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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 594
ऋषिः - आत्मा
देवता - अन्नम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
3
अ꣣ह꣡म꣢स्मि प्रथम꣣जा꣡ ऋ꣣त꣢स्य꣣ पू꣡र्वं꣢ दे꣣वे꣡भ्यो꣢ अ꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ ना꣡म꣢ । यो꣢ मा꣣ द꣡दा꣢ति꣣ स꣢꣫ इदे꣣व꣡मा꣢वद꣣ह꣢꣫मन्न꣣म꣡न्न꣢म꣣द꣡न्त꣢मद्मि ॥५९४
स्वर सहित पद पाठअ꣣ह꣢म् । अ꣣स्मि । प्रथमजाः꣢ । प्र꣣थम । जाः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । पू꣡र्व꣢꣯म् । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । ना꣡म꣢꣯ । यः । मा꣣ । द꣡दा꣢꣯ति । सः । इत् । ए꣣व꣢ । मा꣣ । अवत् । अह꣢म् । अ꣡न्न꣢꣯म् । अ꣡न्न꣢꣯म् । अ꣣द꣡न्त꣢म् । अ꣣द्मि ॥५९४॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य नाम । यो मा ददाति स इदेवमावदहमन्नमन्नमदन्तमद्मि ॥५९४
स्वर रहित पद पाठ
अहम् । अस्मि । प्रथमजाः । प्रथम । जाः । ऋतस्य । पूर्वम् । देवेभ्यः । अमृतस्य । अ । मृतस्य । नाम । यः । मा । ददाति । सः । इत् । एव । मा । अवत् । अहम् । अन्नम् । अन्नम् । अदन्तम् । अद्मि ॥५९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 594
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र का अन्न देवता है। परमेश्वर अपना परिचय दे रहा है।
पदार्थ
(अहम्) मैं परमेश्वर (ऋतस्य) जगत् में सर्वत्र दिखायी देनेवाले सत्य नियम का (प्रथमजाः) प्रथम उत्पादक (अस्मि) हूँ। मैं (देवेभ्यः) सब चमकनेवाले सूर्य, बिजली, अग्नि, तारामण्डल आदियों की उत्पत्ति से (पूर्वम्) पहले विद्यमान था। मैं (अमृतस्य) मोक्षावस्था में प्राप्त होनेवाले आनन्दामृत का (नाम) केन्द्र या स्रोत हूँ। (यः) जो मनुष्य (मा) मुझे (ददाति) अपने आत्मा में समर्पित करता है (सः इत् एव) निश्चय से वही (मा) मुझे (अवत्) प्राप्त होता है। (अहम्) मैं (अन्नम्) अन्न हूँ, भक्तों का भोजन हूँ और मैं (अन्नम् अदन्तम्) भोग भोगनेवाले प्रत्येक प्राणी को (अद्मि) खाता भी हूँ, अर्थात् प्रलयकाल में ग्रस भी लेता हूँ, इस कारण मैं अत्ता भी हूँ ॥ परमेश्वर के अन्न और अत्ता रूप को उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्र में इस प्रकार कहा है—मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्नाद हूँ, मैं अन्नाद हूँ, मैं अन्नाद हूँ (तै० उप ०३।१०।६)। ‘परमेश्वर अत्ता इस कारण है, क्योंकि चर-अचर को ग्रसता है’ (ब्र० सू० १।२।९) ॥ निरुक्त में जो परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत तथा आध्यात्मिक तीन प्रकार की ऋचाएँ कही गयी हैं, उनमें यह ऋचा आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक ऋचाएँ वे होती हैं, जिनमें उत्तम पुरुष की क्रिया तथा ‘अहम्’ सर्वनाम का प्रयोग हो अर्थात् जिसमें देवता अपना परिचय स्वयं दे रहा हो ॥९॥ इस मन्त्र में ‘मैं अन्न हूँ, मैं अन्न खानेवाले को खाता हूँ’ में विरोध प्रतीत होने से विरोधालङ्कार व्यङ्ग्यहै ॥९॥
भावार्थ
