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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 613
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - आत्मा अग्निर्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    2

    अ꣣ग्नि꣡र꣢स्मि꣣ ज꣡न्म꣢ना जा꣣त꣡वे꣢दा घृ꣣तं꣢ मे꣣ च꣡क्षु꣢र꣣मृ꣡तं꣢ म आ꣣स꣢न् । त्रि꣣धा꣡तु꣢र꣣र्को꣡ रज꣢꣯सो वि꣣मा꣡नोऽज꣢꣯स्रं꣣ ज्यो꣡ति꣢र्ह꣣वि꣡र꣢स्मि꣣ स꣡र्व꣢म् ॥६१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ग्निः꣢ । अ꣣स्मि । ज꣡न्म꣢꣯ना । जा꣣त꣡वे꣢दाः । जा꣣त꣢ । वे꣣दाः । घृत꣢म् । मे꣣ । च꣡क्षुः꣢꣯ । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । मे꣣ । आस꣢न् । त्रि꣣धा꣡तुः꣢ । त्रि꣣ । धा꣡तुः꣢꣯ । अ꣣र्कः꣢ । र꣡ज꣢꣯सः । वि꣣मा꣡नः꣢ । वि꣣ । मा꣡नः꣢꣯ । अ꣡ज꣢꣯स्रम् । अ । ज꣣स्रम् । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ह꣣विः꣢ । अ꣣स्मि । स꣡र्व꣢꣯म् ॥६१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन् । त्रिधातुरर्को रजसो विमानोऽजस्रं ज्योतिर्हविरस्मि सर्वम् ॥६१३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । अस्मि । जन्मना । जातवेदाः । जात । वेदाः । घृतम् । मे । चक्षुः । अमृतम् । अ । मृतम् । मे । आसन् । त्रिधातुः । त्रि । धातुः । अर्कः । रजसः । विमानः । वि । मानः । अजस्रम् । अ । जस्रम् । ज्योतिः । हविः । अस्मि । सर्वम् ॥६१३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 613
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 12
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले दो मन्त्रों का अग्नि देवता है। इस मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा अपना परिचय दे रहे हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं परमात्मा (अग्निः अस्मि) सबका अग्रनायक और अग्नि के समान प्रकाशक होने से अग्नि नामवाला हूँ, (जन्मना) स्वरूप से ही (जातवेदाः) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, वेदों का प्रकाशक तथा सब धनों का उत्पादक हूँ। (मे) मेरी (चक्षुः) आँख अर्थात् देखने की शक्ति (घृतम्) अत्यन्त तीव्र है। (मे) मेरे (आसन्) मुख में (अमृतम्) अमृत है, मैं सदा अमृतत्व का आस्वादन करता रहता हूँ अर्थात् अमर हूँ। मैं (त्रिधातुः) जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार रूप तीनों क्रियाओं को करनेवाला हूँ, मैं (अर्कः) अर्चनीय हूँ। मैं (रजसः) सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी आदि लोकों का (विमानः) निर्माता अथवा अधिष्ठाता, (अजस्रं ज्योतिः) अक्षय तेजवाला, (हविः) सबका आह्वानयोग्य, और (सर्वम्) सर्वशक्तिमान् (अस्मि) हूँ ॥ यहाँ ‘मैं अमर हूँ’ इस व्यङ्ग्यार्थ को ही ‘मेरे मुख में अमृत है’ इस रूप में अभिहित करने से पर्यायोक्त अलङ्कार है ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में । शरीरधारी जीवात्मा कह रहा है—मैं (अग्निः अस्मि) आग हूँ, आग के समान प्रकाशक तथा दुर्गुणों और दुर्जनों को भस्म करनेवाला हूँ, (जन्मना) आचार्य के गर्भ से द्वितीय जन्म पाने के आरम्भ से ही (जातवेदाः) वेदविद्या का विद्वान् हूँ। (मे चक्षुः) मेरी आँख में (घृतम्) स्नेह है, अर्थात् मैं सबको स्नेहयुक्त आँख से देखता हूँ। (मे आसन्) मेरे मुख में (अमृतम्) अमृत अर्थात् वाणी का माधुर्य है। मैं (त्रिधातुः) सत्त्व-रजस्-तमस्, जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति, तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान, ऋग्-यजुः-साम आदि त्रिगणों से युक्त हूँ। मैं (अर्कः) परमेश्वर की अर्चना करनेवाला, सदाचारी तथा विद्यावृद्धों एवं वयोवृद्धों का सत्कार करनेवाला और सूर्य के समान तेजस्वी हूँ। मैं (रजसः) ग्रह-उपग्रह, सूर्य आदि लोकों को (विमानः) खगोल-गणित द्वारा मापने आदि में समर्थ, (अजस्रं ज्योतिः) अक्षय ज्योतिवाला और (सर्वं हविः) श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए सर्वस्व बलिदान कर देनेवाला (अस्मि) हूँ ॥१२॥ इस मन्त्र में ‘अग्निः अस्मि, अर्कः अस्मि’, ‘मैं आग हूँ, मैं सूर्य हूँ’ इस अर्थ में रूपकालङ्कार है। ‘अजस्रं ज्योतिः’ की ‘अजस्र ज्योतिवाले’ में और ‘सर्वं हविः’ की ‘सर्वस्व हवि देनेवाले’ में लक्षणा है। निरुक्तप्रोक्त त्रिविध ऋचाओं परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत तथा आध्यात्मिक में से यह ऋचा आध्यात्मिक है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के समान मनुष्य का आत्मा भी बहुत-से विशिष्ट गुणोंवाला तथा महाशक्ति-सम्पन्न है। अतः उसे चाहिए कि महत्त्वाकांक्षी होकर महान् कर्मों में कदम रखे ॥१२॥

