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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
ए꣢ह्यू꣣ षु꣡ ब्रवा꣢꣯णि꣣ ते꣡ऽग्न꣢ इ꣣त्थे꣡त꣢रा꣣ गि꣡रः꣢ । ए꣣भि꣡र्व꣢र्धास꣣ इ꣡न्दु꣢भिः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣हि । उ । सु꣢ । ब्र꣡वा꣢꣯णि । ते꣣ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । इ꣣त्था꣢ । इ꣡त꣢꣯राः । गि꣡रः꣢꣯ । ए꣣भिः꣢ । व꣣र्धासे । इ꣡न्दु꣢꣯भिः ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
एह्यू षु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः । एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इहि । उ । सु । ब्रवाणि । ते । अग्ने । इत्था । इतराः । गिरः । एभिः । वर्धासे । इन्दुभिः ॥७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 7
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
उस परमात्मा की मैं वेदवाणियों से स्तुति करता हूँ, यह कहते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् ! आप (आ इहि उ) मेरे हृदय-प्रदेश में आइये। मैं (ते) आपके लिए (इत्था) सत्य भाव से (इतराः) सामान्य-विलक्षण (गिरः) वेदवाणियों को (सु) सम्यक् प्रकार से, पूर्ण मनोयोग से (ब्रवाणि) बोलूँ, अर्थात् वेदवाणियों से आपकी स्तुति करूँ। आप (एभिः) इन मेरे द्वारा समर्पित किये जाते हुए (इन्दुभिः) भावपूर्ण भक्तिरस-रूप सोमरसों से (बर्धासे) वृद्धि को प्राप्त करें। जैसे चन्द्र-किरणों से समुद्र और वनस्पति बढ़ते हैं, यह ध्वनित होता है, क्योंकि इन्दु चन्द्र-किरणों का भी वाचक होता है ॥७॥
भावार्थ
मनुष्यकृत वाणियाँ सामान्य होती हैं, पर वेदवाणियाँ परमेश्वरकृत होने के कारण उनसे विलक्षण हैं। उनमें प्रत्येक पद साभिप्राय तथा विविध अर्थों का प्रकाशक है। उपासक लोग यदि उन वाणियों से परमात्मा को भजें और उसके प्रति अपने भक्तिरस-रूप सोमरसों को प्रवाहित करें, तो वह चन्द्र-किरणों से जैसे समुद्र, वनस्पति आदि बढ़ते हैं, वैसे उन भक्तिरसों से तृप्त होकर उन उपासकों के हृदय में अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त करके उन्हें कृतकृत्य कर दे ॥७॥
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञान प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (ते) तेरे लिये (इतराः-गिरः-उ-इत्या सुब्रवाणि) उपासना समय से भिन्न व्यवहार समय में भी वाणियाँ—बातें अवश्य सत्य ही बोलूँ, बोलता हूँ, बोलूँगा। “इत्या सत्यनाम” [नि॰ घं॰ ३.१०] (एभिः-इन्दुभिः-वर्धासे) इन सोमों आर्द्र उपासनारसों से “सोमो वा इन्दुः” [श॰ २.२.३.२३] तू बढता है—मेरे अन्दर साक्षात् होता रहता है, अतः (एहि) मेरे हृदयरूप यज्ञसदन में आ॥
भावार्थ
परमात्मा की सद्भाव से स्तुतियाँ उपासना काल में करें वैसे ही व्यवहारकाल में चरित्रार्थ करें, ऐसा नहीं कि उपासना समय में अन्य स्तुति करना और व्यवहार में उसके विपरीत कहना मानना। उपासक को आध्यात्मिक और सांसारिक एक ही सत्य पर निर्भर रहना चाहिए। प्रवञ्चना से पृथक् रहे, परमात्मा तो बाहिर भीतर की बात सब जानता है वह प्रवञ्चना में नहीं आता। सत्य स्तुति तो बाहिर भीतर जीवन में समान घटने वाली होती है और तब ही उसका भीतर साक्षात्कार बढ़ता जाया करता है कारण कि परमात्मा स्वयं सत्य-स्वरूप है “सत्यश्चित्रःस्रवस्तमः” [ऋ॰ १.१.५] सो सत्य से ही प्राप्त होता है “सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा” [मुण्ड॰ ३.१.५]॥७॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन ज्ञानबल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
