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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 490
    ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    2

    अ꣡स꣢र्जि꣣ र꣢थ्यो꣣ य꣡था꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ च꣣꣬म्वोः꣢꣯ सु꣣तः꣢ । का꣡र्ष्म꣢न्वा꣣जी꣡ न्य꣢क्रमीत् ॥४९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡स꣢꣯र्जि । र꣡थ्यः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । च꣣म्वोः꣢꣯ । सु꣣तः꣢ । का꣡र्ष्म꣢꣯न् । वा꣣जी꣢ । नि । अ꣣क्रमीत् ॥४९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असर्जि रथ्यो यथा पवित्रे चम्वोः सुतः । कार्ष्मन्वाजी न्यक्रमीत् ॥४९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असर्जि । रथ्यः । यथा । पवित्रे । चम्वोः । सुतः । कार्ष्मन् । वाजी । नि । अक्रमीत् ॥४९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 490
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर की आराधना से स्तोता कैसा बल प्राप्त कर लेता है।

    पदार्थ

    (चम्वोः) आत्मा और बुद्धिरूप अधिषवणफलकों में (सुतः) अभिषुत अर्थात् ध्यान द्वारा प्रकटीकृत रसनिधि परमेश्वर (पवित्रे) दशापवित्र के तुल्य पवित्र हृदय में (असर्जि) छोड़ा जाता है, (रथ्यः यथा) जैसे रथ में नियुक्त घोड़ा मार्ग में छोड़ा जाता है। उससे (वाजी) बलवान् हुआ उपासक (कार्ष्मन्) योग-मार्ग में (न्यक्रमीत्) सब विघ्नों को पार कर लेता है, जैसे (वाजी) बलवान् सेनापति (कार्ष्मन्) युद्ध में (न्यक्रमीत्) शत्रु-सेनाओं को परास्त करता है ॥४॥ इस मन्त्र में पूर्वार्द्ध में श्रौति उपमा और उत्तरार्द्ध में श्लेषमूलक लुप्तोपमा है ॥४॥

    भावार्थ

    जब हृदय में सोम परमात्मा अवतीर्ण होता है, तब मनुष्य सभी विघ्न-बाधाओं को क्षण-भर में ही परास्त कर लेता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (यथा रथ्यः) जैसे रथ में जोड़ने योग्य घोड़ा (असर्जि) साधा जाता है वैसे (चम्वोः) ज्ञान और कर्म में या वैराग्य और अभ्यास में सिद्ध हुआ परमात्मा (कार्ष्मन् पवित्रे सुतः) आकर्षण स्थान हृदय में साक्षात् वह (वाजी-नि-अक्रमीत्) अमृत अन्न भोग वाला परमात्मा प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    जैसे रथ में जोड़ने योग्य घोड़ा उपयुक्त साधनों से साधा जाता है ऐसे अमृत अन्न भोग वाला परमात्मा ज्ञान और कर्म में या वैराग्य और अभ्यास में सिद्ध हुआ आकर्षण स्थान हृदय में साक्षात् प्राप्त होता है॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रभूवसुः (प्रधान शक्तियों में वसने वाला ज्ञान करने में समर्थ उपासक)॥<br>

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    विषय

    लक्ष्य की ओर

    पदार्थ

    (यथा) = जैसे (रथ्यः) = रथ में जोतने योग्य उत्तम घोड़ा होता है, उसी प्रकार इस शरीररूप रथ में यह सोम (असर्जि) = जोता गया है। घोड़ों के उत्तम होने पर यात्रापूर्ति की बड़ी आशा होती है, इसी प्रकार शरीर में सोम के होने पर हमारी जीवन-यात्रा पूर्ण हो जाया करती है। यह सोम (पवित्रे) = हृदय की पवित्रता के निमित्त (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। शरीर में सोम होने पर ईर्ष्या-द्वेष आदि कलुषित भावनाएँ मन में उत्पन्न नहीं होती - मन निर्मल बना रहता है । यह सोम (चम्वोः) = चमुओं के निमित्त (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। [चम्वोः- द्यावा-पृथिव्यौ] निघण्टु में ‘चमू’ नाम द्यावापृथिवी का है। जिस प्रकार दो सेनाएँ एक-दूसरे का अह्वान करती हुई एक-दूसरे के सामने खड़ी होती हैं [क्रन्दसी], उसी प्रकार ये द्युलोक व पृथिवीलोक हैं। इस पिंड में ये मस्तिष्क व शरीररूप में हैं - (पृथिवी शरीरम्, द्यौः मूर्धा |) सोम शरीर को दृढ़ बनाता है और मस्तिष्क को उग्र-तेजस्वी ।

