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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 685
ऋषिः - नोधा गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
3
तं꣡ वो꣢ द꣣स्म꣡मृ꣢ती꣣ष꣢हं꣣ व꣡सो꣢र्मन्दा꣣न꣡मन्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ व꣣त्सं꣡ न स्वस꣢꣯रेषु धे꣣न꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्न꣢वामहे ॥६८५॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । वः꣣ । दस्म꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋ꣣ती । स꣡ह꣢꣯म् । व꣡सोः꣢꣯ । म꣣न्दान꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । स्व꣡स꣢꣯रेषु । धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣣वामहे ॥६८५॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥६८५॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । वः । दस्मम् । ऋतीषहम् । ऋती । सहम् । वसोः । मन्दानम् । अन्धसः । अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनवः । इन्द्रम् । गीर्भिः । नवामहे ॥६८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 685
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में २३६ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्या कर चुके हैं। यहाँ जीवात्मा का विषय प्रस्तुत किया जाता है।
पदार्थ
हे मन, इन्द्रिय आदि प्राणो ! हम (वः) तुम्हारे (दस्मम्) दोषों को नष्ट करनेवाले, (ऋतीषहम्) आक्रमणकारी काम, क्रोध आदि शत्रुओं को परास्त करनेवाले, (वसोः) निवासप्रद (अन्धसः) आनन्दरस से (मन्दानम्) आनन्दित होनेवाले (इन्द्रम्) अपने अन्तरात्मा के (अभि) अभिमुख होकर (स्वसरेषु) दिनों के उदय के समय अर्थात् प्रभात कालों (गीर्भिः) उद्बोधक वाणियों से (नवामहे) गुण वर्णनरूप स्तुति करते हैं। किस प्रकार? (स्वसरेषु) गोशालाओं में (धेनवः) गौएँ (वत्सम् अभि) नवजात बछड़े के अभिमुख होकर (न) जैसे रंभाती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
अपने अन्तरात्मा को भली-भाँति उद्बोधन देकर, दोषों को दूर करके तथा सद्गुणों को प्राप्त करके हम परम यशस्वी बन सकते हैं ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या २३६)
विशेष
ऋषिः—नोधाः (स्तुतिधारक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥<br>
विषय
नोधा गोतम
पदार्थ
वे प्रभु ‘नो धा’ [न:+धा] हमारे धारण करनेवाले हैं । इस रूप में प्रभु का स्मरण करनेवाला व्यक्ति विषयपंक से अपनी इन्द्रियों को अलिप्त रखकर 'गोतम' तो होता ही है । यह 'नोधा गोतम' अपने मित्रों से कहता कि (तं इन्द्रम् गीर्भि: अभि नवामहे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की वाणियों से स्तुति करते हैं, जो प्रभु–
(वः) = तुम्हारे (दस्मम्) = रोगों को नष्ट करनेवाला है [दसु-उपक्षये Destroy, Decimate] [क] वह प्रभु नाना प्रकार के औषध-द्रव्यों के निर्माण व उनके प्रयोग के लिए बुद्धि देने के द्वारा हमारे रोगों को नष्ट करते हैं । [ख] इसके अतिरिक्त प्रभुस्तुति से मनोवृत्ति में कुछ ऐसा परिवर्तन आता है कि रोग मनुष्य को छोड़ जाते हैं। [ग] रोगों की संहारक मन्त्ररूप वीर्य-शक्ति को तो प्रभु ने हमें प्राप्त कराया ही है ।
[२] (ऋतीषहम्) = वे प्रभु हमारे कामादि शत्रुओं के संहारक हैं। काम 'स्मर' है, तो प्रभु 'स्मरहर' हैं। महादेव कामदेव को भस्म कर देते हैं । हृदय में प्रभु की ज्योति जगाने पर कामादि वासनाओं का अन्धकार नहीं रहता । ओ३म् का जप हमारे हृदय को पवित्र बनाता है।
