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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 678
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    3

    स्वा꣣युधः꣡ प꣢वते दे꣣व꣡ इन्दुर꣢꣯शस्ति꣣हा꣢ वृ꣣ज꣢ना꣣ र꣡क्ष꣢माणः । पि꣣ता꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ जनि꣣ता꣢ सु꣣द꣡क्षो꣢ विष्ट꣣म्भो꣢ दि꣣वो꣢ ध꣣रु꣡णः꣢ पृथि꣣व्याः꣢ ॥६७८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वा꣣युधः꣢ । सु꣣ । आयुधः꣢ । प꣣वते । देवः꣡ । इ꣢न्दुः꣢꣯ । अ꣣शस्तिहा꣢ । अ꣣शस्ति । हा꣢ । वृ꣣ज꣡ना꣢ । र꣡क्ष꣢꣯माणः । पि꣣ता꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ज꣣निता꣢ । सु꣣द꣡क्षः꣢ । सु꣣ । द꣡क्षः꣢꣯ । वि꣡ष्टम्भः꣢ । वि꣣ । स्तम्भः꣢ । दि꣣वः꣢ । ध꣣रु꣡णः꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ ॥६७८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वायुधः पवते देव इन्दुरशस्तिहा वृजना रक्षमाणः । पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्याः ॥६७८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वायुधः । सु । आयुधः । पवते । देवः । इन्दुः । अशस्तिहा । अशस्ति । हा । वृजना । रक्षमाणः । पिता । देवानाम् । जनिता । सुदक्षः । सु । दक्षः । विष्टम्भः । वि । स्तम्भः । दिवः । धरुणः । पृथिव्याः ॥६७८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 678
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि गुरु किन गुणों से युक्त हो।

    पदार्थ

    (स्वायुधः) भद्र दण्डवाला, (देवः) सुख आदि का दाता, (अशस्तिहा) अप्रशस्ति को दूर करनेवाला, (वृजना) बलों की (रक्षमाणः) रक्षा करनेवाला, (पिता) पितृतुल्य, (देवानां जनिता) विद्वानों को उत्पन्न करनेवाला, (सुदक्षः) उत्तम बलवाला, (दिवः) विद्या के सूर्य का (विष्टम्भः) आधारभूत, (पृथिव्याः) राष्ट्रभूमि का (धरुणः) धारण करनेवाला (इन्दुः) तेजस्वी गुरु (पवते) पवित्रता प्रदान करता है ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्रोक्त गुणों से युक्त गुरु का जो सेवन करते हैं, वे विद्वान्, सदाचारी और प्रशस्त कीर्तिवाले होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्दुः-देवः) आनन्दरसभरा शान्त परमात्मदेव (स्वायुधः) स्वशक्तिरूप आयुध वाला विरोधी के ताड़न करने को स्वशक्तिरूप अस्त्र वाला (अशस्तिहा) पापनाशक “पाप्मा वा अशस्तिः” [श॰ ६.३.२.७] (वृजना रक्षमाणः) समस्त बलों को रखता हुआ “वृजनं बलनाम” [निघं॰ २.९] (देवानां जनिता पिता) दिव्यगुण पदार्थों का उत्पादक और रक्षक (सुदक्षः) सुन्दर प्राणप्रेरक “प्राणो वै दक्षः” [श॰ ४.१.४.१] (दिवः-विष्टम्भः) द्युलोक का सम्भालने वाला (पृथिव्याः-धरुणः) पृथिवीलोक का धारक (पवते) आत्मा में प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    आनन्दरस का भरा परमात्मा जो महान् द्युलोक का सम्भालने वाला और पृथिवी को धारण करने वाला है अपितु समस्त दिव्यगुण पदार्थों का जनक और रक्षक है जिससे सब में सम्यक् प्राणसञ्चार होता है वह पापविनाशक बलों का रक्षक उपासक के अन्दर प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सोम की सात प्रशस्तियाँ

