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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 46
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
शे꣢षे꣣ वने꣡षु꣢ मा꣣तृ꣢षु꣣ सं꣢ त्वा꣣ म꣡र्ता꣢स इन्धते । अ꣡त꣢न्द्रो ह꣣व्यं꣡ व꣢हसि हवि꣣ष्कृ꣢त꣣ आ꣢꣫दिद्दे꣣वे꣡षु꣢ राजसि ॥४६॥
स्वर सहित पद पाठशे꣡षे꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । मा꣣तृ꣡षु꣢ । सम् । त्वा꣣ । म꣡र्ता꣢꣯सः । इ꣣न्धते । अ꣡त꣢꣯न्द्रः । अ । त꣣न्द्रः । ह꣣व्यम् । व꣣हसि । हविष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । आत् । इत् । दे꣣वे꣡षु꣢ । रा꣣जसि ॥४६॥
स्वर रहित मन्त्र
शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्यं वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥४६॥
स्वर रहित पद पाठ
शेषे । वनेषु । मातृषु । सम् । त्वा । मर्तासः । इन्धते । अतन्द्रः । अ । तन्द्रः । हव्यम् । वहसि । हविष्कृतः । हविः । कृतः । आत् । इत् । देवेषु । राजसि ॥४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 46
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब भौतिक अग्नि के सादृश्य से परमात्मा के कर्म का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। हे यज्ञाग्नि ! तू (वनेषु) वनों में, वन के काष्ठों में, और (मातृषु) अपनी माता-रूप अरणियों के गर्भ में (शेषे) सोता है, छिपे रूप से विद्यमान रहता है। (त्वा) तुझे (मर्तासः) याज्ञिक मनुष्य (समिन्धते) अरणियों को मथकर प्रज्वलित करते हैं। प्रज्वलित हुआ तू (अतन्द्रः) तन्द्रारहित होकर, निरन्तर (हविष्कृतः) हवि देनेवाले यजमान की (हव्यम्) आहुत हवि को (वहसि) स्थानान्तर में पहुँचाता है। (आत् इत्) उसके अनन्तर ही, तू (देवेषु) विद्वान् जनों में (राजसि) राजा के समान प्रशंसित होता है ॥ यहाँ अचेतन यज्ञाग्नि में चेतन के समान व्यवहार आलङ्कारिक है। अचेतन में शयन और तन्द्रा का सम्बन्ध सम्भव न होने से शयन की प्रच्छन्नरूप से विद्यमानता होने में लक्षणा है, इसी प्रकार अतन्द्रत्व की नैरन्तर्य में लक्षणा है। वनों में शयन करता है, इससे अग्नि एक वनवासी मुनि के समान है, यह व्यञ्जना निकलती है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। हे परमात्मन् ! आप (वनेषु) वनों में और (मातृषु) वनों की मातृभूत नदियों में (शेषे) शयन कर रहे हो, अदृश्यरूप से विद्यमान हो। (त्वा) उन आपको (मर्तासः) मनुष्य, योगाभ्यासी जन (समिन्धते) संदीप्त करते हैं, जगाते हैं, योगसाधना द्वारा आपका साक्षात्कार करते हैं। अन्यत्र कहा भी है—पर्वतों के एकान्त में और नदियों के संगम पर ध्यान द्वारा वह परमेश्वर प्रकट होता है। साम० १४३। (अतन्द्रः) निद्रा, प्रमाद, आलस्य आदि से रहित आप, उनकी (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूप हवि को (वहसि) स्वीकार करते हो। (आत् इत्) तदनन्तर ही, आप (देवेषु) उन विद्वान् योगी जनों में, अर्थात् उनके जीवनों में (विराजसि) विशेषरूप से शोभित होते हो ॥ यहाँ भी परमात्मा के निराकार होने से उसमें शयन और संदीपन रूप धर्म संगत नहीं हैं, इस कारण शयन की गूढरूप से विद्यमानता होने में और संदीपन की योग द्वारा साक्षात्कार करने में लक्षणा है ॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, और भौतिक अग्नि एवं परमेश्वर का उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥२॥
भावार्थ
जैसे भौतिक अग्नि वन के काष्ठों में अथवा अरणियों में अदृश्य हुआ मानो सो रहा होता है और अरणियों के मन्थन से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त हो जाता है, वैसे ही परमेश्वर भी वनों के तरु, लता, पत्र, पुष्प, नदी, सरोवर आदि के सौन्दर्य में प्रच्छन्न रूप से स्थित रहता है और वहाँ ध्यानस्थ योगियों द्वारा हृदय में प्रदीप्त किया जाता है। जैसे यज्ञवेदि में प्रदीप्त किया हुआ भौतिक अग्नि सुगन्धित, मधुर, पुष्टिदायक और आरोग्यवर्धक घी, कस्तूरी, केसर, कन्द, किशमिश, अखरोट, खजूर, सोमलता, गिलोय आदि की आहुति को वायु के माध्यम से स्थानान्तर में पहुँचाकर वहाँ आरोग्य की वृद्धि करता है, वैसे ही परमेश्वर उपासकों की आत्मसमर्पण-रूप हवि को स्वीकार करके उनमें सद्गुणों को बढ़ाता है ॥२॥
पदार्थ
(वनेषु मातृषु शेषे) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू रश्मियों “वनं रश्मिनाम” [निघं॰ १.५] मानव मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुरसों में “यः कपाले रसो लिप्त आसीत् ते रश्मयोऽभवन्” [श॰ ६.१.२.६] एवं शरीर की नाड़ियों में “मातरः-नद्यः” [निघं॰ १.१३] “सीराः-नद्यः” [निघं॰ १.१३] “सीराः-नाड्यः सीरा युञ्जन्ति कवयो॰...” [यजु॰ १२.६७] निहित रहता है (त्वां मर्तासः समिन्धते) तुझे मनुष्य प्रदीप्त करते हैं—साक्षात् करते हैं (अतन्द्रः) तू तन्द्रारहित-सावधान-अनन्त ज्ञानवान् (हविष्कृतः-हव्यं वहसि) आत्मसमर्पी की हावभाव भरी स्तुतिरूप भेंट को वहन करता है—स्वीकार करता है (आत्-इत्) इसके अनन्तर ही (देवेषु राजसि) तू उस आत्मसमर्पी मर्त्य—मरणधर्मीजन को मुक्तात्माओं में विराजमान कर देता है “राजयसि-राजसि-अन्तर्गतणिजर्थः”।
भावार्थ
परमात्मन्! तू मानव मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं और शरीर की प्राणनाडियों में अदृश्य रूप में वर्तमान है, तुझे उपासक अपनी स्तुतियों से वैराग्यपूर्वक मन में बिठाता है और मस्तिष्क तन्तुओं में प्राणनाड़ियों में अभ्यास से सिद्ध कर हृदय में साक्षात् करता है। ऐसे उपासक को परमात्मन् तू मुक्तात्माओं में पहुँचा देता है। अपना अमृतानन्द पुरस्कार प्रदान करता है॥२॥
विशेष
ऋषिः—भर्गः (ज्ञानमय तेज वाला उपासक)॥<br>
विषय
प्रभु का निवास किनमें?