    इस प्रकार मन को पवित्र, शरीर को दृढ़, व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाता हुआ यह सोम (वाजी) = सतत गतिवाला होता हुआ (कार्ष्मन्) = लक्ष्य स्थान पर पहुँचता है और (नि) = निश्चय से (अक्रमीत्) = पहुँचता है। 'सोम हमें हमारे जीवन-यात्रा के लक्ष्य पर पहुँचाता है' यह सोम का कितना महान् लाभ है। उस लक्ष्य - स्थान पर पहुँचकर हम 'प्रभु' रूप वसु-सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं, इससे बढ़कर और अधिक उत्कृष्ट सम्पत्ति क्या हो सकती है? प्रभु की सामीप्य मे अपने जीवन में शक्ति का अनुभव करता हुआ यह 'आङ्गिरस' होता है।

    भावार्थ

    सोम के सेवन से 'पवित्र मन, दृढ़ शरीर व उज्ज्वल मस्तिष्क' बनकर मैं जीवन के लक्ष्य स्थान पर पहुँचने वाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( यथा ) = जिस प्रकार ( रथ्यः ) = रथयोग्य ( वाजी ) = वेगवान् अश्व ( कार्ष्मन् ) = आकर्षण करनेहारा ( सुतः ) = प्रेरित होकर ( चम्वोः ) = दोनों सेनाओं के बीच ( पवित्रे ) = पैंतरे पर ( नि-अक्रमीत् ) = वेग से दौड़ता है । उसी प्रकार यह आत्मा ( सुतः ) = ऐश्वर्य से युक्त होकर ( चम्वोः ) = निष्पादन फलकों, द्यौ और पृथिवी, प्राण और अपान के बीच ( पवित्रे ) = पवित्र करने हारे प्राण वायु में ( कार्ष्मन् ) = सब इन्द्रियों को कर्षण करता हुआ ( रथ्यः ) = इस देह के योग्य ( वाजी ) = वेगवान् अति बलवान् ( असर्जि ) = होकर ( नि-अक्रमीत् ) = नाना स्थानों में गमन करता है। सोम और रथ के घोड़े के दृष्टान्त से मुख्य प्राण और ब्रह्माण्ड के विधारक सूत्रात्मा वायु का वर्णन है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - प्रभूवसु:।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वराराधनेन स्तोता कीदृशं बलं प्राप्नोतीत्याह।

    पदार्थः

    (चम्वोः) आत्मबुद्धिरूपयोः अधिषवणफलकयोः (सुतः) अभिषुतः, ध्यानेन प्रकटीकृतः सोमः रसनिधिः परमेश्वरः (पवित्रे) दशापवित्रे इव पवित्रे हृदये (असर्जि) विसृष्टोऽस्ति, (रथ्यः यथा) येन प्रकारेण रथनियुक्तः अश्वः मार्गे विसृज्यते तद्वत्। तेन (वाजी) बलवान् सन् उपासकः (कार्ष्मन्) योगमार्गे। कृष्यते विलिख्यते पादाघातैः इति कार्ष्मा मार्गः तस्मिन्। अत्र सप्तम्या लुक्। (न्यक्रमीत्) निक्रमते, योगविघ्नान् उल्लङ्घयते, यथा (वाजी) बलवान् सेनापतिः (कार्ष्मन्) संग्रामे। कृषतः अन्योन्यं विलिखतः उभे सेने यत्र स कार्ष्मा रणः तस्मिन्। (न्यक्रमीत्) शत्रुसेनाः पराजयते ॥४॥ अत्र पूर्वार्द्धे श्रौती उपमा, उत्तरार्द्धे च श्लेषमूला लुप्तोपमा ॥४॥

    भावार्थः

    यदा हृदये सोमः परमात्माऽवतरति तदा मनुष्यः सर्वा अपि विघ्नबाधाः क्षणेनैव पराजयते ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३६।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a powerful car-horse, standing in the midst of two armies displays heroism in a battle, so does the soul, placed between Prana and Apana in life’s journey, display heroism in life’s struggle.