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    पदार्थ

    (अग्निः) मैं विश्व का अग्रणेता शासक परमात्मा (जन्मना जातवेदाः-अस्मि) जन्म से क्या कहूँ किन्तु जन्मे हुओं को जानने वाला हूँ अर्थात् मेरा जन्म नहीं मैं तो जन्मे हुओं का ज्ञाता हूँ—जन्मरहित शाश्वत सर्वज्ञ हूँ (मे चक्षुः-घृतम) मेरा नेत्र गोलकरूप नहीं अपितु तेज है “तेजो वै घृतम” [मै॰ १.६.८] जिसमें मैं नेत्र वालों को नेत्र देता हूँ (मे-आसन्-अमृतम्) मेरे मुख में अमृत है—अमृत ही मुख है (त्रिधातुः-अर्कः) तीनों लोकों पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोकों का धारणकर्ता “स प्रजापतिः-इमान् त्रीन् लोकाँस्त्रेधाऽदुहत् तत् त्रिधातोस्त्रिधातुत्वम्” [तै॰ सं॰ २.३.६.१] अर्चनीय देव हूँ। (रजसः-विमानः) लोकमात्र का पृथक् पृथक् गति देने वाला—सञ्चालक हूँ। (अजस्रं ज्योतिः) अनश्वर ज्योति—सब ज्योतियों का ज्योति—अमर ज्योति (सर्वं हविः-अस्मि) ओ३म् नामक हवि—ग्रहण करने योग्य—अपने अन्दर धारण करने योग्य हूँ “ओमिति ब्रह्म, ओमितीदं सर्वम्” [तै॰ आ॰ ७.८.१]।

