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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 590
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
3
त्व꣡या꣢ व꣣यं꣡ पव꣢꣯मानेन सोम꣣ भ꣡रे꣢ कृ꣣तं꣢꣯ वि꣢꣯ चिनुयाम꣣ श꣡श्व꣢त् । त꣡न्नो꣢ मि꣣त्रो꣡ वरु꣢णो मामहन्ता꣣म꣡दि꣢तिः꣣ सि꣡न्धुः꣢ पृ꣣थि꣢वी उ꣣त꣢ द्यौः ॥५९०॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣡या꣢꣯ । व꣣य꣢म् । प꣡व꣢꣯मानेन । सो꣣म । भ꣡रे꣢꣯ । कृ꣣त꣢म् । वि । चि꣣नुयाम । श꣡श्व꣢꣯त् । तत् । नः꣣ । मित्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । व꣡रु꣢꣯णः । मा꣣महन्ताम् । अ꣡दि꣢꣯तिः । अ । दि꣣तिः । सि꣡न्धुः꣢꣯ । पृ꣣थिवी꣢ । उ꣣त꣢ । द्यौः ॥५९०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया वयं पवमानेन सोम भरे कृतं वि चिनुयाम शश्वत् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥५९०॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वया । वयम् । पवमानेन । सोम । भरे । कृतम् । वि । चिनुयाम । शश्वत् । तत् । नः । मित्रः । मि । त्रः । वरुणः । मामहन्ताम् । अदितिः । अ । दितिः । सिन्धुः । पृथिवी । उत । द्यौः ॥५९०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 590
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगली ऋचा का देवता पवमान सोम है। उससे प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (सोम) प्रेरक परमात्मन् ! (पवमानेन) पवित्रकर्ता (त्वया) तुझ सहायक के द्वारा (वयम्) हम शूरवीर लोग (भरे) जीवन-संग्राम में (शश्वत्) निरन्तर (कृतम्) कर्म को (वि चिनुयाम) विशेषरूप से चुनें। (तत्) इस कारण (मित्रः) वायु, (वरुणः) अग्नि, (अदितिः) उषा, (सिन्धुः) अन्तरिक्ष-समुद्र अथवा पार्थिव समुद्र, (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) द्युलोक अथवा सूर्य (नः) हमें (मामहन्ताम्) सत्कार से बढ़ाएँ। अथवा—(मित्रः) प्राण, (वरुणः) अपान, (अदितिः) वाणी, (सिन्धुः) हृदय-समुद्र, (पृथिवी) शरीर (उत) और (द्यौः) प्रकाशयुक्त बुद्धि वा आत्मा (नः मामहन्ताम्) हमें बढ़ाएँ। अथवा—(मित्रः) ब्राह्मणवर्ण, (वरुणः) क्षत्रियवर्ण, (अदितिः) न पीड़ित की जाने योग्य नारी जाति, (समुद्रः) समुद्र के तुल्य धन का संचय करनेवाला वैश्यवर्ण, (पृथिवी) राष्ट्रभूमि (उत) और (द्यौः) यशोमयी राजसभा (नः मामहन्ताम्) हम प्रजाजनों को अतिशय समृद्ध करें ॥५॥
भावार्थ
‘मेरे दाहिने हाथ में कर्म है, बाएँ हाथ में विजय रखी हुई है।’ अथ० ७।५०।८, इस सिद्धान्त के अनुसार संसार में जो कर्म को अपनाता है, वही विजय पाता है। इस कर्मयोग के मार्ग में परमेश्वर के अतिरिक्त अग्नि-वायु-सूर्य आदि बाह्य देव, प्राण-अपान-वाणी-मन आदि आन्तरिक देव और ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि राष्ट्र के देव हमारे सहायक और प्रेरक बन सकते हैं ॥५॥
