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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 589
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो देवरातो वैश्वामित्रो वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    3

    उ꣡दु꣢त्त꣣मं꣡ व꣢रुण꣣ पा꣡श꣢म꣣स्म꣡दवा꣢꣯ध꣣मं꣡ वि꣢꣯ मध्य꣣म꣡ꣳ श्र꣢थाय । अ꣡था꣢दित्य व्र꣣ते꣢ व꣣यं꣡ तवा꣢꣯ना꣣ग꣢सो꣣ अ꣡दि꣢तये स्याम ॥५८९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । उ꣣त्तम꣢म् । व꣣रुण । पा꣡श꣢꣯म् । अ꣣स्म꣢त् । अ꣡व꣢꣯ । अ꣣धम꣢म् । वि । म꣣ध्यम꣢म् । श्र꣣थाय । अ꣡थ꣢꣯ । आ꣣दित्य । आ । दित्य । व्रते꣢ । व꣣य꣢म् । त꣡व꣢꣯ । अ꣣नाग꣡सः꣢ । अ꣣न् । आग꣡सः꣢ । अ꣡दि꣢꣯तये । अ । दि꣣तये । स्याम ॥५८९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमꣳ श्रथाय । अथादित्य व्रते वयं तवानागसो अदितये स्याम ॥५८९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उत्तमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रथाय । अथ । आदित्य । आ । दित्य । व्रते । वयम् । तव । अनागसः । अन् । आगसः । अदितये । अ । दितये । स्याम ॥५८९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 589
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र का वरुण देवता है। परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (वरुण) मोक्षप्राप्ति के लिए सब मनुष्यों से वरे जानेवाले परमात्मन् ! आप (उत्तमं पाशम्) उत्कृष्ट कर्मों के बन्धन रूप उत्तम पाश को (अस्मत्) हमसे (उत्) उत्कृष्ट फलप्रदान द्वारा छुड़ा दीजिए, (अधमम्) निकृष्ट कर्मों के बन्धन रूप अधम पाश को (अव) निकृष्ट फलप्रदान द्वारा छुड़ा दीजिए, (मध्यमम्) मध्यम कर्मों के बन्धन रूप मध्यम पाश को (वि श्रथाय) विविध फल देकर छुड़ा दीजिए। (अथ) उसके पश्चात्, हे (आदित्य) नित्यमुक्त, अविनाशी, आदित्य के समान प्रकाशमान, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (तव) आपके (व्रते) निष्काम कर्म में चलते हुए (वयम्) हम (अनागसः) निष्पाप होते हुए (अदितये) मोक्ष के अधिकारी (स्याम) हो जाएँ ॥ अथवा उत्तम पाश है आत्मा के ज्ञान आदि के ग्रहण में जो बाधक होते हैं, उनसे किया गया बन्धन, मध्यम पाश है मन के श्रेष्ठ संकल्प आदि में जो बाधक होते हैं, उनसे किया गया बन्धन, अधम पाश है शरीर के व्यापार में जो बाधक रोग आदि होते हैं उनसे किया गया बन्धन। उन पाशों से छुड़ाकर परमेश्वर अथवा योगी गुरु हमें सुख का अधिकारी बना देवे ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य सभी सकाम कर्मों का फल अवश्य पाता है। जो लोग निष्काम होकर परमेश्वर के व्रत में रहते हुए निष्पाप जीवन व्यतीत करते हैं, वे ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं ॥४॥

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    पदार्थ

    (वरुण) हे वरने योग्य और वरने वाले परमात्मन्! तू (अस्मत्) हमसे (उत्तमं पाशम्-उच्छ्रथय) प्रमुख कठिन पाश अविवेककृत कारणशरीररूप लोहबन्धन को उखाड़ दे—तोड़ दे (मध्यमं विश्रथय) मध्यम पाश—वासनाकृत सूक्ष्म शरीररूप आवरणबन्धन को विच्छिन्न कर दे—चीर दे—फाड़ दे (अधमम्-अव) निकृष्ट पाश—भोगकृत स्थूलशरीररूप ग्रन्थिबन्धन को ढीला कर दे—खोल दे (अथ) अनन्तर—फिर (वयम्) हम (अनागसः) पापरहित हुए (आदित्य) हे अदिति—अखण्ड सुखसम्पत्ति—मुक्ति के स्वामिन्! (तव व्रते) तेरे वरण—उपासना में (अदितये स्याम) अखण्ड सुखसम्पत्ति—मुक्ति के लिये योग्य हो जावें।