    पदार्थ

    १. (देवः इन्दुः) = यह प्रकाशमय [दिव्] व शक्तिमय सोम [इन्द= to be powerful] (स्वायुधः) = [सु आयुधः] उत्तम अस्त्र है । इसी अस्त्र के द्वारा मनुष्य शरीर के रोगों व रोगकृमियों से संघर्ष कर पाता है । वीर्य शब्द का अर्थ है वि= विशेषरूप से ईर=कम्पित करनेवाला । यह हमपर आक्रमण करनेवाले रोगों को कम्पित करके भगा देता है । इस प्रकार यह सोम उत्तम अस्त्ररूप बनकर (पवते) = हमारे शरीर में गति करता है ।

    २. (अशस्ति) = हा यह सोम ईर्ष्या-द्वेष आदि की सब अप्रशस्त भावनाओं को नष्ट कर देता है । ३. (वृजना रक्षमाणः) = यह सोम हमें पापों से बचाता है। [वृजन = पाप, रक्ष= Resistence]। पापों से बचाकर यह हमारे बलों की रक्षा करता है [वृजन = बल, रक्ष= रक्षा करना] । =

    ४. (पिता देवानाम्) = यह सुरक्षित सोम देवों का – दिव्य गुणों का रक्षक होता है। मनुष्य में यह दैवी सम्पत्ति के विकास का कारण बनता है । यह दिव्य गुणों का जनिता प्रादुर्भाव करनेवाला होता है । 

    ५. (सु- दक्षः) = यह हमारी उत्तम वृद्धि [दक्ष = To grow ] का कारण है । इसके कारण प्रत्येक उत्तम दिशा में हम अग्रसर होते हैं । ६. (दिवः विष्टम्भः) = मूर्धा द्यौः- यह सोम मस्तिष्क का विशेषरूप से (स्तम्भन) = धारण करनेवाला है । यह सोम ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, इससे मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती है । ७. (पृथिव्याः धरुणः) = [पृथिवी= शरीरम्] यह शरीर का आधार है । इसके धारण से जीवन है, इसके पतन से मृत्यु | सोमरक्षा के बिना वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की उन्नति सम्भव नहीं । इसी से उशना इसकी रक्षा की कामनावाला है ।

    भावार्थ

    उशना के सदृश सोमरक्षण में प्रवृत्त होकर हम भी इन सात लाभों से अपने जीवन को अन्वित करें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) ( इन्दुः ) = ऐश्वर्यशील, ( देवः ) = देव, ईश्वर और राजा ( स्वायुधः ) = उत्तम आयुधों से युक्त ( अशस्तिहा ) = शासन न मानने वालों का नाश करने वाला, ( बृजना ) = सेनाबलों की ( रक्षमाणः ) = रक्षा करता हुआ, ( देवानां पिता ) = सब देवों, विद्वानों का पालक ( सुदक्षः ) = उत्तम बलशाली, कार्यकर्ता ( दिव: ) = ज्ञान प्रकाश, और दिव्यगुण सम्पन्न सूर्य, द्यौलोक और सात्विक पुरुषों को ( विष्टम्भः ) = थामने वाला, वशकारक ( पृथिव्याः ) = इस पृथिवी, और राष्ट्र का एकमात्र धारण करने हारा है ।

    टिप्पणी

    ६७८-(२) 'वृजिना' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः । देवता - सोमः। छन्दः - त्रिष्टुप्। स्वरः - धैवतः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गुरुः किंगुणविशिष्टः स्यादित्याह।

    पदार्थः

    (स्वायुधः२) भद्रदण्डः, (देवः) सुखादीनां दाता, (अशस्तिहा३) अप्रशस्तेः हन्ता, (वृजना) वृजनानि बलानि [वृजनम् इति बलनाम। निघं० २।९।] (रक्षमाणः) त्रायमाणः, (पिता) पितृवद् वर्तमानः, (देवानाम्) विदुषाम्, (जनिता) जनयिता, (सुदक्षः) शोभनबलः, (दिवः) विद्यासूर्यस्य (विष्टम्भः) आधारभूतः, (पृथिव्याः) राष्ट्रभूमेः (धरुणः) धारयिता, (इन्दुः) तेजसा दीप्तः गुरुः (पवते) पवित्रतां प्रयच्छति ॥२॥