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (वयम्) हम (त्वया पवमानेन) तुझ आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले के साथ—सहाय्य से (भरे) इस धारण किए जीवन में (शश्वत्-कृतम्) सत् कर्म—श्रेष्ठ कर्म को “धीराणां शश्वताम्” [अथर्व॰ २०.१२८.४] (विचिनुयाम) विशेषरूप से अन्दर धारण करें—आचरित करें (नः-तत्) हमारे उस सत् कर्म को तेरे रचे (मित्रः) सूर्य स्वप्रकाश द्वारा (वरुणः) मेघ वृष्टि द्वारा (अदितिः) अग्नि “अदितिरप्यग्निरुच्यते” [निरु॰ ४.२३] ताप द्वारा (सिन्धुः) स्यन्दनशील—बहने वाले जल अन्न द्वारा (पृथिवी) भूमि वास द्वारा (उत) अपि—और (द्यौः) द्युलोक नक्षत्रदर्शन—ग्रह विज्ञान द्वारा (मामहन्ताम्) प्रवृद्ध करें। अथवा तू स्वयं (मित्रः) प्रेरणा करने वाला (वरुणः) वरने वाला (अदितिः) अदीन शक्तिमान् (सिन्धुः) व्यापनशील (पृथिवी) प्रथित आधाररूप (उत) और (द्यौः) प्रकाशस्वरूप हुआ (मामहन्ताम्) बढ़ावें।
भावार्थ
हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तुझ आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले के साथ हम अपने इस धारण किए शरीर में श्रेष्ठ कर्म धारण करते रहें, तू भी मित्र आदि स्वरूपों में वर्तमान हुआ उसे बढ़ाता रह एवं तेरे रचे मित्र—सूर्य आदि भी उसे बढ़ाते रहें॥५॥
विशेष
ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी और हर्षालु)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—चतुष्पदा गायत्री॥<br>
विषय
संग्राम में विजय के लिए
पदार्थ
‘सब प्रकार के बन्धनों को तोड़कर सूर्य के व्रत में चलता हुआ मनुष्य विजयी न हो' यह कैसे हो सकता है? अतः गत मन्त्र का ‘शुन:शेप:' यहाँ 'कुत्स' [कुथ हिंसायाम्] शत्रुओं का संहार करनेवाला हो जाता है। 'सूर्य के व्रत में चलता हुआ' यह सूर्य की भाँति ही चमकने लगता है और अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला 'आङ्गिरस' बनता है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि
हे (सोम) = [ स उमा ] - ज्ञान के भण्डार प्रभो! (पवमानेन) = अपने ज्ञान से पवित्र करनेवाले (त्वया) = आपसे मिलकर (वयम्) = कर्म तन्तु का विस्तार करनेवाले (भरे) = काम-क्रोधादि के साथ निरन्तर चल रहे अध्यात्म संग्राम में [भृ भर्त्सने] (शश्वत्) = सदा (कृतम्) = सफलता को (विचिनुयाम) = विशेषरूप से संचित करनेवाले हों। प्रभु के आश्रय के बिना इस संग्राम में विजय पाना सम्भव नहीं। प्रभु अपने ज्ञान से मुझे पवित्र करते हैं और उत्तरोत्तर पवित्र होते चलना ही इस संग्राम की विजय है। ‘विजय मुझे प्रभु ही प्राप्त कराएँगे' इसमें सन्देह नहीं । प्रभु से प्राप्त कराई जानेवाली यह विजय बड़ी शानदार होगी यदि हम भी निम्न प्रकार से प्रयत्नशील होंगे। (नः तत्) = हमारी इस विजय को (मामहन्ताम्) = अत्यन्त गौरवपूर्ण बना डालें। कौन
१. (मित्रः वरुणः) = प्राण ओर अपान अर्थात् हमारा पहला कर्त्तव्य यह है कि हम प्राणापान की साधना करें। इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर आक्रमण करनेवाले अन्तः शत्रुओं को दग्ध करने का मूलसाधन प्राणायाम ही है। इससे इन्द्रियों के दोष उसी प्रकार दग्ध हो जाते हैं, जैसे तपाये हुए धातुओं के मल।
२. (अदितिः सिन्धुः) = अहिंसा की वृत्ति [दो अवखण्डने] और शक्ति का सागर । यह अदिति=अहिंसा सिन्धु- शक्ति के समुद्र के साथ है। निर्बलता के साथ अहिंसा का निवास नहीं। ‘सिन्धु' जलों का वाचक है। अध्यात्म में जल शक्ति के रूप में है [आप: रेतो भूत्वा० ] । ('शक्तौ क्षमा') = शक्ति के साथ क्षमा हमारे जीवनों को अलंकृत करती है और हमें विजयी बनाती है।