    भावार्थ

    निष्पाप होकर परमात्मा के सद्व्रत ध्यानोपासन में वर्तमान रहने पर उपासक के तीनों बन्धन कारण शरीर, सूक्ष्मशरीर, स्थूल शरीर को परमात्मा दूर कर देता है। पुनः उपासक आत्मा अखण्ड सुखसम्पत्ति मुक्ति को प्राप्त हो जाता है॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रिय भोगों की दौड़ में शरीरगर्त में गिरा विषयलोलुप उत्थान का इच्छुक)॥ देवता—वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—चतुष्पदा गायत्री॥<br>

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    विषय

    पाशों का निराकरण

    पदार्थ

    जब मनुष्य अपने जीवन में आराम व सुख को लक्ष्य बनाकर चलता है तो यह 'शुनः शेप'=सुख का निर्माण करनेवाला [शुनं- सुखं, शेप्-जव बतमंजम] पतन-गर्त की ओर चलता है–‘आजीगर्ति' [अज गतौ गर्त = गढ़ा ] ।

    प्रारम्भ में यह मानस पवित्रता व प्रभु-महिमा के दर्शन के लिए शास्त्रों का अध्ययन न करके आमोद-प्रमोद के लिए पढ़ने लगता है। यह इसका ‘ज्ञानसंग' कहलाता है। यह एकदम भौतिक बन्धन तो नहीं, पर है बन्धन ही। यही यहाँ ‘उत्तम बन्धन' कहलाता है और पाशों के अधिष्ठाता वरुण' से प्रार्थना की गई है कि हे (वरुण) = अनृतवादियों को जालों में जकड़नेवाले प्रभो! (अस्मत्) = हमसे इस (उत्तमं पाशम्) = उत्तम बन्धन को (उत्) = बाहर [out ] करो। हमें इस बन्धन से बाहर निकाल दो।

    सुख को लक्ष्य बनानेवाला मनुष्य नाना प्रकार की व्यवस्थाओं में लगा हुआ भी शान्त नहीं हो पाता। कभी कुछ और कभी कुछ वह करता ही रहता है। यह उसका ‘कर्मसङ्ग' कहलाता है। इसे दूर करने के लिए प्रार्थना करते हैं कि हे वरुण ! हमारे इस (मध्यमम्) = मध्यम बन्धन को (वि-श्रथाय) = ढीला कीजिए | व्यर्थ हाथ-पैर पटकना छोड़कर हम ‘शान्त-भाव' से जीवन यापन कर सकें। भागदौड़ में न होकर 'शनैः चर' हों ।

    सुख की ओर बढ़नेवाला मनुष्य सम्पत्ति जुटाकर नौकरों से कार्य कराता हुआ स्वयं आराम लेने लगता है। इस समय इसका जीवन 'प्रमाद, आलस्य व निद्रा' में चलता है। ‘खाना, सोना', बस यही इसका कार्य रह जाता है। यह इसका निकृष्ट बन्धन है। इसलिए प्रार्थना करते हैं कि (अधमम्) = इस निकृष्ट बन्धन को भी अव हमसे दूर कीजिए।

    निद्रा व आलस्य को परे फेंककर (अथ) = अब हे (आदित्य) = आदानकर ! खारे समुद्र से भी शुद्ध जल का ग्रहण करनेवाले सूर्य ! (वयम्) = हम (तव व्रते) = तेरे व्रत में चलकर - तेरे व्रत में स्थिर होकर (अनागसः) = निष्पाप होते हुए (अदितये) = बन्धनों से मोक्ष के लिए (स्याम) = समर्थ हों। सूर्य निष्कामवृत्ति से अपने पथ पर आगे और आगे बढ़ता चलता है। हम भी इसी क्रिया को अपनाएँ।