    भावार्थ

    मैं विश्व का अग्रणेता शासक परमात्मा जन्म से कौन हूँ क्या कहूँ! किन्तु जन्मे हुओं को जानने वाला हूँ जन्मरहित शाश्वतिक हूँ। मेरी आँख तेज है, जिस तेज को आँखों वालों की आँख में देता हूँ। मेरा मुख अमृत है या मेरे मुख में अमृतवचन है। तीनों पृथिवी अन्तरिक्ष द्युलोकों का धारणकर्ता अर्चनीय देव हूँ। लोकमात्र को पृथक् पृथक् गति देने वाला हूँ। अनश्वर ज्योति—ज्योतियों का ज्योति ओ३म् नाम अपने अन्दर धारण करने योग्य उपास्य हूँ॥१२॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र उदार उपासक)॥ देवता—सर्वात्मा-अग्निः (सबका आत्मस्वरूप अग्रणायक परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    उपदेष्ठा का जीवन

    पदार्थ

    वीर्य के संयम-उसकी ऊर्ध्वगति द्वारा अपने जीवन को 'आङ्गिरस' बनाकर मनुष्य ‘विश्वामित्र'=सभी के साथ स्नेह करनेवाला और सच्चे अर्थों में 'गाथिन:' = प्रभु का स्तोता बनता है। यह अपने जीवन का निर्माण निम्न प्रकार आत्मप्रेरणा देता हुआ करता है- १. (अग्निः अस्मि जन्मना) = मुझे प्रभु ने स्वभावतः अग्नि आगे बढ़नेवाला बनाया है। मैं अपने स्वभाव को क्यों नष्ट करूँ? 'आगे बढ़ो' यही मेरे जीवन का लक्ष्य हो । २. क्या शरीर, क्या मन और क्या बुद्धि सभी दृष्टिकोणों से आगे बढ़ता हुआ मैं ('जातवेदा') = अधिक-से-अधिक ज्ञानी-सर्वज्ञ-कल्प बनने का प्रयत्न करूँ। ३. (घृतं मे चक्षुः) = मेरी आँखों में दीप्ति हो–सर्वप्रथम स्वास्थ्य के कारण, उससे बढ़कर मनः प्रसाद के द्वारा और वास्तव में तो ज्ञान मेरी आँखों को दीप्त करनेवाला हो। ४. अमृतं मे आसन्- मेरे मुख में अमृत हो। मैं उस ज्ञान का प्रचार अमृतमयी वाणी से करनेवाला बनूँ। ५. मैं (त्रिधातुः) = सात्त्विक, राजस व तामस तीनों प्रजाओं का धारण करनेवाला बनूँ। अथवा शरीर, मन व बुद्धि तीनों को स्वाधीन करनेवाला मैं ६. (अर्कः) = सूर्य की भाँति तेजस्वी बनूँ। ७. (रजसो विमान:) = मैं अपने जीवन में रजोगुण का विशेष मानपूर्वक धारण करनेवाला होऊँ । रजोगुण के नितान्त अभाव में मेरी क्रियाशीलता का ही अन्त हो जाएगा। रजोगुण के प्राबल्य में मेरा ज्ञान आवृत्त होने की आशंका है, अतः उसके विशेष मानपूर्वक निर्माण से ८. (अजस्त्रा ज्योतिः) = मैं अपने जीवन को सतत ज्योतिर्मय बनाऊँ और ९. (हविः अस्मि सर्वम्) = पूर्णरूप से अपने को हवि बना डालूँ। प्राजापत्य यज्ञ में अपनी आहुति दे दूँ। सतत लोकहित में लगा रहूँ।

    भावार्थ

    मैं अपने जीवन को उन्नत करके प्राजापत्य यज्ञ में प्रवृत्त हो जाऊँ।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = मैं ( अग्निः ) = ज्ञानवान् परमेश्वर ( जन्मना ) = श्रवण, मनन, निदिध्यासन की अपेक्षा विना किये ही, स्वभावतः ( जातवेदाः ) = समस्त पदार्थों का जानने वाला ( अस्मि ) = हूं । ( मे ) = मेरा ( चक्षुः ) = सबको देखने और दिखाने वाला साधन ( घृतं ) = अतिदीप्तिमान् है । ( मे आसन् ) = मेरे मुख्य स्थान या मुख अर्थात् स्वरूप में ( अमृतम् ) = कभी नाश न होने वाला अमृत मोक्ष है । और मैं ( त्रिधातुः ) = समस्त पदार्थों को तीन बलों से धारण करने वाला ( अर्क:) = तेजःस्वरूप सूर्य, ( रजसः ) = समस्त लोकों को ( विमानः ) = निर्माण करता हुआ ( अजस्रं ) = कभी नाश न होने वाला, अविनाशी, सदा वर्तमान, ( ज्योतिः ) = प्रकाशस्वरूप और ( सर्वं ) = सर्वव्यापक ( हविः ) = हवि=भोग्य पदार्थों का दाता भी मैं ही ( अस्मि ) = हूं । 
     