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    Meaning

    Just as a passionate champion warrior shoots to the goal straight, so does Soma, potent spirit of peace, purity and glory, invoked and celebrated with devotion in the purity of heart and soul, descends to the centre core of the heart without delay. (Rg. 9-36-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यथा रथ्यः) જેમ રથમાં જોડવા યોગ્ય ઘોડા (असर्जि) કેળવવામાં-શિક્ષિત કરવામાં આવે છે, તેમ (चम्वोः) જ્ઞાન અને કર્મમાં અથવા વૈરાગ્ય અને અભ્યાસમાં સિદ્ધ થયેલ પરમાત્મા (कार्ष्मन् पवित्रे सुतः) આકર્ષણ સ્થાન હૃદયમાં સાક્ષાત્ તે (वाजी नि अक्रमीत्) અમૃત અન્નભોગવાળોપરમાત્મા પ્રાપ્ત થાય છે. (૪)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ રથમાં જોડવા યોગ્ય ઘોડાને ઉપયુક્ત સાધનોથી તૈયાર કરવામાં આવે છે, તેમ અમૃત અન્ન ભોગવાળો પરમાત્મા જ્ઞાન અને કર્મ વા અભ્યાસ અને વૈરાગ્યમાં સિદ્ધ થઈને આકર્ષણ સ્થાનમાં સાક્ષાત્ પ્રાપ્ત થાય છે. (४)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    کرم بھوگ کے مُطابق جِیو آتما سنسار میں وِرتا ہے!

    Lafzi Maana

    جیسے رتھ میں جوڑا ہوا گھوڑا میدانِ جنگ میں فوجوں کے درمیان چھوڑ دیا جاتا ہے، ویسے ہی انسانی جامے کو پا کر جیو آتما اِس پِوتّر سنسار میں چھوڑ دیا جاتا ہے، جو کرم بھوگ کے انوسار پرتھوی اور دئیو لوک میں وِچرتا رہتا ہے۔

    Tashree

    جیسے رتھ میں جوڑا گھوڑا میدانِ جنگ میں آتا ہے، ویسے انسانی جامے میں آتما دُنیا میں آتا ہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा हृदयात सोम परमात्मा अवतीर्ण होतो तेव्हा मनुष्य सर्व विघ्न-बाधांना क्षणभरातच पराजित करतो ॥४॥

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    विषय

    परमेश्वराच्या आराधनाद्वारे स्तोता केवढे बळ कसे मिळवितो -

    शब्दार्थ

    (चम्बोः) आत्मा आणि बुद्धीरूप अधिषवण फलकांद्वारे (विशिष्ट चाळण्यांद्वारे) (सुतः) अभिषुत केलेला म्हणजे ज्याला ध्यानाद्वारे प्रकट केले आहे, असा रसमिधि परमेश्वर (पवित्रे) दशापवित्र पात्राप्रमाणे असलेल्या शुद्ध हृदय पात्रात (अर्सीज) सोडला जातो. ((म्हणजे परमेश्वराचे ध्यान संपूर्ण हृदयात व्याप्त होते) (रथ्यः यथा) जसे रथाध्ये जुंपलेला घोडा मार्गावर धावण्यासाठी सोडला जातो. (तद्वत आत्म्यात परमेश्वराचे ध्यान प्रवाहित होऊ लागते.) त्यामुळे (वाजी) उपासक अधिक बलवान होऊन (कार्ष्मन्) योग मार्गातील सर्व विघ्नांना (न्यमीत्) पार करून पुढे जातो अथवा जसे (वाजी) बलवान सेनापती (कार्ष्मन्) युद्धात (न्यक्रमीत्) शत्रु-सैन्याला पराभूत करतो.।। ४।।

    भावार्थ

    जेव्हा सोम परमेश्वर हृदयात अवतीर्ण होतो, तेव्हा माणूस सर्व विग्न बाधा क्षणभरात दूर करू शकतो.।। ४।।

    विशेष

    या मंत्राच्या पूर्वार्धात श्रौति उपमा असून उत्तरार्धात लुप्तोपमा आहे.।। ४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இரு சைன்யங்களின் பலகைகளினின்று அல்லது வானம் பூமியினின்று (ரதத்தின்) குதிரையைப் போல (புனிதத்திற்கு) ரசமானது, (சோமனான மன்னன்) செல்லுகிறான். துரிதமான குதிரை யுத்தத்தில் முன் செல்லுகின்றது.

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