    भावार्थ

    सूर्य के सतत - सरणरूप व्रत में चलता हुआ मैं अपने को सभी पाशों से मुक्त कर सकूँ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( आदित्य वरुण ) = हे सूर्यवत् प्रकाशमान अविनाशी सर्वश्रेष्ठगुण सम्पन्न प्रभो! ( अस्मत् ) = हमसे  ( उत्तमम् मध्य म अधमम् पाशम् ) =  उत्तम मध्यम और निकृष्ट इन तीन प्रकार के बन्धनों को  ( उत् अव विश्रथाय ) = शिथिल कर दीजिये, ( अथ वयम् ) = और हम लोग  ( तव व्रते ) =  आपके नियम पालन में ( अदितये ) = दुःख और नाश रहित होने के लिए  ( अनागसः स्याम ) = निरपराध होवें । 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे प्रकाशस्वरूप अविनाशी सत्यकामादि दिव्यगुणयुक्त प्रभो! जो तेरी प्राप्ति और तेरी आज्ञापालन में कठिन से कठिन वा साधारण बन्धन हो उसे दूर करो। आपकी सृष्टि के नियम, जो हमारे कल्याण के लिए ही आपने बनाये हैं, उनके अनुसार हमारा जीवन हो । उन नियमों के पालने में हमें किसी प्रकार का दुःख वा हानि न हो। हम सब अपराधों से रहित हुए तेरी भक्ति और तेरी आज्ञापालन में समर्थ हों ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( वरुण ) = सर्वव्यापक, सब पापों के निवारक, सर्वश्रेष्ठ परमात्मन् ! ( उत्तमं ) = उत्कृष्ट अपने ( पाशं  ) = पाश, प्राकृतिक तेजोमय सात्विक बन्धन को ( उत्-श्रथाय ) = उत्तम भोगों द्वारा शिथिलकर और ( अधमं  ) = निकृष्ट तामस, काम मोहादि बन्धन को ( अव श्रथाय ) = नीचे निम्न कोटि के भोगों द्वारा ढीला कर । और ( मध्यमं ) = मध्यस्थानीय राजस-बन्धन-आवेश, क्रोध, लोकैषणा आदि को ( विश्रथाय ) = नाना प्रकार के भोगों से शिथिल कर । ( अथ ) = और हे ( आदित्य ) = सब को अपने भीतर लेने हारे ! तेजस्विन् ! ( तव  व्रते ) = तेरी नियम व्यवस्था में ( वयं ) = हम ( अनागसः ) = निरपराध, निष्पाप होकर ( अदितये ) = दीनतारहित होने में ( स्याम ) = समर्थ हो । 

    टिप्पणी

    ५८९ - 'अथा वयमादित्य व्रते तवा०' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - शुनःशेप:।

