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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 61
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    2

    त्व꣡म꣢ग्ने गृ꣣ह꣡प꣢ति꣣स्त्व꣡ꣳ होता꣢꣯ नो अध्व꣣रे꣢ । त्वं꣡ पोता꣢꣯ विश्ववार꣣ प्र꣡चे꣢ता꣣ य꣢क्षि꣣ या꣡सि꣢ च꣣ वा꣡र्य꣢म् ॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । अ꣣ग्ने । गृह꣡प꣢तिः । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिः । त्व꣢म् । हो꣡ता꣢꣯ । नः꣢ । अध्वरे꣢ । त्वम् । पो꣡ता꣢꣯ । वि꣣श्ववार । विश्व । वार । प्र꣡चे꣢꣯ताः । प्र । चे꣣ताः । य꣡क्षि꣢꣯ । या꣡सि꣢꣯ । च꣣ । वा꣡र्य꣢꣯म् ॥६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने गृहपतिस्त्वꣳ होता नो अध्वरे । त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि यासि च वार्यम् ॥६१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । अग्ने । गृहपतिः । गृह । पतिः । त्वम् । होता । नः । अध्वरे । त्वम् । पोता । विश्ववार । विश्व । वार । प्रचेताः । प्र । चेताः । यक्षि । यासि । च । वार्यम् ॥६१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 61
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    परमेश्वर किस गुण-कर्म-स्वभाववाला है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान, सबके अग्रनेता परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (गृहपतिः) ब्रह्माण्ड रूप गृह के स्वामी और पालक हो। (त्वम्) आप (नः) हमारे (अध्वरे) हिसांदिदोषरहित जीवनयज्ञ में (होता) सुख आदि के दाता हो। हे (विश्ववार) सबसे वरणीय ! (प्रचेताः) प्रकृष्ट चित्तवाले (त्वम्) आप (पोता) सांसारिक पदार्थों के अथवा भक्तों के चित्तों के शोधक हो। आप (वार्यम्) वरणीय सब वस्तुएँ (यक्षि) प्रदान करते हो, (यासि च) और उनमें व्याप्त होते हो ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष से यज्ञाग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे यज्ञाग्नि यजमान के घर का रक्षक होता है, वैसे परमेश्वर ब्रह्माण्डरूप घर का रक्षक है। जैसे यज्ञाग्नि अग्निहोत्र में स्वास्थ्य का प्रदाता होता है, वैसे परमेश्वर जीवन-यज्ञ में सुख-सम्पत्ति आदि का प्रदाता होता है। जैसे यज्ञाग्नि वायुमण्डल का शोधक होता है, वैसे परमेश्वर सूर्य आदि के द्वारा सांसारिक पदार्थों का और दिव्यगुणों के प्रदान द्वारा भक्तों के चित्तों का शोधक होता है ॥७॥

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    पदार्थ

    (विश्ववार अग्ने) हे सबके वरने योग्य अग्रणेता परमात्मन्! (त्वं गृहपतिः) तू मेरे हृदय सदन का स्वामी है (नः-अध्वरे) हमारे अध्यात्मयज्ञ में (त्वं होता) तू होता नाम का ऋत्विक्-ऋग्वेदपाठी (त्वं पोता) तू शोधन करने वाला—उद्गाता सामवेदपाठी (प्रचेता) प्रकृष्ट चेताने वाला ब्रह्मा (वार्यं यक्षि यासि च) तू हावभाव रूप उत्तम हवि को यजनकर्ता अध्वर्यु यजुर्वेदपाठी बनकर अमृतफल प्राप्त करा।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! यद्यपि मैं अपने हृदय सदन का स्वामी हूँ परन्तु परमात्मन्! वहाँ तू रक्षक बनकर आने के कारण तू ही स्वामी है क्योंकि मैंने अपने को तेरे प्रति समर्पित कर दिया। अतः तू ही स्वामी है और मैं अध्यात्मयज्ञ में लगा हूँ तू ही इसे सम्पन्न कर, तू ही इसका होता है तू ही पोता—उद्गाता, तू ही अध्वर्यु है और तू ही ब्रह्मा तू ही अर्ध्वयु है। बाहिरी होता आदि मुझे नहीं चाहिए, तू सबके वरने योग्य अमृतप्रसाद को प्रदान कर॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त बसने वाला)॥<br>