[३] (अन्धसः वसोः मन्दानम्) = आध्यायनीय, सब प्रकार से ध्यान देने योग्य, शरीर में निवास के कारणभूत सोम [= वीर्यशक्ति] के द्वारा वे प्रभु हमें आनन्दित करनेवाले हैं । इस वीर्यशक्ति के द्वारा ही वस्तुत: प्रभु ने हमारे शरीरों को नीरोग बनाया है, हमारे मनों को निर्मल और इस प्रकार इस सुन्दर व्यवस्था से वे प्रभु हमारा धारण कर रहे हैं ।
हमारा भी यह कर्त्तव्य है कि हम उस प्रभु का सदा स्मरण करें और इस प्रकार प्रेम से स्मरण करें (न) = जैसेकि (वत्सम्) = बछड़े को (स्वसरेषु) = अपने जाने योग्य गोष्ठादि स्थानों में (धेनवः) = गौवें स्मरण हैं। जंगल में चर चुकी गौ घर पर बँधे बछड़े के लिए जैसे उत्सुक होती हैं, उसी प्रकार हम उस प्रभु के लिए उत्सुक हों । वेद को प्रेम के विषय में गौ और बछड़े की उपमा बड़ी प्रिय है। (‘अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या') = इस मन्त्रभाग में कहा है कि हे गृहस्थ के व्यक्तियो ! एकदूसरे से ऐसे प्रेम करो जैसे गौ नवजात बछड़े से प्रेम करती है। यहाँ हमें भी प्रभु से इसी प्रकार प्रेम करने के लिए कहा गया है तभी वे प्रभु हमारे लिए व्याधिनाशक, आधिनाशक व शक्तिदायक होंगे ।
भावार्थ
हम प्रभु-स्मरण द्वारा नीरोग, निर्मल व वीर बनें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अविकल संख्या [२३६] पृ० १२० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - नोधा काक्षीवत:। देवता - इन्द्रः। छन्दः - बृहती। स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३६ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषयः प्रस्तूयते।
पदार्थः
हे मनइन्द्रियादयः प्राणाः ! वयम् (वः) युष्माकम् (दस्मम्) दोषाणाम् उपक्षपयितारम्। [दसु उपक्षये।] (ऋतीषहम्) ऋतीः आक्रान्तॄन् कामक्रोधाद्यान् शत्रून् सहते अभिभवतीति तम्, (वसोः) निवासकात् (अन्धसः) आनन्दरसात् (मन्दानम्) आनन्दन्तम् (इन्द्रम्) स्वान्तरात्मानम् (अभि) अभिमुखीभूय (स्वसरेषु) दिवसाविर्भावेषु सत्सु, प्रभाते इत्यर्थः। [स्वसराणि अहानि भवन्ति स्वयंसारीणि, अपि वा स्वरादित्यो भवति स एनानि सारयति, निरु० ५।४। स्वराणीति गृहनाम, निघ० ३।४।] (गीर्भिः) उद्बोधनप्रदाभिः वाग्भिः (नवामहे) स्तुवीमहे। [णु स्तुतौ अदादिः, आत्मनेपदं छान्दसम्।] कथमिव ? (स्वसरेषु) गोगृहेषु, गोष्ठेषु, (धेनवः) गावः (वत्सम् अभि) नवजातं तर्णकम् अभिमुखीभूय (न) यथा, (नुवन्ति) हम्भारवं कुर्वन्ति ॥१॥२ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
स्वकीयमन्तरात्मानं समुद्बोध्य वयं सर्वान् दोषान् दूरीकृत्य सद्गुणांश्च प्राप्य परमयशस्विनो भवितुं शक्नुमः ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।८८।१, य० २६।११, साम० २३६, अथ० २०।९।२, २०।४९।५। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं यजुर्भाष्ये राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as cows low to their calves in the day-time, so we invoke with praises the King, who is handsome, the subduer of Cupid the Settler of his subjects and the enjoyer of the food of knowledge.
Translator Comment
I' refers to God.^Soma Yajna means the Yajna (sacrifice) in which Sama-oblations are poured. Brihat Sama is a part of the Samaveda.
