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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 679
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    3

    ऋ꣢षि꣣र्वि꣡प्रः꣢ पुरए꣣ता꣡ जना꣢꣯नामृ꣣भु꣡र्धीर꣢꣯ उ꣣श꣢ना꣣ का꣡व्ये꣢न । स꣡ चि꣢द्विवेद꣣ नि꣡हि꣢तं꣣ य꣡दा꣢सामपी꣣च्या꣢३꣱ꣳ गु꣢ह्यं꣣ नाम गो꣡ना꣢म् ॥६७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ꣡षिः꣢꣯ । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । पुरएता꣢ । पु꣣रः । एता꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । ऋ꣣भुः꣢ । ऋ꣣ । भुः꣢ । धी꣡रः꣢꣯ । उ꣢श꣡ना꣢ । का꣡व्ये꣢꣯न । सः । चि꣣त् । विवेद । नि꣡हि꣢꣯तम् । नि । हि꣣तम् । य꣣त् । आ꣣साम् । अपी꣡च्य꣢म् । गु꣡ह्य꣢꣯म् । ना꣡म꣢꣯ । गो꣡ना꣢꣯म् ॥६७९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन । स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्या३ꣳ गुह्यं नाम गोनाम् ॥६७९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋषिः । विप्रः । वि । प्रः । पुरएता । पुरः । एता । जनानाम् । ऋभुः । ऋ । भुः । धीरः । उशना । काव्येन । सः । चित् । विवेद । निहितम् । नि । हितम् । यत् । आसाम् । अपीच्यम् । गुह्यम् । नाम । गोनाम् ॥६७९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 679
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः गुरु का वर्णन है।

    पदार्थ

    हमारा गुरु (ऋषिः) वेदमन्त्रों के रहस्य का द्रष्टा, (विप्रः) ब्राह्मण वृत्तिवाला, (जनानाम्) मनुष्यों में (पुरः एता) आगे चलनेवाला, (ऋभुः) मेधावान् (धीरः) धैर्यवान् और (काव्येन) काव्य-रचना से (उशना) जगत् का हित चाहनेवाला है। (सः चित्) वही (आसां गोनाम्) इन वेदवाणियों का (यत्) जो (अपीच्यम्) छिपा हुआ, (गुह्यम्) रहस्यमय (नाम) अर्थ है, उसे (विवेद) विशेष रूप से जानता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो अति गम्भीर भी वेदादि वाङ्मय के रहस्यार्थ को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष रूप से जानता हो, उसी ऋषि, मेधावी ब्राह्मण को गुरुरूप में स्वीकार करना चाहिए ॥३॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध का वर्णन है और गुरु से लौकिक विद्या तथा ब्रह्मविद्या का अध्ययन करके ही मनुष्य परब्रह्म का साक्षात्कार कर सकते हैं, इसका वर्णन है, अतः इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ संगति है, यह जानना चाहिए ॥ प्रथम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (जनानां पुरः-एता) जनों को आगे ले जाने वाला (ऋषिः-विप्रः) सर्वद्रष्टा विशेष प्राप्त (धीरः) धारणकर्ता (काव्येन-उशनाः-ऋभुः) कौशल से कमनीय प्रकाशमान सोम शान्तस्वरूप परमात्मा है (सः-चित्) वह ही (गोनां गुह्यं नाम) वेदवाणियों के गुप्त रहस्य को (विवेद) खोलकर जनाता है (यत्-आसाम्-अपीच्यं निहितम्) जोकि इनमें अपचित—सार “अपीच्यम्—अपचितम्” [निरु॰ ४.२५] रखा है।

    भावार्थ

    मनुष्यों को आगे उन्नति की ओर ले जाने वाला सर्वद्रष्टा सर्वसाक्षी अन्तर्यामी विशेषरूप से प्राप्त सब का धारणकर्ता जगद्रचनाकौशल से कमनीय प्रकाशमान सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा है वही वेदवाणियों—वेदवचनों के गहन रहस्य को जनाता है विशेष उपासकजनों को जो उनमें साररूप में रखा हुआ है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वेदरहस्य को समझना

