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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 515
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    2

    सो꣡म꣢ उ ष्वा꣣णः꣢ सो꣣तृ꣢भि꣣र꣢धि꣣ ष्णु꣢भि꣣र꣡वी꣢नाम् । अ꣡श्व꣢येव ह꣣रि꣡ता꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या म꣣न्द्र꣡या꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या ॥५१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सो꣡मः꣢꣯ । उ꣣ । स्वानः꣢ । सो꣣तृ꣡भिः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । स्नु꣡भिः꣢꣯ । अ꣡वी꣢꣯नाम् । अ꣡श्व꣢꣯या । इ꣣व꣢ । हरि꣡ता꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या । म꣣न्द्र꣡या꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या ॥५१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोम उ ष्वाणः सोतृभिरधि ष्णुभिरवीनाम् । अश्वयेव हरिता याति धारया मन्द्रया याति धारया ॥५१५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः । उ । स्वानः । सोतृभिः । अधि । स्नुभिः । अवीनाम् । अश्वया । इव । हरिता । याति । धारया । मन्द्रया । याति । धारया ॥५१५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 515
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोमरस अथवा आनन्दरस किस प्रकार प्रवाहित होता है।

    पदार्थ

    प्रथम—सोमरस के पक्ष में। (सोतृभिः) सोम-रस निचोड़नेवाले मनुष्यों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊँचे उठाये दशापवित्रों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) सोम ओषधि का रस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है ॥ द्वितीय—अध्यात्मपक्ष में। (सोतृभिः) परमात्मा के पास से आनन्दरस को अभिषुत करनेवाले उपासकों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊपर उठाये दशापवित्रों के तुल्य मन की समुन्नत सात्त्विक वृत्तियों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) आनन्दरस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा को प्राप्त होता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा में पहुँचता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। ‘याति धारया’ की पुनरावृत्ति में लाटानुप्रास है ॥५॥

    भावार्थ

    उपासक लोग जब तल्लीन मन से परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब अपने आत्मा के अन्दर दिव्य आनन्द के धाराप्रवाह का अनुभव करते हैं ॥५॥

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    पदार्थ

    (उ) हाँ (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (सोतृभिः) अध्यात्मसवन करने वालों से (अवीनां स्नुभिः) चित्तरक्षण करने वाली योगस्थलियों के “इथं पृथिवी वा अविरियं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति” [श॰ ६.१.२.२३] प्रवाहों के द्वारा (स्वानः) सम्पादित हुआ—साक्षात् हुआ (अश्वया-इव हरिता) अश्वगति जैसी गति से दुःखापहरण सुखाहरण वाली—(धारया) ध्यान धारणा से (अधियाति) अधिगत होता है—आत्मा में भावित होता (मन्द्रया धारया याति) स्तुतिरूप ध्यानधारणा से प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    हाँ शान्तस्वरूप परमात्मा आध्यात्मिक सवन यज्ञ करने वालों से रक्षण करने वाली योगस्थलियों के प्रवाहों द्वारा साक्षात् हुआ अश्वगति जैसी गति से दुःखापहरण सुखाहरण करने वाली स्तुति ध्यानधारणा से अधिगत आत्मा में भावित होता है—प्राप्त होता है॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—‘भरद्वाजः कश्यपः, गोतमः, अत्रिः, विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः’ इति सप्तर्षयः (सम्पूर्ण खण्ड के ये भरद्वाज आदि सात ऋषि हैं, अर्थ पीछे आ चुके हैं)॥ <br>

