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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 633
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
5
अ꣢प꣣ त्ये꣢ ता꣣य꣡वो꣢ यथा꣣ न꣡क्ष꣢त्रा यन्त्य꣣क्तु꣡भिः꣢ । सू꣡रा꣢य वि꣣श्व꣡च꣢क्षसे ॥६३३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡प꣢꣯ । त्ये । ता꣣य꣡वः꣢ । य꣣था । न꣡क्ष꣢꣯त्रा । य꣣न्ति । अक्तु꣡भिः꣢ । सू꣡रा꣢꣯य । वि꣣श्व꣡च꣢क्षसे । वि꣣श्व꣢ । च꣣क्षसे ॥६३३॥
स्वर रहित मन्त्र
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः । सूराय विश्वचक्षसे ॥६३३॥
स्वर रहित पद पाठ
अप । त्ये । तायवः । यथा । नक्षत्रा । यन्ति । अक्तुभिः । सूराय । विश्वचक्षसे । विश्व । चक्षसे ॥६३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 633
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः सूर्य और परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (विश्वचक्षसे) सर्वप्रकाशक (सूराय) सूर्य के लिए, अर्थात् मानो भय के मारे उसे स्थान देने के लिए (अक्तुभिः) रात्रियों सहित (नक्षत्रा) तारावलियाँ (अप यन्ति) अदृश्य हो जाती हैं, (यथा) जैसे (त्ये) वे, दूसरों के घर में सेंध लगानेवाले (तायवः) चोर, सूर्य के आने पर कहीं छिप जाते हैं ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। जब हृदयाकाश में परमात्मारूप सूर्य उदयोन्मुख होता है, तब (विश्वचक्षसे) सर्वप्रकाशक (सूराय) उस प्रेरक परमात्मा के लिए, अर्थात् मानो भय के मारे उसे स्थान देने के लिए (त्ये तायवः यथा) वे उन परपीडक प्रसिद्ध चोरों की भाँति (नक्षत्रा) सक्रिय काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि (अक्तुभिः) तमोगुण की व्याप्ति रूप रात्रियों सहित (अप यन्ति) हट जाते हैं ॥७॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं ॥७॥
भावार्थ
जैसे आकाश में सूर्य को उदयोन्मुख देखकर मानो उसकी तीव्र प्रभा से भयभीत हुए तारागण चोरों के समान छिप जाते हैं, वैसे ही तेज के निधि परमेश्वर को हृदयाकाश में उदित होता हुआ देख, उसके दुर्धर्ष प्रताप से त्रस्त हुए काम-क्रोध आदि भाग खड़े होते हैं ॥७॥
पदार्थ
(यथा) जैसे (सूराय) सूर्य के आगमन को लक्ष्य कर—सूर्य के उदय हो जाने पर “सजूः सूराः......सूर्यमेव प्रीणाति” [मै॰ ३.४.४] (अक्तुभिः-नक्षत्रा) रात्रियों के सहित बुध, शुक्र आदि ग्रह तारे (अपयन्ति) दूर हो जाते हैं, हट जाते हैं, ऐसे ही (विश्वचक्षसे) विश्वद्रष्टा परमात्मा को लक्ष्य कर उपासक (त्ये तायवः) वे चोर भाव अन्दर कुछ बाहर कुछ तथा छिपे काम आदि दोष “तायुः स्तेननाम” [निघं॰ ३.२४] दूर हो हट जाते हैं “अत्र वाक्योपमालङ्कारः”।
भावार्थ
जैसे सूर्य के आगमन पर रातें और तारे चले जाते हैं ऐसे ही सर्वद्रष्टा सर्वदर्शक परमात्मा के आने पर मन में कुछ बाहर कुछ भाव तथा काम आदि गुप्तदोष चले जाते हैं॥७॥
टिप्पणी
[*54. खण्ड के अन्त तक।]
विशेष
ऋषिः—प्रस्कण्वः काण्वः*54 (मेधावी से सम्बद्ध अति मेधावी)॥<br>
विषय
काम-क्रोधादि का विलय
पदार्थ
प्रतिदिन प्रभु स्मरण द्वारा जो व्यक्ति अपने जीवन को प्रकाशमय बनाता है वही वस्तुतः ‘प्रस्कण्व'=मेधावी है । यह शनैः शनैः:- कण-कण करके अपनी ज्ञान-ज्योति को बढ़ानेवाला ‘काण्व' एक दिन सूर्य की भाँति ज्ञान ज्योति से चमकने लगता है।
