Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 721
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
इ꣣च्छ꣡न्ति꣢ दे꣣वाः꣢ सु꣣न्व꣢न्तं꣣ न꣡ स्वप्ना꣢꣯य स्पृहयन्ति । य꣡न्ति꣢ प्र꣣मा꣢द꣣म꣡त꣢न्द्राः ॥७२१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣च्छ꣡न्ति꣢ । देवाः꣢ । सु꣣न्व꣡न्त꣢म् । न । स्व꣡प्ना꣢꣯य । स्पृ꣣हयन्ति । य꣡न्ति꣢꣯ । प्र꣣मा꣡द꣢म् । प्र꣣ । मा꣡द꣢꣯म् । अ꣡त꣢꣯न्द्राः । अ । त꣣न्द्राः ॥७२१॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति । यन्ति प्रमादमतन्द्राः ॥७२१॥
स्वर रहित पद पाठ
इच्छन्ति । देवाः । सुन्वन्तम् । न । स्वप्नाय । स्पृहयन्ति । यन्ति । प्रमादम् । प्र । मादम् । अतन्द्राः । अ । तन्द्राः ॥७२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 721
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः गुरु-शिष्य का विषय वर्णित है।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् गुरुजन (सुन्वन्तम्) पुरुषार्थरूप सोमयाग करनेवाले विद्यार्थी को ही (इच्छन्ति) शिष्यरूप में स्वीकार करना चाहते हैं। वे (स्वप्नाय) निद्रालु आलसी शिष्य को (न स्पृहयन्ति) नहीं पसन्द करते। (प्रमादम्) जो विद्याध्ययन से प्रहृष्ट हो जानेवाला है, उसके पास वे (अतन्द्राः) निरालस्य होकर (यन्ति) जाते हैं ॥३॥
भावार्थ
लौकिक विद्या और ब्रह्मविद्या की भी प्राप्ति पुरुषार्थ से ही होती है। पुरुषार्थी की ही दूसरे लोग भी सहायता करते हैं, निष्कर्मण्य की नहीं ॥३॥
पदार्थ
(देवाः) इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा ‘बहुवचनमादरार्थं यद्वा स्तोतव्यदेवस्यानेकगुण-प्रदर्शनपरम्’ (सुन्वन्तम्-इच्छन्ति) उपासनारस निष्पादक को चाहता है—अपनाता है (स्वप्नाय न स्पृहयन्ति) असावधान—नास्तिक को नहीं स्नेह करता है (अतन्द्राः प्रमादं यन्ति) सावधान उपासनारस निष्पादक आस्तिकजन प्रकृष्ट हर्ष—ब्रह्मानन्द को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
उपासनारस निष्पादक उपासक को परमात्मा स्नेह करता है असावधान नास्तिक को नहीं, सावधान आस्तिकजन ब्रह्मानन्द को प्राप्त करते हैं॥३॥
विशेष
<br>
विषय
स्वाभाविकी क्रिया व मोक्ष
पदार्थ
(देवा:) = सब प्राकृतिक शक्तियाँ (सुन्वन्तम्) = कुछ-न-कुछ उत्पन्न करते हुए को (इच्छन्ति) = चाहती हैं । (स्वप्नाय न स्पृहयन्ति) = सोनेवाले के लिए उनमें कोई स्पृहा [इच्छा] नहीं होती। (अतन्द्राः) = अलस्यशून्य व्यक्ति (प्रमादम्) = प्रकृष्ट हर्ष को यन्ति प्राप्त होते हैं ।
प्रियमेध प्रभु के अतिरिक्त किसी की कामना तो नहीं करता, परन्तु आत्मतृप्त हो जाने से यह अकर्मण्य नहीं हो जाता । वह सदा क्रियाशील होता है। इसकी क्रियाएँ निर्माणात्मक हैं, अतः यह सब देवों का प्रिय होता है। देवों को निर्माण प्रिय है, दस्युओं को विध्वंस [दस्- to destroy] । यह निर्माण करनेवाला देवों का प्रिय क्यों न होगा ? अन्त में यही मोक्षरूप ऊच्च आनन्द का लाभ करता है।
