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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 766
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    सु꣣ता꣡ इन्द्रा꣢꣯य वा꣣य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣣ । सो꣡मा꣢ अर्षन्तु꣣ वि꣡ष्ण꣢वे ॥७६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु꣣ताः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । अ꣣र्षन्तु । वि꣡ष्ण꣢꣯वे ॥७६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुता इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः । सोमा अर्षन्तु विष्णवे ॥७६६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुताः । इन्द्राय । वायवे । वरुणाय । मरुद्भ्यः । सोमाः । अर्षन्तु । विष्णवे ॥७६६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 766
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (सुताः) आचार्य द्वारा प्रेरित (सोमाः) ज्ञानरस (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए, (वायवे) प्राण के लिए, (वरुणाय) वरणीय मन के लिए, (मरुद्भ्यः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप प्राणों के लिए, अर्थात् इन सबके प्रति (विष्णवे) यज्ञार्थ (अर्षन्तु) पहुँचें ॥३॥

    भावार्थ

    गुरुजनों से प्रदत्त ज्ञानरसों से विद्यार्थियों के आत्मा, प्राण, मन, इन्द्रियाँ सब तरङ्गित होकर देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान रूप यज्ञ के लिए समर्थ हो जाते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (सुताः सोमाः) उपासित शान्त परमात्मा (इन्द्राय) वाणी के लिए “अथ य इन्द्रः सा वाक्” [जै॰ १.११] (वायवे) मन के लिए “मनो वायुः” [काठ॰ १.१] (वरुणाय) प्राण के लिए “यः प्राणः स वरुणः” [गो॰ २.४.११] (मरुद्भ्यः) ओज—आत्मतेज के लिए “ओजो वै वीर्यं मरुतः” [जै॰ ३.३०९] (विष्णवे) वीर्य के लिए “वीर्यं विष्णुः” [तै॰ १.७.२.२३] (अर्षन्तु) प्राप्त हों।

    भावार्थ

    उपासित शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक के वाक्—वाणी, मन, प्राण, ओज—आत्मतेज, वीर्य—शारीरिक बल को प्राप्त हो इन्हें यथोचित उन्नत करे॥३॥

    विशेष

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    विषय

    ब्रह्मचर्य के पाँच साधन

    पदार्थ

    जिस ब्रह्मचर्य से ‘देव' बने, उस ब्रह्मचर्य के पाँच साधन हैं। इस मन्त्र में उनका वर्णन इस प्रकार है–(सुताः सोमा:)-ये उत्पन्न हुए-हुए सोम [शक्तिकण] (अर्षन्तु) = प्राप्त हों, किसके लिए१. (इन्द्राय) = इन्द्र के लिए - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के लिए । शक्ति की रक्षा के लिए हम इन्द्रियों—विशेषतः स्वादेन्द्रिय – जीभ को वश में करें । इसको वश में किये बिना ब्रह्मचर्य-पालन सम्भव नहीं । २. (वायवे) = वायु के लिए - सदा गतिशील के लिए। जो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता है, उसे आलसी कभी नहीं होना । आलस्य वासनाओं को आमन्त्रित करता है और हम शक्ति की रक्षा नहीं कर पाते । ३. (वरुणाय) = वरुण के लिए - पाशी के लिए। जो अपने को विविध व्रतों के बन्धनों में बाँधता है, वही ब्रह्मचारी हो पाता है। छोटे-छोटे व्रतों का पालन इस महान् व्रत के पालन में सहायक होता है । वरुण का अर्थ श्रेष्ठ भी है- श्रेष्ठ वह है, जो ईर्ष्या - द्वेष से पृथक् है । ईर्ष्या-द्वेष आदि की भावनाएँ तुच्छ व क्षुद्र हैं, ये ब्रह्म - महान् की ओर चलने की ठीक विरोधी हैं। ४. (मरुद्भ्यः) = प्राण-संयम करनेवालों के लिए । मरुत् ४९ प्रकार के प्राण हैं, इनकी साधना करनेवाला ही ब्रह्मचारी होता है। प्राणायाम और ब्रह्मचर्य में साध्य-साधन व कार्य-कारणभाव निश्चित ही है। ५. विष्णवे = व्यापक मनोवृत्तिवाले के लिए। ब्रह्मचर्य के पालन में मानस उदारता व विशालता भी बड़ा महत्त्व रखती है। मन का संकोच ही प्रेम को संकुचित करके कामवासना के रूप में परिवर्तित कर देता है, यह वासना ब्रह्मचर्य को नष्ट करती है ।
     

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य के लिए पाँच बातें आवश्यक हैं – १. जितेन्द्रियता, २. क्रियाशीलता, ३. व्रतपतित्व, ४. प्राणायाम तथा ५. व्यापक मनोवृत्ति ।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (३) ( सुता: सोमा:) = उत्पन्न हुए ये ज्ञान या आनन्दप्रद समस्त पदार्थ ( वायवे ) = प्राणस्वरूप ( वरुणाय ) = ज्ञानी ( विष्णवे ) = सर्वव्यापक ब्रह्म में लीन ( इन्द्राय ) = आत्मा के लिये और ( मरुद्भयः ) = विद्वानों के लिये ( अर्षन्तु ) = प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    ७६६ – 'अर्षन्ति' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्यावाश्व:। देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री। स्वरः - षड्ज:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (सुताः) आचार्येण अभिषुताः, प्रेरिताः (सोमाः) ज्ञानरसाः (इन्द्राय) जीवात्मने, (वायवे) प्राणाय, (वरुणाय) वरणीयाय मनसे, (मरुद्भ्यः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूपेभ्यः दशप्राणेभ्यः, एतान् प्रति इत्यर्थः (विष्णवे) यज्ञार्थम्। [यज्ञो वै विष्णुः श० १।१।२।१३।] (अर्षन्तु) गच्छन्तु ॥३॥

    भावार्थः

    गुरुभिः प्रदत्तैर्ज्ञानरसैर्विद्यार्थिनाम् आत्मा, प्राणः, मनः इन्द्रियाणि सर्वाण्यपि तरङ्गितानि भूत्वा देवपूजासंगतिकरणदानरूपाय यज्ञाय कल्पन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    २. ऋ० ९।३३।३, ‘अर्षन्ति॒’ इति भेदः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May ail these delightful created objects be available for the learned, and the soul absorbed in All-pervading, Wise, Vigorous God.

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    Meaning

    Knowledge, wisdom and expertise, valuable and blissful as soma, collected and refined by sages and scholars of vision and experience, flows on for Indra, the ruling soul, Vayu, the vibrant people, Varuna, powers of judgement and dispensation, Maruts, stormy warriors, and Vishnu, universal sustaining powers of life and humanity. (Rg. 9-33-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुताः सोमाः) ઉપાસિત શાન્ત પરમાત્મા (इन्द्राय) વાણીને માટે (वायवे) મનને માટે (वरुणाय) પ્રાણને માટે (मरुद्भ्यः) ઓજ-આત્મ તેજને માટે (विष्णवे) વીર્યને માટે (अर्षन्तु) પ્રાપ્ત થાય. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસિત શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકનાં વાક્-વાણી, મન, પ્રાણ, ઓજ-આત્મતેજ, વીર્ય-શારીરિક બળને પ્રાપ્ત થાય, એને યથોચિત ઉન્નત કરે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गुरुजन प्रदत्त ज्ञानरसाने विद्यार्थ्यांचा आत्मा, प्राण, मन, इंद्रिये सर्व तरंगित होऊन देवपूजा-संगतीकरण व दानरूपी यज्ञासाठी समर्थ बनतात ॥३॥

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