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    विषय

    आनन्दमयकोश की ओर

    पदार्थ

    हे (सोम)=सोम तू (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए होता है [वीतिं = प्राप्ति]। (प्र) = अपने इस कार्य को तू प्रकर्ष के साथ करता है। तेरे संयम का परिणाम होता है कि संयमी पुरुष दिव्य गुणों से इस प्रकार (पिप्ये) = आप्यायित हो जाता है (न) = जैसे (सिन्धुः) = समुद्र (अर्णसा) = जल से। जैसे समुद्र जल से भरता चलता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष दिव्यगुणों से पूर्ण होता जाता है। दिव्यता को भरता हुआ यह सोम धीरे-धीरे मनुष्य को देव ही बना डालता है। जीव महादेव का ही छोटा रूप बन जाता है - अंश [miniature] हो जाता है। इसी कारण सोम को अंशु=अंश बनानेवाला कहा गया है। (अंशोः) = इस सोम की (पयसा) = [पय गतौ] शरीर में सर्वत्र गति से (मदिरो न)= मनुष्य मदिर-सा [उन्मत्त-सा] हो जाता है। उसके जीवन में ऐसा उल्लास होता है कि सामान्य मनुष्य उसे स्वस्थ नहीं समझता। यह संयमी (जागृविः) = जागरित होता है। दुनिया सोई हैहे - पर यह जागता है। 'मैं कौन हूँ?, यहाँ क्यों आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है?' इत्यादि प्रश्न सामान्य मनुष्य के अन्दर उत्पन्न ही नहीं होते। इस संयमी के सामने ये प्रश्न सदा रहते हैं। यह उनको कभी भूलता नहीं, परिणामतः अपने को भी नहीं भूलता। यह योगी तो निरन्तर (मधुश्चुतं कोशम्) = मधु को टपकानेवाले - आनन्दमयकोश की अच्छा-ओर चला आ रहा है। सामान्य लोगों की बहिर्मुख यात्रा है, इसकी यात्रा अन्तर्मुख हैं लोग बाहर जा रहे हैं—यह अन्दर जा रहा है। लोग विषयों की ओर तो ये विषयों से दूर आत्मा की ओर क्योंकि विषयों में अशान्ति है, आत्मा में शान्ति।

    भावार्थ

    सोम के संयम से मुझमें दिव्यगुण उत्पन्न हों, मैं मदिर व जागृवि बनूँ, आनन्दमयकोश की ओर चलूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सोम ) = आत्मन् ! ( सोतृभिः ) = सवन करनेहारे साधकों द्वारा ( अवीनां ) = इन्द्रियों के ( अधिष्णुभिः ) = मार्गों से ( स्वान: उ ) = सवन किया जाता हुआ ( हरितया ) = गतिशील ( अश्वया ) = व्यापक चेतना से ( मन्द्रया ) = आनन्दजनक ( धारा ) = प्रवाह के रूप में ( याति ) = हृदय में प्रकट होता है और ( मन्द्रया धारया याति ) = उत्तम अश्व के समान आनन्दजनक धारा के रूप में प्रकट होता है अर्थात्, जैसे राजा तेज़ घोड़ी पर दुड़की चाल से चलकर नगर में सर्वत्र जाता है उसी प्रकार ( सोम ) = आत्मानन्द भी मन्द्राधारा से हृदय में प्रकट होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भरद्वाजः काश्यपो गोतमोऽत्रिर्विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठश्चैते सप्तर्षयः ।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमरस आनन्दरसो वा कथं प्रवहतीत्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—सोमरसपरः। (सोतृभिः) सवनकर्तुभिः जनैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः सानुवत् समुच्छ्रितैः दशापवित्रैः (अधिष्वाणः) अधिषूयमाणः (सोमः) सोमौषधिरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या। हरिता हरितया ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं प्राप्नोति, (मन्द्रया) मदकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं गच्छति ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः (सोतृभिः) परमात्मनः सकाशाद् आनन्दरसं सुन्वद्भिः उपासकैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः समुच्छ्रितैः दशापवित्रैरिव समुच्छ्रिताभिः मनसां सात्त्विकवृत्तिभिः (अधिष्वाणः) अभिषूयमाणः (सोमः) आनन्दरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानं प्राप्नोति, (मन्द्रया) हर्षकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानमुपगच्छति ॥५॥ अत्र श्लेष उपमा चालङ्कारः, ‘याति धारया’ इत्यस्य पुनरावृत्तौ च लाटानुप्रासः ॥५॥

    भावार्थः

    उपासका यदा तल्लीनेन मनसा परमात्मानं ध्यायन्ति तदा स्वात्मनि दिव्यानन्दधारासम्पातमनुभवन्ति ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०७।८ ‘ष्वाणः’ इत्यत्र ‘षुवाणः’ इति पाठः। साम० ९९७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, thou art grasped by the Yogis through channels of organs. Thou manifestest Thyself in the heart in a fast, conscious and pleasant stream. Thou revealest Thyself like an excellent horse in a joyous current!

    Translator Comment

    Jut as a King riding on a fast horse goes throughout the capital, so does the soul reveal itself full of pleasure, in the heart.