३. (पृथिवी उत द्यौः) = पृथिवी और द्युलोक - शरीर और मस्तिष्क | ‘पृथिवी च दृढा' = दृढ शरीर ही शरीर है। वायु के नाममात्र झोंके से हिल जानेवाला-रोग-पीड़ित हो जानेवाला शरीर भी क्या शरीर है? ' द्यौः उग्रा ' हमारा मस्तिष्क विज्ञान के नक्षत्रों व ब्रह्मज्ञान के सूर्य से दीप्त हो। ‘हम शरीर को पृथिवी तुल्य दृढ़ और मस्तिष्क को धुलोक के समान तेजस्वी बनाएँ' यही हमारा तृतीय प्रयत्न होगा और हम प्रभु कृपा से शत्रुओं को तीर्ण कर जाएँगे, 'कुत्स' बन पाएँगे।
भावार्थ
प्रभु-कृपा से प्राणायाम, पवित्रता व 'प्रज्ञान' में लगे हुए हम शत्रुओं को जीतनेवाले बनें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे सोम ! जगदीश्वर ! ( पवमानेन ) = समस्त संसार को पवित्र करने हारे ( त्वया ) = तुझ सहायक से ( भरे ) = फल प्राप्त कराने हारे इस जीवन में ( शश्वत् ) = निरन्तर ( कृतं ) = अपने उत्तम किये कर्म ही ( वि चिनुयाम ) = विशेष रूप से संग्रह करें । ( मित्रः ) = स्नेहवान्, ( वरुणः ) = सब पापों का निवारक ( अदितिः ) = कभी न खण्डित होनेवाला अखण्ड ( सिन्धुः ) = समुद्र के समान सर्वव्यापक, सब का आश्रय, ( पृथिवी ) = पृथिवी के समान सबको धारण करने हारा ( उत ) = और ( द्यौ: ) = सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप ( नः ) = हमें ( तत् ) = वह अभिलषित उत्तम फल ( मामहन्तां ) = प्रदान करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गृत्समद:।
देवता - पवमानः।
छन्दः -चतुष्पदा गायत्री ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पवमानः सोमो देवता। तं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (सोम) प्रेरक परमात्मन् ! (पवमानेन) पवित्रतासम्पादकेन (त्वया) सहायकेन (वयम्) शूराः जनाः (भरे) जीवनसंग्रामे। भर इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। भर इति संग्रामनाम, भरतेर्वा हरतेर्वा। निरु० ४।२३। (शश्वत्) निरन्तरम् (कृतम्) कर्म (वि चिनुयाम) विशेषेण संगृह्णीयाम। (तत्) तस्मात् (मित्रः) वायुः। अयं वै वायुर्मित्रो योऽयं पवते। श० ६।५।७।१४। (वरुणः) अग्निः। यो वै वरुणः सोऽग्निः। श० ५।२।४।१३। यो वाऽग्निः स वरुणः तदप्येतद् ऋषिणोक्तम्—त्वमग्ने वरुणो जायसे यदिति। ऐ० ६।२६। (अदितिः) उषाः। निरुक्ते उत्तमस्थानीयासु देवतासु पठितत्वाद् अदितिरित्यनेन उषा गृह्यते। (सिन्धुः) अन्तरिक्षसमुद्रः, पार्थिवसमुद्रो वा, (पृथिवी) भूमिः, (उत) अपि च (द्यौः) द्युलोकः सूर्यो वा (नः) अस्मान् (मामहन्ताम्) सत्कारेण वर्धयन्ताम्। मह पूजायाम्, भ्वादिः लोट्। व्यत्ययेन शपः श्लुः। द्वित्वे तुजादित्वादभ्यासस्य दीर्घः। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। यद्वा—(मित्रः) प्राणः, (वरुणः) अपानः। प्राणो वै मित्रोऽपानो वरुणः। श० ८।२।५।६। (अदितिः) वाक्। अदितिरिति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।११। (सिन्धुः) हृदयसमुद्रः, (पृथिवी) देहयष्टिः। पृथिवी शरीरम् इति श्रुतेः। अथर्व ५।९।७। (उत) अपि च (द्यौः) द्योतमाना बुद्धिः द्युतिमान् आत्मा वा (नः मामहन्ताम्) अस्मान् वर्धयन्ताम्। यद्वा—(मित्रः) ब्राह्मणवर्णः, (वरुणः) क्षत्रियवर्णः। ब्रह्मैव मित्रः क्षत्रं वरुणः। श० ४।१।४।१ इति श्रुतेः। (अदितिः) अपीडनीया नारीजातिः, (सिन्धुः) समुद्रवत् धनसंचयकारी वैश्यवर्णः, (पृथिवी) राष्ट्रभूमिः (उत) अपि च (द्यौः) यशस्विनी राजसभा (नः मामहन्ताम्) अस्मान् प्रजाजनान् अतिशयेन वर्धयन्ताम् ॥५॥