    टिप्पणी

    ६१३ – 'विमानो धर्मो' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्र:।

    देवता - सर्व आत्मा।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ द्वयोरग्निर्देवता। अत्र परमात्मा जीवात्मा च स्वपरिचयं ददाति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपक्षे। अहं परमेश्वरः (अग्निः अस्मि) सर्वेषामग्रणीत्वाद् अग्निवत् प्रकाशकत्वाच्च अग्निनामा वर्ते, (जन्मना) स्वरूपेणैव (जातवेदाः) सर्वज्ञः, सर्वव्यापकः, वेदानां प्रकाशकः, सर्ववित्तोत्पादकश्च अस्मि। (मे) मम (चक्षुः) चक्षुरुपलक्षितं दर्शनसामर्थ्यम् (घृतम्) अतीव प्रदीप्तं तीव्रं वा वर्तते। (घृ) क्षरणदीप्त्योः, अत्र दीप्त्यर्थः। (मे) मम (आसन्) आसनि मुखे। अत्र ‘सुपां सुलुक्। अ० ७।१।३९’ इति विभक्तेर्लुक्। (अमृतम्) अमृतरसः सदा विद्यमानो भवति, नित्यमहम् अमृतत्वमास्वादयामि, अमरोऽस्मीत्यर्थः। अहम् (त्रिधातुः) त्रयः धातवः क्रियाः सृष्टिस्थितिसंहृतयः यस्मात् तादृशः, (अर्कः) अर्चनीयः। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति। निरु० ५।५। (रजसः) सूर्यचन्द्रतारापृथिव्यादिलोकसमूहस्य। लोका रजांस्युच्यन्ते। निरु० ४।१९। (विमानः२) निर्माता अधिष्ठाता वा, (अजस्रं ज्योतिः) अक्षयं तेजः, अक्षयतेजोमयः इत्यर्थः, (हविः) सर्वेषाम् आह्वानयोग्यः। आहूयते इति हविः। ‘अर्चिशुचिहुसृ०। उ० २।११०’ इति हु धातोः इसि प्रत्ययः प्रोक्तः, स ह्वेञ् धातोरपि ज्ञेयः। ‘बहुलं छन्दसि। अ० ६।१।३४’ इति ह्वः सम्प्रसारणम्। (सर्वम्) सर्वशक्तिमांश्च (अस्मि) वर्ते ॥ अत्र ‘अमरोऽस्मि’ इति व्यङ्ग्यार्थस्यैव ‘अमृतं म आसन्’ इति भङ्ग्यन्तरेणाभिधानात् पर्यायोक्तालङ्कारः३ ॥ अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। देहधारी जीवात्मा ब्रवीति—अहम् (अग्निः अस्मि) वह्निः अस्मि, वह्निरिव प्रकाशको दुर्गुणानां दुर्जनानां च दाहकः अस्मि, (जन्मना) आचार्यगर्भाद् द्वितीयजन्मप्राप्तेरारभ्यैव (जातवेदाः) प्राप्तवेदविज्ञानः अस्मि। (मे चक्षुः) मम चक्षुषि (घृतम्) स्नेहः अस्ति, सर्वानहं स्निग्धेन चक्षुषा पश्यामीत्यर्थः। (मे आसन्) मम मुखे (अमृतम्) पीयूषं, वाङ्माधुर्यं विद्यते। चक्षुः, आसन् इत्युभयत्र ‘सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९’ इति सप्तम्या लुक्। अहम् (त्रिधातुः) सत्त्वरजस्तमो-जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानऋग्यजुः- सामादिरूपत्रिधातुमयः, (अर्कः) परमेश्वरस्य (अर्चकः), सदाचारिणां विद्यावयोवृद्धानां च सत्कर्ता, सूर्यसमतेजस्कः, (रजसः) ग्रहोपग्रहसूर्यादिलोकानाम् (विमानः) परिमाणादिकरणे समर्थः, (अजस्रं ज्योतिः) अक्षयज्योतिर्मयः, (सर्वं हविः) सदुद्देश्याय सर्वस्वबलिदानकर्ता च (अस्मि) वर्ते ॥१२॥४ अत्र ‘अग्निः (वह्निः) अस्मि, अर्कः (सूर्यः) अस्मि’ इति रूपकालङ्कारः। ‘अजस्रं ज्योतिः’ इत्यस्य अजस्रज्योतिर्मये लक्षणा। एवं ‘सर्वं हविः’ इत्यस्य सर्वस्वहविर्दातरि लक्षणा। निरुक्तप्रोक्तासु त्रिविधासु ऋक्षु आध्यात्मिकीयम् ऋक् ॥१२॥