इस (सूराय) = सूर्य की भाँति चमकनेवाले के लिए [अहमिद्धि पितुस्परि मेधामृतस्य जग्रह। अहं सूर्यइवाजनि]=मैं परमपिता के ध्यान से, प्रभु से सत्य ज्ञान को प्राप्त करनेवाला बना हूँ और सूर्य की भाँति हो गया हूँ तथा (विश्वचक्षसे) = केवल अपने को न देखकर सारे संसार को देखनेवाले के लिए (त्ये) = वे (तायवः) = [ तायु = चोर - नि० ३.२४] चोर चोर जैसे सम्पत्ति का अपहरण करनेवाले होते हैं, इसी प्रकार अध्यात्म सम्पत्ति का उपक्षय [दसु = उपक्षये] करनेवाली आसुर वृत्तियाँ इस प्रकार (अपयन्ति) = दूर व नष्ट हो जाते हैं [अप= away] (यथा) = जैसे (अक्तुभिः) = रात के समय चमकनेवाले (नक्षत्रा) = नक्षत्र । रात्रि के समय आकाश में नक्षत्र खूब चमकते हैं, इसी प्रकार मानव-मस्तिष्क में अज्ञानान्धकार होने पर आसुर वृत्तिरूपी नक्षत्र चमका करते हैं, परन्तु ज्यों ही वहाँ ज्ञानसूर्य का उदय होता है तो [आकाश में सूर्योदय होने पर नक्षत्रों के समान] ये आसुर वृत्तियाँ भी विलीन हो जाती हैं। मनुष्य का दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है-वह देव बन जाता है। अपना ही ध्यान न करके वह विश्व का ध्यान करनेवाला ‘विश्वचक्षस्’ बन जाता है। काम ‘प्रेम' बन जाता है और क्रोध का स्थान 'करुणा' ले-लेती है। यही ‘प्रस्कण्व' - मेधावी बनना है।
भावार्थ
मेरे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान का उदय हो- जिससे काम- क्रोध आदि तारों की चमक शान्त हो जाएँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( यथा ) = जिस प्रकार ( अक्तुभिः ) = रात्रियों के साथ २ ( नक्षत्रा ) = नक्षत्र ( विश्वचक्षसे ) = सब के दर्शक, प्रकाशक, ( सूराय ) = सूर्य के कारण ( अप यन्ति ) = लोप को प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार हे परमात्मन् ! ( विश्वचक्षसे सूराय ) = समस्त प्राणियों के प्रकाशक, सब के प्रेरक आपके उदय होने के कारण ( त्ये ) = वे ( तायवः ) = हृदय के चोर काम, क्रोध ,लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि भीतरी पाप ( अप यन्ति ) = दूर भाग जाते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः।
देवता - सूर्यः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि सूर्यस्य परमात्मनश्च महिमा वर्ण्यते।
पदार्थः
प्रथमः—सूर्यपक्षे। (विश्वचक्षसे) सर्वप्रकाशकाय (सूराय) सूर्याय, भिया तस्मै अवकाशं प्रदातुमिवेत्यर्थः, (अक्तुभिः) रात्रिभिः सह। अक्तुरिति रात्रिनाम। निघं० १।७। (नक्षत्रा) तारावल्यः। नक्षत्राणि इति प्राप्ते, ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ इति शिलोपः। (अप यन्ति) अप गच्छन्ति, निलीयन्ते। कथमिव ? (त्ये) ते, रात्रौ परगृहे सन्धिच्छेदादिकं कुर्वाणाः (तायवः यथा) तस्कराः यथा सूर्यागमे निलीयन्ते तद्वदित्यर्थः। तायुरिति स्तेननाम। निघं० ३।२४ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपक्षे। यदा हृदयगगने परमात्मसूर्य उदयोन्मुखो भवति तदा (विश्वचक्षसे) सर्वद्रष्ट्रे सर्वप्रकाशकाय वा (सूराय) तस्मै प्रेरकाय परमात्मने। षू प्रेरणे धातोः ‘सुसूधाञ्। उ० २।२४’ इति क्रन् प्रत्ययः। भिया तस्मै अवकाशं प्रदातुमिव (त्ये तायवः यथा) ते परविद्रावकाः तस्कराः इव (नक्षत्रा) सक्रियाः कामक्रोधलोभमोहादयः। नक्षतेर्गतिकर्मणः ‘अभिनक्षियजि०। उ० ३।१०५’ इति अत्रन् प्रत्ययः। (अक्तुभिः) तमोगुणव्याप्तिरूपाभिर्निशाभिः सह (अपयन्ति) अपगच्छन्ति ॥७॥२ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥७॥
भावार्थः
यथा गगने सूर्यमुदयोन्मुखं वीक्ष्य तीव्रप्रभाभीता इव तारागणाश्चौरा इव निलीयन्ते तथैव तेजोनिधिं परमेश्वरं हृदयाकाशे समुद्यन्तं विलोक्य दुर्धर्षात् तत्प्रतापात् त्रस्ताः कामक्रोधादयः पलायन्ते ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।५०।२, अथ० १३।२।१७ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः। अथ० २०।४७।१४। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये (ऋ० १।५०।२) “यथा रात्रौ नक्षत्राणि चन्द्रेण प्राणाश्च शरीरेण सह वर्तन्ते तथा विवाहितस्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम्” इति विषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as stars along with nights disappear on seeing the All-illuminating Sun, so in the light of the knowledge of God, the Seer of all, disappear the thieves of the heart, like lust, indignation, avarice, madness and pride.