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    विषय

    वरणीय पदार्थ प्राप्त करने का मार्ग = [ मोक्ष- मार्ग ]

    पदार्थ

    १. इस मन्त्र में अग्नि = प्रगतिशील जीव को सम्बोधित करके कहा है कि (अग्ने) = हे अग्ने! (त्वम्)=तू (गृहपतिः) = गृह का पति है। यह शरीर गृह है, अग्नि इसका स्वामी है। कभी-कभी हमारे अन्नमयकोश के स्वामी रोग-कृमि भी बन जाते हैं। अग्नि '('मिताशी स्यात् कालभोजी ") वाक्य को आदर्श बनाकर कृमियों को प्रबल नहीं होने देता। हमारे प्राणमयकोश पर असुरों का आक्रमण हो तो इन्द्रियाँ अशुभ कार्यों में प्रवृत्त हो जाती हैं, परन्तु अग्नि प्राणायाम के द्वारा इन्द्रिय-दोषों का दहन कर डालता है। मनोमयकोश राग, द्वेष, मोह आदि मलों से मलिन हो जाता है, परन्तु यह अग्नि सत्य का व्रत धारण कर उसे निर्मल बनाये रखता है। हमारी बुद्धि असद् विचारों का केन्द्र बन जाती है, परन्तु अग्नि स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि को अपना सच्चा सारथि बनाये रखता है। हमें आनन्दमयकोश का नाममात्र भी ध्यान नहीं होता, परन्तु यह अग्नि ‘अयुतता' - अपृथक्ता= सबके साथ एकता का ध्यान करता हुआ आनन्दमयकोश का अधिपति बन पूर्णरूपेण गृहपति बनता है।

    २. हे अग्ने! (नः)=हममें से (त्वम्) = तू (अध्वरे) - हिंसारहित कर्मों में (होता) = आहुति देनेवाला है। यह अग्नि कभी कोई ऐसा कर्म नहीं करता जिससे दूसरे की हिंसा हो । यह किसी के व्यापार को हानि पहुँचाकर अपने लाभ की बात नहीं सोचता।

    ३. (विश्ववार)=सभी के चाहने योग्य ! (त्वम्)=तू (पोता)=अपने को पवित्र बनाता है। अपवित्रता की स्थिति में मनुष्य न्याय-अन्याय सभी साधनों से धन कमाने में लग जाता है, परन्तु यह अग्नि अपने को इन अशुभ मार्गों से बचाकर ठीक मार्ग पर ही चलता है।

    ४. (यक्षि)=यह अपने को यज्ञरूप बना डालता है। इसने तन, मन, धन की प्राजापत्य यज्ञ में आहुति दी है (च)=और परिणामतः (वार्यम्)=वरणीय पदार्थ (यासि) = प्राप्त करता है। प्राणिमात्र से वरणीय होने के कारण मोक्ष वार्य है। सभी छुटकारा चाहते हैं, कभी रोगों से, कभी कष्टों से। छुटकारा ही मोक्ष है, चाहने योग्य होने से यही वरणीय है-वार्य है। इस मोक्ष को गृहपति, होता, पोता, विश्ववार व यज्ञशील बनकर यह अग्नि ही प्राप्त करता है। पूर्ण जितेन्द्रिय होने से वह इस मन्त्र का ऋषि 'वसिष्ठ' होता है।