    देवता - वरुणः।

    छन्दः - चतुष्पदा गायत्री । 

     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वरुणो देवता। परमात्मा प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (वरुण) मोक्षप्राप्तये सर्वैर्जनैर्व्रियमाण परमात्मन् ! त्वम् (उत्तमं पाशम्) उत्कृष्टकर्मबन्धनरूपम् उत्तमं पाशम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (उत्) उत्-श्रथाय उत्कृष्टफलप्रदानेन उन्मोचय, (अधमम्) निकृष्टकर्मबन्धनरूपम् अधमं पाशम् (अव) अवश्रथाय निकृष्टफलप्रदानेन अवमोचय (मध्यमम्) मध्यमकर्मबन्धनरूपं मध्यमं पाशम् (वि श्रथाय) विविधफलप्रदानेन विमोचय। श्रथ दौर्बल्ये, श्रथान इति प्राप्ते ‘छन्दसि शायजपि। अ० ३।१।८४’ इति श्नः शायजादेशः। (अथ) तदनन्तरम्, हे (आदित्य) नित्यमुक्त, अविनश्वर, आदित्यवत् प्रकाशमान, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (तव व्रते) त्वदीयनिष्कामकर्मणि चलन्तः (वयम् अनागसः) निष्पापाः सन्तः (अदितये) मोक्षाय (स्याम) अधिकारिणः सम्पद्येमहि ॥२ उत्कृष्टनिकृष्टमध्यमकर्मभिस्तथातथाविधमेव फलं प्राप्नोतीत्यन्यत्राप्युक्तम्। ‘अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति, पापेन पापम्, उभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्’ (प्रश्न० ३।७) इति, “यथाकारी यथाचारी तथा भवति। साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति। पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन” (बृहदा० ४।४।५) इति च ॥ निष्कामकर्मणश्च महत्त्वमेवं वर्ण्यते—‘योऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति बह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ॥ तदेष श्लोको भवति—यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते’ इति। बृहदा० ४।४।६-७ ॥ यद्वा उत्तमः पाशः आत्मनो ज्ञानादिग्रहणे ये बाधकास्तत्कृतं बन्धनम्, मध्यमः पाशः मनसः श्रेष्ठसंकल्पादौ ये बाधकास्तत्कृतं बन्धनम्, अधमः पाशः शरीरस्य व्यापारे ये बाधका रोगादयस्तत्कृतं बन्धनम्। तेभ्यः पाशेभ्यः उन्मुच्य परमेश्वरो योगो गुरुर्वाऽस्मान् सुखाधिकारिणः कुर्यात्।

    भावार्थः

    मनुष्यः सर्वेषामेव सकामकर्मणां फलमवश्यं प्राप्नोति। ये तु निष्कामाः सन्तः परमेश्वरस्य व्रते निष्पापं जीवनं यापयन्ति त एव मोक्षाधिकारिणो जायन्ते ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।२४।१५, य० १२।१२ ‘अथा वयमादित्य व्रते तवा’ इति पाठः। अथ० ७।८३।३, १८।४।६९ उभयत्र ‘अधा वयमादित्य व्रते तवा’ इति पाठः, द्वितीये स्थले ऋषिः अथर्वा। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रेऽस्मिन् वरुणशब्देन ऋग्वेदे स्वीकर्तुमर्हमीश्वरम् यजुर्वेदे च शत्रूणां बन्धकं राजानं गृह्णाति। ‘अदितये’ इति पदं च ऋग्वेदे ‘अखण्डितसुखाय’ इति, यजुर्वेदे च ‘पृथिवीराज्याय’ इति व्याचष्टे। यजुर्वेदभाष्ये भावार्थमित्थं लिखति—“यथेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावानुकूला धार्मिका जनाः सत्याचरणे वर्तमानाः सन्तः पापबन्धनान्मुक्त्वा सुखिनो भवन्ति तथैवोत्तमं राजानं प्राप्य प्रजाजना आनन्दिता जायन्ते” इति।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, with the help of Thee, the Purifier of the world, let us in this life determine our constant actions. G Loving God, the Remover of sins. Indivisible, All-pervading like the ocean, the Sustainer of all like the Earth, Lustrous like the Sun, grant us the desired fruit!

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    Meaning

    Varuna, dearest lord of our choice, we pray, loosen the highest, middling and the lowest bonds of our sin and slavery so that, O Lord Supreme of light, free from sin and slavery and living within the rules of your law, we may be fit for the attainment of the ultimate freedom of Moksha. (Rg. 1-24-15)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वरुण) હે વરણ કરવાને યોગ્ય અને વરણ થવાવાળા પરમાત્મન્ ! તું (अस्मत्) અમારામાંથી (उत्तमं पाशम् उच्छ्रथय) પ્રમુખ કઠિન પાશ-બંધન અવિવેકકૃત કારણ શરીરરૂપ લોહબંધનને ઉખાડી નાખતોડી નાખ (मध्यमं विश्रथय) મધ્યમ પાશ-વાસનાકૃત સૂક્ષ્મ શરીરરૂપ આવરણ બંધનને વિચ્છિન્ન કરી નાખ-ચીરી નાખ-ફાડી નાખ (अधमम् अव) નિકૃષ્ટ પાશ-ભોગકૃત સ્થૂળ શરીરરૂપ ગ્રંથિ બંધનને ઢીલું કરી નાખ-ખોલી-છોડી નાખ, (अथ) પશ્ચાત્ (वयम्) અમે (अनागसः) પાપરહિત બનીને (आदित्य) દે અદિતિ - અખંડ સુખ સંપત્તિ-મુક્તિના સ્વામિન્ ! (तव व्रते) તારા વરણ-ઉપાસનામાં (अदितये स्याम) અખંડ સુખ સંપત્તિ-મુક્તિને માટે બની જઈએ. (૪)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : નિષ્પાપ બનીને પરમાત્માના સદ્વ્રત ધ્યાનોપાસનામાં વિદ્યમાન રહેવાથી ઉપાસકનાં ત્રણેય બંધનો-કારણ શરીર, સૂક્ષ્મ શરીર અને સ્થૂલ શરીરને પરમાત્મા દૂર કરી દે છે. પુનઃ ઉપાસક આત્મા અખંડ સુખ સંપત્તિ-મુક્તિને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (૪)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    تینوں بندھنوں کی گرفت سے چھڑائیے

