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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 516
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
2
त꣢वा꣣ह꣡ꣳ सो꣢म रारण स꣣ख्य꣡ इ꣢न्दो दि꣣वे꣡दि꣢वे । पु꣣रू꣡णि꣢ बभ्रो꣣ नि꣡ च꣢रन्ति꣣ मा꣡मव꣢꣯ परि꣣धी꣢꣫ꣳरति꣣ ता꣡ꣳ इ꣢हि ॥५१६॥
स्वर सहित पद पाठत꣡व꣢꣯ । अ꣣ह꣢म् । सो꣣म । रारण । सख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । इ꣣न्दो । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । पु꣣रू꣡णि꣢ । ब꣣भ्रो । नि꣢ । च꣣रन्ति । मा꣢म् । अ꣡व꣢꣯ । प꣣रिधी꣢न् । प꣣रि । धी꣢न् । अ꣡ति꣢꣯ । तान् । इ꣣हि ॥५१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तवाहꣳ सोम रारण सख्य इन्दो दिवेदिवे । पुरूणि बभ्रो नि चरन्ति मामव परिधीꣳरति ताꣳ इहि ॥५१६॥
स्वर रहित पद पाठ
तव । अहम् । सोम । रारण । सख्ये । स । ख्ये । इन्दो । दिवेदिवे । दिवे । दिवे । पुरूणि । बभ्रो । नि । चरन्ति । माम् । अव । परिधीन् । परि । धीन् । अति । तान् । इहि ॥५१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 516
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के सखित्व की याचना है।
पदार्थ
हे (सोम) चन्द्रमा के समान आह्लादक तथा सोम ओषधि के समान रसागार (इन्दो) रस से आर्द्र करनेवाले परमात्मन् ! (अहम्) मैं उपासक (तव सख्ये) तेरी मित्रता में (दिवेदिवे) प्रतिदिन (रारण) रमूँ। हे (बभ्रो) भरणपोषणकर्ता परमेश ! (पुरूणि) बहुत-से काम, क्रोध आदि राक्षस (माम्) मुझ तेरे उपासक को (नि अव चरन्ति) उद्विग्न कर रहे हैं, (परिधीन्) घेरनेवाले (तान्) उन राक्षसों को (अति इहि) पराजित कर दो ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा की मित्रता से मनुष्य सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, असत्य, अन्याय आदि शत्रुओं को पराजित कर उन्नति के मार्ग में प्रवृत्त होता है ॥६॥
पदार्थ
(इन्दो सोम) हे आर्द्र—रसीले शान्तस्वरूप परमात्मन्! (अहम्) मैं (तव सख्ये) तेरे सखापन—तेरी मित्रता में (दिवे दिवे रारण) दिनों दिन रमण करता हूँ “नाहमिन्द्राणि रारणनाहमिन्द्राणि रमे” [निरु॰ ११.३९] (ब्रभ्रो) हे शुभ्र—निर्मल सोम परमात्मदेव! “बभ्रुर्भवति ब्रह्मणो रूपम्” [मै॰ २.५.७] “सोमो वै बभ्रुः” [श॰ ७.२.४.२६] (माम्-अव) मुझे अवमानित कर के—मुझे दबाने वाले (पुरूणि निचरन्ति) बहुतेरे विघ्नकारी काम-क्रोध आदि दुर्वृत्त छिपे पड़े हैं (तान् परि धीन्-अति-इहि) उन्हें परिधिमुक्त न होने देने वाले, बन्धन में रखने वाले घेरे को अतिक्रान्त करा—पार करा या नष्ट कर।
भावार्थ
हे रसीले शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरी मित्रता में दिनों दिन रमण करता रहूँ, हे शुभ्र निर्मल—दोषरहित परमात्मन्! मेरा अवमान करने वाले, मुझे दबाने वाले बहुत विघ्नरूप कामक्रोध आदि दुर्वृत् छिपे पड़े हैं, उनके घरों को मुक्त न होने देने वाले बन्धनरूपों को दूर कर दे या नष्ट कर दे॥६॥
विशेष
ऋषिः—‘भरद्वाजः कश्यपः, गोतमः, अत्रिः, विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः’ इति सप्तर्षयः (सम्पूर्ण खण्ड के ये भरद्वाज आदि सात ऋषि हैं अर्थ पीछे आ चुके हैं)॥ <br>
विषय
चक्करों से दूर
पदार्थ
