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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 634
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    4

    अ꣡दृ꣢श्रन्नस्य के꣣त꣢वो꣣ वि꣢ र꣣श्म꣢यो꣣ ज꣢ना꣣ꣳ अ꣡नु꣢ । भ्रा꣡ज꣢न्तो अ꣣ग्न꣡यो꣢ यथा ॥६३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡दृ꣢꣯श्रन् । अ꣣स्य । केत꣡वः꣢ । वि । र꣣श्म꣡यः꣢ । ज꣡ना꣢꣯न् । अ꣡नु꣢꣯ । भ्रा꣡ज꣢꣯न्तः । अ꣣ग्न꣡यः꣢ । य꣣था ॥६३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाꣳ अनु । भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥६३४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदृश्रन् । अस्य । केतवः । वि । रश्मयः । जनान् । अनु । भ्राजन्तः । अग्नयः । यथा ॥६३४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 634
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः सूर्य और परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अस्य) इस सूर्य के अथवा सूर्य के समान भासमान परमात्मा के (केतवः) प्रज्ञापक (रश्मयः) किरणों वा प्रकाश (जनान् अनु) उत्पन्न पदार्थों को वा उपासक मनुष्यों को प्राप्त होकर (भ्राजमानाः) चमकती हुई (अग्नयः यथा) अग्नियों के समान (वि अदृश्रन्) दिखायी देते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं उत्प्रेक्षा नहीं, क्योंकि काव्यसम्प्रदाय में यथा शब्द उत्प्रेक्षावाचक नहीं माना गया है ॥८॥

    भावार्थ

    सूर्य की किरणें जब स्वच्छ सोने, चाँदी, तांबे, पीतल, काँच आदि पर पड़ती हैं, तब उन पर चमकती हुई वे जलती हुई अग्नि के तुल्य प्रतीत होती हैं। उसी प्रकार मनोभूमि पर पड़ते हुए परमेश्वर के तेज को भी योगी लोग प्रज्वलित अग्नि के तुल्य अनुभव करते हैं ॥८॥

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    पदार्थ

    (अस्य केतवः) इस सूर्यरूप परमात्मा के केतु सुझाने वाले सङ्केतित करने वाले (रश्मयः) सर्वत्र व्याप्त गुण (जनान्-अनु) उपासक एवं मननशीलजनों के प्रति (अदृश्रन्) दिखाई पड़ते हैं (यथा भ्राजन्तः-अग्नयः) जैसे जाज्वल्यमान अग्नियाँ दिखलाई पड़ती हैं।

    भावार्थ

    अहो इस सरणशील—व्यापनशील प्रकाशमान परमात्मा की ज्ञापक गुण रश्मियाँ उपासक एवं मननशीलजनों के प्रति दिखलाई पड़ रही हैं जैसे जाज्वल्यमान अग्नि की ज्वालाएँ साक्षात् दिखलाई पड़ रही होती हैं॥८॥

    विशेष

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    विषय

    ज्ञान का प्रसार

    पदार्थ

    प्रस्कण्व स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान का प्रकाश औरों तक पहुँचाता है। इसका जीवन व इसकी वाणियाँ औरों को प्रभु का प्रकाश प्राप्त कराती हैं। (अस्य) = इस मन्त्र के ऋषि प्रस्कण्व की (केतव:) = [कित निवासे रोगापनयने च] उत्तम निवास की कारणभूत तथा रोगों को दूर करनेवाली (रश्मयः) = ज्ञान की रश्मियाँ-किरणें-(जनान् अनु) = लोगों का लक्ष्य करके (वि अदृश्रन्) = सब वस्तुओं को यथावत् दिखलाती हैं, अर्थात् प्रस्कण्व वेद में उपदिष्ट परमात्मा से दिये गये ज्ञान को लोगों में इस प्रकार प्रचारित करता है कि लोगों का निवास - रहने का ढङ्ग उत्तम होता जाए तथा वस्तुओं के यथावत् ज्ञान से उनका यथायोग करते हुए उनके अतियोग व अयोग से बचते हुए - वे रोगों का शिकार न हों और परस्पर उनका व्यवहार ऐसा हो जैसा एक उत्तम नागरिक का होना चाहिए ।

    इस कण्व से दिये गये ज्ञान इस प्रकार के होते हैं (यथा) = जैसे (भ्राजन्तः) = दीप्त होती हुई (अग्नयः) = अग्नियाँ। दीप्त अग्नि जैसे सब मलों का विध्वंस कर देती हैं, इसी प्रकार इस प्रस्कण्व से प्रसारित ज्ञान की रश्मियाँ लोगों के मनों की मलिनताओं को नष्ट कर उन्हें पवित्र बना देती हैं। वह ज्ञान का प्रचार ही क्या जो हृदयान्धकार को नष्ट न करे?

    भावार्थ

    हम स्वयं प्रस्कण्व = प्रकृष्ट मेधावी बनकर ज्ञानरश्मियों को इस माधुर्य से फैलाएँ कि १. लोगों का निवास उत्तम हो, २ . उनके रोग दूर हों, उनके मनों की मलिनताएँ ऐसे भस्म हो जाएँ जैसे चमकती अग्नि में कूड़ा-करकट भस्म हो जाता है।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा०  = ( भ्राजन्तः ) = प्रकाशमान् ( अग्नयः ) = तेजस्वी ज्ञानी पुरुष ( यथा ) = जिस प्रकार सब प्राणियों पर दृष्टि रखते हैं उसी प्रकार ( अस्य ) = इस परब्रह्म परमेश्वर के ( केतवः ) = ज्ञान कराने वाले ( रश्मयः ) = किरण ( जनान् अनु ) = जन्म लेने वाले प्राणियों को ( अदृश्रन् ) = बराबर देखते हैं।