पदार्थ
हे प्रभो! आप (वनेषु) = वनों में [वन = to win] - विजयशील पुरुषों में और (मातृषु) = निर्माण करनेवालों में (शेषे ) = शयन करते हैं, निवास करते हैं। वेद में निवास करने के लिए 'शयन करना' इसका प्रयोग बहुधा पाया जाता है। पुरि शेते = पुरुष:- जीव का नाम है- शरीररूपी नगरी में शयन करनेवाला।
जो हृदय-स्थली में चलनेवाले देवासुर संग्राम में असुरों से पराजित नहीं हो जाते, वे विजयी हैं। वे असुरों का संहार करते हैं वस्तुतः वे ही सदाचारी हैं। 'विजय ही सदाचार है, पराजय ही अनाचार है।' अपराजित विजयी पुरुषों में ही प्रभु रहते हैं तथा (माता) = निर्माताओं में उनका निवास है। निर्माता पुरुष ध्वंसक वृत्तिवाले नहीं होते। ('तृणं न छिन्द्यात्') यह मनु-वाक्य इस वृत्ति को न पनपने देने के लिए ही लिखा गया है। ये पुरुष रोग से घृणा करते हैं, रोगी से नहीं। ये पाप से घृणा करते हैं पापी से नहीं। ये पापी को निष्पाप बनाने का प्रयत्न करते हैं। ये शत्रु से घृणा नहीं करते, अपितु उसकी शत्रुता की भावना को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। ऐसे निर्माणशील पुरुषों में प्रभु का निवास होता है। ।
(मर्तास:)=[मृङ् प्राणत्यागे] जो धन व समय का ही नहीं, अपने छोटे-मोटे सुखों का ही नहीं, अपितु अपने प्राणों का भी परित्याग करना सीखते हैं, वे मर्त ही (त्वा) = तुझे (समिन्धते ) = अपने में दीप्त करते हैं। लोक-संग्रह के लिए जो प्राणत्याग कर सकते हैं, उन्हीं में प्रभु का प्रकाश होता है।
(हविष्कृतः) = अपने जीवनों को हविरूप बनानेवालों के (हव्यम्) = देने योग्य पदार्थों को आप (अतन्द्रः) = बिना आलस्य के (वहसि) = प्राप्त कराते हैं। ये आत्मत्यागी लोग भूखे नहीं मरते । वस्तुतः जब ये परमेश्वर की प्रजा के हित में लगते हैं तो प्रभु इनके परिवार के पालने में। बस, इस प्रकार, वन= विजयी - जितेन्द्रिय, (माता)=निर्माता=निर्माण की वृत्तिवाले, (हविष्कृत्) = अपने जीवन को हविरूप बना देनेवाला मनुष्य, जब मनुष्य श्रेणी से ऊपर उठकर देव बन जाता है, (आत् इत्) = तब निश्चय से इन (देवेषु) = देवों में आप (राजसि) = शोभायमान होते हैं। उनकी एक-एक क्रिया में प्रभु की ज्योति दीखती है। —
जीवन का पूर्ण विकास व परिपाक करनेवाले ये व्यक्ति इस मन्त्र के ऋषि ‘भर्ग' होते हैं। ये ही प्रभु की क्रियात्मक भक्ति करने के कारण 'प्रगाथ' [उत्तम गायन करनेवाले ] कहलाते हैं।
भावार्थ
हम जितेन्द्रिय, निर्माता और प्राणों को प्राजापत्य यज्ञ में उत्सर्ग करनेवाले बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे अग्ने ! परमेश्वर ! तू ( वनेषु ) = जंगलों में अग्नि के समान, देवों में जीव के समान, सब प्राणियों की आत्माओं में और ( मातृषु )
= माताओं के गर्भों और भूमियों में चेतन वीजरूप से ( शेषे ) = प्रसुप्त होकर व्याप्त रहता है । ( त्वा ) = तुझको ( मर्त्तासः ) = मरणधर्मा, देहवान् प्राणिगण ( इन्धते ) = प्रदीप्त करते, प्रकट करते और ज्ञान करते हैं । तू ( अतन्द्रः ) = आलस्य से रहित होकर ( हविष्कृतः ) = हवि सम्पादन करने वाले पुरुष के ( हब्यं ) = प्रस्तुत किये ज्ञान को ( वहसि ) = ले जाता है । ( आत् इत् ) = और अनन्तर तू ईश्वर ( देवेषु ) = देवों, विद्वानों और जीवों और इन्द्रियों के बीच में सबसे उत्कृष्ट होकर ( राजसि ) = प्रकाशित होता है ।
टिप्पणी
४६ –‘मात्रो:’, ‘हव्य' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः।