    भावार्थ

    मोक्ष-मार्ग की पाँच मंजिलें हैं - गृहपति बनना, किसी की हिंसा न करना, पवित्रता, विश्वप्रिय बनना और यज्ञशील होना।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे अग्ने   ( विश्ववार ) = सबके पूजन करने योग्य परमात्मन् !  ( त्वं नः अध्वरे ) = आप हमारे ज्ञान-यज्ञ में  ( गृहपतिः ) = यजमान हैं ।  ( त्वं होता ) = आप ही होता हैं ।  ( त्वं पोता ) = आप ही पवित्र करनेवाले हैं।  ( प्रचेता ) = चेतानेवाले भी आप ही हैं ।  ( यक्षि ) = यज्ञ भी आप ही करते हैं।  ( च ) = और  ( वार्यम् यासि ) = कर्मफल भी आप ही पहुँचाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे प्रभो ! आप यजमान, होता आदि रूप हैं । यद्यपि ज्ञानयज्ञ में भी जीवात्मा, यजमान और वाणी आदि होता, पोता, प्रचेता, आदि ऋग्विग् हैं, परन्तु  आपकी कृपा के बिना कुछ भी कार्य्य सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए कहा है कि आप ही यजमानादि सब -कुछ हैं । 

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे अग्ने ! ( त्वं ) = तू ( गृहपतिः ) = घर का स्वामी है, ( त्वं ) = तू ( नः ) = हमारे ( अध्वरे ) = यज्ञ, हिंसारहित श्रेष्ठ कर्म में ( होता ) = यजमान और समस्त भोग्य पदार्थों के देने और स्वीकार करने वाला या विद्वान् दिव्य गुणों, पुरुषों और शक्तियों को बुला कर हमें प्राप्त कराने वाला है । हे ( विश्ववार ) = समस्त संसार के वरण करने योग्य या सब विघ्नों के वारण करनेहारे रक्षक ! ( त्वं ) = तू ( पोता १  ) = सब कार्यों का परिशोधक, निरीक्षक, ( प्रचेताः ) = उत्कृष्ट मतिसम्पन्न है ।  तू ही ( वार्यम् ) = सब को प्रसन्न करने वाले वरणयोग्य, श्रेष्ठ पदार्थ ऐश्वर्य को ( यक्षि  ) = देता है और ( यासि च२   ) = हमें प्राप्त कराता है या स्वयं स्वीकार करता है । 
     

    टिप्पणी

    ६१ - 'यक्षि वेपि च ' इति ऋ० ।
    १. पोता - शोधयिता । मा० वि० । 
    २. यासि याचसे इति मा० वि० । 'सुभगं सुदीदितिं' इति ऋ० ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वसिष्ठ:। 
    छन्दः - बृहती।
     

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    विषय

    हमें कल्याण-पथ पर चलाइए

    शब्दार्थ

    (अग्ने) हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू (गृहपतिः) हमारे हृदय मन्दिर का स्वामी है (त्वम्) तू (न: अध्वरे) हमारे उपासना यज्ञ का (होता) ऋत्विक, याजक है। (विश्ववार) हे वरण करने योग्य परमेश्वर ! (त्वम् पोता) आप ही सबको पवित्र करनेवाले हैं (प्रचेता:) आपका ज्ञान महान है (यक्षि) आप हमारे जीवन यज्ञ में हमें कल्याण की ओर प्रेरित कीजिए क्योंकि आप सदाचार सम्पन्न (वार्यम्) वरणीय ज्ञानी भक्त को ही (यासि च) प्राप्त होते हो ।