    टिप्पणी

    ६३४ -'अदृश्रमस्य' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः।

    देवता - सूर्यः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि सूर्यः परमात्मा च वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अस्य) सूर्यस्य, तद्वद् भासमानस्य परमात्मनो वा (केतवः) प्रज्ञापकाः (रश्मयः) किरणाः प्रकाशाः वा (जनान् अनु) जातान् पदार्थान्, उपासकान् मनुष्यान् वा अनुप्राप्य (भ्राजन्तः) भ्राजमानाः (अग्नयः यथा) वह्नयः इव (वि अदृश्रन्) विलोक्यन्ते। दृश् धातोः कर्मणि लडर्थे लुङि ‘इरितो वा। अ० ३।१।५७’ इति अङ्, ‘बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।८’ इति रुडागमः, ‘ऋदृशोऽङि गुणः। अ० ७।४।१६’ इति प्राप्तौ गुणाभावश्च ॥८॥२ अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ, नतूत्प्रेक्षा काव्यसम्प्रदाये यथाशब्दस्योत्प्रेक्षावाचकत्वास्वीकरणात् ॥८॥

    भावार्थः

    सूर्यस्य किरणा यदा स्वच्छेषु सुवर्णरजतताम्रपित्तलकाचादिषु पतन्ति तदा तत्र भासमानास्ते प्रज्वलद्वह्निसदृशाः प्रतीयन्ते। तथैव मनोभूमौ पतत् परमेश्वरस्य तेजोऽपि योगिभिः प्रज्वलितो विभावसुरिवानुभूयते ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।५०।३, अथ० १३।२।१८ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः। अथ० २०।४७।१५। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये (ऋ० १।५०।३) “यथास्य सूर्यस्य भ्राजन्तोऽग्नयः केतवो रश्मयो जनाननुभ्राजन्तः सन्ति तथाहं स्वस्त्रियं स्वपुरुषञ्चैव गम्यत्वेन व्यदृशं नान्यथेति यावत्।” इति विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as resplendent rays and fires make known the affects of this earth, so do I make known men.

    Translator Comment

    I refers to God.

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    Meaning

    O that we could see the banners of the Lord of sun beams, the rays of the sun, along with the other people, blazing like the explosions of fire in heaven. (Rg. 1-50-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्य केतवः) એ સૂર્ય પરમાત્માને કેતુ-જ્ઞાપક સંકેત કરનાર (रश्मयः) સર્વત્ર વ્યાપ્ત ગુણ (जनान् अनु) ઉપાસક અને મનનશીલ જનોને (अदृश्रन्) જોવામાં આવે છે. (यथा भ्राजन्तः अग्नयः) જાજ્વલ્યમાન અગ્નિઓ જોવામાં આવે છે. (૮)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અહો! એ સરણશીલ-વ્યાપનશીલ પરમાત્માની જ્ઞાપક ગુણ રશ્મિઓ ઉપાસક અને મનનશીલજનોને જોવામાં આવી રહી છે, જેમ જાજ્વલ્યમાન અગ્નિની જ્વાળાઓ સાક્ષાત્ જોવામાં આવે છે. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    عابدوں کی خُدا دوستی

    Lafzi Maana

    جیسے آگ کے بلند شعلے دُور سے سب کو دکھائی دیتے ہیں، ویسے ہی بھگت جنوں کو بھوان کو ہر وقت صاف صاف دکھلانے والی جھنڈیاں سُورج چاند تارے وغیرہ کو دیکھ اُن کا اعتقاد یا خدا دوستی مضبوط ہوتی جاتی ہے۔

    Tashree

    آگ کی لپٹیں دیکھ کے جیسے مطمئن ہوتے انسان، ویسے ہی بھگتوں کو نظر آتا ہر رنگ میں بھگوان۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सूर्याची किरणे जेव्हा सोने, चांदी, तांबे, पितळ, काच इत्यादींवर पडतात तेव्हा त्यांच्यावर चमकणाऱ्या ज्वालायुक्त अग्नीप्रमाणे दिसतात. त्याचप्रकारे मनोभूमीवर पडणाऱ्या परमेश्वराच्या तेजाला ही योगी लोक प्रज्वलित अग्नीप्रमाणे अनुभव करतात ॥८॥

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    विषय

    पुन्हा सूर्याचे/परमेश्वराचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (अस्य) या सूर्याच्या/सूर्यवत् भासमान परमेश्वराच्या (केतवः) प्रज्ञापक (गाजविणाऱ्या) (रश्मयः) किरणें/आध्यात्मिक प्रकाश (जनान्-अनु) उत्पन्न पदार्थांना/उपासकांना प्राप्त होऊन (भ्राजमानाः) चमकणाऱ्या (अग्नयः) (यथा) अग्नीच्या ज्वालांप्रमाणे (वि अदृशन्) दिसतात.।।८।।

    भावार्थ

    सूर्याची किरणें जेव्हा शुद्ध सोने, चांदी, तांबे, पितळ आदी धातूंवर वा काचसारख्या पदार्थावर पडतात, तेव्हा ती किरणें अग्नीच्या ज्वालाप्रमाणे वाटतात. त्याचप्रकारे मनावर प्रतिबिंबित ईश्वरीय तेज योगीजनांना प्रज्वलित अग्नीप्रमाणे भासते.।।८।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष व उपमा अलंकार आहेत, उत्प्रेक्षा अलंकार नाही, कारण काव्यशास्त्रामधे ङ्गयशफ शब्द उत्प्रेक्षावाचक नाही.।।८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஒளி வீசும் அக்னியைப் போல் சூரியனின் கதிர்களான ரசிமிகள் சனங்களைப் பிரகாசஞ் செய்கின்றன.

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