जैसे प्राणी भोजन के बिना, वैसे ही भक्तजन परमेश्वर के बिना नहीं जी सकते। जैसे प्राणी अन्न का ग्रास लेते हैं, वैसे ही परमेश्वर चराचर जगत् को ग्रसता है ॥९॥ पूर्व दशति में सोम नाम से परमात्मा का वर्णन होने से तथा इस दशति में भी इन्द्र, वरुण, सोम आदि नामों से परमात्मा का ही वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(ऋतस्य) वेदज्ञान का “ब्रह्म वा ऋतम्” [श॰ ४.१.४.१०] (प्रथमजाः) ‘प्रथमः सन् जनयिता’ प्रथम होता हुआ जनयिता—आविष्कर्ता—प्रकाशक (देवेभ्यः) उत्कृष्ट विद्वानों के लिये (अमृतस्य) मोक्षसुख का (पूर्वं नाम) शाश्वत नमानेवाले “नाम सन्नामयति” [निरु॰ ४.२७] (अहम्-अस्मि) मैं परमात्मा हूँ (यः) जो (मा ददाति) ‘मह्यम्-ङेस्थानेऽम् प्रत्ययश्छान्दसः’ मेरे लिये अपने को देता है—समर्पित करता है (सः-इत्-एवम्-आवत्) वह ही हाँ मुझे आलिङ्गित करता है “अवरक्षण.....आलिङ्गन..... वृद्धिषु” [भ्वादि॰] (अहम्-अन्नम्) कारण कि मैं उसका अन्न हूँ—अन्नरूप आत्मा—आधार हूँ “अन्नं वै सर्वेषां भूतानामात्मा” [गो॰ २.१.३] (अन्नम्-अदन्तम्-अद्मि) अन्नरूप तुझ खाते हुए को मैं खाता हूँ, अपने अन्दर ग्रहण करता हूँ—स्वीकार करता हूँ “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त दर्शनम्] कारण कि वह मुझे अपनाता है, मैं उसे अपनाता हूँ।
भावार्थ
वेदज्ञान का प्रथम से प्रकाशक तथा जीवन्मुक्तों के लिये अमृत मोक्षानन्द को शाश्वतिक नमाने वाला—प्राप्त कराने वाला मैं परमात्मा हूँ, जो मुझे अपना समर्पण करता है, वह ही मेरा आलिङ्गन करता है, उसका मैं अन्नरूप आत्मा आधार हूँ, अन्नरूप मुझे खाते हुए को मैं खाता हूँ, अपने अन्दर स्वीकार करता हूँ—अपनाता हूँ॥९॥
टिप्पणी
[*46. “अन्नं वै सर्वेषां भूतानामात्मा” [गो॰ २.१.२]।]
विशेष
ऋषिः—आत्मा (आत्मानुभूति वाला उपासक)॥ देवता—अन्नम् (सब भूतों का आत्मा—परमात्मा*46)॥<br>
विषय
वह प्रभु ही हमारा ‘अन्न' हो
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (ऋतस्य) = सत्य ज्ञान से परिपूर्ण वेदवाणी का (प्रथम-जा) = सृष्टि के प्रारम्भ में सबसे पहला उत्पत्तिस्थान (अस्मि) = हूँ। प्रभु ने ही अग्नि आदि ऋषियों को हृदयस्थरूपेण वेदज्ञान दिया। जीव का ज्ञान नैमित्तिक है- उसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता है। हमने अपने गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया और उन्होंने अपने गुरुओं से। इस प्रकार यह गुरु परम्परा हमें प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ तक पहुँचाती है, जिस समय (देवेभ्यः) = सब विद्वानों से (पूर्वम्) = पहले होनेवाला वह प्रभु श्रेष्ठ-अरिप्र [निर्दोष] ऋषियों को ज्ञान देता है। वह ज्ञान जो (अमृतस्य) = मोक्ष को हमारी ओर (नाम) = झुकानेवाला है [नमयति] ।
वस्तुतः (यः) = जो भी (मा) = मेरे प्रति अपने को (ददाति) = देता है (सः) = वह (इत्) = ही (एव) = इस प्रकार ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा (आवत्) = अपनी रक्षा करता है। ज्ञान उसे वासनाओं का शिकार नहीं होने देता। यह भोगों में फँसता ही नहीं। उस व्यक्ति के लिए प्रभु कहते हैं कि (अहम् अन्नम्) = मैं ही अन्न हूँ - वह मेरा ही सेवन करता है - मेरा ही उपासक होता है।