प्रभु की क्रिया स्वाभाविक है - प्रत्युपकार की अपेक्षा करनेवाली नहीं है, इसी प्रकार प्रियमेध की भी सब क्रियाएँ हुआ करती हैं | इन सब निष्काम क्रियाओं का अन्तिम परिणाम मोक्ष तो है ही ।
भावार्थ
हम प्रभु की भाँति स्वाभाविक क्रिया करनेवाले बनें ।
पदार्थ
शब्दार्थ = हे प्रभो ! ( देवा: ) = विद्वान् लोग ( सुन्वन्तम् ) = अपना साक्षात् कराते हुए आपकी ( इच्छन्ति ) = इच्छा करते हैं ( स्वप्नाय न स्पृहयन्ति ) = निद्रा के लिए इच्छा नहीं करते ( अतन्द्राः ) = निरालस होकर ( प्रमादम् यन्ति ) = अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जगदीश्वर ! आप वेद द्वारा हमें उपदेश दे रहे हैं कि, हे मेरे प्यारे पुत्रो ! आप लोगों को योग्य है कि अति निद्रा, आलस्य, विषयासक्ति आदि मेरी भक्ति और ज्ञान के विघ्नों को जीतकर, मेरी इच्छा करो, क्योंकि अतिनिद्राशील आलसी और विषयासक्तों को मेरी भक्ति वा ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए इन सब विघ्नों को दूर कर, मेरी वैदिक आज्ञा के अनुकूल अपना जीवन पवित्र बनाते हुए सदा सुखी रहो।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( ३ ) ( देवाः ) = विद्वान् लोग या इन्द्रियगण ( सुन्वन्तं ) = प्रेरणा या आज्ञा करते हुए या सोम सवन या इश्वरोपासना करते हुए या ज्ञान-ऐश्वर्य लाभ करते हुए पुरुष को ही ( स्पृहयन्ति ) = प्रेम करते हैं। ( स्वप्नाय ) = सोते हुए आलसी पुरुष को ( न स्पृहयन्ति ) = प्रेम नहीं करते। ( अतन्द्रा:) = आलस्य रहित होकर ही ये विद्वान्, देव या इन्द्रियगण ( प्रमादं ) = अत्यन्त हर्ष को ( यन्ति ) = प्राप्त होते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मेध्यातिथिप्रियमेधौ । देवता - इन्द्र। छन्दः - गायत्री । स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि गुरुशिष्यविषयमाह।
पदार्थः
(देवाः) विद्वांसो गुरवः (सुन्वन्तम्) पुरुषार्थरूपसोमनिष्पादिनम् एव विद्यार्थिनम् (इच्छन्ति)शिष्यत्वेन वाञ्छन्ति, ते (स्वप्नाय) निद्रालवे शिष्याय (न स्पृहयन्ति) न रुचिं कुर्वन्ति। (प्रमादम्) यो विद्याध्ययनेन प्रकर्षतो माद्यति स प्रमादः तम् (अतन्द्राः) अनलसाः सन्तः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥३॥
भावार्थः
लौकिकविद्याया ब्रह्मविद्यायाश्चापि प्राप्तिः पुरुषार्थादेव जायते। पुरुषार्थिन एवेतरेऽपि जनाः साहाय्यं कुर्वन्ति न निष्कर्मण्यस्य ॥३॥
टिप्पणीः
२. ऋ० ८।२।१८, अथ० २०।१८।३। उभयत्र ‘स्तोमं॑ चिकेत’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The sages like an intellectual man of action and not a dreamer. Those free from idleness alone derive supreme enjoyment.
Translator Comment
Three regions: Earth, Space, Sky. It refers to the Yajna, sacrifice.
