ( वृषणं ) = कर्मफल भोग की वर्षा करने वाले ( प्रियतमं ) = अत्यन्त प्रिय, ( प्रतिरथं ) = प्रत्येक रथ रूप देह में ( ऋषि: ) = तत्वदर्शी ( स्तोता ) = सत्य गुणों का वर्णन करनेहारा, ( स्तोमेभिः ) = वेदमन्त्रों द्वारा ( वां ) = आप दोनों को ( प्रति भूषति ) = उत्तम रूप से अलंकृत करना चाहता है । हे ( माध्वी ) = मधुविद्या, ब्रह्म विद्या के जानने हारो ! ( मम हवं ) = मेरी स्तुति, गुण-वर्णना को ( श्रुतं ) = श्रवण करो। 
     

    टिप्पणी

    ४१८—‘स्तोमेन प्रति भूषति' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अवस्यु:।

    देवता - आश्विनौ।

    छन्दः - पङ्क्तिश्छंद:। 

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाश्विनौ देवते। देहरथविषयं शिल्परथविषयं चाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—शरीररथपरः। हे (अश्विनौ) परमात्मजीवात्मानौ ! (प्रियतमम्) अतिशयेन प्रियम्, (वृषणम्) बलवन्तम्, (वसुवाहनम्) वसुभिः निवासकैः इन्द्रियैः उह्यते इति वसुवाहनः तम् (रथम्) मानवशरीररूपं शकटम् (प्रति) उद्दिश्य (स्तोता) स्तुतिकर्ता (ऋषिः) तत्त्वद्रष्टा विद्वान् जनः (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः (वाम्) युवाम् (प्रतिभूषति) याचते, ऋषिरहं याचे इत्यर्थः। भूष अलङ्कारे भ्वादिः, अत्र प्रतिपूर्वो याचनार्थो गृह्यते। हे (माध्वी२) मधुरौ परमात्मजीवात्मानौ, युवाम् (मम) मदीयम् (हवम्) आह्वानम् (प्रति श्रुतम्) शृणुतम्। परे जन्मनि मानवशरीरमेवाहं प्राप्नुयाम्, न तु पशुपक्षिसरीसृपस्थावरादिशरीरमित्यर्थः। अत्र ‘श्रुवः शृ च। अ० ३।१।७४’ इत्यनेन प्राप्तः श्नुप्रत्ययः श्रुवः शृ आदेशश्च न भवति, छन्दसि सर्वेषां विधीनां वैकल्पिकत्वात् ॥ अथ द्वितीयः—शिल्परथपरः। हे (अश्विनौ) रथस्य निर्मातृचालकौ३ शिल्पिनौ ! (प्रियतमम्) अतिशयेन प्रियम्, (वृषणम्) शत्रुसेनाया उपरि शस्त्रास्त्रवृष्टिसाधनभूतम्, (वसुवाहनम्) वसूनि धनधान्यादीनि वहति देशान्तरं प्रापयतीति तम् (रथम्) विमानादियानम् (वाम्) युवयोः (स्तोता) प्रशंसकः (ऋषिः) विद्वान् जनः (स्तोमेभिः) देशान्तरं नेतुं योग्यैः पदार्थसमूहैः (प्रतिभूषति) अलङ्करोति। हे (माध्वी) मधुरगतिविद्याविदौ शिल्पिनौ ! युवाम् (मम) मदीयम् (हवम्) रथसाधनचालनरूपम् आह्वानम् (प्रति श्रुतम्) पूरयतम् ॥१०॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैस्तादृशानि कर्माण्याचरणीयानि यैः पुनर्जन्मनि मानवशरीरमेव प्राप्येत। तथैव राष्ट्रे शिल्पविद्योन्नत्या वेगवन्ति भूजलान्तरिक्षयानानि निर्मापयितव्यानि, देशान्तरगमनव्यापारयुद्धादिषु च प्रयोक्तव्यानि ॥१०॥ अत्रेन्द्रसहयोगिनीनां गौरीणां वर्णनात्, इन्द्रस्य स्वराज्यवर्णनात्, तदाह्वानात्, तदुद्बोधनात्, तत्स्तवनात्, चन्द्रसूर्यादिगतीनां तत्कर्तृकत्वप्रतिपादनात्, तद्दातव्यरथवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे तृतीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये सप्तमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ५।७५।१ ‘स्तोता वामश्विनावृषिः स्तोमेन प्रतिभूषति’ इत्युत्तरार्धपाठः। साम० १७४३। २. हे माध्वी, मधुपूर्णो दृतिः माध्वः, ‘तस्येदम् पा० ४।३।१२०’ इत्यण्। ‘यो ह वां मधुनो दृतिराहितो रथचर्षणे’ (ऋ० ८।५।१९) इति मन्त्रान्तरदर्शनात्। स ययोरस्ति तौ माध्वी। छन्दसीवनिपौ (वा० ५।२।१०९) इति ईकारो मत्वर्थीयः। तयोः सम्बोधनं हे माध्वी—इति वि०। माध्वी मधुविद्याविदौ—इति भ०। ३. अश्विनौ जलाग्नी इव निर्मातृवोढारौ (शिल्पिचालकौ) इति ऋ० १।१८२।७ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्येऽस्मिन् मन्त्रे दयानन्दर्षिः ‘अश्विनौ’ इति पदेन अध्यापकपरीक्षकौ, ‘रथम्’ इत्यनेन च विमानादियानं गृह्णाति।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Prana and Apana, a seer and expounder of troth, through Vedic verses, wants to grace Ye both, in each body, the vehicle of soul, the reaper of the fruit of action and most lovely. O masters of the knowledge of God, listen to My instruction!

