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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 767
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
3
प्र꣡ सो꣢म दे꣣व꣡वी꣢तये꣣ सि꣢न्धु꣣र्न꣡ पि꣢प्ये꣣ अ꣡र्ण꣢सा । अ꣣ꣳशोः꣡ पय꣢꣯सा मदि꣣रो꣡ न जागृ꣢꣯वि꣣र꣢च्छा꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥७६७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । सो꣣म । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । सि꣡न्धुः꣢꣯ । न । पि꣣प्ये । अ꣡र्ण꣢꣯सा । अ꣣ꣳशोः꣢ । प꣡य꣢꣯सा । म꣣दिरः꣢ । न । जा꣡गृ꣢꣯विः । अ꣡च्छ꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥७६७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा । अꣳशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम् ॥७६७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सोम । देववीतये । देव । वीतये । सिन्धुः । न । पिप्ये । अर्णसा । अꣳशोः । पयसा । मदिरः । न । जागृविः । अच्छ । कोशम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् ॥७६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 767
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५१४ पर जीवात्मा के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ परमात्मा और उपासक का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! आप (देववीतये) उपासक के हृदय में दिव्य गुण उत्पन्न करने के लिए (अर्णसा) आनन्द-रस से (प्र पिप्ये) भरपूर हो, (अर्णसा) जल से (सिन्धुः न) जैसे बादल भरपूर होता है। आगे उपासक के प्रति कहते हैं—हे उपासक ! (अंशोः) अंशुमाली सूर्य के (पयसा) वर्षाजल से (मदिरः) हर्ष को प्राप्त किसान के समान (जागृविः) जागरूक हुआ तू (मधुश्चुतम्) आनन्दरूप मधु को चुआनेवाले (कोशम्) आनन्द के निधि परमात्मा के (अच्छ) अभिमुख हो ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
आनन्द-रस की प्राप्ति के लिए आनन्द-रस के खजाने परमेश्वर का ही मनुष्यों को ध्यान करना चाहिए, भौतिक प्रतिमा आदियों के पूजने से क्या लाभ है ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५१४)
विशेष
ऋषिः—विश्वामित्र (सब का मित्र)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥<br>
विषय
षट्कसम्पत्ति
पदार्थ
इन मन्त्रों का ऋषि ‘सप्तर्षयः' है। शरीर में [सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे ] सात ही ऋषियों की स्थापना है। सभी का ठीक विकास करके हम अपने जीवन को अधिकाधिक पूर्ण बनाते I ये क्या-क्या करते हैं ? यह मन्त्र में देखिए -
(सोम) = हे सौम्यस्वभाव-जीव ! तू (देववीतये) = दिव्य-गुणों की प्राप्ति के लिए (न) = जैसे (सिन्धुः) = समुद्र (अर्णसा) = जल से (प्रपिप्ये) = बढ़ता है, उसी प्रकार (अंशोः पयसा) = ज्ञान- किरणों के जल से अपने को आप्यायित कर ।( मदिर:- न) = सदा मस्त-सा बना रह, (परन्तु जागृविः) = सदा सावधान - जागता हुआ [Cheerful but not careless] । तू सदा (मधुश्चुतम्) = मधु का क्षरण करनेवाले (कोशं अच्छ) = कोश की ओर चलनेवाला बन ।
इस मन्त्रार्थ में निम्न बातों का संकेत है—
१. (सोम) = जीव को सौम्य बनना है। सोम का अर्थ शक्तिपुञ्ज भी है। इसे शक्ति-सम्पन्न बनकर अत्यन्त विनीत बनना है । २. (देववीतये) - दिव्य-गुणों की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना है। ३. (अंशोः पयसा) = ज्ञान के जलों से अपने को आप्यायित करना है । ४. (मदिरो न) = इस सुख-दुःख के मिश्रणरूप संसार में सदा प्रसन्न व मस्त रहना है । ५. (जागृविः) = मस्त, परन्तु प्रमाद व लापरवाही से दूर । सदा सावधान रहना कल्याण का मार्ग है [भूत्यै जागरणम्] । ६. सबसे महत्त्वपूर्ण बात 'मधुश्चुत् कोश' की ओर चलना है। 'मधुश्चुत् कोश’ प्रभु हैं।‘रसौ वै सः -वे रस हैं, उनसे रस का ही प्रादुर्भाव होता है। जो भी व्यक्ति उस 'रस' को अपनाता है, उसके व्यवहार में भी माधुर्य आ जाता है। उसके जिह्वामूल में 'मधूलक' = शहद का मानो छत्ता होता है और उसके जिह्वा के अग्र पर भी मधु ही होता है । हृदय में 'मधुश्चुत् कोश' का निवास हो तो वाणी से 'मधु' क्यों न टपके ?