प्रभु सामीप्य का परिणाम
पदार्थ
हे (अग्ने)= प्रभो! (आ इहि)= आप मेरे हृदय में आइए, क्योंकि (ते)= आपके सामीप्य से मैं (इतराः)=सामान्य व्यवहार की बातों को भी (इत्था ब्रवाणि)= सत्य ही बोलता हूँ। प्रभु के सन्निकर्ष से मानव-जीवन में यह कितनी बड़ी क्रान्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह सदा सत्य का पालन करता है। उसका व्यवहार शुद्ध होता है। उसे किसी भी बात का भय सत्य के मार्ग से विचलित नहीं कर पाता और लोभ इन्हें आकृष्ट नहीं कर सकता। इनकी दृढ़ता लोगों के आश्चर्य का कारण बनती है। इनके जीवन में उन्हें कोई महान् शक्ति कार्य करती हुई दृष्टिगोचर होती है। दूसरे शब्दों में, इनके जीवन लोगों के सामने प्रभु की महिमा को प्रकट करते हैं।
इसीलिए मन्त्र में कहा है कि (एभिः) = इन (इन्दुभिः) = शक्तिशाली पुरुषों से ['इन्द'= be powerful] (वर्धासे)= आप [प्रभु] वृद्धि को प्राप्त करते हैं। आपकी लोगों में ख्याति होती है।
ये लोग सत्य पर दृढ़ता से चलने से सभी दिव्य गुणों को धारण कर इस मन्त्र के ऋषि ‘भरद्वाज' बनते हैं।
भावार्थ
उपासना से मनुष्य का व्यवहार सत्यमय होता है और इन उपासकों में परमेश्वर की महिमा प्रकट होती है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे अग्ने ! ( एहि उ ) = आ । ( ते ) = तेरे लिये ( इत्था १ ) = इस प्रकार की वैदिक सत्य वाणियां और ( इतरा:२ गिरः ) = उनसे दूसरी लौकिक, या देववाणी से अतिरिक्त असुरवाणियों को मैं तेरी स्तुति में ( ब्रवाणि ) = कहता हूं । ( एभि: इन्दुभिः ) = इन परम ऐश्वर्यों से तू ( वर्धास: ) महिमा में बड़ा है । ईश्वर अपने सामर्थ्य, ज्ञान और सौम्य गुणों द्वारा सब से बढ़ा है और सब वाणियें उसकी ही स्तुति करती हैं ।
टिप्पणी
१ 'इत्थाः' इति पाठो विवरणसम्मतः । इत्था: सत्या: । मा०वि० । इत्थेत्यादन्तः सत्यनामसु पठितः । इत्थमित्यस्य छान्दसमलोपे दीर्घ रूपम् ।
२. इतराः सत्यतो अन्याः । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
छन्दः - गायत्री
संस्कृत (1)
विषयः
तं परमात्मानमहं वेदवाग्भिः स्तौमीत्याह।
पदार्थः
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (आ इहि उ) आ याहि तावन्मदीये हृत्प्रदेशे। संहितायाम् ऊ इत्यत्र इकः सुञि अ० ६।३।१३४ इति दीर्घः। अहम् (ते) तुभ्यम् (इत्था) सत्यभावेन। इत्थेति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (इतराः२) सामान्यविलक्षणाः३ गिरः वेदवाचः सु सम्यक्, पूर्णमनोयोगेनेति भावः। संहितायाम् सुञः अ० ८।३।१०७ इति षत्वम्। (ब्रवाणि) वदानि, वेदवाग्भिस्त्वां स्तवानीत्यर्थः। त्वम् (एभिः) एतैः मया समर्प्यमाणैः (इन्दुभिः) भावभरितैर्भक्तिरसरूपैः सोमैः। इन्दुरिति सोम उच्यते। सोमो वा इन्दुः। श० २।२।३।२३। (बर्धासे) वर्धस्व, आप्यायितो भव। इन्दुशब्दस्य श्लिष्टत्वाद् यथा चन्द्रकिरणैः समुद्रा वनस्पतयश्च वर्धन्ते तथेति ध्वन्यते। वृधु वृद्धौ इति धातोर्लेटि लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्याडागमः ॥७॥
