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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 47
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    3

    अ꣡द꣢र्शि गातु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ य꣡स्मि꣢न्व्र꣣ता꣡न्या꣢द꣣धुः꣢ । उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣡मार्य꣢꣯स्य व꣡र्ध꣢नम꣣ग्निं꣡ न꣢क्षन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡द꣢꣯र्शि । गा꣣तुवि꣡त्त꣢मः । गा꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । य꣡स्मि꣢꣯न् । व्र꣣ता꣡नि꣢ । आ꣣दधुः꣢ । आ꣣ । दधुः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । आ꣡र्य꣢꣯स्य । व꣡र्ध꣢꣯नम् । अ꣣ग्नि꣢म् । न꣣क्षन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः ॥४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदर्शि । गातुवित्तमः । गातु । वित्तमः । यस्मिन् । व्रतानि । आदधुः । आ । दधुः । उप । उ । सु । जातम् । आर्यस्य । वर्धनम् । अग्निम् । नक्षन्तु । नः । गिरः ॥४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 47
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की हमें स्तुति-वाणियों से पूजा करनी चाहिए, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    (गातुवित्तमः) सबसे बढ़कर कर्तव्य-मार्ग का प्रदर्शक वह अग्रणी परमेश्वर (अदर्शि) हमारे द्वारा साक्षात् कर लिया गया है, (यस्मिन्) जिस परमेश्वर में, मुमुक्षुजन (व्रतानि) अपने-अपने कर्मों को (आदधुः) समर्पित करते हैं अर्थात् ईश्वरार्पण-बुद्धि से निष्काम कर्म करते हैं। (उ) और (सुजातम्) भली-भाँति हृदय में प्रकट हुए, (आर्यस्य) धार्मिक गुण-कर्म-स्वभाववाले, ईश्वर-पुत्र आर्यजन के (वर्द्धनम्) बढ़ानेवाले (अग्निम्) ज्योतिर्मय, नायक परमेश्वर को (नः) हमारी (गिरः) स्तुति-वाणियाँ (उप-नक्षन्तु) समीपता से प्राप्त करें ॥३॥

    भावार्थ

    मोक्षार्थी मनुष्य फल की इच्छा का परित्याग करके परमेश्वर में अपने समस्त कर्म समर्पित कर देते हैं और परमेश्वर सदैव प्रज्वलित दीपक के समान उनके मन में कर्तव्याकर्तव्य का विवेक पैदा करता है। सब आर्य गुण-कर्म-स्वभाववालों के उन्नायक उसकी स्तुति से हमें अपने हृदय को पवित्र करना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (यस्मिन् व्रतानि-आदधुः) जिसकी प्राप्ति के निमित्त व्रतों-ब्रह्मचर्य अहिंसा सत्य आदि को समन्त-रूप से धारण करते हैं “यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति” [कठो॰ १.१.१५] (गातुवित्तमः-अदर्शि) हमारी विधि का भली-भाँति ज्ञाता “गातुः-गमनम्” [निरु॰ ४.२२] दृष्ट होता है—साक्षात् हो जाता है (आर्यस्य वर्धनं सुजातम्-अग्निम्) उपासक या श्रेष्ठ गुण के वर्धक सम्यक् साक्षात् परमात्मा को (नः-गिरः) हमारी स्तुतियाँ (उपनक्षन्तु-उ) निरन्तर प्राप्त होती रहें “नक्षति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।

    भावार्थ

    जो परमात्मा हमारी गतिविधियों को जानता है जिसकी प्राप्ति के निमित्त ब्रह्मचर्य आदि व्रत धारण करते हैं उसका आत्मा में साक्षात्कार हो जाता है, उसे हमारी स्तुतियाँ निरन्तर प्राप्त होती रहें जिससे कि वह मुझ उपासक एवं श्रेष्ठगुण को बढ़ाता रहे॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर भरने में कुशल)॥<br>

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    विषय

    प्रभु को कौन देखता है?