इसके विपरीत जो व्यक्ति इन पार्थिव भोगों में फँस जाते हैं और नाना प्रकार से स्वादु अन्नों को खाने लगते हैं, उन (अन्नम् अदन्तम्) = स्वाद से अन्नों को खाने में लगे हुओं को अद्मि=मैं खा जाता हूँ। ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रभु 'रुद्र' होते हैं और ये स्वाद से अन्नों को खानेवाले व्यक्ति अन्त में उस प्रभु से रुलाये जाते हैं।
भोगों में न फँसकर, ज्ञानप्रधान जीवन बिताते हुए हम चित्तवृत्ति के निरोध से अपने स्वरूप को देखें [तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्] और इस मन्त्र के ऋषि ‘आत्मा' बनें। वास्तविक अन्न यह ‘आत्मा' ही है। इसी ‘अन्न' का इस मन्त्र में वर्णन है। इसी से मन्त्र ‘अन्न' देवताक है। ‘इस अन्न का सेवन हमारे त्रिविध कष्टों को समाप्त करनेवाला होगा' इस बात की सूचना मन्त्र के छन्द 'त्रि-ष्टुप्' शब्द से भी आ रही है । [ Stoping of the three]।
भावार्थ
मैं आत्मदर्शन करूँ। आत्मा ही मेरा अन्न हो - मैं उसी का सेवन करूँ। इस अन्न के सेवन से मेरे त्रिविध कष्ट दूर हों ।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( अहं देवेभ्यः प्रथमजाः अस्मि ) = मैं वायु बिजली आदि देवों से पूर्व ही विद्यमान हूँ और ( ऋतस्य अमृतस्य नाम ) = सच्चे अमृत का टपकानेवाला हूँ ( यः मा ददाति ) = जो पुरुष मेरा दान करता है ( स इत् ) = वही ( एवम् आवत् ) = ऐसे प्राणियों की रक्षा करता है और जो किसी को न देकर आप ही खाता है ( अन्नम् अदन्तम् ) = उस अन्न खाते हुए को ( अहम् अन्नम् अद्मि ) = में अन्न खा जाता हूँ अर्थात् नष्ट कर देता हूं ।
भावार्थ
भावार्थ = परमेश्वर उपदेश देते हैं कि, हे मनुष्यो ! जब वायु आदि भी नहीं उत्पन्न हुए थे तब भी मैं वर्त्तमान था, मैं ही मोक्ष का दाता हूँ, जो आप ज्ञानी होकर दूसरों को उपदेश करता है, वह अपनी और दूसरे प्राणियों की रक्षा करता हुआ पुरुषार्थ भागी होता है जो अभिमानी होकर दूसरों को उपदेश नहीं करता, उसका मैं नाश कर देता हूँ। दूसरे पक्ष में अलंकार की रीति से अन्न कहता है कि मैं ही सब देवों से प्रथम उत्पन्न हुआ हूं। जो पुरुष महात्मा अतिथि आदिकों को देकर खाता है, वह अपनी रक्षा करता है। जो असुर केवल अपना ही पेट भरता है, अतिथि आदिकों को अन्न नहीं देता, उस कृपण नास्तिक दैत्य का मैं नाश कर देता हूँ ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( अहम् ) = मैं महान् आत्मा परमात्मा ( ऋतस्य ) = इस सत् अभिव्यक्त जगत् से ( प्रथमजा ) = प्रथम ही हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ ( अस्ति ) = हूं । ( देवेभ्य: ) = देवताओं, पञ्चभूतों, इन्द्रियों से भी ( पूर्व:) = पूर्व मैं विद्यमान रहा। मैं ही ( अमृतस्य ) = कभी विनाश न होने वाले, नित्य आत्मा का ( नाम ) = स्वरूप हूं । ( यः ) = जो ( मां ) = मुझको, मेरे स्वरूप को अन्यों के प्रति ( एव ) = इस प्रकार से ( ददाति ) = दान करता अर्थात् जो ब्रह्म या आत्म ज्ञान का उपदेश करता है ( सः इत् ) = वही ( मा ) = मेरी ( आवत् ) = रक्षा करता है । ( अहम् अन्नम् ) = मैं अन्न के समान प्राण को धारण कराता हूं। मैं ही ( अन्नम् ) = अन्न रूप से सबको धारण कराता हूं। मैं ही ( अदन्तम् ) = कर्मफल का भोग करने वाले जीवों को ( अद्मि ) = अपने में मग्न कर लेता हूं ।