छन्दः - बृहती।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ भौतिकाग्निसादृश्येन परमात्मनः कृत्यं वर्ण्यते।
पदार्थः
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। हे यज्ञाग्ने ! त्वम् (वनेषु) काननेषु, तत्काष्ठे- ष्विति यावत्, (मातृषु) मातृभूतासु अरणीषु च (शेषे२) स्वपिषि, प्रच्छन्नरूपेण विद्यमानो भवसि। (त्वा) त्वाम् (मर्तासः) याज्ञिका मनुष्याः (समिन्धते) अरणिमन्थनद्वारा प्रदीपयन्ति। (प्रदीप्तः) त्वम् (अतन्द्रः) अनलसः सन् (हव्यम्) हुतं हविर्द्रव्यम् (वहसि) स्थानान्तरं प्रापयसि। (आत्३ इत्) तदनन्तरमेव त्वम् (देवेषु) विद्वज्जनेषु (राजसि) राजवत् प्रशंसितो भवसि ॥ अत्र अचेतने यज्ञाग्नौ चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः। अचेतने शयनतन्द्रयोः सम्बन्धासंभवात् शयनस्य प्रच्छन्नरूपेण विद्यमानत्वे लक्षणा, अतन्द्रत्वस्य नैरन्तर्ये लक्षणा। वनेषु शेषे इत्यनेन च अग्नेर्मुनित्वं व्यङ्ग्यम् ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। हे अग्ने परमात्मन् ! त्वम् (वनेषु) विपिनेषु, (मातृषु) तन्मातृभूतासु नदीषु च। मातर इति नदीनाम। निघं० १।१३। (शेषे) स्वपिषि, अदृश्यतया विद्यमानोऽसि। (त्वा) त्वाम् (मर्तासः) मनुष्याः, योगाभ्यासिनो जनाः (समिन्धते) संदीपयन्ति, जागरयन्ति, योगसाधनाद्वारा साक्षात्कुर्वन्तीत्यर्थः। उक्तं चान्यत्र—उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत ॥ साम० १४३ इति। त्वं च (अतन्द्रः) निद्राप्रमादालस्यादिरहितः सन्, तेषाम् (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूपं हविः (वहसि) स्वीकरोषि। (आत् इत्) तदनन्तरमेव त्वम् (देवेषु) विद्वत्सु तेषु योगिजनेषु, तज्जीवनेषु (राजसि) विशेषेण राजमानो भवसि ॥ अत्रापि परमात्मनो निराकारत्वात् तत्र शयनसमिन्धनधर्मौ नोपपद्येते इति शयनस्य गूढतया विद्यमानत्वे समिन्धनस्य च योगसाक्षात्कारे लक्षणा ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। भौतिकाग्निपरमात्माग्न्योरुपमानोपमेयभावश्च द्योत्यते ॥२॥
भावार्थः
यथा भौतिकाग्निर्वनकाष्ठेष्वरणिषु वादृश्यः सन् स्वपितीव, अरण्योर्मन्थनेन च यज्ञकुण्डे प्रदीप्यते, तथा परमेश्वरोऽपि काननानां तरुलतापत्रपुष्पसरित्सरोवरादिसौन्दर्ये प्रयच्छन्नस्तिष्ठति, तत्र ध्यान- परायणैर्योगिभिर्हृदये प्रदीप्यते च। यथा यज्ञवेद्यां प्रदीपितो भौतिकाग्निः सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यवर्द्धकं घृतकस्तूरीकेसरकन्द- द्राक्षाक्षोटखर्जूरसोमलतागुडूच्यादिकं हुतं हविर्द्रव्यं वायुमाध्यमेन स्थानान्तरं प्रापय्य तत्रारोग्यं वर्द्धयति, तथा परमेश्वर उपासका- नामात्समर्पणरूपं हव्यं स्वीकृत्य तेषु सद्गुणान् संवर्द्धयति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।६०।१५। मातृषु, हव्यं इत्यत्र क्रमेण मात्रोः, हव्या इति पाठः। २. शेषे गूढः तिष्ठसि, वनेषु अरण्येषु, काष्ठेषु इत्यर्थः, मातृषु अरणीषु—इति भ०। शेषः इत्यपत्यनाम, तस्मादियं निमित्तसप्तमी। चर्मणि द्वीपिनं हन्ति’ (म० भा० २।३।३६) इति यथा। अपत्ये निमित्तिभूते, अपत्यार्थमित्यर्थः—इति वि०। ३. आत् इत् तदानीमेव—इति भ०। आत् इत् द्वावपि पादपूरणौ—इति वि०।
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, Thou liest in our ephemeral bodies and hearts. Reflective, Yogis Kindle Thee. Thou art free from laziness. Thou rewardest the actions of men. Moreover Thou shinest in material objects.