    पदार्थ

    (अग्निम्)=आगे ले-चलनेवाले प्रभु को (न:) = हमारी (गिरः) = वाणियाँ (नक्षन्तु) = प्राप्त हों, अर्थात् हम सदा प्रभु को पुकारें, उसी का द्वार खटखटाएँ [नक्ष= to knock at] जो प्रभु (आर्यस्य) = उन्नति के मार्ग पर नियमपूर्वक चलनेवाले को [ऋ=गतौ, इयर्ति इति आर्य :] (वर्धनम्) = उत्साहित करनेवाले हैं (उ)=और (उप षु जातम्) = उत्तम प्रकार से समीप प्राप्त होनेवाले हैं। जो आर्यपुरुष इस देवमार्ग पर नियमपूर्वक चलते रहते हैं, वे एक दिन उस प्रभु के समीप पहुँच जाते हैं। किस प्रभु के समीप ? (यस्मिन् व्रतानि आदधुः) = जिसकी प्राप्ति के निमित्त [निमित्त सप्तमी] विविध व्रतों को धारण किया करते हैं। ('यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति') = जिस प्रभु को चाहते हुए ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किया करते हैं। वस्तुतः प्रत्येक उत्तम व्रत हमें उस प्रभु के कुछ समीप ही ले जाता है।

    इस प्रभु को (अदर्शि) = देखता है। कौन? (गातुवित्तमः) = [गातु+वित्+तमः] अतिशयेन देवमार्ग को प्राप्त करनेवाला। जो व्यक्ति इस देवमार्ग पर सर्वाधिक चलता है [विद् लाभे]। हम सब अपने अन्दर आर्यत्व, व्रतशीलता तथा उत्तम मार्ग पर चलने की भावनाओं को भरकर इस मन्त्र के ऋषि 'सोभरि' हों।

    भावार्थ

    गत मन्त्र में देवमार्ग का उल्लेख हुआ था, जो नियम से इस मार्ग पर चलता है, वह प्रभु के समीप पहुँचकर उसका दर्शन करता है।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( गातुवित्तमो१  ) = समस्त मार्गों- लोकों को भली प्रकार जानने वाला, पृथिवी का उत्तम ज्ञाता, वह अग्नि ( अदर्शि ) = प्रकट होता है ( यस्मिन् ) = जिसमें, जिसके बल पर दीक्षित लोग ( व्रतानि२  ) = अपने शुभकर्म और संकल्पों को ( आदधुः ) = धारण करते हैं । उस ( सुजातम् ) = शुभ गुणों से युक्त, उत्तम प्रकार से प्रकट होने हारे, ( आर्यस्य वर्धनं  ) = श्रेष्ठ पुरुष की उन्नति करनेहारे ( अग्निम् ) = अग्नि, परमेश्वर को ( नः गिर: ) = हमारी वाणियां (नक्षन्तु३  ) = प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    ४७ -'नक्षन्त नो गिरः' इति ऋ० । 
    १.गातुरिति पृथिवीनाम । नि० १ । १ । 
    २. व्रतमिति कर्मनाम । नि० २ ।  १ ।  
    ३.नक्षतिर्व्याप्तिकर्मा | नि० २ । १८ ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - सौभरि:  काण्व :।

    छन्दः - बृहती।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    परमेश्वरोऽस्माभिः स्तुतिवाग्भिरर्चनीय इत्याह।

    पदार्थः

    (गातुवित्तमः२) गच्छन्ति अत्र इति गातुः मार्गः तस्य अतिशयेन वेदयिता ज्ञापयिता, कर्तव्यमार्गप्रदर्शक इति भावः, सोऽग्निः परमेश्वरः (अदर्शि) अस्माभिः साक्षात्कृतः, (यस्मिन्) अग्नौ परमेश्वरे मोक्षार्थिनो जनाः (व्रतानि) स्वस्वकर्माणि। व्रतमिति कर्मनाम। निघं० २।१। (आदधुः) स्थापयन्ति, समर्पयन्ति ईश्वरार्पणबुद्ध्या निष्कामकर्माणि कुर्वन्तीत्यर्थः। (उ३) अथ च (सुजातम्) सम्यक् हृदये प्रकटीभूतम् (आर्यस्य४) धर्म्यगुणकर्मस्वभावस्य ईश्वरपुत्रस्य। अर्य इति ईश्वरनाम। निघं० २।२२। आर्यः ईश्वरपुत्रः। निरु० ६।२६। वर्धनम् वर्द्धयितारम् (अग्निम्) ज्योतिर्मयं नायकं परमेश्वरम् (नः) अस्माकम् (गिरः) स्तुतिवाचः (उप नक्षन्तु) उपगच्छन्तु, सामीप्येन प्राप्नुवन्तु। नक्षतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४ ॥३॥