हे (सोम) = सोम! (अहम्) = मैं (तव) = तेरी सख्ये मित्रता के निमित्त (रारण) = प्रभु के नामों का जप करता हूँ। वस्तुतः सोम की मित्रता का साधन प्रभु के नाम का जप ही है। प्रभु नाम स्मरण से मनुष्य वासना से बच पाता है और सोम की रक्षा में समर्थ होता है । हे (इन्दोः) = मुझे शक्तिशाली बनानेवाले सोम! (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन (पुरूणि) = अनेक वासनाएँ (माम्) = मुझे (निचरन्ति) = नीचे दबाती हैं [ trample upon me ] हे (बभ्रो) = मेरा भरण करनेवाले सोम! तू मुझे (अव) = उनसे सुरक्षित कर । प्रभु-नाम का स्मरण मुझे वासनाओं से बचाएगा, वासनाओं से बचकर मैं सोम की रक्षा कर पाऊँगा और सोमरक्षा से ईर्ष्या - द्वेष आदि की भावनाएँ मुझे दबा न सकेंगी।
इस संसार में मनुष्य एक चक्र में फँस जाता है। कोई धन के, कोई विलास और कोई प्रमाद के। ये उसका घेरा बन जाती हैं - इन्हें परिधियाँ कहते हैं। 'नेमि' परिधि का ही पर्याय है। ‘हिरण्यनेमयः’ वे पुरुष हैं जो धन के ही चक्र में हैं। हे सोम! तू तान् परिधीन्- उन परिधियों को अति इहि पार कर जा। ‘दिवे-दिवे' शब्द की भावना प्रतिदिन है। सोमरक्षा के लिए भी संकल्प आवश्यक है। प्रतिदिन का संकल्प ही हमें सोमरक्षा में समर्थ बनाएगा।
भावार्थ
वासनाएँ मुझे दबाती हैं- संयमी बन इनको मैं कुचल दूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( सोम ) = परम रस ! ( तव सख्ये ) = तेरी मित्रता में ( अहं ) = मैं ( इन्द्र ) = आत्मा ( रारण ) = निरन्तर रमण करूं । हे ( बभ्रो !) = समस्त प्रजा के भरण पोषण करने हारे ! ( पुरूणि ) = ये इन्द्रियां या प्रजायें ( मां ) = मुझ को ( नि-अव-चरन्ति ) = नीची वृत्तियों में ले दौड़ती हैं। इसलिये ( तान् ) = उन ( परिधीन् ) = चारों ओर से घेरे हुए वैरी रूप इन इन्द्रियों को ( अति इहि ) = पार करले, वश करले उनपर विजय कर जिस से वे विषयरसों में न भागकर भीतरी आनन्द की ओर ही अन्तर्मुख होजाये ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजः काश्यपो गोतमोऽत्रिर्विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठश्चैते सप्तर्षयः ।
देवता - पवमानः ।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः सख्यं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (सोम) चन्द्रवदाह्लादक सोमौषधिवद् रसागार (इन्दो) रसेन क्लेदयितः परमात्मन् ! (अहम्) उपासकः (तव सख्ये) त्वदीये सखित्वे (दिवे दिवे) दिने दिने (रारण) रमेय। रण शब्दे रमणार्थेऽपि प्रयुज्यते। यथा रणाय रमणीयाय। निरु० ९।२७। लिङर्थे लिट्, अभ्यासस्य छान्दसो दीर्घः। हे (बभ्रो) भरणपोषणकर्तः परमेश ! बिभर्तीति बभ्रुः। ‘कुर्भ्रश्च’ उ० १।२२ इति कु प्रत्ययः धातोर्द्वित्वं च। (पुरूणि) बहूनि कामक्रोधादीनि रक्षांसि (माम्) तवोपासकम् (नि अव चरन्ति) उद्वेजयन्ति, (परिधीन्) परिवारकान् (तान्) राक्षसान् (अति इहि) अतिक्रमस्व पराजयस्व ॥६॥
भावार्थः
परमात्मनः सख्येन मनुष्यः सर्वान् परिवारकान् कामक्रोधलोभमोहहिंसाऽसत्याऽन्यायादीन् शत्रून् जित्वोन्नतिपथे प्रवर्तते ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०७।१९, साम० ९२२।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omnipresent, Glorious, Immortal God, every day Thy friendship hath been my delight. Manifold agonies of birth torment me. Kindly release me from these barriers and grant salvation !