Meaning
You pervade in the forests and in the earth up to heaven. The mortals light and raise you holily, and, without sloth or delay, you carry the sacred offerings of the devoted celebrants to the divinities over earth and heaven and shine among them. (Rg. 8-60-15)
Translation
O God, Thou residest in the hearts of noble souls ( hermits ) who are respected by all and who destroy all ignor- ance. Ordinary men also try to enkindle Thee within their hearts through meditation and other practices of Yoga Ever alert, Thou acceptest the devotees’ gift of devotion and self- surrender and then shinest among the wise.
Comments
वनेषु-बन-संभक्तौ संभजनीयेडु माठ्षु-मिञ प्रक्षेपणे अज्ञान-निवतेकेषु अथवा मातृबत् कोमल हृदयेषु HERWH SU व्यांपकोऽपि भगवान् ताचृशमहात्मर्ना हृदयेषु मुख्यतया निव- सतीति तात्पर्यम् |
Translation
You, O Fire, lie dormant and invisible within your mother's womb, the attrition stick or wood, churned and kindled by the fire-technician. Unweariedly, you after burning carry the combustion products of the house-fire to distant places; and thus, you, O terrestrial fire, occupy a high position among Nature's bounties. (Cf. Rv VIII.60.15)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वनेषु मातृषु शेषे) હે પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું વનમ્ = રશ્મિઓ માનવ મસ્તિષ્કમાં જ્ઞાનતંતુ રસોમાં અને શરીરની નાડીઓમાં નિહિત રહે છે (त्वा मर्त्तासः समिन्धते) તને મનુષ્ય પ્રદીપ્ત કરે છે - સાક્ષાત્ કરે છે. (अतन्द्रः) તું તંદ્રારહિત - સાવધાન - અનંત જ્ઞાનવાન (हविष्कृतः हव्यं वहसि) આત્મ સમર્પણીના હૃદયના ભાવથી પૂર્ણ સ્તુતિ રૂપ ભેટને વહન કરે છે - સ્વીકાર કરે છે (आत् इत्) તદનંતર (देवेषु राजसि) તું તે આત્મ સમર્પણી મર્ત્ય - મરણધર્મીજનને મુક્ત આત્માઓમાં વિરાજમાન કરી દે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું મનુષ્યનાં મસ્તિષ્કનાં જ્ઞાન તંતુઓ અને શરીરની પ્રાણ નાડીઓમાં અદૃશ્ય રૂપમાં વિદ્યમાન છે. તને ઉપાસક પોતાની સ્તુતિઓથી વૈરાગ્યપૂર્વક મનમાં બેસાડે છે. અને મસ્તિષ્ક તંતુઓમાં પ્રાણનાડીઓમાં અભ્યાસ દ્વારા સિદ્ધ કરીને હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરે છે. એવા ઉપાસકને પરમાત્મા તું મુક્ત આત્માઓમાં પહોંચાડી દે છે. તારો અમૃતાનંદ પ્રદાન કરે છે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگتوں کے ہردیوں میں کب چمکتے ہیں بھگوان