ब्रह्म की अन्नोपासना उपनिषदों में कही है। 'अत्ता चराचरग्रहणात्' ( वेदा० सू० )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - आत्मा।
देवता - अन्नम्।
छन्दः - त्रिष्टुप्।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अन्नम् देवता। परमेश्वरः स्वपरिचयं ददाति।
पदार्थः
(अहम्) परमेश्वरः (ऋतस्य) जगति सर्वत्र दृश्यमानस्य सत्यनियमस्य (प्रथमजाः) प्रथमो जनयिता। प्रथमोपपदात् जनी प्रादुर्भावे धातोर्ण्यन्तात् ‘जनसनखनक्रमगमो विट्। अ० ३।२।६७’ इति विट् प्रत्ययः। ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्। अ० ६।४।४१’ इत्यात्वम्। (अस्मि) वर्ते। अहम् (देवेभ्यः) सर्वेभ्यः दीप्यमानेभ्यः विद्युदग्नितारामण्डलादिभ्यः, तदुत्पत्तेः इत्यर्थः (पूर्वम्) प्रागपि आसम्। अहम् (अमृतस्य) मोक्षावस्थाजन्यस्य आनन्दामृतस्य (नाम) नाभिः केन्द्रम् स्रोतःस्थानं वा अस्मि। नमन्ति नता भवन्ति एकत्र तिष्ठन्ति अत्र इति नाम नाभिः केन्द्रं स्रोतःस्थलं वा। तथा च ‘अमृतस्य नाभिः’ इति तैत्तिरीयोपनिषदि पाठः। तै० उ० भृगुवल्ली १०।७। (यः) जनः (मा) माम् (ददाति) स्वात्मनि समर्पयति (सः इद् एव) निश्चयेन स एव (मा) माम् (अवत्) प्राप्नोति। अवतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४, लेटि रूपम्। (अहम्) परमेश्वरः (अन्नम्) अन्ननामा अस्मि। अद्यते भक्तैर्भुज्यते इत्यन्नम् इति व्युत्पत्तेः। किञ्च, अहम् (अन्नम् अदन्तम्) भोगं भुञ्जानम् प्रत्येकं जनम् (अद्मि) भक्षयामि, तस्माद् ‘अत्ता’ अप्यस्मि। उक्तं चान्यत्र ‘अहमन्नम्, अहमन्नम्, अहमन्नम्, अहमन्नादोऽहमन्नादोऽहमन्नादः। तै० उ० ३।१०।६’, ‘अत्ता चराचरग्रहणात्। ब्र० सू० १।२।९’ इति ॥ निरुक्ते याः परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृता आध्यात्मिक्यश्चेतित्रिविधा ऋचः प्रोक्तास्तासु आध्यात्मिकीयम् ऋक्। ‘आध्यात्मिक्य उत्तमपुरुषयोगा अहमिति चैतेन सर्वनाम्ना’ निरु० ७।२ इति तल्लक्षणात् ॥९॥ अत्र ‘अहमन्नम्’ ‘अन्नमदन्तमद्मि’ इति विरोधप्रतीतेर्विरोधालङ्कारो व्यङ्ग्यः ॥९॥
भावार्थः
यथा प्राणिनो भोजनं विना न जीवन्ति, तथा भक्ताः परमेश्वरं विना। यथा प्राणिनोऽन्नं ग्रसन्ते, तथा परमेश्वरश्चराचरं जगत् ॥९॥ पूर्वदशत्यां सोमनाम्ना परमात्मनो वर्णनादत्र चेन्द्रवरुणसोमादिनामभिस्तस्यैव वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्द्धे प्रथमा दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये प्रथमः खण्डः ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I exist before the creation of this world. I exist before the forces of Nature. Imperishable am I. He where preaches My divine knowledge to others, is the benefactor of humanity. I, All-pervading God, destroy him, who does not preach My divine knowledge to others.