Meaning
We invoke and call upon Indra eagerly as cows call for their calves in the stalls, and with songs of adoration over night and day we glorify him, lord glorious, omnipotent power fighting for truth against evil forces, and exhilarated with the bright soma of worship offered by celebrant humanity. (Rg. 8-88-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वः) હે ઉપાસકો ! તમારી અને અમારી (ऋतीषहम्) નિંદનીય ભાવનાઓને અભિભૂત કરનાર (वसोः अन्धसः) આપણી અંદર રહેલા ઉપાસનારસ દ્વારા (मन्दानम्) આપણા પર હર્ષિત-આનંદિત થનાર (दस्मम्) દર્શનીય (तम् इन्द्रम्) તે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને (गीर्भिः) વાણીઓ-સ્તુતિઓથી (अभि नवामहे) તમે અને અમે પ્રશંસિત કરીએ છીએ-તેનું ભાવપૂર્ણ સ્મરણ-ચિંતન કરીએ છીએ. (स्वसरेषु धेनवः वत्सं न) ગૌશાળામાં આવી ગયા પછી દૂધાળી ગાયો જેમ વાછરડાઓનું ભાવનાથી સ્મરણ કરે છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા આપણને સર્વને-ઉપાસકોને નિંદનીય ભાવનાઓથી દૂર કરનાર છે અને દર્શનીય છે. આપણી અંદર રહેલા ઉપાસનારસને જ્યારે આપણે તેને અર્પિત કરીએ છીએ, ત્યારે તે આપણા પર હર્ષિત-આનંદિત થાય છે તથા આપણને પણ હર્ષ પ્રદાન કરે છે. તે એવા પરમાત્માને પોતાની સ્તુતિ વાણીઓથી પ્રશંસિત કરીએ છીએ-સ્મરણ કરીએ છીએ; જેમ દૂધાળી ગાયો પોતાના વાછરડાઓને ગૌશાળામાં ભાવનાથી સ્મરણ કરે છે. (૪)
मराठी (2)
भावार्थ
आपल्या अंतरात्म्याला चांगल्या प्रकारे उद्बोधन करून, दोष दूर करून व सद्गुण प्राप्त करून आम्ही अत्यंत यशस्वी बनू शकतो. ॥१॥
विषय
या मंत्राचा अर्थ पूर्वार्चिक भागात क्र. २३६ वर परमात्म्याविषयी दिला आहे. येथे जीवात्मपर अर्थ देत आहोत.
शब्दार्थ
(आपल्या मनाला, इंद्रियांना आणि प्राणादी शक्तींना उद्देशून साधकगण म्हणत आहेत) हे मना, हे इंद्रियांनो, आम्ही (साधकगण) (व:) तुमच्या (दस्त्रम्) दोषांना नष्ट करणाऱ्या (ऋतीषहम्) आक्रमक काम, क्रोधादी शत्रूंना परास्त करणाऱ्या (वसो:) निवासक म्हणजे स्थिरता, दृढता देणाऱ्या (अन्धस:) आनंदरसाने (मन्दानम्) मदमत्त करणाऱ्या या (इन्द्रम्) आपल्या अंतराम्याला (अभि) उद्देशून (स्वसरेषु) दिवस उगवत असताना (गीर्भि:) उद्बोधक वाणीद्वारे (नवामहे) गुण वर्णनरूप स्तुतीद्वारे उद्बुद्ध व जागृत करीत आहोत. कशाप्रकारे ? की जसे (स्वसरेषु) गोशाळेत (धेनवा)गायीवकम्भि) आपल्या नवजात वासराकडे धावत जातात. त्याप्रमाणे आम्ही साधक आपल्या आत्म्याकडे त्याला उद्बुद्ध करण्यासाठी धावत आहोत. त्याला जागृत वा प्रोत्साहीत करीत आहोत. ।।१।।
भावार्थ
स्वत:च्या आत्म्याला उद्बोधन देऊन मनातील दोष दूर करून आणि सद्गुणांचा स्वीकार करून आम्ही वा प्रत्येक माणूस जीवनात परम यशस्वी होऊ शकतो ।।१।।
विशेष
या मंत्रात श्लिष्टोषमा अलंकार आहे. ।।१।।
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