    भावार्थ

    १. ईश्वर ही हमारे हृदय-मन्दिर का स्वामी है, अतः जो मान और सम्मान ईश्वर को देना चाहिए उसे हम मूर्ति आदि किसी जड़ पदार्थ को न दें । २. हमने उपासना-यज्ञ प्रारम्भ किया है, उस उपासना-यज्ञ का याजक, उसे सम्पन्न करानेवाला प्रभु ही है । उसकी प्राप्ति पर ही यह यज्ञ सम्पूर्ण होगा । ३. वह ईश्वर वरणीय है, सबको पवित्र करनेवाला है, महान् ज्ञानी है अतः भक्त प्रार्थना करता है- प्रभो ! आप सबको पवित्र करनेवाले हैं अत: मुझे भी कल्याणपथ पर प्रेरित कीजिए । जो सदाचार-सम्पन्न है, जिसने अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल बना लिया है आप उसीका वरण करते हैं, उसीको दर्शन देते हैं, उसीको अपना कृपापात्र बनाते हैं। आप हमारे जीवन को सुपथ पर चलाइए, जिससे हम आपको प्राप्त कर सकें ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरः किंगुणकर्मस्वभावोऽस्तीत्याह।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) अग्निवत् प्रकाशमान सर्वाग्रणीः परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (गृहपतिः) ब्रह्माण्डरूपस्य गृहस्य स्वामी पालकश्च असि। (त्वम् नः) अस्माकम् (अध्वरे) हिंसादिदोषरहिते जीवनयज्ञे (होता) सुखादीनां दाता भवसि। हे (विश्ववार) विश्वैर्वरणीय ! (प्रचेताः२) प्रकृष्टचित्तः (त्वम् पोता३) सांसारिकपदार्थानां भक्तचित्तानां वा शोधकः असि। पूञ् पवने धातोः कर्तरि तृन्। त्वम् (वार्यम्) वरणीयं सर्वं वस्तुजातम् (यक्षि) ददासि। यक्षि यजसि। बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३। इति शपो लुक्। (यासि च) व्याप्नोषि च ॥७॥४ श्लेषेण यज्ञाग्निपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥७॥

    भावार्थः

    यथा यज्ञाग्निर्यजमानगृहस्य रक्षिता तथा परमेश्वरो ब्रह्माण्डगृहस्य रक्षकः। यथा यज्ञाग्निरग्निहोत्रे स्वास्थ्यस्य प्रदाता, तथा परमेश्वरो जीवनयज्ञे सुखसम्पदादेः प्रदाता। यथा यज्ञाग्निर्वायुमण्डलस्य शोधकः, तथा परमेश्वरः सूर्यादिद्वारा सांसारिकपदार्थानां दिव्यगुण- प्रदानद्वारा च भक्तचित्तानां शोधकः ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।१६।५, यासि इत्यत्र वेषि इति पाठः। २. प्रचेताः संप्रवृद्धज्ञानः—इति वि०। प्रकृष्टचेताः—इति भ०। प्रकृष्टमतिः—इति सा०। प्रकर्षेण प्रज्ञापकः—इति ऋग्भाष्ये द०। ३. पोता पोतृकर्मकारी शोधयिता वा—इति वि०। ४. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्येऽस्या ऋचा “यथाग्निर्गृहपालकः सुखदाताऽध्वरे पवित्रकर्ता शरीरे चेतयिता सर्वं विश्वं संगच्छते व्याप्नोति च तथैव मनुष्या भवन्तु” इति भावार्थो लिखितः।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, Thou art the Lord of our abode. Thou art our Protector in virtuous deeds. Thou art the Remover of all impediments. Thou art the Scrutiniser of all actions and passing wise. Thou greatest us enjoyable prosperity and possessest it Thyself.

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    Meaning

    Agni, fiery and enlightened ruling power of nature and humanity, you are the protective and promotive head of the family and the home land. You are the receiver and giver of everything in the loving and non-violent business of the nations governance and administration. You are the purifier, sanctifier and giver of enlightenment universally adored. You organise, accomplish and pervade the yajnic business of life and living together by choice and common will. (Rg. 7-16-5)