    भावार्थः

    मोक्षार्थिनो मानवाः फलेच्छां परित्यज्य परमेश्वराय स्वकीयानि समस्तानि कर्माणि समर्पयन्ति। परमेश्वरः सदैव प्रज्वलितः प्रदीपवत् तेषां मनसि कर्तव्याकर्तव्यविवेकं जनयति। सर्वेषामार्यगुणकर्म- स्वभावानामुन्नायकस्य तस्य स्तुत्याऽस्माभिः स्वहृदयं पावनीयम् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१०३।१ नक्षन्तु इत्यत्र नक्षन्त इति पाठः। साम० १५१५। २. अतिशयेन मार्गलम्भकः—इति भ०। कै गै रै शब्दे इत्येतस्य रूपम्। गातुः शब्दयिता, स्तुतीनामुच्चारयिता। तं यो वेत्ति स गातुवित्। अतिशयेन गातुवित् गातुवित्तमः—इति वा०। अतिशयेन मार्गाणां ज्ञाता—इति सा०। ३. उप उ सु त्रयोऽपि पूरणाः—इति वि०। उपो उप-उ इति निपातद्वयसमुदायः। उपनक्षन्तु, नक्षतिः व्याप्तिकर्मा, उपव्याप्नुवन्तु—इति भ०। ४. आर्यः धर्म्यगुणकर्मस्वभावः इति य० ३३।८२ भाष्ये द०। आर्यस्य यजमानस्य—इति वि०। यज्ञशीलस्य—इति भ०। उत्तमवर्णस्य—इति सा०।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God appears unto the best knowers of Yogic postures, who dedicate all their acts to Him. May our songs of praise go nigh to Him, Who gives an Arya strength, and reveals Himself to the Yogis.

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    Meaning

    There is seen the light of Agni, best knower of the ways of life, where people concentrate their vows of piety and discipline. Let our songs of adoration rise and reach Agni, self-revealed, who opens the paths of progress and urges us on to reach the goal of rectitude for noble people. (Rg. 8-103-1)

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    Translation

    Our laudations are offered to that adorable Lord to whom all our actions and prayers are dedicated, to the one who is definitely the noblest and wisest, and is the furtherer of the works of pious men.3 (Cf. S. 1515; Rv VIII.103.1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यस्मिन् व्रतानि आदधुः) જેની પ્રાપ્તિને માટે વ્રતો = બ્રહ્મચર્ય, અહિંસા, સત્ય આદિને સંપૂર્ણ રૂપમાં ધારણ કરે છે, (गातु वित्तमः अदर्शि) અમારી વિધિનો સારી રીતે જ્ઞાતા દષ્ટ થાય છે સાક્ષાત્ બની જાય છે, (आर्यस्य वर्धनं सुजातम्) ઉપાસકના અથવા શ્રેષ્ઠ ગુણના વર્ધક સારી રીતે સાક્ષાત્ પરમાત્માને (नः गिरः) અમારી સ્તુતિઓ (उपनक्षन्तु उ) નિરંતર પ્રાપ્ત થતી રહે.

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જે પરમાત્મા અમારી ગતિવિધિઓને જાણે છે, જેની પ્રાપ્તિને માટે બ્રહ્મચર્ય આદિ વ્રત ધારણ કરીએ છીએ, તે આત્મામાં સાક્ષાત્કાર થઈ જાય છે, તેને અમારી સ્તુતિઓ નિરંતર પ્રાપ્ત થતી રહે, જેથી તે મારી-ઉપાસકની તથા શ્રેષ્ઠ ગુણની વૃદ્ધિ કરતો રહે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    قبُول ہوں ہماری عاجزانہ دُعائیں نیکیوں کے محافظ کو!

