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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 504
ऋषिः - कश्यपो मारीचः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
2
वृ꣡षा꣢ सोम द्यु꣣मा꣡ꣳ अ꣢सि꣣ वृ꣡षा꣢ देव꣣ वृ꣡ष꣢व्रतः । वृ꣡षा꣣ ध꣡र्मा꣢णि दध्रिषे ॥५०४॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣡षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युमा꣢न् । अ꣣सि । वृ꣡षा꣢꣯ । दे꣣व । वृ꣡ष꣢꣯व्रतः । वृ꣡ष꣢꣯ । व्र꣣तः । वृ꣡षा꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । द꣣ध्रिषे ॥५०४॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा सोम द्युमाꣳ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दध्रिषे ॥५०४॥
स्वर रहित पद पाठ
वृषा । सोम । द्युमान् । असि । वृषा । देव । वृषव्रतः । वृष । व्रतः । वृषा । धर्माणि । दध्रिषे ॥५०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 504
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में सोम जगदीश्वर की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
हे (सोम) रसनिधि जगदीश्वर ! (द्युमान्) तेजस्वी आप (वृषा) तेज के वर्षक सूर्य के समान (असि) हो, हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुण आदि की वृष्टि करनेवाले आप (वृषा) वर्षा करनेवाले बादल के समान हो। (वृषा) धर्म की वर्षा करनेवाले आप (धर्माणि) धर्म कर्मों को (दध्रिणे) धारण करते हो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘वृषा’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। ‘वृषा असि’ में लुप्तोपमा है ॥८॥
भावार्थ
उपासना किया हुआ परमेश्वर सूर्य और बादल के समान वर्षक होकर धन, धर्म, तेज, शान्ति, सुख आदि की वर्षा से उपासक को कृतार्थ करता है ॥८॥
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (वृषा द्युमान्) कामनावर्षक वीर्यवान् सामर्थ्यवान् है “द्युमत्तमेति वीर्यवत्तमेत्येतत्” [श॰ ६.२.१.३२] (असि) है (देव) हे दिव्यगुण परमात्मन्! तू (वृषा वृषव्रतः) सुखवर्षक धर्मव्रत—धर्म्यकर्म—यथार्थ कर्म वाला है (वृषा धर्माणि दध्रिषे) स्वयं धर्मस्वरूप होता हुआ धर्मों—नियमों को धारण करता है।
भावार्थ
हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू कामनावर्षक सामर्थ्यवान् है। हे दिव्यगुण वाले परमात्मन्! तू सुखवर्षक धर्मव्रत—धर्म-कर्म वाला स्वयं धर्मरूप हुआ धर्मों नियमों को धारण करता है उन्हें चलाता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—कश्यपः (द्रष्टा—परमात्मज्ञानी उपासक)॥<br>
विषय
वर्षा-शक्ति-धर्म
पदार्थ
हे (सोम) = सोम! तू (वृषा) = हमारी सब कामनाओं का पूरक [अभिवर्षण] करनेवाला होता हुआ (द्युमान् असि) = ज्योतिर्मय है - हमारे जीवनो को तू प्रकाशमय बनाता है। हे देव हमारे जीवनों को ज्योतिर्मय करनेवाले सोम! तू (वृषा) = मुझे शक्तिशाली बनाता हुआ (वृषव्रतः) = शक्तिशाली कर्मोंवाला करता है। (वृषा) = मेरी प्रवृत्ति को धर्मप्रवण करता हुआ तू (धर्माणि दध्रिषे) = मेरे जीवन में धर्मों का धारण करनेवाला होता है।
सोम के संयम का पहला परिणाम मेरे जीवन में यह है कि मैं उत्तम इच्छाओंवाला होता हूँ–मेरी वे इच्छाएँ सामान्यतः पूर्ण भी हो जाती हैं। मैं अपने जीवन में 'घृत-लवण-तण्डुल व इन्धन' की चिन्ता से ही व्याकुल नहीं रहता । परिणामतः यह चिन्ता मेरी बुद्धि को अव्यवस्थित करनेवाली नहीं होती। दूसरा परिणाम यह होता है कि मैं शक्ति सम्पन्न होता हूँ - मेरे सब कार्य शक्ति के चिह्नों को प्रकट करते हैं। तीसरा परिणाम यह होता है कि मरी प्रवृत्ति धर्म के कर्मों का साधन का कारण बनती है।
सोम मुझे घुमान् बनाता ही है, अतः मैं 'काश्यप' होता हूँ। वासनाओं की अशु भावनाओं को समाप्त करनेवाला होने से 'मारीच' बनता हूँ।
भावार्थ
सोम मरी अभिलाषाओं को पूर्ण करे, मुझे शक्तिशाली बनाए तथा मरी प्रवृत्ति को धर्म-प्रवण करे।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( सोम ) = आत्मन् ! ( वृषा ) = सब काम्य-सुखों के वर्षक आप ( द्युमान् ) = दीप्ति से युक्त ( असि ) = हो । हे ( देव ) = सुखों के देनेहारे ! ( वृषा ) = तू सबसे श्रेष्ठ ( वृषव्रतः ) = धर्मानुकूल कार्य करने और सुखों के वर्षाने वाले मेघ के समान ( वृषा ) = स्वतः सर्वसुखों के वर्षक, धर्ममेघ स्वरूप होकर ( धर्माणि ) = सबको धारण करने वाले नियमों को ( दध्रिषे ) = धारण करता, निर्माण करता, स्थापन करता है ।
टिप्पणी
५०४ - 'दधिषे' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - कश्यपो मारीचः।
देवता - पवमानः ।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमाख्यस्य जगदीश्वरस्य महिमानमाह।
पदार्थः
हे (सोम) रसनिधे जगदीश्वर ! (द्युमान्) द्युतिमान् त्वम् (वृषा) तेजोवर्षकः सूर्यः इव (असि) वर्तसे। हे (देव) दानादिगुणयुक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुणादीनां वर्षणकर्मा त्वम् (वृषा) वर्षकः पर्जन्यः इव असि। (वृषा) धर्मवर्षकः त्वम् (धर्माणि) धर्मकर्माणि (दध्रिषे) धारयसि। धृञ् धारणे, भ्वादिः। लडर्थे लिट् ॥८॥ अत्र ‘वृषा’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः। ‘वृषा असि’ वर्षकः सूर्य इव पर्जन्य इव च वर्तसे इति लुप्तोपमम् ॥८॥
भावार्थः
उपासितः परमेश्वरः सूर्यवन्मेघवच्च वर्षको भूत्वा धनधर्मतेजःशान्तिसुखादीनां वृष्टिभिरुपासकं कृतार्थयति ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६४।१, ‘दध्रिषे’ इत्यत्र ‘दधिषे’ इति पाठः। साम० ७८१।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Divine God, Thou art Happiness-Giver, Bright, Strength-Infuser and Master of excellent deeds. Thou Mighty One ordainest laws!