    भावार्थः

    परमेश्वर इव मनुष्यस्यात्मापि बहुविशिष्टगुणो महाशक्तिसम्पन्नश्च वर्तते। तेन महत्त्वाकाङ्क्षिणा भूत्वा महत्सु कर्मसु पदं निधेयम् ॥१२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।२६।७, य० १८।६६, उभयत्र ‘अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम’ इति पाठः। यजुषि देवश्रवोदेववातौ ऋषी। २. ‘रजसो विमानः, रज उदकं तस्य निर्माता। विमिमीते इति विमानः। नन्द्यादित्वात् कर्तरि ल्युट्’ इति य० १८।६६ भाष्ये महीधरः। विमानः विमाता अधिष्ठातास्मि—इति सा०। ३. पर्यायोक्तं यदा भङ्ग्या गम्यमेवाभिधीयते (सा० द० १०।६०) इति तल्लक्षणात्। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये ‘विद्युद्वद् मनुष्यैर्वर्तितव्यम्’ इति विषये, यजुर्भाष्ये च ‘यज्ञेन किं जायते’ इति विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I am Omniscient, Knowledge is My eye. Immortality is My breath, I sustain all objects in three ways. I am full of Lustre. I make all planets revolve in the universe. I am an Imperishable Light. I, Omnipresent, am the bestower of all enjoyable objects.

    Translator Comment

    $ I refers to God. Just as breath always moves in the mouth and nostril, so God is ever immortal. There ways are सत् चित्त, and आनन्द. All material inanimate objects have got existence alone, souls possess existence and consciousness, but God has got existence, consciousness, supreme joy. All the objects of the world possess one or two of these three qualities. God alone possesses the three.