Translator Comment
It is the duty of the learned to preach the Vedas, God’s knowledge to humanity. He who enjoys His knowledge alone, and does not share it with others is a sinner, and liable to be punished by God, The message Of God revealed in the shape of the Vedas is universal and meant for all high or low. It is the foremost duty of the learned to preach God’s message to humanity, vide Yajurveda 25-6 and the third principle of the Arya Samaj. I refers to God.
Meaning
I am the food of life for life. I am the first born of the divinities of the eternal yajna of the immortal flow of existence, prime of value for the divinities. He that gives me, i. e. , food, to others for sustenance of life thereby protects and promotes life. And I eat up as food the man who eats food only for himself, without caring for others.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ऋतस्य) વેદજ્ઞાનના (प्रथमजाः) પ્રથમ જનયિતા-આવિષ્કર્તા-પ્રકાશક (देवेभ्यः) ઉત્કૃષ્ટ વિદ્વાનો માટે (अमृतस्य) મોક્ષ સુખના (पूर्वंनाम्) શાશ્વત નમાવનાર (अहम् अस्मि) હું પરમાત્મા છું (यः) જે (मा ददाति) મને સમર્પિત થાય છે. (सः इत् एवम् आवत्) તે જ હાં, મને ભેટે છે. (अहम् अन्नम्) કારણ કે હું તેનું અન્ન છું-અન્નરૂપ આત્મા-આધાર છું. (अन्नम् अदन्तम् अद्मि) અન્નરૂપ તુજ ખાનારને હું ખાઉં છું, મારી અંદર ગ્રહણ કરું છું-સ્વીકાર કરું છું. કારણ કે તે મને અપનાવે છે, હું તેને અપનાવું છું. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : વેદજ્ઞાનના પ્રથમ પ્રકાશક તથા જીવન્મુક્તોને માટે અમૃત મોક્ષાનંદને શાશ્વતિક નમાવનારકરાવનાર હું પરમાત્મા છું, જે મને પોતાનું સમર્પણ કરે છે, તે જ મને આલિંગન-ભેટે છે, તેનો હું અન્નરૂપ આત્મા આધાર છું, અન્નરૂપ મને ખાનારને હું ખાઉં છું-મારી અંદર સ્વીકાર કરું છું-અપનાવું છું. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کا اُپدیش ہے!