    भावार्थः

    मन्त्रोक्तगुणयुक्तं गुरुं ये सेवन्ते ते विद्वांसः सदाचाराः प्रशस्तकीर्तयश्च जायन्ते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८७।२ ‘वृजना’ इत्यत्र ‘वृ॒जनं॒’ इति पाठः। २. स्वायुधः असिखड्गपरशुप्रासादिभिरायुधैः स्वायुधः। अथवा वज्र-स्रुव-स्रुक्-शम्याकप्रभृतिभिर्यज्ञायुधैः स्वायुधः—इति वि०। ३. अशस्तिहा अशस्तयः शत्रवः, अथवा अशस्ता वाचः अशस्तानि वा कर्माणि ये कुर्वन्ति तेषां हन्ता—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A prosperous King, equipped with arms, the queller of the rebels, the guardian of his forces, the father of his subjects, the nourisher of the learned, full of power, is the supporter of the virtuous, and protector of the State.

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    Meaning

    Divine Indu, light of life, equipped with noble arms, destroyer of scandal and malignity, protector of yajna vedi against crookedness and intrigue, flows pure and purifying. It is the generator and sustainer of the divine powers of nature and humanity, perfect and expert original agent of action, pillar of heaven and foundation support of the earth. (Rg. 9-87-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दुः देवः) આનંદરસપૂર્ણ શાન્ત પરમાત્મદેવ (स्वायुधः) સ્વશક્તિ રૂપ શસ્રવાળા વિરોધીને તાડન કરવાની સ્વશક્તિરૂપ અસ્રવાળા (अशस्तिहा) પાપનાશક (वृजना रक्षमाणः) સમસ્ત બળોને રાખનાર (देवानां जनिता पिता) દિવ્યગુણ પદાર્થોના ઉત્પાદક અને રક્ષક (सुदक्षः) સુંદર પ્રાણ પ્રેરક (दिवः विष्टम्भः) દ્યુલોકને સંભાળનાર (पृथिव्याः धरूणः) પૃથિવી લોકના ધારક (पवते) આત્મામાં પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આનંદરસથી ભરેલ, જે મહાન દ્યુલોકને સંભાળનાર અને પૃથિવી લોકને ધારણ કરનાર, સમસ્ત દિવ્યગુણ, પદાર્થોના જનક અને રક્ષક છે. જેનાથી સર્વમાં સમ્યક્ પ્રાણસંચાર થાય છે, તે પાપવિનાશક, બળોના રક્ષક ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मंत्रात म्हटलेल्या गुणांनी युक्त गुरूचे जे सेवन करतात ते विद्वान, सदाचारी व प्रशंसनीय कीर्ती प्राप्त करणारे बनतात. ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात हे सांगितले आहे की, गुरू कोणकोणत्या गुणांनी युक्त असावा.

    शब्दार्थ

    गुरू कसा असतो अथवा कसा असावा हे सांगत आहेत. तो (स्वायुध:) दण्ड देणारा असावा. पण त्याचा दंड भद्रकारी म्हणजे शिष्याचे हित करणारा असावा. तो देव: सुख दाता व अशस्ति हा अप्रशक्ती म्हणजे निन्दा, दुर्गुणादी नष्ट करणारा तसेच (वृजना) शिष्याच्या बळाचे (रक्षमाण:) रक्षण करणारा असावा. तो (पिता) पित्याप्रमाणे पालक तसेच (देवांजनिवा) विद्वानांना जन्म देणारा म्हणजे शिष्यांना सुसंस्कार देणारा असावा. तो (सुदक्ष:) उत्तम बलशाली आणि (दिव:) विद्यारूप सुर्याला (विष्टम्भ:) आधार देणारा असावा. तसेच तो (पृथिव्या:) राष्ट्रभूमीचा (धरूण:) आधार असावा. असा (इन्दु:) तेजस्वी गुरूच (पवते) शिष्यांना पावित्र्य देवो. (त्यांना उत्तम चारित्र्यवान नागरिक बनवितो ।।२।।

    भावार्थ

    जे लोक वा जे शिष्य मंत्रात वर्णित गुणांनी समृद्ध असलेल्या गुरूकडून शिक्षण घेतात, ते विद्वान, सदाचारी आणि प्रशस्त कीर्तिमान होतात. ।।२।।

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