    Lafzi Maana

    ہے ورون بُرائیوں کو نکالنے والے اعلےٰ ترین ایشور! ہم سے اُتم، درمیانے اور نچلے تینوں طرح کی گرفت کو دُور کیجئے۔ آپ اوّدیا، اندھکار کو دُور کرنے والے آدتیہ مہان سُورج ہیں، آپ کی کرپا سے ہم اِن تینوں گرفتوں سے چھوٹ کر گناہوں سے مبّرا، پاکیزہ، شُدھ ہو کر آپ کے ویدک برتوں (قواعد و ضوابط) میں چلتے ہوئے موکھش کے دائمی سُکھ آنند کو حاصل کرنے کے لائق بن سکیں۔

    Tashree

    نوٹ: ستھول (کثیف)، سوکھشم (لطیف) اور کارن (بنیادی) تینوں اجسام کے بندھن (1) اوِدّیا (جہالت) (2) راگ دویش وغیرہ، (3) اسمتا یعنی ہمیشہ جیتے رہنے کی خواہش۔ (1) عقل، (2) نفس اور (3) حواسِ خمسہ، اِن تینوں سے چھوٹ کر بھگوان کے نیموں میں چلتے ہوئے ہی مُکتی یا نجات کے قابل ہو سکتے ہیں! اُتم مدھیم ادھم ہمارے، کاٹو بندھن وروُن پیارے۔

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    উদুত্তমং বরুণ পাশমস্মদবাধমং বি মধ্যমং শ্রথায়।

    অথাদিত্য ব্রতে বয়ং তবানাগসো অদিতয়ে স্যাম।।৩৫।।

    (সাম ৫৮৯)

    পদার্থঃ (আদিত্য বরুণ) হে সূর্যের ন্যায় প্রকাশকারী অবিনাশী সর্বশ্রেষ্ঠ গুণসম্পন্ন ঈশ্বর! (অস্মৎ) আমাদের জন্য (উত্তমম্ মধ্যমম্ অধমম্ পাশম্) উত্তম, মধ্যম এবং নিকৃষ্ট এই তিন প্রকারের বন্ধনকে (উৎ অব বি শ্রথায়) শিথিল করে দাও। (অথ বয়ম্) আর আমরা যেন (তব ব্রতে) তোমার প্রদত্ত নিয়মাদি পালনের দ্বারা (অদিতয়ে) দুঃখ এবং নাশরহিত হওয়ার জন্য (অনাগসঃ স্যাম) নিরপরাধ হই ।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে প্রকাশ স্বরূপ অবিনাশী সত্যাদি দিব্যগুণ-যুক্ত ঈশ্বর! তোমাকে প্রাপ্ত করার জন্য এবং তোমার আজ্ঞা পালনের জন্য যে কঠোর থেকে কঠোরতম বা সাধারণ বন্ধন রয়েছে তা দূর করো। তোমার সৃষ্টির নিয়ম, যা আমাদের কল্যাণের জন্য তুমি তৈরি করেছ, তা অনুসারেই আমাদের জীবন হোক। সেই নিয়ম পালনে আমাদের যেন কোন প্রকারের দুঃখ বা হানি না হয়, আমরা যেন সকল অপরাধরহিত থেকে তোমার উপাসনা এবং তোমার আজ্ঞা পালন করতে সমর্থ হই।।৩৫।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणूस संपूर्ण सकाम कर्मांचे फळ अवश्य प्राप्त करतो. जे लोक निष्काम बनून परमेश्वराच्या व्रतामध्ये असून निष्पाप जीवन व्यतीत करतात, तेच मोक्षाचे अधिकारी बनतात ॥४॥