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    Meaning

    I am Agni, by birth present in all that is born in existence. My eye is the light of yajna fed on ghrta, and my mouth is nectar as I speak the Word. I am the refulgence of the sun. I hold the earth and skies and the heavens and three principles of nature, Sattva, Rajas and Tamas of Prakrti. I pervade and transcend the spaces. I am eternal, I am the heat and vitality of life, and I am truly the fragrant havi of the cosmic yajna (since I am in nature and nature is in me). (Rg. 3-26-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्निः) હું વિશ્વનો અગ્રણી શાસક પરમાત્મા (जन्मनाजातवेदाः अस्मि) જન્મથી જ શું કહું, પરંતુ જન્મેલાને જાણનારો છું. અર્થાત્ મારો જન્મ થતો નથી, પરન્તુ હું તો જન્મેલાનો જ્ઞાતા છું-જન્મરહિત શાશ્વત સર્વજ્ઞ છું. (मे चक्षुः घृतम) મારા નેત્ર ગોલકરૂપ નહિ પરન્તુ તેજ છે જેમાં હું નેત્રવાળાને નેત્ર આપું છું. (मे आसन् अमृतम्) મારા મુખમાં અમૃત છે-અમૃત જ મુખ છે (त्रिधातुः अर्कः) ત્રણેય લોકપૃથિવી, અન્તરિક્ષ અને દ્યુલોકોનો ધારણકર્તા અર્ચનીય દેવ છું (रजसः विमानः) લોકમાત્રને જુદી-જુદી ગતિ આપનાર-સંચાલક છું (अजस्रं ज्योतिः) અનશ્વર જ્યોતિ-સર્વ જ્યોતિની જ્યોતિ-અમર જ્યોતિ (सर्वं हविः अस्मि) ઓમ્ નામક હવિ-ગ્રહણ કરવા યોગ્ય-પોતાની અંદર ધારણ કરવા યોગ્ય છું.
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હું વિશ્વનો અગ્રણી, શાસક પરમાત્મા જન્મથી કોણ છું, શું કહું. પરન્તુ જન્મેલાઓનો જાણનાર જ્ઞાતા છું, હું જન્મરહિત શાશ્વત છું. મારી આંખ તેજ છે, જે તેજને આંખોવાળાની આંખમાં આપું છું. મારું મુખ અમૃત છે, અથવા મારા મુખમાં અમૃત છે. ત્રણેય પૃથિવી, અન્તરિક્ષ અને દ્યુલોકનો ધારણકર્તા અર્ચનીય દેવ છું. લોકમાત્રને જુદી-જુદી ગતિ આપનાર છું. નાશરહિત જ્યોતિ-જ્યોતિઓની જ્યોતિ ओ३म् નામ મારી અંદર ધારણ કરવા યોગ્ય ઉપાસ્ય છું. (૧૨)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان خود فرماتے ہیں!

    Lafzi Maana

    میں سب سے پہلے تھا اور ہوں، سب کا اگوا، سچائی کے راستے پر لے جانے والا، گیان کا مخزن اور سبھی اشیاء میں موجود ہوں، چمکتا ہوا سُورج میری آنکھ ہے، وید گیان امرت میرے منہ میں ہے، یعنی میں اُس کا واعظ ہوں، تینوں لوکوں کا دھارن پالن کرتا ہوں، سُورج کی طرح تیجسوی ہوں اور پُوجا کے یوگیہ (قابلِ عبادت) ارض و سما وغیرہ سبھی لوکوں کا معمار ہوں۔ میری جیوتی (نُور) اکھنڈ (اٹوٹ) ہے، سب یگیوں کی آہوتی میں ہوں۔

    Tashree

    راہ نما ہُوں پہلا جگ کا اور نرماتا ازل ابد سے، سُورج میری انکھ سمجھ لو پُوجا یوگیہ ہوں سدا سدا سے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराप्रमाणे माणसाचा आत्माही विशिष्ट गुणयुक्त व महाशक्ती संपन्न आहे. त्यासाठी त्याने महत्त्वाकांक्षी बनून महान कर्म करावे ॥१२॥