    पदार्थ

    गत मन्त्र का विषय ही प्रस्तुत मन्त्र में भी चल रहा है । यह सोमरक्षक पुरुष१. (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा है। सोमरक्षा से मनुष्य गम्भीर होकर प्रत्येक पदार्थ के ठीक स्वरूप को देखनेवाला बनता है । वह आपात रमणीयता से आकृष्ट होकर उनमें उलझता नहीं । २. (वि-प्रः) = विषयों में न उलझने से ही वह अपना विशेषरूप से पूरण करता है। शरीर में शक्ति, मन में निर्मलता व बुद्धि में तीव्रता भरनेवाला होता है । ३. (जनानां पुरः एता) = सोमरक्षण के द्वारा विप्र बनकर यह मनुष्यों का अग्रेणी– उनके आगे चलनेवाला होता है । ('अति समं क्राम) = बराबरवालों को तू लाँघ जा' – इस उपदेश को वह अपने जीवन में अनूदित कर पाता है। ४. (ऋभुः) = इस प्रकार यह खूब चमकनेवाला होता है [ऋभु:=Shining far] ५. (धीरः) = इसकी प्रकृति में धीरता — धैर्य होता है । इस धृति के कारण ही वह–धर्म के अन्य सब अङ्गों को भी अपने में स्थिर कर पाता है । ६. (उशना:) = जीवन को धर्म की नींव पर स्थिर करके यह सभी के हित की कामनावाला होता है । यह तुच्छ भावनाओं से ऊपर उठकर लोकहित को अपने जीवन का ध्येय बनाता है । ७. और इन सबसे बढ़कर (स:)वह (काव्येन) = अपने क्रान्तद्रष्ट्त्व से (चित्) = निश्चयपूर्वक (यत्) = जो (आसाम् गोनाम्) = इन वेदवाणियों में (अपीच्यम्) = बहुत ही सुन्दर (गुह्यम्) = रहस्यमय (नाम) = संकेत [Mark, sign, token] (निहितम्) = रक्खे हुए हैं, उन्हें (विवेद) = विशेषरूप से जान पाता है। बुद्धि की तीव्रता से इसके सामने वेद का रहस्य प्रकट हो जाता है। वेदवाणी इसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट करती है ।

    भावार्थ

    सोम रक्षा के द्वारा हम वेदार्थ को समझने के योग्य बनते हैं।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( ३ ) ( ऋषिः ) = अतीन्द्रिय ज्ञानों का द्रष्टा ( विप्रः ) = ज्ञानवान् मेघावी, ( जनानां पुरः एता ) = समस्त जनों, जीवों का नायक के समान अग्रेसर, ( ऋभुः ) = सत्य ज्ञान से अति प्रकाशमान, ( धीरः ) = कर्म और प्रज्ञानों का दाता, ( उशना: ) = सब पर वश करने वाला , एकमात्र योगी ( काव्येन ) = ज्ञानमय वेद साहित्य द्वारा ( आसां ) = इन ( गोनां ) = वेदवाणियों का ( अपीच्यं ) = मनोहर, गुप्त, ( गुह्यं ) = हृदय से जानने योग्य ( निहितं ) = भीतर रक्खा हुआ ( नाम चिद् ) = सार ( विवेद ) = स्वयं जाने और औरों को जनावे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः । देवता - सोमः। छन्दः - त्रिष्टुप्। स्वरः - धैवतः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि गुरुं वर्णयति।

    पदार्थः

    अस्माकं गुरुः (ऋषिः) वेदमन्त्राणां रहस्यस्य द्रष्टा, (विप्रः) ब्राह्मणवृत्तिः, (जनानाम्) मनुष्याणाम् (पुरः एता) अग्रगन्ता, (ऋभुः) मेधावी। [ऋभु इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (धीरः) धैर्यशाली, (काव्येन) काव्यरचनया (उशना) जगतो हितं कामयमानः, अस्ति इति शेषः। [वष्टि हितं कामयते यः स उशना। वश कान्तौ।] (सः चित्२) स एव (आसां गोनाम्३) एतासां वेदवाचाम् (यत् अपीच्यम्) अन्तर्हितम्। [अपीच्यमिति निर्णीतान्तर्हितनाम। निघं० ३।२५।] [अपीच्यम् अपचितम् अपगतम् अपहितम् अन्तर्हितं वा। निरु० ४।२४।] (गुह्यम्) रहस्यमयम् (नाम) अर्थः (निहितम्) अवस्थितमस्ति, तद् (विवेद) विशेषेण वेत्ति ॥३॥

    भावार्थः

    यः सुगम्भीरस्यापि वेदादिवाङ्मयस्य रहस्यार्थं हस्तामलकवत् प्रत्यक्षतो वेत्ति स एव ऋषिर्मेधावी विप्रो गुरुत्वेन स्वीकरणीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्यसम्बन्धवर्णनाद् गुरोः सकाशाल्लौकिकीं विद्यां ब्रह्मविद्यां चाधीत्यैव जनाः परब्रह्मसाक्षात्कारं कर्त्तुं प्रभवन्तीत्येतद्वर्णनाच्चास्य खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्।

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८७।३ २. चित् शब्दः च शब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः—इति वि०। ३. आसां गोनां गवामादित्यरश्मीनां वा—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A Yogi, who is the seer of Truth, wise, the leader of men, shining with true knowledge, unwavering, and the well-wisher of all, preaches through the Vedas, the beautiful internally realisable, secret essence of these Vedic texts.