भावार्थः
मनुष्यकृता वाचः सामान्याः, वेदवाचस्तु परमेश्वरकृतत्वात् तद्विलक्षणाः। तासु प्रत्येकं पदं साभिप्रायं विविधार्थप्रकाशकं च। उपासका जनाश्चेत् ताभिर्गीर्भिः परमात्मानं भजेरन् तं प्रति स्वकीयान् भक्तिरससोमांश्च प्रवाहयेयुस्तदाऽसौ चन्द्रकिरणैः समुद्रवनस्पत्यादिरिव तैः सोमरसैस्तृप्तिं नीतस्तेषां हृदये परमां वृद्धिं गतस्तान् कृतकृत्यान् विदध्यात् ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।१६।१६। य० २६।१३। साम० ७०५। दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च विद्वत्पक्षे व्याख्यातः। २. इत्था सत्या इत्यर्थः। इतरा अन्या असत्याः इति वि०। इत्था इति निपातः अमुत्रेत्यर्थे च वर्तते। अत्र तु दूरस्य लक्षणा। दूरे सन्त्विति शेषः। इतरा गिरः शत्रूणां सम्बन्धिन्यः दुष्कृता इत्यर्थः। असूर्या ह वा इतरा गिरः (ऐ० ब्रा० ३।४९) इति ह्यैतरेयकम् इति भ०। इत्था इत्थम् अनेन प्रकारेण सुष्ठु ब्रवाणि इत्याशास्यते। ताः स्तुतीः शृण्वित्यर्थः। उ इत्येताः इतराः असुरैः कृताः स्तुतीः शृण्विति शेषः इति सा०। ३. Other; different, that is, more excellent—Griffith.
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, come, I utter divine and worldly words for Thee. Thy glory is higher than these worldly splendours.
Translator Comment
The language is figurative. Coming of God means realising Him through contemplation. The soul prays to God for spiritual and worldly progress.
Meaning
Agni, leading light and pioneer, come, listen, thus do I speak in honour of you, and listen further to higher words, and rise higher with these words sweet and soothing like rays of the moon and exciting as draughts of soma. (Rg. 6-16-16)
Translation
0 Lord, Bestower cf all true knowledge, We invcke
Thee through these Vedic hymns and other prayers to come to
us to be realised in our hearts. By Thy Grace, may we be
blessed with true and refined speech and may we prosper by
meditating on Thy Divine Splendour.
Comments
इन्दुभि -दीप्तिभिः-तेजोभिः इन्धी दीप्ताबितिधातोः ।
Translation
O adorable Lord, may you be with us. We shall augment you with drops of divine love. (Cf. S. 705; Rv VI.16.16)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (ते) તારા માટે (इतराः -गिरः -उ -इत्या सुब्रवाणि) ઉપાસના સમયથી ભિન્ન વ્યવહારકાળમાં પણ વાણીઓ-વાણીમાં અવશ્ય ઈત્યા = સત્ય જ બોલું, બોલું છું અને બોલીશ. (एभिः इन्दुभिः वर्धासे), એ ઇન્દ્ર = સોમો આર્દ્ર ઉપાસના રસોથી વર્ધાસે = તું-પ્રભુ વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે - મારી અંદર સાક્ષાત્ થતો રહે છે, તેથી (एहि) મારા હૃદયરૂપ યજ્ઞ ગૃહમાં આવવિરાજમાન થા. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જેમ ઉપાસનાકાળમાં પરમાત્માની સત્ય ભાવથી સ્તુતિ અને ઉપાસના કરવામાં આવે, તેમ વ્યવહારકાળમાં પણ આચરણ કરવું જોઈએ. પરન્તુ ઉપાસનાકાળમાં અન્ય સ્તુતિ કરવી અને વ્યવહારમાં તેથી વિપરીત આચરણ કરવું યોગ્ય નથી. ઉપાસકે આધ્યાત્મિક અને સાંસારિક બન્ને સમયમાં એક સત્ય પર નિર્ભર રહેવું જોઈએ. પ્રપંચના-ઠગાઈથી દૂર રહેવું જોઈએ.