    Translator Comment

    My refers to God.

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    Meaning

    Ashvins, leading lights of humanity, the celebrant visionary of lifes reality and mantric meaning, adores your achievement in befitting words of song in response to the beauty of your dearest chariot which is the carrier and harbinger of showers of wealth and well being. O creators and makers of the sweets of existence, the celebrant prays: Listen to my song of adoration and accept the invitation to live and create the joy of life. (Rg. 5-75-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाम् अश्विनौ) પરમાત્માના તે બન્ને-જીવનજ્યોતિ અને જીવનરસ આપનાર દયા અને પ્રસાદ વ્યાપન ધર્મો ! (प्रियतमम्) અતિપ્રિય, (वृषणम्) સુખવર્ષક (वसुवाहनम्) મોક્ષૈશ્વર્યનું વહન કરનાર, (रथम्) શરીર રથના (प्रति) પ્રત્યે વિદ્યમાન રહેલ તમે બન્નેને (स्तोता ऋषिः) પ્રશંસિત કરનાર ઋષિ (स्तोमेमिः) પ્રશંસિત વચનોથી (प्रतिभूषति) શ્રેષ્ઠ ગુણયુક્ત કરે છે (माध्वी मम हवं श्रुतम्) હે જીવન મધુના રસનું સંપાદન કરનાર ! મારો પોકાર સાંભળો. (૧૦)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્માથી સંબંધિત જીવન જ્યોતિ અને જીવનરસ આપનાર દયા અને પ્રસાદ વ્યાપન ધર્મો ! તમે બન્ને અતિ પ્રિય સુખવર્ષક, મોક્ષૈશ્વર્યનાં વાહન શરીરરથના પ્રત્યે વહન કરનારાઓની ઉપાસક વિદ્વાન પ્રશંસા કરે છે. તમે મારા ભાવનો સ્વીકાર કરો. (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پتی اور پتنی گرہستیو تُم سب کے پیارے اور مُدھر بنو!

    Lafzi Maana

    اہلِ خانہ! آپ دونوں پتی پتنی کو سنسار کا سوامی زیادہ سے زیادہ تم سے پیار کرنے والا سُکھ داتا، موکھش کا آنند بھی دینے والا تمہارے خوبصورت شریروں اور روُپوں کو بھی بنا کر وہ ایشور تمہارا پاسبان ہے، جس نے تمہارے لئے وید منتروں کے ذریعے انیک آدرشوں کا بیان کیا ہے، اِن گیان سمپدا کو پڑھ پڑھا سُن سُنا کر تم دونوں سب کے پیارے اور مدھر بن جاؤ۔ بھگوان کا یہ اُپدیش غور سے سُنو، کلیان ہو!