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    Meaning

    Divine seer, vibrant and sagely power, potent maker, stable of will and action, Soma is brilliant with innate vision and wisdom. He alone knows what is the hidden secret and mystery of these stars and planets. (Rg. 9-87-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (जनानां पुरः एता) જનોને આગળ લઈ જનાર-નેતા (ऋषिः विप्रः) સર્વદ્રષ્ટા વિશેષ પ્રાપ્ત (धीरः) ધારણકર્તા (काव्येन उशनाः ॠभुः) કૌશલથી કમનીય પ્રકાશમાન સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા છે (सः चित्) તે જ (गोनां गुह्यं नाम) વેદવાણીઓનાં ગુપ્ત રહસ્યને (विवेद) ખોલીને જણાવે છે (यत् आसाम् अपीच्यं निहितम्) જો કે તેમાં અપચિત-સાર રાખેલ છે. (૩)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અગ્રણી-મનુષ્યને આગળ ઉન્નતિની તરફ લઈ જનાર, સર્વદ્રષ્ટા, સર્વસાક્ષી, અન્તર્યામી, વિશેષ રૂપથી પ્રાપ્ત, સર્વના ધારણકર્તા, જગતની રચનાના કૌશલ્યથી કમનીય, પ્રકાશમાન સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા છે; તે જ વેદવચનોના ગુહ્ય-ગહન રહસ્યોને જણાવે છે, વિશેષ ઉપાસકજનોને જે તેમાં સાર રૂપમાં રાખેલ છે. (૩)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो अति गंभीर वेदादि शास्त्राचे रहस्य हस्तमलकावत् प्रत्यक्ष रूपाने जाणतो, त्याच ऋषी, मेधावी ब्राह्मणाला गुरूरूपात स्वीकारले पाहिजे ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात गुरू-शिष्याच्या संबंधाचे वर्णन आहे व गुरूकडून लौकिक विद्या व ब्रह्मविद्या यांचे अध्ययन करूनच मनुष्य परब्रह्माचा साक्षात्कार करू शकतात, याचे वर्णन आहे. त्यासाठी या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे

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    विषय

    पुढच्या मंत्रातही गुरुविषयीच सांगितले आहे.

    शब्दार्थ

    (शिष्यगण अभिमानाने आपल्या गुरूची महती सांगताहेत) आमचे गुरूदेव (ऋषि:) वेदमंत्राचे द्रष्टा आहेत (म्हणजे वेदमंत्राचा गुह्य अर्थ जाणणारे आहेत.) (विप्र:) ते ब्राह्मण स्वभावाचे आहेत. म्हणजे शांत, संयमी व चारित्र्यसंपन्न आहेत. (जनानाम्) ते लोकांमध्ये वा समाजात (पुर:स्ता) सर्वांपुढे राहणारे अग्रगण्य आहेत. ते (ऋभु:) मेधावी आणि (धीर:) धैर्यशाली आहेत. ते (काव्येन) काव्य रचना करून (उशना) सर्वांचे कल्याण इच्छिणारे आहेत. (स:चित) तेच ती व्यक्ती आहेत की जिला (आसां गोनाम्) या वेदवाणीचा (यत्) जो (अपीच्यम्) त्यात दडलेला (गुह्यम्) गूढ अर्थ आहे, त्याला ती व्यक्ती म्हणजे आमचे गुरूदेव (विवेद) विशेषत्वाने जाणतात. ।।३।।

    भावार्थ

    अत्यंत गहन अशा वेदार्थाला त्यातील गुह्य अर्थाला हस्तामलकवत म्हणजे अगदी प्रत्यक्षपणे जाणतो, त्या ऋषी मेधावी ब्राह्मणालाच माणसाने आपला गुरू करावा. ।।३।। या खंडात गुरु शिष्यातील संबंधांचे वर्णन आहे. तसेच हेही सांगितले आहे की, माणसे केवळ गुरपासूनच लौकिक विद्या आणि ब्रह्मविद्या जाणून घेऊ शकतात व त्यांना ब्रह्माचा साक्षात्कार होऊ शकतो. यामुळे या खंडाची संगती यापूर्वीच्या खंडाशी आहे, असे समजावे. प्रथम अध्यायातील तृतीय खंड समाप्त

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