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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 593
    ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    3

    ए꣣ना꣡ विश्वा꣢꣯न्य꣣र्य꣢꣫ आ द्यु꣣म्ना꣢नि꣣ मा꣡नु꣢षाणाम् । सि꣡षा꣢सन्तो वनामहे ॥५९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣ना꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । अ꣣र्यः꣢ । आ । द्यु꣣म्ना꣡नि꣢ । मा꣡नु꣢꣯षाणाम् । सि꣡षा꣢꣯सन्तः । व꣣नामहे ॥५९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम् । सिषासन्तो वनामहे ॥५९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एना । विश्वानि । अर्यः । आ । द्युम्नानि । मानुषाणाम् । सिषासन्तः । वनामहे ॥५९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 593
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मारूप सोम से धन की याचना की गयी है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम अर्थात् सर्वोत्पादक पवित्रतादायक परमात्मन् ! (अर्यः) सबके स्वामी आप (एना) इन (सर्वाणि) सब (द्युम्नानि) धनों को (आ) प्राप्त कराओ। इन धनों को हम (मानुषाणाम्) सत्पात्र मनुष्यों को (सिषासन्तः) दान करने के अभिलाषी होते हुए (वनामहे) पाना चाहते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जिस धन से दूसरों का हित नहीं होता, वह धन धन नहीं, किन्तु पुञ्जित अपयश ही है, क्योंकि वेद कहता है कि अकेला खानेवाला पाप का भागी होता है (ऋ० १०।११७।६) ॥८॥

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    पदार्थ

    (मानुषाणाम्) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! मननशील जनों के (एना विश्वानि द्युम्नानि) इन सब प्रकार वाले शोभनयश अन्नधनों को (सिषासन्तः) सेवन करते हुए हम (अर्यः) ‘अर्यम् विभक्तिव्यत्ययः’ तुझ स्वामी को “अर्यः स्वामिवैश्ययोः” [अष्टा॰ ३.१.१०३] (वनामहे) चाहते हैं “वनु याचने” [तनादि॰]।

    भावार्थ

    हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! मनुष्यों के हितकर सभी प्रशंसनीय यश बलधनों को हम उपासक सेवन करते हुए तुझ स्वामी को माँगते हैं—चाहते हैं। ऊँची सांसारिक सम्पत्ति प्राप्त करने के अनन्तर परमात्मा का सङ्ग और उसके आनन्द की भी याचना करते हैं॥८॥

    विशेष

    ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी को नहीं, मोक्ष को चाहने वाला उपासक)॥ देवता—विश्वेदेवाः (प्राण)॥<br>

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    विषय

    पूजा और विभाग

    पदार्थ

    पार्थिव भोगों में न फँसने के लिए यह 'अमहीयु' प्रभु का (अर्य) = स्वामिन् ! शब्द से सम्बोधन करता है। यह अमहीयु प्रार्थना करता है कि (एना) = इन (विश्वानि) = सब (मानुषाणाम्) = मनुष्यों के लिए हितकर (घुम्नानि) = प्रकाशमय- 'जिन धनों ने हमारे मस्तिष्क को अस्वस्थ नहीं कर दिया' उन्हें (सिषासन्त:) = बाँटते हुए और बाँटने के द्वारा यज्ञों के द्वारा प्रभु की उपासना करते हुए (वनामहे) = सेवन करते हैं। ('तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:') = इसलिए त्याग की भावना से ही हम भोग करते हैं। हम केवलादी नहीं बनते। केवल अपने लिए पकानेवाले नहीं बनते।

    जिस समय मनुष्य 'अमहीयु' नहीं रहता उसी समय वह इस 'विभाग द्वारा पूजा' की भावना से दूर हो जाता है। देव लोग यज्ञ से उस यज्ञरूप प्रभु की उपासना करते हैं, परन्तु असुर अपने ही मुख में आहुति देते हुए, उदरम्भरि बन प्रभु की उपासना से कोसों दूर रहते हैं। उस समय ये भोग हमारे ज्ञान पर पर्दा डाल देते हैं और हमारे ये धन 'द्युम्न प्रकाशमय' नहीं रहते।