પરમાત્મા બહારની અને અંદરની સર્વ વાતો જાણે છે, તે કદી ઠગાતો નથી. સત્ય સ્તુતિ તો બહાર અને અંદર જીવનમાં સમાન રૂપમાં હોવી જોઈએ, ત્યારે જ તેની અંદર સાક્ષાત્કારની વૃદ્ધિ થતી રહે છે; કારણ કે પરમાત્મા સ્વયં - सत्यश्चित्रः स्रवस्तम સત્ય સ્વરૂપ છે અને તે सत्येन लभ्य -સત્ય થી જ પ્રાપ્ત થાય છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
ستیہ بانی سے ہی بھگوان پرسّن
Lafzi Maana
(اگنی) گیان داتا ایشور! (ایہی) ہمیں پراپت ہووو۔ آکے ہمارے ہردیہ میں بس جاؤ اور تمہارے ذریعے سے ہی میں (اِتتّھا) ستیہ، ویدک بانی اور (اِتراگِرا) لوک بانی (لوگوں کے ساتھ ویوہار کی بات چِیت) کو (سُوبر وانی) بھلے پرکار بول سکتا ہوں۔ آپ (اسے بھی) اِن سُتتی بانیوں برہم یگیہ دوارہ (وردھاس) بڑھتے ہو۔ پرسن ہوتے پرپھلت ہوتے ہو۔ جیسے (اِندوبھی) چندر کِرنوں دوارہ سمندر اُچھالتا ہے، بڑھتا ہے۔ ایسے اُپاسنا گان اور ستیہ بول سے تیری عظمت میں اضافہ ہوتا ہے۔
Tashree
پرمیشور نے سب سے پہلے وید بانی دی۔ جس کے ذریعہ انسانوں کے بولنے کی مشق شروع ہوئی۔ تب پھر وہ لوگوں کے ساتھ عام برتاؤ میں بات چیت کرنے میں بھی سمرتھ ہوئے، لیکن ہمارا گیان کب بڑھتا ہے، جب ہم ایشور کی بانی وید کو پڑھتے پڑھاتے۔ اُس کی مہما کا کیرتن کرتے اور ایک دوسرے سے بھی سچ بولتے ہیں استیہ نہیں۔ تب بھگوان ہم پر پرسن بھی ہوتے ہیں۔ اور اُن کی مہما بھی پھیلتی ہے۔
बंगाली (1)
পদার্থ
এহ্যু ষু ব্রবাণি তেঽগ্ন ইত্থেতরা গিরঃ।
এভির্বর্ধাস ইন্দুভিঃ।।৭৬।।
(সাম ৭)
পদার্থঃ হে (অগ্নে) পরমাত্মা! তুমি (আ ইহি উ) আমার হৃদয় দেশে এসো। আমি (তে) তোমার জন্য (ইত্থা) সত্যভাব দ্বারা (ইতরাঃ) অসাধারণ কয়েকটি (গিরঃ) বেদবাণীর মাধ্যমে (সু) সম্যক প্রকারে পূর্ণ মনযোগের সাথে (ব্রবাণি) বলছি অর্থাৎ বেদবাণীর দ্বারা তোমার স্তুতি করছি। তুমি (এভিঃ) এই আমার দ্বারা সমর্পিত (ইন্দুভিঃ) ভাবপূর্ণ ভক্তিরস-রূপ সোমরসের দ্বারা (বর্ধাসে) হৃদয়ে বৃদ্ধি প্রাপ্ত হও।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ মনুষ্যকৃত বাণীসমূহ সাধারণ হয়ে থাকে, কিন্তু বেদ বাণীসমূহ পরমেশ্বরকৃত হওয়ার সেগুলো অসাধারণ হয়। পরমেশ্বরের স্তুতি করার জন্য আমাদের বেশি কিছু প্রয়োজন হয় না। শুধুমাত্র কয়েকটি ভক্তিপূর্ণ বেদ মন্ত্রের মাধ্যমে আমরা সত্যভাব দ্বারা ঈশ্বরের স্তুতি করতে পারি। এজন্য কোনো উপাসক যদি সেই বেদ বাণী দ্বারা পরমাত্মার ভজনা