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    Translation

    O fire-divine, you are the head of the family. You are the invoker in our benevolent actions. O Lord of all boons, you are the preserver, and all-knowing. You convey the oblations to other bounties and enjoy yourself.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विश्ववार अग्ने) હે સર્વને વર્ણ સ્વીકાર કરવા યોગ્ય પરમાત્મન્ ! (त्वं गृहपतिः) તું મારા હૃદયગૃહનો સ્વામી છે. (नः अध्वरे) અમારા અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (त्वं होता)  તું હોતા નામનો ઋગ્વેદી- ઋગ્વેદપાઠી,(त्वं पोता) તું શોધન કરનાર - ઉદ્ગાતા - સામવેદ પાઠી , (प्रचेता) પ્રકૃષ્ટ ચેતનાવાળો બ્રહ્મા , (वार्यम् यक्षि यासि च) અને તું હૃદયના ભાવ રૂપ શ્રેષ્ઠ હવિનો યજ્ઞ કરતો અધ્વર્યુ - યજુર્વેદ પાઠી બનીને અમૃત ફળ પ્રાપ્ત કરાવ. (૭)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! જો કે હું મારા હૃદયરૂપી ઘરનો સ્વામી છું , પરંતુ પરમાત્મન્ ! ત્યાં તું રક્ષક બનીને આવવાને કારણે ખરેખર તું જ સ્વામી , કારણ કે મેં મારી જાતને તને સમર્પિત કરી દીધી છે ; તેથી તું જ સ્વામી અને હું અધ્યાત્મયજ્ઞમાં લાગેલો છું . તું જ એને સંપન્ન કર , તું જ તેનો હોતો , તું જ પોતા - ઉદ્ગાતા , તું જ અધ્વર્યુ અને તું જ બ્રહ્મા તું જ અઘ્વર્યુ. બાહ્ય હોતા વગેરે મારે ન જોઈએ , તું સર્વના વરવા યોગ્ય - સત્કાર કરવા યોગ્ય અમૃત પ્રસાદને પ્રદાન કર. (૭) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    شریر، گھر اور برہمانڈ کے سوامی

    Lafzi Maana

    (اگنے) جگت کے نیتا پرماتمن! (دتوم گرہ پتی) آپ ہمارے شریروں، گھروں اور برہمانڈ کے سوامی، ادھی پتی پالک اور رکھشک ہیں (نہ ادھورے) ہمارے سِہنسارہت اُپاسنا پر وپکار وغیرہ یگیہ کرموں میں ۰ہوتا) شکتی بل اور وسائل دینے والے ہیں (وِشووار) سب کے لئے ورن کرنے یوگیہ اور سب کا دُکھوں کا وارن کرنے والے ایشور! (تومّ پوتا) اپ پوتّر کرنے والے تتھا (پرچیتا) اُتم متی بُدھی پریر ناکے داتا اننت گیان دان ہیں، (واریّم) ورن یعنی گرہن کرنے یوگیہ سدگُنوں کو (مکھیشی) ہمیں دیجئے۔ (یاسی چہ) کیُن کہ آپ اُتم گنوں کے بھنڈار ہیں۔
     

    Tashree

    اُس پربھُو کی شرن میں جانے سے ہی ہم دُکھوں سے چھوٹ کر سکھوں کا گہوارہ بن سکتے ہیں۔
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বমগ্নে গৃহপতিস্ত্বং হোতা নো অধ্বরে ।

    ত্বং পোতা বিশ্ববার প্রচেতা যক্ষি যাসি চ বার্যম্।। ১৫।।

    (সাম ৬১)