Meaning
O Soma, light of life and universal joy of existence, I rejoice in your friendly company day in and day out. O mighty bearer sustainer of the universe, a host of negativities surround me, pray break through their bounds and come and save me. (Rg. 9-107-19)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रो सोम) હે આર્દ્ર-રસવાન શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (अहम्) હું (तव सख्ये) તારી મિત્રતામાં (दिवे दिवे रारण) પ્રતિદિન રમણ કરું છું (बभ्रो) હે શુભ્ર-નિર્મળ સોમ પરમાત્મદેવ ! (माम् अव) મને અવમાનિત કરીને-મને દબાવનાર (पुरूणि निचरन्ति) અનેક વિઘ્નકારી કામ, ક્રોધ આદિ દુષ્ટ આચરણ ગુપ્ત રહેલા છે. (तान् परि धीन् अति इहि) તેને પરિધિમુક્ત ન થવા દેનાર, બંધનમાં રાખનાર ઘેરાવને અતિક્રાન્ત કરાવ-પાર કરાવ અથવા નષ્ટ કર. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે રસવાન શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારી મિત્રતામાં પ્રતિદિન રમણ કરતો રહું, હે શુભ-નિર્મળ-દોષરહિત પરમાત્મન્ ! મારું અવમાન કરનારા, મને દબાવનારા અનેક વિઘ્નરૂપ કામ, ક્રોધ આદિ દુર્વૃત છૂપાયેલા પડ્યા છે, તેના ઘરોને મુક્ત ન થવા દેનારા બંધનરૂપોને દૂર કરી દે અથવા નષ્ટ કરી દે. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگتی مارگ کی بادھاؤں کو دُور کیجئے!
Lafzi Maana
وِشو کے پالک، تمام زر و مال کے مالک پرمیشور! میں روزمرہ آپ کی مِتّرتا اور ساتھ ہونے کے احساس میں خوش خوش رہتا ہوں کہ تُو میرے ساتھ ہے ہر وقت اور ہر جگہ پر۔ اس سے آپ کی حمد و ثنا کرتا رہتا ہوں، لیکن پھر بھی آپ کی بھگتی کے راستے میں انیک وِگھن بادھائیں دُکھی کرتی رہتی ہیں۔ ہے سوم پربُھو! اِن کو دور کر کے مجھے شانتی پردان کریں۔
Khaas
ہے سوم دوستی تیری میں آنند کی لہریں چلتی ہیں، پر یہ بادھائیں دُور کرو جو بھگتی مارگ میں اڑتی ہیں۔
मराठी (2)
भावार्थ
परमात्म्याच्या मैत्रीमुळे माणूस काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, असत्य, अन्याय इत्यादी शत्रूंना पराजित करून उन्नतीच्या मार्गाकडे प्रवृत्त होतो ॥६॥
विषय
परमेश्वराने सख्य प्रार्थित आहे -
शब्दार्थ
हे (सोम) चंद्राप्रमाणे आल्हादक आणि सोम ओषधीसम रसाचे आगार असलेल्या (इन्दो) रसाने चिंब भिजविणाऱ्या हे परमेश्वरा, (अहम्) मी, तुझा उपासक (ऴवव सख्ये) तुझ्या मैत्रीमध्येच (दिवे दिवे) प्रतिदिनी (रराण) व्यक्त राहीन, असे कर. हे (ब्रभ्रो) भरण पोषणकर्ता परमेसा (पुरुणि) काम, क्रोध आदी अनेक राक्षस (माम्) मला, तुझ्या या उपासकाला (नि अवचरन्ति) व्यथित करतात (परिधीन्) मला घेरून असणाऱ्या वा मला कैद करणाऱ्या प्रा (तान्) त्या राक्षसांचा तू (अति इहि) पराजित कर. (त्यांना पराभूत करण्यासाठी मला सहाय्य कर.) ।।६ ।।
भावार्थ
परमेश्वराशी मैत्री केल्यामुळे मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, असध्य, अनाथ आदी शत्रूचा पराभव करून उन्नतीकडे प्रवृत्त होतो. ।। ६ ।।
तमिल (1)
Word Meaning
சோமனே! உன் நட்புடைய நான் தினந்தோறும் இரம்மியமுடனாகிறேன்; பொன் நிறமுள்ளவனே! வெகு பல சத்துருக்கள் என்னைத் தொடர்கிறார்கள். அந்த சத்துருக்களை அகற்றவும்.
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