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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 722
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
इ꣡न्द्रा꣢य꣣ म꣡द्व꣢ने सु꣣तं꣡ परि꣢꣯ ष्टोभन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ । अ꣣र्क꣡म꣢र्च्चन्तु का꣣र꣡वः꣢ ॥७२२॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣡द्व꣢꣯ने । सु꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । स्तो꣣भन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣣र्क꣢म् । अ꣣र्चन्तु । कार꣡वः꣢ ॥७२२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः । अर्कमर्च्चन्तु कारवः ॥७२२॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राय । मद्वने । सुतम् । परि । स्तोभन्तु । नः । गिरः । अर्कम् । अर्चन्तु । कारवः ॥७२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 722
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १५८ पर परमात्मोपासना के विषय में की गयी है। यहाँ गुरुजन कह रहे हैं।
पदार्थ
(मद्वने) ब्रह्मविद्या में आनन्द अनुभव करनेवाले (इन्द्राय)शिष्यों के आत्मा के लिए (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (सुतम्) अभिषुत ज्ञान को (परिष्टोभन्तु) परिधारित करें, देवें, जिससे (कारवः) स्तुतिकर्ता होते हुए वे (अर्कम्) पूजनीय परमात्मदेव की (अर्चन्तु) पूजा किया करें ॥१॥
भावार्थ
शिष्यों को चाहिए कि गुरुओं से लौकिक ज्ञान और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके गुरुजनों द्वारा उपदेश किये गये मार्ग से परमात्मा का ध्यान करते हुए उसका साक्षात्कार करें ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५८)
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया अध्यात्मकक्ष जिसने)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
कलापूर्ण कर्तृत्व ही अर्चना है
पदार्थ
इस तृच का ऋषि श्रुतकक्ष कहता है कि (नः गिरः) = हमारी वाणियाँ (इन्द्राय) = उस ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले (मद्वने) = हमारे लिए हर्ष का विजय करनेवाले, अर्थात् अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करनेवाले प्रभु का (परिष्टोभन्तु) = सर्वथा स्तवन करें। (कारवः) = [कारु: शिल्पिनि कारके] कलापूर्ण ढंग से क्रिया करनेवाले लोग ही (सुतम्) = संसार के उत्पादक व सर्वैश्वर्य के अधिष्ठाता (अर्कम्) = उपासना के योग्य [अर्च पूजायाम्] प्रभु का (अर्चन्तु) = अर्चन करते हैं ।
इस मन्त्र का व्याख्यान १५८ संख्या पर हो चुका है। इसका भावार्थ यही है कि - परमैश्वर्य व अवर्णनीय आनन्द को उपलब्ध करना है तो जीव प्रभु का स्तवन करे । स्तवन का उत्तम प्रकार यही है कि प्रत्येक क्रिया को सुन्दरता से किया जाए। कर्मों में कुशलता ही योग है। लक्ष्मी सरस्वती
अभ्युदय प्रेय [इह]
निः श्रेयस श्रेय [अमुत्र]
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) व्याख्या देखो अविकल सं० [१५८] पृ०॥ ८८।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्ष:। देवता - इन्द्र। स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५८ क्रमाङ्के परमात्मार्चनविषये व्याख्याता। अत्र गुरवो ब्रुवन्ति।
पदार्थः
(मद्वने) ब्रह्मविद्यायामानन्दमनुभवते। [यो विद्यया माद्यति स मद्वा। मदी हर्षे क्वनिप्।] (इन्द्राय) शिष्याणाम् अन्तरात्मने (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः (सुतम्) अभिषुतं ज्ञानम् (परिष्टोभन्तु)परिधारयन्तु। [स्तुभु स्तम्भे, भ्वादिः।] येन (कारवः)स्तुतिकर्तारः सन्तस्ते (अर्कम्) अर्चनीयं परमात्मदेवम् (अर्चन्तु) पूजयन्तु ॥१॥
भावार्थः
गुरुभ्यो लौकिकं ज्ञानं ब्रह्मज्ञानं च प्राप्य शिष्या गुरूपदिष्टमार्गेण परमात्मानं ध्यायन्तस्तं साक्षात्कुर्वन्तु ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९२।१९, अथ० २०।११०।१, साम० १५८।
इंग्लिश (2)
Meaning
For the King, lover of happiness, load be our songs about the Soma juice; let poets sing the song of praise.
Meaning
Let all our voices of admiration flow and intensify the soma for the joy of Indra, and let the poets sing songs of adoration for him and celebrate his achievements. (Rg. 8-92-19)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (नः गिरः) અમારી વાણીઓ (मद्वने इन्द्राय) હર્ષ = આનંદ આપનાર પરમાત્માને માટે (सुतम्) ઉપાસનારસને (परिष्टोभन्तु) પ્રેરિત કરે. (कारवः अर्कम् अर्चन्तु) જેમ સ્તુતિ કરનારા પોતાની વાણીઓથી તે પૂજનીયની પૂજા કરે છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પૂજનીય પરમાત્માની અર્ચના = પૂજા જેમ સ્તુતિ કરનારાઓ કર્યા કરે છે, તેમ અમારી વાણીઓ તે આનંદપ્રદને માટે સ્તુતિ = સ્તવનને પ્રેરિત કરે છે. (૪)
मराठी (2)
भावार्थ
शिष्यांनी गुरूंकडून लौकिक ज्ञान व ब्रह्मज्ञान प्राप्त करून गुरुजनांद्वारे उपदेश केलेल्या मार्गाने परमात्म्याचे ध्यान करत त्याचा साक्षात्कार करावा. ॥१॥
विषय
प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागातील मंत्र क्र. १५८ मध्ये परमात्मोपासनेविषयी केली आहे. आता हा मंत्र गुरूजनांचे वचन आहे.
शब्दार्थ
(महने) ब्रह्मविद्येत आनंद अनुभवणाऱ्या (इन्द्राय) शिष्यांच्या आत्म्यासाठी (नढ) आम्हागुरूजनांची (गिर:) वाणी (सुलम्) आम्ही प्राप्त केलेले ज्ञान (परिष्टोभन्तु) देण्यासाठी सदैव तत्पर असावी. (जे जे आम्हा गुरूजनांना येते, ते ते आम्ही शिष्यांना देतो. या कृतीमुळे (कारव:) आमची स्तुती करणारे असूनही (अर्थम्) ते शिष्य पुजनीय परमेश्वराचीदेखील (अर्चन्तु) पुजा करणारे असावेत. (गुरू श्रेष्ठ आहे, पण परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ आहे. त्यामुळे शिष्यांनी गुरू आणि परमात्मा दोघांनाही वंदन, नमन करीत असावे.) ।।१।।
भावार्थ
शिष्यांचे कर्तव्य आहे की, गुरूंकडून लौकिक ज्ञान व ब्रह्मज्ञान प्राप्त करून, त्यांनी दाखविलेल्या मार्गावर चालत परमेश्वराचे ध्यान धरीत त्याचा साक्षात्कार करण्यासाठी सदैव तत्पर असावे. ।।१।।
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