Lafzi Maana
کہ میں ہی ستیہ گیان (صحیفئہ الہٰی) کا سب سے پہلے جنم داتا ہوں، سُورج، چندر وغیرہ دیوتاؤں سے بھی میں پہلے ہوں، موکھش کا دینے والا ہوں، جو عابد اپنے کو میرے حوالی کر دیتا ہے، وہی میرے وصل کو حاصل کر لیتا ہے، اُس کی میں روحانی خوراک بن جاتا ہوں، اور جو صرف قدرتی غلّے اور دھن دولت کو بھوگتا رہتا ہے، اُسے میں کھا جاتا ہوں۔ یعنی زندگی اور موت کے چکر میں ہمیسہ چلتا رہتا ہے۔
Tashree
ایشور کا اُپدیش ہے لوگو! میں دیوؤں کا دیو ہوں پہلے، نذر مجھے اپنی کر کے تُم جنم مرن سے رہو اکیلے۔
बंगाली (1)
পদার্থ
অহমস্মি প্রথমজা ঋতস্য পূর্বং দেবেভ্যো অমৃতস্য নাম ।
যো মা দদাতি স ইদেবমাবদঽমন্নমদন্তমদ্মি।।৩৬।।
(সাম ৫৯৪)
পদার্থঃ (অহম্ দেবেভ্যঃ প্রথমজাঃ) আমিই প্রথমে; বায়ু, বিদ্যুৎসহ সকল ভৌতিক দেবতাদের (পূর্বম্ অস্মি) পূর্বেই বিদ্যমান এবং (ঋতস্য অমৃতস্য নাম) সত্য অমৃতেরও উর্ধ্বে আমি। (যঃ মা দদাতি) যে ব্যক্তি আমার উদ্দেশ্যে অন্যদের দান করে, (স ইৎ) সেই (এবম্ আবৎ) সকল প্রাণীর রক্ষা করে থাকে। আর যে কাউকে না দান না করে নিজেই ভোগ করে, (অন্নম্ অদন্তম্) সেই অন্নভোক্তা ব্যক্তির অন্নকে (অহম্ অদ্মি) আমি কর্মফল প্রদান করি [বিনাশ করি]।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমেশ্বর আমাদের উপদেশ দিয়েছেন যে, “হে মনুষ্য! যখন বায়ু, বিদ্যুৎ সহ সকল ভৌতিক পদার্থ সমূহ উৎপন্ন হয়নি, তখনও আমি বর্তমান ছিলাম। আমিই মোক্ষদাতা। যিনি নিজে জ্ঞানী হয়ে অপরকে উপদেশ প্রদান করেন, তিনি নিজে এবং প্রাণিদের রক্ষা করার মধ্য দিয়ে পুরুষার্থের ভাগী হন। আর যে অভিমানী হয়ে অপরকে সদুপদেশ না করে, সে বিনাশ প্রাপ্ত হয়।”
দ্বিতীয় অর্থে, অলংকারের রীতি অনুসারে অন্ন বলছেন, "আমি সকল দেবতার প্রথমে উৎপন্ন হয়েছি। যে ব্যক্তি মহাত্মা অতিথিদের খেতে দিয়ে তারপর নিজে ভক্ষণ করেন, তিনি নিজের রক্ষা করেন। আর যে ব্যক্তি কেবল নিজের উদর পূর্ণ করে, মহাত্মা অতিথিদের অন্ন প্রদান করে না; সেই কৃপণ ব্যক্তির অন্নও বিনাশপ্রাপ্ত হয়"।।৩৬।।
मराठी (2)
भावार्थ
जसे प्राणी भोजनाविना जगू शकत नाहीत, तसेच भक्तजन परमेश्वराशिवाय जगू शकत नाहीत. जसे प्राणी अन्नाचा घास मुखात घेतात, तसेच परमेश्वर चराचर जगाचा (प्रलयकाळात) घास घेतात ॥९॥
टिप्पणी
पूर्व दशतिमध्ये सोम नावाने परमात्म्याचे वर्णन असल्यामुळे व या दशतिमध्ये ही इंद्र, वरुण, सोम इत्यादी नावाने परमेश्वराचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे.