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    विषय

    वरूण देवता। परमेश्वेराला प्रार्थना

    शब्दार्थ

    (वरूण) मोक्षप्राप्तीकरिता सर्व मनुष्य ज्याचे वरण करतात. अशा हे परमेश्वरा, तू आमच्या (उत्तमं पाशं) उत्तम कर्माचे बंधनरूप उत्तम पाशापासून (अस्मत्) आम्हाला (उत्) उत्तम फळ देऊन सोडव (उत्तम कर्मांचे उत्तम फळ मिळाल्यानंतर आम्ही कर्मपाशातून मुक्त होऊ व आम्हास मोक्ष मिळेल.) (अधमम्) आमच्या हातून होणाऱ्या निकृष्ट कर्मांच्या बंधनापासून (त्यांचे योग्य ते वाईट फळ देऊन) आम्हाला (अव) रक्षण दे (कर्म भोग संपल्यानंतर मोक्ष मिळेल) (मध्यमम्) मध्यम कर्मांच्या बंधनरूप पाशापासून (विक्षयाय) मुक्त करण्यासाठी त्यांचे विविध फळ देऊन आम्हाला मोक्ष दे (अथ) यानंतर हे (आदित्य) नित्यमुक्त, अविनाशी, आदित्यवत प्रकाशमान, सर्व प्रकाशक परमेश्वरा, (तव) तुझ्या (व्रते) निष्काम कर्म करीत (वयम्) आम्ही ( अनागसः) निष्पाप होत (अदितये) मोक्षाचे अधिकारी (स्थाम) होऊ, (अशी कृपा कर)।। याचा दुसरा अर्थ असाही घेता येतो की आत्म्याच्या ज्ञानग्रहण मार्गात जे बोधक आहेत, त्यांचे दुर्गुणांचे बंधन म्हणजे पहिला पाश, मध्यम पाश म्हणजे मनाच्या श्रेष्ठ संकल्पात बाधक असणारे विचारांचे बंधन, अधम पाश म्हणजे शरीराच्या व्यापारात बाधक अशश रोगायीचे बंधन. परमेश्वराचे या वा योगिजनांनी पाशापासून आम्हांस मुक्त करून सुखी करावे.।।४।।

    भावार्थ

    माणासाला सर्व सकाम सकर्मांचे फळ भोगावे लागते. जे लोक निष्काम कर्म करीत परमेश्वराच्या व्रतात राहून निष्पाप जीवन व्यतीत करतात, ते अवश्य मोक्षाचे अधिकारी होतात. ।।४।।

    विशेष

    या मंत्राचा काही व्याख्याकारांनी तिसरा अर्थही केला है। शरीराचा उत्तम भाग म्हणजे मस्तिष्क, यात ज्ञानाविषयी अहंकार असणे हे उत्तम पाश, मध्यम भागातील हृदय त्यातील माया-मोह-लोभ आदी दुर्विचार रूप पाश अतीव अधम भागातील जंथा. पाय आदी भागातील आळस, निष्क्रिमत्व हा तिसरा अधम पाश. हे परमेश्वर, आम्हाला या तिन्ही पाशापासून सोडव.।।४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    வருணனே! தலையில் கட்டப் பட்டுள்ள பாசத்தை எங்களுக்கு தளர்த்தவும்; காலில் கட்டப்பட்டுள்ளதை நழுவச்செய்யவும். நடுவில் நாபியில் இருப்பதை இளக்கமாக்கவும் ; அப்பால் வருணனே, ஆதித்தியனே! உன் செவியில் கண்டனமன்னியிலும் அபராதமன்னியிலுமாக வேண்டும்.

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