भावार्थः
‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।’ अथ० ७।५०।८ इति नयानुसारं संसारे यः कर्म विचिनुते स एव विजयं समश्नुते। कर्ममार्गेऽस्मिन् परमेश्वरातिरिक्तम् अग्निवायुसूर्यादयो बाह्या देवाः, प्राणापानवाङ्मनःप्रभृतय आभ्यन्तरा देवाः, ब्राह्मणक्षत्रियाद्याः राष्ट्रदेवाश्चास्माकं सहायकाः प्रेरकाश्च भवितुमर्हन्ति ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।५८ ऋषिः कुत्सः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, with the help of Thee, the Purifier of the world, let us in this life determine our constant actions. G Loving God, the Remover of sins. Indivisible, All-pervading like the ocean, the Sustainer of all like the Earth, Lustrous like the Sun, grant us the desired fruit!
Meaning
O Soma, spirit of divine peace, power, beauty and glory, in our battle for self-control and divine realisation, let us always choose and abide by paths and performances shown and accomplished by you, pure and purifying power of divinity. And that resolve of ours, we pray, may Mitra, the sun, Varuna, the ocean, Aditi, mother Infinity, Sindhu, divine space and fluent vapour, earth and heaven, help us achieve with credit. (Rg. 9-97-58)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (वयम्) અમે (त्वया पवमानेन) તારી આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનારની સાથે-સહાયથી (भरे) આ ધારણ કરેલ જીવનમાં (शश्वत् कृतम्) સત્ કર્મ-શ્રેષ્ઠ કર્મને (विचिनुयाम) વિશેષરૂપથી અંદર ધારણ કરીએ-આચરણ કરીએ (नः तत्) અમારા એ સત્ કર્મને તારા રચેલા (मित्रः) સૂર્ય સ્વપ્રકાશ દ્વારા (वरुणः) મેઘવૃષ્ટિ દ્વારા (अदितिः) અગ્નિ-તાપ દ્વારા (सिन्धुः) સ્પન્દનશીલ-વહેનાર જળ અન્ન દ્વારા (पृथिवी) ભૂમિ નિવાસ દ્વારા (उत) અપિ-અને (द्यौः) દ્યુલોક નક્ષત્રદર્શન-ગ્રહવિજ્ઞાન દ્વારા (मामहन्ताम्) પ્રવૃદ્ધ કરીએ. અથવા તું સ્વયં (मित्रः) પ્રેરણા કરનાર (वरुणः) વરણીય (अदितिः) અદીન શક્તિમાન (सिन्धुः) વ્યાપનશીલ (पृथिवी) પ્રથિતધારરૂપ (उत)અને (द्यौः) પ્રકાશસ્વરૂપ બનીને (मामहन्तात्) વૃદ્ધિ કરે. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારી આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનારની સાથે અમે અમારા આ ધારણ કરેલ શરીરમાં શ્રેષ્ઠકર્મ ધારણ કરતા રહીએ, તું પણ મિત્ર આદિ સ્વરૂપોમાં વિદ્યમાન રહીને તેને વૃદ્ધિ કરતો રહે અને તારા રચેલા મિત્ર-સૂર્ય આદિ પણ તેની વૃદ્ધિ કરતા રહે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہماری فتُوحات قابلے تعریف ہوں!