विषय
अन्न देवता। परमेश्वर स्वतःचा परिचय देत आहे-
शब्दार्थ
(अहम्) मी परमेश्वर (ऋतस्थ) संसारात सर्वत्र दिसून येणाऱ्या सत्य नियमांचा (ते नियम की ज्याच्याखाली ग्रह- उपग्रह संक्रमण, विकास, परिवर्तन आदी क्रिया घडत आहेत) (प्रथमजाः) प्रथम उत्पादक (अस्मि) आहे (सृष्टि-उत्पत्तीच्या वेळी आरंभी नियम परमेश्वराने स्थापित केले, त्याप्रमाणे नंतर सृष्टी चालत आहे) मी (देवेभ्यः) सूर्य, विद्युत, अग्नी, तारामंडळ, आदी सर्व दीप्तिमान पदार्थांच्या उत्पत्ति (पूर्वम्) पूर्वी विद्यमान होतो. मी (अमृतस्य) मोक्षावस्थेत मिळणाऱ्या आनंदामृताचा (नाम) केंद्रचा स्रोत आहे. (य्ः) जो मनुष्य (मा) मला (ददाति) आपल्या आत्म्यात समर्पित करतो, (सः इत, एवं) विश्वयानेते (मा) मला (अवत्) प्राप्त होतो (ईश्वराला तो जाणतो) (अहम्) मी (अन्नम्) अन्न आहे, मी भक्तांचे भोजन आहे आणि मीच (अन्नम् अदन्तम्) भोग भोगणाऱ्या प्रत्येक प्राण्याला (अग्नि) खात असतो अर्थात मीच प्रलयकाळी सर्वांना खाऊन टाकतो, यामुळे मीच अत्ता (खाणारा) ही आहे.।। परमेश्वराची अग व अत्ता ही रूपे उपनिषदात व ब्रह्मसूत्रात याप्रमाणे स्पष्य केली आहेत. ‘मी अन्न आहे, मी अन्न आहे, मी अन्नाद (खाणारा) आहे, मीच अन्नाद आहे? (तैत्तिरीय उप. ३/१०/६) ‘परमेश्वर ‘अत्ता’ यामुळे आहे की तो प्रलयकाळी चर-अचर सर्व जगाला गिळून टाकतो’ (ब्रह्मसूत्र १/२/९) निरूक्तामधे परोक्षकृत, प्रत्यक्षनकृत, आणि आध्यात्मिक अशा ज्या ती प्रकारच्या ऋचा सांगितल्या आहेत, त्यापैकी ही ऋचा आध्यात्मिक प्रकाराची आहे. आध्यात्मिक ऋचांची ओळख अशी की त्यामधे क्रिया उत्तम पुरुष असून सर्वत्र ङ्गअहम्फ सर्वनामाचा उपयोग केलेला आढळतो अर्थात त्यामधे देवता स्वतःच आपल परिचय देत असते.।।९।।
भावार्थ
जसे प्राणी भोजनाशिवाय जिवंत राहू शकत नाहीत. तसेच भक्तजन परमेश्वराशिवाय जीवित राहू शकत नाहीत. जसे प्राणी अन्नाचा घास घेतो, तद्वत परमेश्वर चराचर जगाचा ग्रास घेत असतो.।।९।। या पूर्वीच्य दशतीत परमेश्वराचे वर्णन सोम या नावाने केले असून या दशतीतदेखील इन्द्र, वरूण, सोम आदी नावाने परमेश्वराचे वर्णन केले आहे. म्हणून या दशतीच्या विषयांशी पूर्व दशतीच्या विषयांची संगती आहे, असे जाणावे.।। षष्ठ प्रपाठकातील तृतीय अर्धाची प्रथम दशती समाप्त। षष्ठ अध्यायातीत प्रथम खंड समाप्त.
विशेष
या मंत्रात ‘मी अन्न आहे’ मी अन्न खाणारा आहे’ या कथनाला विरोध भासतो म्हणून इथे विरोध अलंकार आहे. ।।९।।
तमिल (1)
Word Meaning
தேவர்களுக்கு முன் நானான உணவு அமுதமான சத்திய சம்பந்தமான முதலில் உண்டான நாமமாகிறேன். சொரூபமாகிறேன். எவன் என்னை இப்படி அளிக்கிறானோ அவனே என்னை ரட்சிக்கிறான்; நான் உணவு; (நானே) உணவாகும். எல்லா உணவைவையும் நானே புசிக்கிறேன்
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