उल्लिखित छह बातें हमारे जीवन की 'षट्कसम्पत्ति' हैं । इनसे सम्पन्न होने पर शरीर के 'सप्तर्षि' वस्तुतः सप्तर्षि होते हैं। ऐसा होने पर ही हमारा जीवन पूर्णता की ओर बढ़ रहा होता है ।
भावार्थ
हम मन्त्र वर्णित षट्कसम्पत्ति का अर्जन करें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) व्याख्या देखिये अवि० सं० [५१४] पृ० २५४ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजादय: सप्त ऋषय: । देवता -सोम:। छन्द: - वृहती । स्वरः - मध्यम:।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५१४ क्रमाङ्के जीवात्मविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मन उपासकस्य च विषयमाह।
पदार्थः
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! त्वम् (देववीतये) देवानां दिव्यगुणानां वीतिः उपासकस्य हृदये प्रजननं तदर्थाय (अर्णसा) आनन्दरसेन (प्र पिप्ये) आप्यायितोऽसि, (अर्णसा) जलेन (सिन्धुः न) पर्जन्यो यथा आप्यायते। अथ उपासकं प्रत्युच्यते—हे उपासक ! (अंशोः) अंशुमालिनः सूर्य्यस्य। [अत्र अंशोः अंशुमति लक्षणा। यद्वा मतुपो लुक्।] (पयसा) वृष्टिजलेन (मदिरः) न हृष्टः कर्षकः इव (जागृविः) जागरूकः त्वम् (मधुश्चुतम्) आनन्दमधुस्राविणम् (कोशम्) आनन्दनिधिं परमात्मानम् (अच्छ) अभिमुखो भव ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः।
भावार्थः
आनन्दरसलाभायानन्दरसनिधिः परमेश्वर एव जनैर्ध्यातव्यः, किं भौतिकानां प्रतिमादीनां पूजनेन ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०७।१२, साम० ५१४।
इंग्लिश (2)
Meaning
0 soul, for acquiring the glory of God, thou developest, with knowledge as does ocean with water. May the gladdening, ever-waking, pervading soul, with its inherent pleasure attain to the sheath of felicity, the developer of the knowledge of the soul!
Translator Comment
Soma juices, used as libations in a Yajna, bring timely rain, where-with we grow more food add to our prosperity. The verse is the same 477, but the interpretation is different.
Meaning
O Soma, be full with the liquid spirit of joy like the sea which is full with the flood of streams and rivers, and, like the very spirit of ecstasy overflowing with delicious exuberance of light divine, ever awake, flow into the devotees heart blest with the honeyed joy of divinity. (Rg. 9-107-12)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (देववीतये) મુમુક્ષુજનોની તૃપ્તિને માટે આનંદથી
પૂર્ણ છે (सिन्धुः न अर्णसा प्रपिप्ये) જેમ સમુદ્ર જળથી પૂર્ણ હોય છે (अंशोः पयसा) તુજ સોમ-શાન્ત રસવાન પરમાત્માના આનંદરસથી (मदिरः न जागृविः) ઉપાસક આનંદવાન તથા સચેત સાવધાન વિકાસવાન બની જાય છે. (मधुश्र्चुतंकोशम्) તું મધ ટપકાવનાર હૃદયકોશને અભિપ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! વાહ રે, તું મુમુક્ષુજનોની તૃપ્તિને માટે આનંદ પ્રપૂર્ણ છે, જેમ નદ-મહાજળાશય જળથી ભરેલ પ્રપૂર્ણ હોય છે; તથા તું તેના મધ ટપકાવનાર હૃદયકોશને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
आनंदरसाच्या प्राप्तीसाठी आनंद रसाचा खजिना असलेल्या परमेश्वराचेच ध्यान माणसाने केले पाहिजे. भौतिक प्रतिमा इत्यादीचे पूजन करण्याने काय लाभ होणार! ॥१॥
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