Meaning
Divines of brilliance and holy action love those engaged in creative actions of piety. They care not for dreams and love no dreamers. Active, wakeful and realistic beyond illusion, they achieve the joy of success in life. (Rg. 8-2-18)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (देवाः) ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (सुन्वन्तम् इच्छन्ति) ઉપાસનારસ નિષ્પાદકને ચાહે છેઅપનાવે છે. (स्वप्नाय न स्पृहयन्ति) અસાવધાન-આળસુ-નાસ્તિકને સ્નેહ કરતો નથી. (अतन्द्राः प्रमादं यन्ति) સાવધાન-આળસ રહિત આસ્તિકજન પ્રકૃષ્ટ હર્ષ-બ્રહ્માનંદને પ્રાપ્ત કરે છે-પામે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસનારસ નિષ્પાદક ઉપાસકને પરમાત્મા સ્નેહ કરે છે. અસાવધાન, નાસ્તિક ને નહી, સાવધાન આસ્તિકજન બ્રહ્માનંદને પ્રાપ્ત કરે છે. (૩)
बंगाली (1)
পদার্থ
ইচ্ছন্তি দেবাঃ সুন্বন্তং ন স্বপ্নায় স্পৃহয়ন্তি।
যন্তি প্রমাদমতন্দ্রাঃ।।৪১।।
(সাম ৭২১)
পদার্থঃ হে ঈশ্বর! (দেবাঃ) বিদ্বানগণ (সুন্বন্তম্) নিজেকে জানার মধ্য দিয়ে তোমার প্রতি (ইচ্ছন্তি) ইচ্ছা প্রকাশ করেন, (স্বপ্নায় ন স্পৃহয়ন্তি) অতিনিদ্রার জন্য ইচ্ছা প্রকাশ করেন না, (অতন্দ্রাঃ) নিদ্রারহিত হয়ে (প্রনাদম্ যন্তি) অত্যন্ত আনন্দকে প্রাপ্ত করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে জগদীশ্বর! তুমি বেদ দ্বারা আমাদের উপদেশ দিয়েছ,"তোমাদের কর্তব্য এই যে, অতি নিদ্রা, আলস্য, বিষয়াসক্তি আদি আমার উপাসনা ও জ্ঞানের রোধককে জয় করো এবং আমার প্রতি অভিপ্রিত হও। কারণ অতি নিদ্রাশীল অলস এবং বিষয়াসক্ত লোকের আমার প্রতি ভক্তি বা জ্ঞান হয় না। এই কারণে এই সকল বিঘ্নকারক অভ্যাসগুলোকে দূর করো, আমার বৈদিক আজ্ঞানুসারে নিজ জীবন পবিত্র বানানোর দ্বারা সদা সুখী হও"।।৪১।।
मराठी (2)
भावार्थ
लौकिक विद्या व ब्रह्मविद्या यांची प्राप्ती पुरुषार्थानेच होते, पुरुषार्थीलाच इतर लोक साह्य करतात. निष्कर्मण्य माणसाला नव्हे! ॥३॥
विषय
पुन्हा गुरु शिष्याविषयीच सांगितले आहे.
शब्दार्थ
(देवा:) विद्वान, गुरूजन (सुन्नन्तम्) पुरुषार्थ रूप सोमयान करणाऱ्या विद्यार्थ्यांचा (इन्च्छन्ति) आपला शिष्य म्हणून स्वीकार करतात. (आळशी, प्रमादी व्यक्तीस ते शिष्य म्हणून स्वीकारत नाहीत. ते झोपाळू वा आळशी शिष्यावर (नस्पृहयन्ति) प्रसन्न होत नाहीत. (प्रमादम्) या उलट जो विद्या अध्ययनाने आनन्दित होणारा असतो, अशा (अतन्द्रा:) ज्ञानपिपासू शिष्याकडे हे गुरूजन उत्साहाने पुरित होऊन (यन्ति) जातात. ।।३।।
भावार्थ
लौकिक ज्ञान-विज्ञान विद्या असो वा ब्रह्मविद्या असो, दोन्हीची प्राप्ती पुरुषार्थानेच होत असते. तसेच जे स्वत: पुरुषार्थी, परिश्रमी असतात, त्यांना पुरुषार्थ करणारे व्यक्तीच आवडतात. (तात्पर्य : शिष्य ज्ञानार्थी व परिश्रमी असेल, तर गुरूला त्याला ज्ञान देण्यात उत्साह वाटतो.) ।।३।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal