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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 612
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    2

    इ꣡न्द्र꣢स्य꣣ नु꣢ वी꣣꣬र्या꣢꣯णि꣣ प्र꣡वो꣢चं꣣ या꣡नि꣢ च꣣का꣡र꣢ प्रथ꣣मा꣡नि꣢ व꣣ज्री꣢ । अ꣢ह꣣न्न꣢हि꣣म꣢न्व꣣प꣡स्त꣢तर्द꣣ प्र꣢ व꣣क्ष꣡णा꣢ अभिन꣣त्प꣡र्व꣢तानाम् ॥६१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नु । वी꣣र्या꣢꣯णि । प्र । वो꣣चम् । या꣡नि꣢꣯ । च꣣का꣡र꣢ । प्र꣣थमा꣡नि꣢ । व꣣ज्री꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । अ꣡हि꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । अ꣣पः꣢ । त꣣तर्द । प्र꣢ । व꣣क्ष꣡णाः꣢ । अ꣣भिनत् । प꣡र्व꣢꣯तानाम् ॥६१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥६१२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । नु । वीर्याणि । प्र । वोचम् । यानि । चकार । प्रथमानि । वज्री । अहन् । अहिम् । अनु । अपः । ततर्द । प्र । वक्षणाः । अभिनत् । पर्वतानाम् ॥६१२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 612
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र का देवता इन्द्र है। इन्द्र नाम से परमात्मा, राजा आदि के पराक्रमों का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा, सूर्य और विद्युत् के पक्ष में। मैं (इन्द्रस्य) वीर परमात्मा, पदार्थों को अवयव रूप में विछिन्न करनेवाले सूर्य और परमैश्वर्य की साधनभूत विद्युत् के (नु) शीघ्र (वीर्याणि) क्रमशः सृष्टि के उत्पत्ति-स्थिति-संहाररूप, आकर्षण-प्रकाशन आदि रूप और भूयान, जलयान, अन्तरिक्षयान तथा विविध यन्त्रों के चलाने रूप वीरता के कर्मों का (प्र वोचम्) वर्णन करता हूँ, (यानि प्रथमानि) जिन उत्कृष्ट कर्मों को, वह (वज्री) शक्तिधारी (चकार) करता है। उन्हीं वीरता के कर्मों में से एक का कथन करते हैं—वह परमात्मा, वह सूर्य और वह विद्युत् (अहिम्) अन्तरिक्ष में स्थित बादल का (अहन्) संहार करता है, (अपः) बादल में स्थित जलों को (अनु ततर्द) तोड़-तोड़कर नीचे गिराता है, (पर्वतानाम्) पहाड़ों की (वक्षणाः) नदियों को (प्र अभिनत्) बर्फ तोड़-तोड़कर प्रवाहित करता है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। मैं (इन्द्रस्य) शत्रुविदारक राजा के (नु) शीघ्र ही (वीर्याणि) शत्रुविजय, राष्ट्रनिर्माण आदि वीरतापूर्ण कर्मों को (प्र वोचम्) भली-भाँति वर्णित करता हूँ, (यानि प्रथमानि) जिन श्रेष्ठ कर्मों को (वज्री) तलवार, बन्दूक, तोप, गोले आदि शस्त्रास्त्रों से युक्त वह (चकार) करता है। वह (अहिम्) साँप के समान टेढ़ी चालवाले, विषधर, राष्ट्र की उन्नति में बाधक शत्रु का (अहन्) संहार करता है, (अपः) जलों के समान उमड़नेवाले शत्रु-दलों को (ततर्द) छीलता है, (पर्वतानाम्) किलों की (वक्षणाः) सेनाओं को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करता है ॥११॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। अहन्, अनुततर्द, प्राभिनत् इन अनेक क्रियाओं में एक कारक का योग होने से दीपकालङ्कार भी है ॥११॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर सूर्य द्वारा अथवा आकाशीय बिजली द्वारा मेघ का संहार कर रुके हुए जलों को नीचे बरसाता और नदियों को बहाता है, वैसे ही राष्ट्र का राजा विघ्नकारी शत्रुओं को मार कर, किलों में भी स्थित सेनाओं को हरा कर राष्ट्र में सब ऐश्वर्यों को प्रवाहित करे ॥११॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के (नु) शीघ्र शीघ्र—बार बार (वीर्याणि प्रवोचम्) वीरकर्मों को—स्वाधार बलों—पराक्रमों को प्रशंसित करता हूँ (वज्री) वह वज्रवान् उपासक को बन्धन से वर्जित करने वाले—छुड़ाने वाले “वज्रः कस्माद् वर्जयतीति सतः” [निरु॰ ३.१२] ओजस्वी “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (यानि प्रथमानि चकार) जिन प्रमुख पराक्रमों को करता है, जैसे (अहिम्-अहन्) समन्तरूप से सबके मारक मृत्युरूप सर्प को मारता है “अहिः निर्ह्रसितोपसर्ग आहन्तीति” [निरु॰ २.१७] (अपः-अनुततर्द) बन्धन के कारणभूत कामनाओं—कामवासनाओं को “आपो वै सर्वे कामाः” [श॰ १०.५.४.१५] नष्ट कर देता है (पर्वतानां वक्षणाः प्राभिनत्) पर्व—तृप्तिकारक ज्ञानज्योतियों वाले वेदों के “पर्व पुनः पृणातेः प्रीणातेर्वा” [निरु॰ १.२०] “पर्ववती भास्वती” [निरु॰ ९.२५] “पर्वतः पर्ववान्” [निरु॰ १.२०] “तप् पर्वमरुद्भ्याम्” [अष्टा॰ ५.२.१२२ वा॰] ज्ञानामृत स्रोतों—झरनों को खोलता है।

    भावार्थ

    सर्वैश्वर्यवान् परमात्मा के वीरकर्मों—स्वाधार पराक्रमों की शीघ्र शीघ्र—बार बार प्रशंसा करता हूँ जो ओजस्वी उपासकों को बन्धन से छुड़ाने वाला भारी पराक्रमों को करता है, सबके मारक मृत्युरूप सर्प को कामवासना को भी नष्ट करता है एवं तृप्तिकारक ज्ञानज्योतियों से पूर्ण वेदों के ज्ञानामृत स्रोतों—झरनों को बहाता है॥११॥

    विशेष

    ऋषिः—हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः (प्राणविद्या में सम्पन्न बहुविध ज्ञानज्योति वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    हिरण्यस्तूप का उपदेश

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'हिरण्यस्तूप आङ्गिरस' है। 'हिरण्यं वै वीर्यम्'- हिरण्य वीर्यशक्ति का नाम है–उसकी ऊर्ध्वगति करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' वीर्य की ऊर्ध्वगति के कारण ही एक-एक अंग में रसवाला है–'आङ्गिरस' है। यह कहता है कि मैं (नु) = अब (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (वीर्याणि) = शक्तिशाली कर्मों का (प्रवोचम्) = प्रवचन करता हूँ। (यानि) = जिन कर्मों को, जो (प्रथमानि) =  अत्यन्त विस्तारवाले हैं- स्वार्थ के दृष्टिकोण से नहीं किये गये, (वज्री) = वज्रतुल्य दृढ़ शरीरवाले हिरण्यस्तूप ने (चकार) = किया है। जितेन्द्रिय बनकर जीव वज्रतुल्य दृढ़ शरीरवाला बनता है [वज्री], इसके कर्म स्वार्थ से कुछ ऊपर उठे हुए होते हैं [प्रथमानि], साथ ही इसके कर्म शक्तिशाली [वीर्याणि] होते हैं।

    १. पहला कर्म तो इसने यह किया कि (अहिम् अहन्) = अहि को मार डाला। अहि का सामान्य अर्थ सर्प है- इसने सर्प को मार डाला। सर्प कुटिलवृत्ति का प्रतीक है। इसने अपने से कुटिलवृत्ति को दूर कर दिया।

    २. (अनु) = इसके पश्चात् इसने (अ-पः) = [न पाति] न रक्षा करनेवाले दुष्ट मन को [अजित मन को] (ततर्द) = नष्ट कर दिया। ('अनात्मवस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्') = अजित मन हमारा शत्रु=Shatterer हो जाता है । इस हिरण्यस्तूप ने नष्ट करनेवाले [अ-प] दुष्ट मन का दमन कर दिया। सरल मार्ग पर चलने के लिए दुष्ट मन का दमन आवश्यक ही हैं।

    ३. दुष्ट मन के दमन के लिए इसने (पर्वतानाम्) = पाँच पर्वोंवाली अविद्या के (वक्षणाः) = प्रवाहों को (प्र अभिनत्) = विदीर्ण कर दिया है। अविद्या के नष्ट होने पर ही वासना नष्ट होगी- दुष्ट मन का दलन हो पाएगा।

    भावार्थ

    मैं कुटिलता का, दुष्ट मन का तथा पञ्चपर्वोंवाली अविद्या का नाश करके सरल, सुमन तथा सु - यज्ञ बनता हूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

     भा०  = ( इन्द्रस्य ) = विद्युत् या सूर्य के समान बलवान्, शक्तिमान् परमेश्वर के ( वीर्याणि ) = नाना पराक्रम के उन कार्यों को मैं ( प्रवोचं नु ) = कहता हूं ( यानि ) = जिन ( प्रथमानि ) = अतिश्रेष्ठ महत्वपूर्ण कार्यों को ( वज्री ) = अणु से अणु तक को पृथक् करने हारा परमेश्वर ( चकार ) = किया करता है । वह ( अहिम् ) = कभी नष्ट न होनेवाले, स्वभावतः विद्यमान अन्धकार को ( अहन् ) = विनाश करता है, स्वयं ( अनु ) = बिजुली जिस प्रकार मेघों से जलो और पर्वतों से झरनों को पैदा कर देती है उसी प्रकार वह भी अज्ञानरूप 'अहि' का नाश करके ( अपः ) = प्रज्ञानों को ( ततर्द ) = प्रवाहित करता है । और ( पर्वतानां ) = बड़े २ पर्वतों के ( वक्षणा: ) = नदियों के समान विद्वानों के हृदय ग्रन्थियों या अंगों से बने देहादि बन्धनों को ( प्र-अभिनत् ) = काट देता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - हिरण्यस्तूप:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रो देवता। इन्द्रनाम्ना परमात्मनृपत्यादेर्वीर्याणि वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मसूर्यविद्युत्परः। अहम् (इन्द्रस्य) वीरस्य परमात्मनः, पदार्थविच्छेदकस्य सूर्यस्य, परमैश्वर्यसाधनभूतायाः विद्युतो वा (नु) शीघ्रम् (वीर्याणि) सृष्ट्युत्पत्तिस्थितिसंहारादिरूपाणि, आकर्षणप्रकाशनादिरूपाणि, भूजलान्तरिक्षयानयन्त्रसञ्चालनरूपाणि वा वीरकर्माणि (प्रवोचम्) वर्णयामि, (यानि प्रथमानि) यानि उत्कृष्टानि कर्माणि सः (वज्री) शक्तिधरः (चकार२) करोति। तेषामेव वीरकर्मणामन्यतमम् आह—स परमात्मा, स सूर्यः, सा विद्युद् वा (अहिम्) अन्तरिक्षस्थं मेघम्। अहिरिति मेघनाम। निघं० १।१०। (अहन्) हन्ति, (अपः) मेघस्थानि उदकानि (अनु ततर्द) तर्दनेन अधः पातयति (पर्वतानाम्) गिरीणाम् (वक्षणाः३) नदीः। वक्षणाः इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। (प्र अभिनत्) हिमभेदनेन प्रवाहयति। अत्र प्रवोचम्, अहन्, अनुततर्द, प्र अभिनत् इति लुङ्-लङ्-लिट्प्रयोगाः सामान्यकाले विज्ञेयाः ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६’ इति पाणिनिप्रामाण्यात् ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। अहम् (इन्द्रस्य) शत्रुविदारकस्य नृपतेः (नु) सद्यः (वीर्याणि) वीरतापूर्णानि कर्माणि शत्रुविजयराष्ट्रनिर्माणादीनि (प्रवोचम्) प्रकृष्टतया वर्णयामि, (यानि प्रथमानि) यानि श्रेष्ठानि कर्माणि (वज्री) असिभुशुण्डीशतघ्नीगोलाकादिशस्त्रास्त्रयुक्तः सः (चकार) कृतवान् करोति च। सः (अहिम्) अहिवत् कुटिलगामिनं विषधरं राष्ट्रोन्नतौ बाधकं शत्रुम् (अहन्) हन्ति, (अपः) जलवत् प्रवहणशीलानि शत्रुदलानि, (ततर्द) तृणत्ति, (पर्वतानाम्) दुर्गाणाम् (वक्षणाः) सेनाः। नदीवाचिनः शब्दाः सेनावाचका अपि भवन्ति। अभिनत् भिनत्ति ॥११॥४

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरः सूर्यद्वाराऽऽकाशीयविद्युद्द्वारा वा मेघं हत्वाऽवरुद्धानि जलान्यधः पातयति नदींश्च प्रवाहयति, तथैव राष्ट्रस्य राजा विघ्नकारिणः शत्रून् हत्वा दुर्गस्था अपि सेनाः पराजित्य राष्ट्रे सकलान्यैश्वर्याणि प्रवाहयेत् ॥११॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३२।१, अथ० २।५।५ ऋषिः भृगुराथर्वणः। २. (चकार) कृतवान् करोति करिष्यति वा। अत्र सामान्यकाले लिट् इति ऋ० १।३२।१ भाष्ये द०। ३. (वक्षणाः) वहन्ति जलानि यास्ताः नद्यः इति तत्रैव द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं सूर्योपमानेन राजपरो व्याख्यातः—‘(इन्द्रस्य) सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्यलोकस्येव सभापते राज्ञः (वीर्याणि) आकर्षणप्रकाशयुक्तादिवत् कर्माणि’ इत्यादि।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I describe the heroic deeds of God, which. He, the Severer of atom from atom, performs, with full significance He destroys the demon of ignorance. He lets knowledge flow. He cuts asunder the bonds of the body for the learned, as streams are cut out of the mountains.

    Translator Comment

    Cuts asunder the bonds of the body means grants salvation to the learned.

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    Meaning

    I recite and celebrate the first and highest exploits of Indra, lord of the thunderbolt, refulgent ruler, which he, like the sun, performs with the shooting rays of His light. He breaks down the cloud like an enemy, releases the waters and opens the paths of mountain streams. (The ruler too, similarly, breaks down the enemies holding up the powers of the nation for movement, releases the energies and resources of the nation, and carves out the paths of progress. ) (Rg. 1-32-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रस्य) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માનાં (नु) શીઘ્ર - શીઘ્ર - વારંવાર (वीर्याणि प्रवोचम्) વીરકર્મોને - સ્વાધારબળો - પરાક્રમોને પ્રશંસિત કરું છું. (वज्री) તે વજ્રવાન ઉપાસકને બંધનથી વર્જિત કરનાર-છોડાવનાર ઓજસ્વી (यानि प्रथामानि चकार) જે મુખ્ય પરાક્રમોને કરે છે, જેમકે (अहिम् अहन्) સમગ્રરૂપથી સર્વના મારક મૃત્યુરૂપ સર્પને મારે છે. (अपः अनुततर्द) બંધનના કારણભૂત કામનાઓ - કામવાસનાઓને નષ્ટ કરી દે છે. (पर्वतानां वक्षणाः प्राभिनत्) તૃપ્તિકારક જ્ઞાનજ્યોતિવાળા વેદોના જ્ઞાનામૃત સ્રોતો-ઝરણાઓ ખોલે છે. (૧૧)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સર્વ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માના વીરકર્મો-સર્વાધાર પરાક્રમોની શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર પ્રશંસા કરું છું, જે ઓજસ્વી ઉપાસકોને બંધનથી છોડાવનાર મહાન પરાક્રમો કરે છે, સર્વના મારક મૃત્યુરૂપ સર્પને-કામવાસનાને પણ નષ્ટ કરે છે; તથા તૃપ્તિકારક જ્ઞાનજ્યોતિઓથી પૂર્ણ વેદોનાં જ્ઞાનામૃતના સ્રોતો ઝરણાઓને વહાવે છે. (૧૧)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    میں چاہتا ہوں کہ

    Lafzi Maana

    اِندر پرمیشور کی بہادرانہ عظیم کارناموں کا وعظ (اُپدیش) کرتا جاؤں، جس بہادری سے پاپ کے سانپ کا سر کُچل دیتا ہے اور ہماری اندرونی کوفیتیں سب دُور ہو جاتی ہیں، بُرائیوں کا ایسا تحس نحس کیا کہ اوّدِیا کے پانچ پرو اَوِدّیا، اسمِتا، راگ، دویش اور ابھی نویش پانچوں قسم میں بٹی ہوئی اِس جہالت میں اضافہ نہ ہونے پائے، پرمیشور اپنے عابدوں پر ایسا کرم کرتا رہتا ہے!