Lafzi Maana
ہے اگنے پرماتمن! آپ سمپُورن جگت میں (شیشے) نظر نہ آتے ہوئے نواس کر رہے ہیں (ونیشُو) جیسے جنگلوں میں آگ چہُپی رہتی ہے اور جیسے بالک (ماترِ شُو) ماتاؤں کے گربھ میں چُھپا رہتا ہے (مرتاسہ) اُپاسک لوگ (تُوا) آپ کو اپنے ہردیوں میں انتر آتماؤں میں (سم اِندھتے) روشن کرتے ہیں۔ (اتندرہ) پیارے بھگوان آپ آلس سے رہت وِشو کے پر بندھ میں سدا جُٹے ہوئے (ہوش کِرتہ) شردھا بھگتی، سچّی عقیدت سے جنہوں نے اپنے کو آپ کے سُپرد کررکھا ہے۔ اُن کی (ہویمّ) آہوتی یعنی ہردیہ کی بھینٹ کو (وہسی) آپ سویکار کر لیتے ہو (آت اِت) تب پھر آپ (دیویشوُ) دیو سمان اپنے پیارے عابدوں کی آتماؤں میں (راجسی) مُنّور ہوتے ہو، چمکتے ہو۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा भौतिक अग्नी वनातील काष्ठांमध्ये अथवा अरणीमध्ये अदृश्य झाल्याप्रमाणे जणू निद्रिस्त असतो व अरणीच्या मंथनाने यज्ञकुंडात प्रदीप्त होतो, तसेच परमेश्वरही वनातील तरु, लता, पत्र, पुष्प, नदी, सरोवर आदींच्या सौंदर्यामध्ये प्रच्छन्न रूपाने स्थित असतो, तेथे ध्यानस्थ योग्याद्वारे हृदयात प्रदीप्त केला जातो. जसा यज्ञवेदीमध्ये प्रदीप्त केलेला भौतिक अग्नी सुगंधित, मधुर, पुष्टिदायक व आरोग्यवर्धक घृत, कस्तुरी केसर, कंद, किसमिस, अखरोट, खजूर, सोमलता, गिलाय इत्यादी आहुतीला वायूच्या माध्यमाने स्थानांतरी पोचवून तेथे आरोग्याची वृद्धी करतो, तसाच परमेश्वर उपासकाच्या आत्मसमर्पणरूपी हविला स्वीकारून त्यांच्यामध्ये सद्गुणांची वाढ करतो ॥२॥
विषय
पुढील मंत्रात भौतिक अग्नीच्या सादृश्यावरून परमेश्वराच्या कर्मांचे वर्णन केले आहे. -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (यज्ञाग्निपरक) - हे यज्ञाग्नी, तू (वनेषु) वनात वा रानातील काष्ठात आणि (मातृषु) आपल्या मातांरूप आलेल्या अरणीच्या गर्भात (शेष) गुप्त रूपाने झोपलेला असतोस. (बा) तुला (मतसि) याज्ञिक मनुष्य (समिन्धते) अरणीचे मंथन करून प्रकट करतात. प्रज्वलित करतात. प्रज्वलित झालेला तू (अतन्द:) तंद्रारहित होऊन सतत जागृत प्रज्वलित राहून (हविष्कृत:) हवी देणाऱ्या यजमानाच्या (हव्यम्) आहुत हवी (वहसि) या स्थानावरून त्या स्थानापर्यंत दूर-दूरपर्यंत नेतोस. (आत् इत्) तुझ्या या गुणांमुळेच तू नंतर (देवेषु) विद्वज्जनांत (वाजसि) एखाद्या राजाप्रमाणे प्रशंसित होतोस. या ठिकाणी अचेतन अशा यज्ञाग्नीसाठी चेतन पदार्थाप्रमाणे व्यवहार जसे झोपणे, वाहून नेणे, जागरूक राहणे दाखविले आहेत. हे शब्दप्रयोग येथे अलंकारीक रूपात वर्णित आहेत. अचेतन पदार्थात राय, तंद्रा आदी कार्य