    পদার্থঃ (অগ্নে)  হে অগ্নি (বিশ্ববার) সকলের পূজার যোগ্য পরমাত্মা! (ত্বম্ নঃ অধ্বরে) তুমি আমাদের জ্ঞান যজ্ঞের (গৃহপতিঃ) যজমান। (ত্বম্ হোতা) তুমিই হোতা, (ত্বম্ পোতা) তুমিই পবিত্রকর্তা, (প্রচেতা) অনুপ্রেরণা দানকারীও তুমি। (যক্ষি) যজনও তুমিই করো (চ) এবং (বার্যম্ যাসি) কর্ম ফলও তুমিই প্রদান করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমেশ্বর! তুমিই আমাদের দ্বারা কৃত হিংসাদিরহিত জ্ঞানরূপ যজ্ঞের যজমান এবং হোতা। যদিও জ্ঞান যজ্ঞে জীবাত্মা যজমান এবং বাণী আদি হোতা, পোতা, প্রচেতা ঋত্বিক হয়ে থাকে; তবুও তোমার কৃপা ছাড়া কোনো কার্যই সিদ্ধ হতে পারে না। এজন্য তোমাকে আমাদের দ্বারা কৃত যজ্ঞের যজমান, হোতা, প্রচেতা হিসেবে স্বীকার করছি  এবং মান্য করছি।।১৫।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा यज्ञाग्नी यजमानाच्या घरचा रक्षक असतो, तसे परमेश्वर ब्रह्मांडरूप घराचा रक्षक असतो. जसा यज्ञाग्नी अग्निहोत्रात स्वास्थ्याचा प्रदाता असतो तसा परमेश्वर जीवनयज्ञात सुखसंपत्ती इत्यादीचा प्रदाता असतो. जसा यज्ञाग्नी वायुमंडळाचा शोधक असतो, तसा परमेश्वर सूर्य इत्यादीद्वारे सांसारिक पदार्थांचा व दिव्य गुणांचा प्रदाता असून भक्तांच्या चित्ताचा शोधक असतो ॥७॥

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    विषय

    परमेश्वर कशा गुण, कर्म स्वभावाचा आहे, हे सांगतात. -

    शब्दार्थ

    हे (अग्ने) अग्नीवत् प्रकाशमान, सर्वांचे अग्रनेता परमात्मन् (लम्) ापण (गृहपति:) या ब्रह्मांडरूप गृहाचे स्वामी आणि पालक आहात. (त्वम्) तुम्हीच (न:) आमच्या (अध्वरे) हिंसादीदोषरहित जीवनयज्ञात (होता) सुखप्रदाता आहात. हे (विश्ववार) सर्वांचे वरणीय आणि (प्रनेता:) प्रकृष्ट चित्तवान (त्वम्) आपण (पोता) सांसारिक पदार्थांचे व भक्तचित्रांचे शुद्धिकारक आहात. आपण (वार्यम्) वरणीय अर्थात वांछनीय पदार्थ आम्हाला (यक्षि) प्रदान करता. (मासिक) आणि आपणच त्या पदार्थांमध्ये व्याप्त आहात. ।।७।।

    भावार्थ

    जसा यज्ञाग्नी यजमानाच्या घराचा रक्षक असतो, तद्वत परमेश्वरही ब्रह्मांडरूप घराचा रक्षक आहे. ज्याप्रमाणे यज्ञाग्नी यज्ञात आरोग्यप्रदाता असतो, तसा परमेश्वरही जीवनयज्ञात सुख संपदा प्रदाता आहे. जसा यज्ञाग्नी वायुमंडळाला शुद्ध करतो, तसेच परमेश्वर सूर्य आदी द्वारे सांसारिक पदार्थांचा शुद्धीकारक आणि भक्तांचे हृदय पवित्र करणारा आहे. ।।७।।

    विशेष

    श्लेषाद्वारे या मंत्राची यज्ञाग्रिपरक अर्थयोजनाही केली पाहिजे. ।।७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (அக்னியே!) நீ வீடுகளின் தலைவனாகும். யக்ஞத்தில் [1] (ஹோதா)வாகும், எல்லா வரங்களின் தலைவனே! நீ புனிதம் செய்பவனாகும், பெருமையான அறிஞனே! நீயே நாடத் தகுந்தவன், [2] துதிக்கவும், திரவியத்தை அடையவும்.

    FootNotes

    [1] ஹோதாவாகும் - பெரியவனாகும்.

    [2] துதிக்கவும் - நாடவும்.

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