    Tashree

    پیارے گرہستی اہلِ خانہ! سُن لو اِیش اُپدیش یہ، سب کے تم پیارے بنو اور مدھر، ہے آدیش یہ۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी असे कर्म केले पाहिजे, ज्यामुळे पुनर्जन्मात मानव शरीर प्राप्त व्हावे. त्याचप्रकारे राष्ट्रात शिल्पविद्येच्या उन्नतीने वेगवान भूयान, जलयान व अंतरिक्षयान बनविले पाहिजे व देशांतर गमन, व्यापार, युद्ध इत्यादीमध्ये त्यांचा प्रयोग केला पाहिजे ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राची सहयोगिनी चिमणीचा, इंद्राच्या स्वराज्याचा, त्याचे आहवान, उद्बोधन व स्तवनाचा, चंद्र-सूर्य इत्यादीचा निर्माता असण्याचे व त्याच्याद्वारे दातव्य रथाचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    अश्वनौ देवता। देहरथ आणि शिल्परथाविषयी -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (शरीर रथपर) - हे परमात्मा व जीवात्मा, (प्रियतयम्) सर्वाधिक प्रिय, (वृषणम्) आणि बलवान (वसुवाहनम्) व इन्द्रियांद्वारे ओढल्या जाणाऱ्या (रयम्) शरीर रूप रथाला (प्रति) उद्देशून (स्तोता) स्तुतिकर्ता (ऋषिः) तत्त्वदर्शी विद्वान (स्तोमेभिः) तुमच्या स्तोमगानासह (वाय्) तुम्हाला (प्रतिभूषति) काही मागत आहे. म्हणजे मी तुम्हाला काही तरी मागत आहे. हे (माध्वी) मधुर परमात्मा व जीवात्मा, तुम्ही (मम) माझ्या या (हवम्) आवाहनाला (श्रुतम्) ऐका. म्हणण्याचा आशय हा की पुढील जन्मी मला मानव शरीरच मिळावे, पशु, पक्षी, सरपटणारे जंतु, स्थावर आदींचे शरीर नको.।। द्वितीय अर्थ - (शिल्प - रथपर) (कारागीरांनी तयार केलेले विमान आदी वाहने) हे (अश्विनौ) रथांचे निर्माता व चालकजनहो, (प्रियतमम्) अत्यंत प्रिय (वृषणम्) आणि शत्रु-सैन्यावर शस्त्रास्त्रांची वर्पा करणारे व (वसुवाहनम्) धन - धान्यादी पदार्थ देशात वा देशांतरापर्यंत पोचविणाऱ्या (रथम्) विमान आदी रथाला (वाम्) तुमचा (स्तोता) प्रशंसक (ऋषिः) विद्वान मनुष्य (वा वैज्ञानिक) (स्तोमेभिः) देशांतराला नेले जाणाऱ्या पदार्थांद्वारे (प्रति भूषति) अलंकृत करतो. हे (माध्वी) मधुर गतीचे विज्ञान जाणणारे शिल्पीजनहो, (अभियंताजनहो) तुम्ही (मम) माझी (हवम्) विमान आदी या निर्माण करण्याविषयी व ते चालविण्याविषयीची ही पुकार (वा याचना) (प्रतिश्रुतम्) ऐका व पूर्ण करा.।। १०।।

    भावार्थ

    सर्व लोकांनी अशी कार्ये करावीत की ज्यामुळे त्यांना पुढील जन्मात मानव शरीरच मिळावे. तसेच शिल्पविद्या (विज्ञान व तंत्रज्ञान) याच्या साह्याने राष्ट्रात वेगवान भूयान, जलयान व अंतरिक्ष यानांचे निर्माण केले पाहिजे आणि त्याद्वारे (सैनिकांना, व्यापाऱ्यांना) देश - विदेशात जाता यावे व व्यापार, युद्ध आदींच्या कामी त्या वाहनांचा उपयोग करता आले पाहिजे.।। १०।। या दशतीमध्ये इंद्राच्या सहयोगिनी गौरीचे, इंद्राच्या स्वराज्याचे वर्णन, त्याचे आवाहन, उद्बोधन व स्तवन, चंद्र - सूर्य आदींच्या गतीचे व त्या ग्रहादीच्या कर्त्याचे वर्णन, त्याने दिलेल्या रथाचे वर्णन आहे. यामुळे या दशतीच्या विषयांशी मागील दशतीच्या विषयांची संगती आहे, असे जाणावे.।। पंचम प्रपाठकातील प्रथम अर्धाची तृतीय दशती समाप्त. चतुर्थ अध्यायातील सप्तम खंड समाप्त.

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। १०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (அசுவினிகளே)! உங்கள் (பிரியதமமான) விருப்பத்தை அளிக்கும் ஐசுவரியஞ் சுமக்கும் (ரதத்தை) துதி செய்பவன் ஆத்ம துதிகளால் [1]அலங்காரஞ் செய்கிறான்,தயாராயுளான். மது வித்தையை அறிபவர்களே! செவி கொடுக்கவும்.

    FootNotes

    [1]அலங்காரஞ் செய்கிறான் - தன்னை தயார் செய்து கொள்ளுகிறான்

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