असंभवनीय आहेत. त्यामुळे तंद्रा, शयन शब्दांचा लक्षणशक्तीमुळे लाक्षणिक अर्थ घेतला पाहिजे. वनात शयन करतोस या वाक्यामुळे अग्नी एक वनवासी मुनिप्रमाणे आहे हा व्यंजना शब्द शक्तीने व्यंग्यार्थ व्यक्त होत आहे. द्वितीय अर्थ : (परमात्मपरक) हे परमात्मन् आपण (वनेषु) वनात आणि (मातृषु) वनांची माता ज्या नद्या, त्या नद्यात (शेष) शयन करीत आहात म्हणजे अदृश्यरूपेण विद्यमान आहात. (त्वा) आपणास (मर्त्यास:) मनुष्य, योगाभ्यासी जन (समिन्धते) संदीप्त करतात. जागृत करतात. म्हणजे योगसाधनेद्वारे आपल साक्षात्कार करतात. अन्यत्र म्हटलेलेही आहे की पर्वतांच्या एकांतस्थळी आणि नद्यांच्या संगमावर ध्यानद्वारे परमेश्वर प्रकट होतो. (साम. १४३) (अतन्द्र:) निद्रा, प्रमाद, आलस्य आदींपासून रहित आपण त्या योग्यांच्या (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूप हवीच्या (वहसि) स्वीकार करता (आत् इत) त्यानंतरच आपण (देवेषु) त्या विद्वान योगीजनांमध्ये म्हणजे त्यांच्या जीवनात (विराजसि) विशेषत्वाने सुशोभित होता. ।।२।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे भौतिक अग्नी वनाच्या लाकडामध्ये अथवा अरणीच्या काष्ठामध्ये अदृश्य रूपेण जणू झोपलेला असतो आणि दोन अरणींच्या मंथनाने यज्ञकुंडात प्रदीप्त होतो, त्याप्रमाणे परमेश्वरही वनांच्या वृक्ष, लता, पत्र, पुष्प, नदी सरोवर आदींच्या सौंदर्यात प्रच्छन्नरूपेण विद्यमान असतो. आणि योगीजनांद्वारे हृदयात प्रदीप्त केला जातो. जसा यज्ञवेदीत प्रदीप्त भौतिक अग्नी सुवासिक, मधुर, पुषिकारक आणि आरोग्यवर्धक घृत, कस्तुरी, केशर, कन्द, खिसमिस, अक्रोड, खजुर, सोमलता, गिलोय आदी पदार्थांचा आहुती वायुच्या माध्यमाने स्थानांतराला पोहोचवून तेथील आरोग्याची वृद्धी करतो, तद्वत परमेश्वर उपासकांच्या आत्मसमर्पणरूप हवी स्वीकारून उपासकांच्या हृदयात स्वभावात सद्गुणांची वृद्धी करतो. ।।२।।
विशेष
परमेश्वर निराकार असल्यामुळे येथेही त्याच्याविषयी शन संदीपन हे धर्म असंगत ठरतात. त्यामुळे शयन शब्दावरून गूढरूपेन विद्यमान आणि संदीपन शब्दावरून योगद्वारा साक्षात्कार हा लाक्षणिक अर्थ घेणे आवश्यक आहे. या मंत्रात श्लेषालंकार असून भौतिक अग्नी आणि परमेश्वर या दोघात उपमान उपमेयभाव ध्वनित होत आहे.
तमिल (1)
Word Meaning
(தாய்களான) சலங்களில் நீ சாய்ந்திருக்கிறாய், உன்னை மனிதர்கள் எழுச்சியாக்குகிறார்கள். துரிதமாய் யக்ஞஞ் செய்பவர்களின் [1]அளிப்பை சுமந்து செல்துகிறாய். அப்பால் (தேவர்களில் ஒளிவீசுகிறாய்).
FootNotes
[1].அளிப்பை - நல்லசெயலை
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