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    विषय

    पुढील दोन मंत्राची देवता-अग्नी। परमात्मा व जीवात्मा आपले परिचय देत आहेत-

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) मी परमेश्वर (अग्निः अस्मि) सर्वांचा अग्रनायक आणि अग्नीप्रमाणे प्रकाशक असल्यामुळे अग्नी नामधारी आहे. (जन्मना) मी स्वरूपाने (जातवेदाः) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, वेदप्रकाशक आणि सर्व संसदेचा स्वामी आहे. (मे) माझे (चक्षुः) नेत्र म्हणजे माझी दृष्टिशक्ती (घृतम्) अत्यंत तीव्र आहे. (मे) माझ्या (आसन्) मुखात (अमृतम्) अमृत आहे, मी नेहमी अमृतत्वाा आस्वाद घेत असतो म्हणजे मी अमर आहे. मी (त्रिधातुः) या जगाच्या, सृष्टी, स्थिती व संहार या तिन्ही क्रियांचा कर्ता आहे. मी (अर्कः) अर्चनीय आहे. मी (रजसः) सूर्य, चंद्र, तारामंडळ, पृथ्वी आदी लोकांचा (विमांनः) निर्माता वा अधिष्ठाता असून (अजस्रं ज्योतिः) अक्षम तेजवान (हविः) सर्वज ज्याने आवाहन करतात अशा मी (सर्वम्) सर्व काही वा सर्वशिक्तिमंत (अरिम) आहे या मंत्रात ‘मी अमर आहे’ असा व्यग्यार्थ सांगून ‘माझ्या मुखात अमृत आहे’ असा अर्थ अभिहित केल्यामुळे पर्यायोक्ती अलंकार आहे. द्वितीय अर्थ - (जीवात्मापर) एक शरीर धारी जीवात्मा सांगत आहे. -मी (अग्निः) (अस्मि) अगन्ी आहे- अग्नीप्रमाणे प्रकाशक असून दुर्गुणांना भस्म करणारा आहे. (जन्मना) आचार्य कुळातून (गुरूकुलरूप गर्भातून) मी दुसरा जन्म घेतल्यामुळे मी आधीपासूनच (जातवेदाः) वेद विद्यावान आहे. (मेचक्षुः) माझ्या डोळ्यात (घृतम्) स्नेह आहे म्हणजे मी सर्वांचं स्नेहपूरित दृष्टीनं पाहतो. (मे आसन्) माझ्या मुखात (अमृतम्) अमृत आहे म्हणजे वाणीचे माधुर्य आहे. मी (त्रिधातुः) सत्त्व-रज-तम, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ती, तप-स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान, ऋक्-यजु-साम आदी त्रिगुणांनी समृद्ध आहे. मी (अर्कः) परमेश्वराची आराधना करणारा, सदाचारी, वृद्धजनांचा व विद्यावृद्धांचा सन्मान करणारा आणि सूर्यासम तेजस्वी आहे. मी (रजसः) ग्रह-उपग्रह, सूर्य आदी लोकांना (विमानः) खगोल-गणिताच्या साह्याने समर्थ असून (अजस्रं ज्योतिः) अक्षय ज्योतिवान (अविजेय मनोबलाची व्यस्ती) तसेच श्रेष्ठ उद्दिष्टांसाठी सर्वस्व अर्चित करणारा मनुष्य (अस्मि) आहे.।।१२।।

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर अनेकानेक विशिष्ट गुणांनी संपन्न आहे. तद्वत मनुष्यदेखील अनेक गुणांनी व शक्तींना संपन्न आहे. त्यामुळे माणसाने नेहमी महत्त्वाकांक्षी असावे आणित याप्रमाणे कार्यप्रवृत्त रहावे ।।१२।।

    विशेष

    जसा परमेश्वर अनेकानेक विशिष्ट गुणांनी संपन्न आहे. तद्वत मनुष्यदेखील अनेक गुणांनी व शक्तींना संपन्न आहे. त्यामुळे माणसाने नेहमी महत्त्वाकांक्षी असावे आणित याप्रमाणे कार्यप्रवृत्त रहावे ।।१२।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அக்னியான நான் சன்மத்தால் சாதவேதசனாகிறேன், எல்லாப் பிராணிகளையும் அறிகிறேன். என் கண் நெய்யாகும் (ஓளியுள்ளதாகும்). என் வாயிலே அமிருதமாகும். மூன்று தாதுக்களும் நானே ; ஆகாசத்தினுடைய விமானன் (எதையும்) நிர்மாணிப்பவன் நான், சோதியின் நிலைக்காரணம் நானே. அமிருதமாய் சோதியாய் எல்லாமளிப்பவனாயிருக்கிறேன். அமுதவாணியுடன் பேசுவேன்.

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