Meaning
O Soma, divine spirit of peace and prosperity, you are virile, omnipotent and generous, refulgent and abundant giver of light, self-committed to showers of generosity for humanity and all life in existence. O generous and mighty lord, you alone ordain, maintain and sustain the laws of Dharma in nature and humanity. (Rg. 9-64-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (वृषा द्युमान्) કામનાવર્ષક, વીર્યવાન, સામર્થ્યવાન (असि) છે. (देव) હે દિવ્યગુણ પરમાત્મન્ ! તું (वृषा वृषव्रतः) સુખવર્ષક, ધર્મવ્રત-ધર્મકર્મ-યથાર્થ કર્મવાળો છે. (वृषा धर्मणि दध्रिषे) સ્વયં ધર્મસ્વરૂપ હોવાથી ધર્મો-નિયમોને ધારણ કરે છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું કામનાવર્ષક, સામર્થ્યવાન છે. હે દિવ્યગુણયુક્ત પરમાત્મન્ ! તું સુખવર્ષક, ધર્મવ્રત-ધર્મકર્મવાળો સ્વયં ધર્મરૂપ હોવાથી ધર્મો-નિયમોને ધારણ કરે છે અને તેને ચલાવે છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
کلامِ الہٰی کے پھیلاؤ سے دھرم کا جماؤ
Lafzi Maana
پیارے ایشور بھگت تُو علمِ عرفاں سے منّور ہے، لہٰذا اُٹھ کر اپنے روحانی وعظوں یا اُپدیشوں سے اس صحیفئہ الہٰی کو چاروں طرف پھیلا۔ یہ تیرا برت (عہد) ہے، پرمیشور کے اُپدیشوں کی ورشا کرنا، اسی سے دُنیا میں دھرم کرم کا جماؤ ہوگا۔
Tashree
پیارے اِیشور بھگت تجھ میں علمِ عرفاں نُور ہے، اِس کو پھیلانے کا تیرا عہد ہے دستُور ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
उपासना केलेला ईश्वर सूर्य व मेघाप्रमाणे वर्षक होऊन धन, धर्म, तेज, शांती, सुख इत्यादींचा वर्षाव करून उपासकाला कृतार्थ करतो ॥८॥
विषय
सोम परमेश्वराला वा वानप्रस्थाला आवाहन
शब्दार्थ
(सोम) रसनिधी परमेश्वरा, (द्युमान्) तू तेजस्वी आहेस (वृषा) तेज - वर्षक सूर्याप्रमाणे (असि) आहेस. (देव) दान आदी गुणांनी विभूषित हे जगदीश्वरा, (वृषव्रतः) तू सद्गुणांची वृष्टी करणारा आहेस. (वृषा) तूच सद्गुणांची वृष्टी करणाऱ्या मेघाप्रमाणे आहेस. (वृषा) धर्माची वर्षा करणारा तू (धर्माणि) धर्म, कर्मादींना (दध्रिषे) धारण करणारा आहेस (अर्थात सृष्टी - संचालनाचे नियम, कर्म फलप्रदानादी कर्म करणारा केवळ तूच आहेस.)।। ८।।
भावार्थ
उपासना केल्याने परमेश्वर सूर्य व मेघाप्रमाणे वर्षक होऊन धन, धर्म, तेज, शांती, सुख आदींची वृष्टी करून उपासकाला कृतार्थ करतो.।। ८।।
विशेष
या मंत्रात ङ्गवृषाफच्या आवृत्तीमुळे यमक अलंकार आहेस. ङ्गवृषा असिफमध्ये लुप्तोपमा आहे.।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
(சோமனே)! விருப்பங்களை அளிக்கும் நீ ஒளியுள்ளவனாய் இருக்கிறாய். (தேவரே)! எதையும் அளிப்பவனே! அளிக்கும் வன்மையுள்ளவனே! நீ (தர்ம செயல்களை) நிர்மாணஞ் செய்கிறாய்.
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