    Lafzi Maana

    (گا تُو وِتمّہ) سچا راستہ دِکھلانے والے مارگ درشک (ادرشی) درشن میں نے کر لیا ہے (یسمِن) جس میں برتی (برتانی) اپنے اپنے ستیہ اہنسا برہم چریہ آدی برتوں کو (آدھُدو) آدھان کرتے آئے ہیں۔ مہان کٹھن گھور تپ جپ ریاضت وغیرہ رِشی مُنی آدی سب لوگ اُسی بھگوان کی پراپتی کے لئے ہی کرتے رہے ہیں اور آج بھی کرتے ہیں۔ وہ (اُپ اُو) ہمارے نزدیک ہے، یقیناً نزدیک تر ہے، (سُو جاتم) ذرّے ذرّے میں چمک رہا ہے۔ اُس کے درشن ہو رہے ہیں۔ اُس (آریسیہ وردھنم) آریوں کو بڑھانے والے نیکوں کے محافظ (اگنِم) پرکاش سورُوپ پرماتما کو (نہ) ہماری (گِرہ) سُتتی کرنے والی حمد و ثنا بھری بانیاں (نکھنِتُو) پراپت ہوں، قبُول ہوں ہماری عاجزانہ دُعائیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मोक्षार्थी माणसे फळाच्या इच्छेचा परित्याग करून परमेश्वराला आपले संपूर्ण कर्म समर्पित करतात व परमेश्वर सदैव प्रज्वलित दीपकाप्रमाणे त्यांच्या मनात कर्तव्याकर्तव्याचा विवेक पैदा करतो. सर्व आर्य गुण-कर्म-स्वभावाचा उन्नायक असलेल्या परमेश्वराच्या स्तुतीने आम्ही आपले हृदय पवित्र करावे ॥३॥

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    विषय

    आम्ही स्तुतिवाणीद्वारे परमेश्वराची पूजा केली पाहिजे, हे सांगतात. -

    शब्दार्थ

    (गावुवित्तम:) सर्वांपेक्षा अधिक कर्तव्यभागाचे दिग्दर्शक करणाऱ्या परमेश्वरास (अदर्शि) आम्ही उपासक आर्यजनांनी साक्षात केले आहे. (यस्मिन्) ज्या परमेश्वरात मोक्ष-इच्छुकजन (व्रताति) आपापल्या कर्मांना (आदधु:) समर्पित करतात म्हणजे ईश्वरार्पण बुद्धीने निष्पाप कर्म करतात. (उ) आणि (आर्यस्य) धार्मिक गुण, कर्म, स्वभाव असलेल्या ईश्वरपुत्र आर्यजनांची (वर्धनम्) समुगती करणाऱ्या त्या (सुजातम्) हृदयी प्रकट झालेल्या (अग्निम्) ज्योतिर्मय नादक परमेश्वराला (न:) आमच्या (गिर:) स्तुती वाणी (उपनक्षन्तु) अगदी जवळ अनुभवून सहजपणे प्राप्त व्हाव्यात. ।।३।।

    भावार्थ

    मोक्षार्थी मनुष्य कलेच्छेचा त्याग करून आपल्या समस्त कर्मांना परमेश्वरास समर्पित करतात आणि परमेश्वर सदैव प्रज्वलित दिपकाप्रमाणे त्यांच्या मनात कर्तव्याकर्तव्याचा विवेक उत्पन्न करतो. आर्य गुण, कर्म, स्वभाववान अशा सर्वांचे उभायदक त्या ईश्वराच्या स्तुतीद्वारे आम्ही आपले हृदय पवित्र केले पाहिजे. ।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    எவனில் [1](விரதங்கள்) அளிக்கப்படுவதோ, அதிசய வழியை
    அறிவிப்பவனான அவன் தோன்றுகிறான். (ஆரியன்) பலத்தைப் பெருக்குபவனான, பெருமையுடன் தோன்றும் அவனான (அக்னியை) எங்களின் துதிகள் அருகில் அணுகட்டும்.

    FootNotes

    [1].விரதங்கள் - நல்ல சங்கற்பங்கள், தியான செயல்கள்.

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