    Tashree

    عظمت ہے یہ اِندر کی یہ بُرائیوں کے ازدھا کو، طاقت سے سر کُچلتا، جگ پاتا خیریت کو، کیوں نہ سناؤں گھر گھر میں اُس کا یہ فسانہ۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर सूर्याद्वारे किंवा आकाशीय विद्युतद्वारे मेघांचा संहार करून बंदिस्त जलाला पृथ्वीवर वृष्टीरूपाने बरसतो व नद्यांना प्रवाहित करतो, तसेच राष्ट्राच्या राजाने उपद्रवी शत्रूंचा नायनाट करून किल्ल्यात स्थित असलेल्या सेनेला पराजित करून राष्ट्रात सर्व ऐश्वर्य प्रवाहित करावे ॥११॥

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    विषय

    इन्द्र देवता। इन्द्र नावाने परमेश्वराच्या व राजाच्या पराक्रमाचे वर्णन-

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमेश्वर), सूर्य आणि विद्युत पर)- मी (एक उपासक, भौतिकशास्त्र-वैज्ञानिक) (इन्द्रस्य) परमेश्वराच्या पराक्रमाच्या/पदार्थांना अवयवरूपात विच्छिन्न करणाऱ्या सूर्याच्या आणि ऐश्वर्यांचे साधन असलेल्या विद्युतेच्या (वीर्याणि) सृष्टीचे उत्पत्ती, स्थिती, संहाररूप कार्याचे/आकर्षण-प्रकाशनरूप कार्यांचे/आणि भूयान, जलमान, अंतरिक्ष यान व विविध यंत्रांचे संचालनरूप अद्भुत कार्यांचे (प्रवोचम्) वर्णन (नु) शीघ्र करीत आहे (यानि प्रथमानि) ही ती कर्में आहेत की जी उत्कृष्ट कार्यें तो (वज्री) शक्तिधारी परमेश्वर/सूर्य/आणि विद्युत. (चकार) करीत असते. त्या वीरत्वपूर्ण कार्यांपैकी एक एकाचे कथन करीत आहेत. तो परमात्मा, तो सूर्य आणि ती विद्युत (अहिम्) अंतरिक्षात स्थित मेघाचा (अहन्) संहार करतो (अपः) तो मेघमंडळात विद्यमान जलाला (अनु ततर्य) व ध्वस्त करून खाली भूमीवर पाडतो आणि (पर्वतनाम्) पर्वतांतील (वक्षणाः) नद्यांना (प्र अभिनत्) बहिम खंडित करून खालच्या दिशेकडे प्रवाहित करतो.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर) मी (इन्द्रस्य) शत्रुविदारक राजाच्या (वीर्याणि) शत्रुविजय, राष्ट्रनिर्माण आदी वीरत्वपूर्ण कार्यांचे (प्र वोचम्) उत्तमप्रकारे वर्णन करीत आहे (यानि प्रथमानि) त्याने जी जी श्रेष्ठ कार्यें आधी केली आहेत, ती (वज्री) त्या तलवार, बंदूक, तोफ व तोफ गोळे यांच्या साह्याने (चकार) केली आहेत. तो (अहिम्) सापाप्रमाणे वाकडी-तिकड चाल चलणाऱ्या, दुष्टांचा, राष्ट्रोभतीत बाधक असलेल्या शत्रूचा (अहम्) संहार करतो (अपः) जल-प्रवाहाप्रमाणे वेगाने चालून येणाऱ्या शत्रुदलाला (ततर्य) छिन्न-विच्छिन्न करतो आणि (पर्वतानाम्) पर्वतीय दुर्गांमधे लपून बसलेल्या शत्रुसैन्याला (अ भिनत्) छिन्न-ध्वस्त करतो.।।११।।

    भावार्थ

    जसे परमेश्वर सूर्याद्वारे वा आकाशीय विद्युताद्वारे मेघमंडळाचा संहार करून तिथे थांबलेल्या पाण्याला खाली भूमीवर पाडतो आणि नद्यांमधे प्रवाहित करतो, तद्वत राष्ट्राचा अधिपती विघ्नकारी शत्रूंचा निःपात करून, दुर्गात लपलेला शत्रुसैन्याला पराजित करून राष्ट्रामधे सर्व ऐश्वर्य प्रवाहित करावे (राष्ट्र ऐश्वर्यसंपन्न करावे)।।११।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. अहन्, अनुततर्द, प्राभिमत्, या अनेक क्रियांचा एकच कारक(इन्द्र) असल्यामुळे येथे दीपक अलंकार आहे.।।११।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரன் வச்சிராயுதனாகும். முதன்மையான இந்திரனின் வீரியமான செயல்களை நான் துரிதமாய் சொல்லுகிறேன். அவன் மேகத்தைக் கொல்லுகிறான்; அப்பால் சலத்தை விழச்செய்கிறான். அவன் மலைப் பிரவாஹங்களுடைய நதிகளையும் பிளக்கிறான். .

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