করে এবং তাঁর প্রতি নিজের ভক্তিরস-রূপ সোমরস প্রবাহিত করে; তাহলে চন্দ্র-কিরণের ফলে যেমন সমুদ্রে জোয়ার ওঠে, তেমনি সেই ভক্তিরসে তৃপ্ত হয়ে পরমাত্মা সেই উপাসকের হৃদয়ে বৃদ্ধি প্রাপ্ত হয়ে উপাসককে কৃতার্থ করেন। এজন্য আমাদের সকলেরই শ্রদ্ধা ও ভক্তি রসের মাধ্যমে বেদবাণী দ্বারা পরমেশ্বরের নিয়মিত স্তুতি করতে হবে।।৭৬।।
मराठी (2)
भावार्थ
मनुष्यकृत वाणी सामान्य असते, परंतु वेदवाणी परमेश्वरकृत असल्यामुळे ती विलक्षण आहे. त्यामध्ये प्रत्येक पद साभिप्राय व विविध अर्थप्रकाशक आहे. उपासकांनी जर त्या वाणीने परमेश्वराचे भजन केले व त्याच्यासाठी आपला भक्तिरूपी सोमरस प्रवाहित केला तर चंद्रकिरणांद्वारे जसे समुद्र, वनस्पती इत्यादींची वाढ होते, तसे भक्तिरसाने तृप्त होऊन उपासकाच्या हृदयात अत्यंत वृद्धी होऊन परमात्मा त्यांना कृतकृत्य करतो ॥७॥
विषय
त्या परमेश्वराची मी वेदमंत्राद्वारे स्तुती करतो.
शब्दार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन्, आपण (आ इहि उ) माझ्या हृदय प्रदेशात या. मी (ते) आपणासाठी (इत्था) सत्य भावनेने खऱ्या मनाने (इतरा:) सामान्यापेक्षा वेगळ्या अशा (गिर:) वेदवाणी (सु) सम्यक प्रकारे पूर्ण मनोयोगासह (ब्रवाणि) उच्चाराव्यात. अर्थात वेदवाणीद्वारे आपली स्तुती करावी (वाकरीन) आपण (एभिः) या मी समर्पित केलेल्या (इन्दुभिः) भावपूरित भक्तिरसरूप सोमाने (वर्धासे) वृद्धिंगत व्हा. या मंत्रातील इन्दु शब्दाद्वारे हा आशय ध्वनित होत आहे की जसे चंद्र किरणांनी समुद्र व वनस्पती वाढतात, तद्वत आपण माझ्या स्तुतीद्वारे वृध्दिंगत व्हा. (माझी स्तुती स्विकारा) ||७||
भावार्थ
मनुष्यकृत वाणी सामान्य असते, पण वेदवाणी परमेश्वरकृत असल्यामुळे त्या वाणीपेक्षा विलक्षण आहे. तिचा प्रत्येक शब्द साभिप्राय व विविधार्थ प्रकाशक असतो. जर उपासकगण त्या वाणीद्वारे परमात्म्याचे उपासना करतील आणि त्याच्याप्रत आपल्या हृदयातील भक्तिरसरूप सोमरस प्रवाहित करतील. तर ज्याप्रमाणे चंद्र किरणांनी जसे समुद्र, वनस्पती आदी वाढतात. तसेच उपासकांच्या भक्तिरसाने तृप्त होऊन परमेश्वर उपासकांच्या हृदयात अत्यंत उत्कर्ष भावाने आणि त्यांना कृतकृत्य करतो. ।।७।।
तमिल (1)
Word Meaning
உனக்காக (துதி)களை இன்னம் (வேறுமொழி)களை [1] (கானஞ்செய்வேன்).
FootNotes
[1] கானஞ்செய்வேன் - துதிக்கேற்ற செயல்களைச் செய்வேன்.
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