Lafzi Maana
جگت پتا پرماتما! آپ ہمیں پاک و صاف بنا کر نیکی اور بدی کے جھگڑوں میں اپنی مدد سے ہی فتوحات دِلاتے ہیں، ایسی فتح یا بیان ہم ہمیشہ کرتے رہیں، جس سے ہمارے دوست، قابلظ تعظیم اُستاد، زمین پر بسنے والے سبھی ذی روح، ہمارے دلوں کے سمندر، دھرتی ماتا کی طرح انّ سے پالن کرنے والے ماتا پتا اور روشنِ عالم بزرگوار ہماری اِن فتوحات کی تعریف کرتے ہوئے ہمارے حوصلے بلند کرتے رہیں۔
Tashree
پاک عالم سوم جو دیتے ہیں فتح یا بیاں، نیک و بد کے جھنجھٹوں پر ہوتی ہیں وہ حاویاں۔
मराठी (2)
भावार्थ
‘‘माझ्या उजव्या हातात कर्म आहे, डाव्या हातात विजय आहे’’ । अथर्व ७।५०।८, या सिद्धांतानुसार जो कर्म करतो तोच विजय मिळवितो. या कर्मयोगाच्या मार्गात परमेश्वराच्या अतिरिक्त अग्नी-वायू-सूर्य इत्यादी बाह्य देव, प्राण-अपान-वाणी-मन इत्यादी आन्तरिक देव व ब्राह्मण-क्षत्रिय इत्यादी राष्ट्राचे देव आमचे सहायक व प्रेरक बनू शकतात ॥५॥
विषय
यवमान सोमला प्रार्थना
शब्दार्थ
हे (सोम) प्रेरक परमेश्वर, (पवमानेव) पवित्र करणाऱ्या अशा (त्वया) तुझ्यासारख्या सहाय्यकाच्या आश्रयाने (वयम्) आम्ही शूरवीर लोक (भरे) या जीवन-संग्रामामधे (शाश्वत्) सतत (कृतम्) कर्मात्मा ( वि चिनुमाय) करण्यास योग्य अशा कृत्यांना निवडावे. (तत्) यामुळे (मित्रः) वायू, (वरूणः) अग्नी (अदितिः) उषा (सिन्धुः) अंतरिक्ष समुद्र अथवा पार्थिव सागर (पृथिवी) भूमी (उत) आणि (द्यौः) घूलोक अथवा सूर्य, या सर्वांनी (जः) आम्हाला (मामहन्ताम्) सत्काराद्वारे वाढवावे (प्रेरणा व शक्ती देऊन आमची प्रगती घडवावी) अथवा असे म्हणता येईल की (मित्रः) प्राण (वरुणः) अपान (अदितिः) वाणी (सिन्धुः) हृदयरूप समुद्र (पृथिवी) शरीर (उत) आणि (द्यौः) प्रकाशमुक्त बुद्धीवा आत्मा (नः) आम्हाला (मामहन्ताम्त) या सर्वांनी वाढवावे. अथवा- (मित्रः) ब्राह्मणर्ज, (वरुणः) क्षत्रिय वर्ण (अदितिः) उत्पादनीय नारी जाती (समुद्र) समुद्रवल धनसंचय करणारा वैश्यवर्ण (पृथिवी) राष्ट्रभूमी (उत) आणि (द्यौः) यशोमयी राज्यसभा (नः) मामहन्ताम्) या सर्वांनी आम्हा प्रजाजनांना अत्यंत समुद्र करावे.।।५।।
भावार्थ
‘‘माझ्या उजव्या हातात कर्म आहे, डाव्या हातात विजय आहे.’’ (अथर्व ७/५०/८) या वेदोवतीप्रमाणे जो कोणी जगात कर्म करतो, त्याचा विजय अवश्य होतो. कर्मयोगाच्या या मार्गात परमेश्वराव्यतिरिक्त अग्नी-वायू-सूर्य आदी बाह्य देव, प्राण-अपान-वाणी-मन आदी आंतरिक देव आणि ब्राह्मण-क्षत्रिय आदी राष्ट्रातील देवगण आमचे साहाय्यक होऊ शकतात.।।५।।
तमिल (1)
Word Meaning
பவமானனான உன்னால் போரில் நிரந்தரமான நல்ல பொருள்களை நாங்கள் சேர்க்கட்டும்; எங்களுக்கு மித்ரன் வருணன் அதிதி சமுத்திரம் பூமி வானமும் எல்லாஉத்தம ஐசுவரியங்களையும் அளிக்கட்டும்.
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