Meaning
And, as thieves of the night steal away at dawn, so do all those stars steal away along with the darkness of the night so that the world may see only the sun, lord supreme of the heavens. (Rg. 1-50-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यथा) જેમ (सूराय) સૂર્યના આગમનને લક્ષ્ય કરીને-સૂર્ય ઉદય થયા પછી (अक्तुभिः नक्षत्रा) રાત્રિઓ સહિત બુધ, શુક્ર આદિ ગ્રહ, તારા (अपयन्ति) દૂર થઈ જાય છે; હટી જાય છે, તેમજ (विश्वचक्षसे)વિશ્વ દૃષ્ટા પરમાત્માને લક્ષ્ય કરીને ઉપાસક (त्ये तायवः) તે ચોરભાવ જે અંદરથી અને બહારથી જુદા ભાવ તથા કામ આદિ દોષો દૂર ભાગી જાય છે. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જેમ સૂર્યના આગમનથી રાતની સાથે તારાઓ ચાલ્યા જાય છે, તેમજ સર્વ દેષ્ટા, સર્વ— દર્શક પરમાત્માના આગમનથી મનમાં અને બહારમાં જુદા ભાવ તથા કામ આદિ ગુપ્ત દોષ ચાલ્યા જાય છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کے دھیان سے سب پاپ دُور
Lafzi Maana
جیسے سُورج نکلنے پر چور، رات اور تارے چھپ جاتے ہیں۔ ایسے ہی سب کو دیکھنے ہارے پرمیشور کے من میں آ جانے سے سب چور کرم، غلط کام، بُرائیاں وغیرہ دُور ہو جاتی ہیں۔
Tashree
رات اندھیرا چور تارے چھُپ جاتے سورج آنے پر، اِسی طرح سب پاپ بُرائی بھاگ جاتے اِیشور آنے پر۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे आकाशात सूर्याला उदयोन्मुख पाहून जणू त्याच्या तीव्र प्रभेने भयभीत झालेले तारांगण चोरांप्रमाणे लपतात, तसेच तेजाचा निधी परमेश्वर हृदयाकाशात उदित होताना पाहून त्याच्या प्रबल प्रतापाने त्रस्त झालेले काम-क्रोध इत्यादी पळून जातात ॥७॥
विषय
पुन्हा सूर्याचे व परमात्म्याचे वर्णन
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (सूर्यपर) विश्वचक्षसे) सर्व प्रकाशक (सूराय) सूर्यासाठी, जणू काय त्याच्या भीतीने त्याला स्थान देण्यासाठी (अक्तुभिः) रात्रींसह (नक्षत्रा) तारामंडळ (अपयन्ति) अदृश्य होतात (यथा) जसे इतरांच्या घरी भोक पाडून (तायवः) शिरणारे (त्ये) ते चोर सूर्याच्या आगमनाने कुठेतरी लपून बसतात.।। द्वितीय अर्थ - (परमात्म पर) जेव्हां हृदयाकाशात परमात्मरूप सूर्य उदित होतो, तेव्हा त्या (विश्वचक्षसे) सर्वप्ररक (सूराय) सर्वप्रकाशक परमेश्वरासाठी जणू काय त्याच्या भीतीने त्याला जागा देण्यासाठी (त्ये तायवः) परपीडस चोराप्रमाणे (त्ये) ते (नक्षत्रा) क्रियाशील काम, क्रोध, लोभ, मोह आदी (अक्तुभिः) तमोगुण रात्रीप्रमाणे (अपयन्ति) दूर होतात.।।७।।
भावार्थ
जसे आकाशात सूर्याला आलेले पाहून व त्याच्या तीव्र प्रथेने भयभीत होऊन तारका चोराप्रमाणे कुठेतरी लुप्त होतात, तसेच तेजो निदी परमेश्वराला हृदयाकाशात उदित झालेले पाहून त्याच्या असह्य प्रतापाने त्रस्त होऊन काम-क्रोध आदी दुर्गुण पसार होतात.।।७।।
विशेष
या मंत्रात उपमा व श्लेष अलंकार आहे.।।७।।
तमिल (1)
Word Meaning
எல்லாம் காணும் சூரியன் முன் திருடர்களைப் போல் எல்லா கதிர்களோடும் நட்சத்திரங்கள் சென்று விடுகிறார்கள்.
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