    भावार्थ

    संविभाग द्वारा ही हम प्रभु के उपासक बनते हैं।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे जगदीश्वर ! आप ( अर्यः ) = सब के स्वामी ( मानुषाणां ) = मनुष्यों के ( विश्वानि ) = समस्त ( एना ) = ये ( द्युम्नानि ) = धन, रत्न आदि ( आ  ) = हमें प्राप्त करावे हम ( सिषासन्तः ) = उनको सेवन करने या सब में बांट देने की इच्छा से ( वनामहे ) = याचना करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अमहीयु:।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मसोमं धनं याचते।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम पवित्रतादायक सर्वोत्पादक परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (अर्यः) सर्वेषां स्वामी त्वम्। ‘अर्यः स्वामिवैश्ययोः। अ० ३।१।१०३’ इति स्वाम्यर्थे यत्प्रत्ययान्तो निपातः। ‘यतोऽनावः। अ० ६।१।२१३’ इत्याद्युदात्तत्वे प्राप्ते ‘स्वामिन्यन्तोदात्तत्वं च वक्तव्यम्’ इति वार्तिकेनान्तोदात्तत्वम्। (एना) एनानि (विश्वानि) सर्वाणि (द्युम्नानि) धनानि। द्युम्नमिति धननाम। निघं० २।१०। (आ) आगमय। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। एतानि धनानि वयम् (मानुषाणाम्) सत्पात्रभूतानां मनुष्याणाम् (सिषासन्तः) दातुमिच्छन्तः सन्तः। षणु दाने धातोः सन्नन्तं रूपम्। (वनामहे) संभजामहे, प्राप्तुमिच्छाम इत्यर्थः। वन संभक्तौ भ्वादिः, व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥८॥२

    भावार्थः

    येन धनेन परेषां हितं न सम्पद्यते तद् धनं धनं न किन्त्वपयश एव पुञ्जीभूतं विद्यते, ‘केवालाघो भवति केवलादी’ ऋ० १०।११७।६ इति श्रुतेः ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६१।११, य० २६।१८ ऋषिः महीयवः, साम० ६७४। २. दयानन्दर्षिरपि मन्त्रमिमं यजुर्भाष्ये परमेश्वरपक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Lord of all, grant us all these riches of the people. We ask for these for distribution amongst all !

    Translator Comment

    Riches are prayed for, not for one’s use only, but for the good of humanity, and to be distributed amongst the needy and indigent people.

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    Meaning

    Soma is the lord of humanity and the earth. By virtue of him and of him, we ask and pray for all food, energy, honour and excellence for humanity, serving him and sharing all the benefits together. (Rg. 9-61-11)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मानुषाणाम्) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! મનનશીલ જનોના (एनाविश्वानि द्युम्नानि) એ સર્વ પ્રકારવાળા શોભનયશ અન્ન ધનોને (सिषासन्तः) સેવન કરતાં અમે (अर्यः) તને સ્વામીને (वनामहे) ચાહીએ છીએ. (૮)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! મનુષ્યોને હિતકર સર્વ પ્રશંસનીય યશ, બળ ધનોનું અમે ઉપાસકો સેવન કરતાં તુજ સ્વામીને માગીએ છીએ-ચાહીએ છીએ. શ્રેષ્ઠ સાંસારિક સંપત્તિ પ્રાપ્ત કર્યા પછી પરમાત્માનો સંગ અને તેના આનંદની યાચના કરીએ છીએ. (૮)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کی دولتوں کو بانٹ کھائیں!

    Lafzi Maana

    شانتی کے ساگر پرماتما! ہم آپ کے عطا کئے غلّہ اور سبھی زر و مال کو آپ کی ہی نذر کے لئے سب کو بانٹتے ہوئے مل کر اسے بھوگ کریں اور آپ کی عبادت کرتے رہیں۔

    Tashree

    ہم سب مانش آپ کے دھن کو، پریم سے بانٹیں سب جن جن کو، مل کر کھائیں اور کھلائیں، بھگت بنیں تیرے گُن گائیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या धनाने दुसऱ्यांचे हित होत नाही ते धन धन नाही तर संचित अपयश आहे, कारण वेद म्हणतो एकटा खाणारा पापभागी असतो (ऋ.१०।११७।९) ॥८॥

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    विषय

    सोम परमेश्वराला धनाविषयी प्रार्थना

    शब्दार्थ

    हे पवमान सोम म्हणजे सर्वोत्पादक पावित्र्यकारक परमेश्वर, (अर्थः) आपण सर्वांचे आहात, आपण (एना) या (सर्वाणि) सर्व प्रकारची (द्युम्नानि) धन-संपदा (आ) आम्हाला प्राप्त करून द्या (मिळेल असे करा) तुमच्याकडून प्राप्त असे धन आम्ही (मानुषाणाम्) सत्पात्र माणसांना (सिषासन्तः) द्याव, अशी अभिलाषा वा निश्चय आम्ही (रनामहे) करू इच्छितो.।।८।।

    भावार्थ

    ज्या धनाद्वारे अन्यांचे हित होत नाही, त्या माणसाचे ते धन म्हणजे संचित अपकीर्तीच असते. कारण वेद म्हणतो- ङ्गङ्घएकटा खाणारा पापभोगी होतो. तो जणू पापच खात असतो. (ऋ.१०/११७/६) ।।८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அனைத்தின் தலைவன் நீயே. மனிதர்களின் சமஸ்த பொருள்களை எமக்கு அளிக்கவும்; அவற்றை நன்கு பயன் செய்ய உம்மை நாடுகிறோம்.

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