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    Meaning

    Soma, invoked by celebrants, manifests with blissful inspiring powers of protection and promotion and, saving, watching, fascinating, goes forward, rushing, compelling, in an impetuous stream like waves of energy, and it also goes forward by a stream of mild motion, soothing and refreshing. (Rg. 9-107-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उ) હાં, (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (सोतृभिः) અધ્યાત્મયજ્ઞ કરનારાઓથી (अवीनां स्नुभिः) ચિત્તનું રક્ષણ કરનારી યોગસ્થલીઓમાં પ્રવાહો દ્વારા (स्वानः) સંપાદિત કરેલ-સાક્ષાત્ કરેલ (अश्वया इव हरिता) ઘોડાની ગતિ સમાન ગતિથી દુઃખહર્તા સુખદાતા વાળી, (धारया) ધ્યાન, ધારણા દ્વારા (अधियाति) અધિગત થાય છે-આત્મામાં ભાવિત થઈને (मन्द्रया धारया इति) સ્તુતિરૂપ ધ્યાન, ધારણાથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૫)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હાં, પરમાત્મા આધ્યાત્મિક સવન યજ્ઞ કરનારાઓથી રક્ષણ કરનારી યોગસ્થલીઓના પ્રવાહો દ્વારા સાક્ષાત્ થઈને, ઘોડા સમાન ગતિથી દુઃખહર્તા, સુખદાતા કરનારી સ્તુતિ, ધારણા, ધ્યાનથી અધિગત આત્મામાં ભાવિત થાય છે-પ્રાપ્ત થાય છે. (૫)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    جگ جننی ماںّ سے پایا ہوا دُودھ سمان بھگتی رس

    Lafzi Maana

    یہ بھگتی رس بھگتوں کی انتر آتما میں پیدا ہوتا اور ماں کی دودھ دھاراؤں کی طرح جگت جننی ماں اِیشور کی دی ہوئی شکتیوں سے بل شالی ہوتا ہے، جیسے گھوڑ سوار تیز گھوڑی سے تیزی سے سفر کرتا ہے، ویسے بھگتی رس کی طاقت سے بھگت پرمیشور کی طرف تیزی سے بڑھتا ہے۔ اور بھگتی میں آنند کے مل جانے سے اور تیزی سے بڑھنے لگتا ہے۔

    Tashree

    اَشوروہی جس طرح تیزی سے بڑھتا راہ پر، بھگتی رس سے آتما بڑھتا پربُھو کی راہ پر۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उपासक लोक जेव्हा तल्लीन मनाने परमेश्वराचे ध्यान करतात, तेव्हा आपल्या आत्म्यात दिव्य आनंद धाराप्रवाहाचा अनुभव घेतात ॥५॥

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    विषय

    सोमरस वा आनंद रस कसा प्रवाहित होतो, याविषयी -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सोमरस पर) - (सोतभिः) सोमरस गाळणाऱ्या मनुष्यांद्वारे (अवीनां स्नुभिः) मेंढीच्या केसांनी निर्मित आणि उंचकडे असलेल्या दशापवित्रा (गाळणीद्वारे) (अधिष्याणं) गाळला जाणारा (सोमः) सोम औषधीचा रस (अश्वमा इच) घोडीप्रमाणे (हरिता) वेगवती (धारया) धारेने (याति) धारेच्या रूपात (याति) द्रोणकलशात जातो वा पडतो. ।। द्वितीय अर्थ - (अध्यात्मपर) - (सोत्भिः) परमेश्वराकडून आनंद रस ओढून घेणाऱ्या उपासकांद्वारे (अवीतांस्तुभिः) मेंढीच्या केसांनी निर्मित वर उचलून घरलेल्या दशापवित्र यात्राप्रमाणे मनाच्या समुळात सात्त्विक चित्तवृत्तीद्वारे (अधिष्राणः) अभिषुत होणारा (सोमः) आनंद रस (अश्वया इव) घोडीप्रमाणे (हरिता) वेगवती असलेल्या (वारया) धारेने (याति) आत्म्यात प्राप्त होतो (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारमा) आनंद धारेच्या रूपात तो आनंद (याति) आत्म्यापर्यंत पोचतो. ।। ५ ।।

    भावार्थ

    उपासक गण जेव्हा तल्लीन मनाने परमेश्वराचे ध्यान करतात, तेव्हा आपल्या आत्म्यात ते दिव्य आनकासा अनुभव घेतात. ।। ५ ।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष व उपमा हे दोन अलंकार आहेत. शिवाय ङ्गयाति धारयाफच्या पुनरावृत्तीमध्ये लाटाधु प्रासही आहे. ।।५ ।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1]சாதனஞ் செய்பவர்களால் இந்திரியங்கள் வழியாய் சாதிக்கப்பட்டு செல்லுகின்றான். (குதிரையுடல்) போல் பொன்நிறமுள்ளவன் இன்பமளிக்கும் (தாரையோடு) செல்லுகிறான்.

    FootNotes

    [1].சாதனஞ் செய்பவர்களால் - சூரியனின் ரசிமிகளால்

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