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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 801
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ता꣡ हि शश्व꣢꣯न्त꣣ ई꣡ड꣢त इ꣣त्था꣡ विप्रा꣢꣯स ऊ꣣त꣡ये꣢ । स꣣बा꣢धो꣣ वा꣡ज꣢सातये ॥८०१॥
स्वर सहित पद पाठताः । हि । श꣡श्व꣢꣯न्तः । ई꣡ड꣢꣯ते । इ꣣त्था꣢ । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । ऊत꣡ये꣢ । स꣣बा꣡धः꣢ । स꣣ । बा꣡धः꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये ॥८०१॥
स्वर रहित मन्त्र
ता हि शश्वन्त ईडत इत्था विप्रास ऊतये । सबाधो वाजसातये ॥८०१॥
स्वर रहित पद पाठ
ताः । हि । शश्वन्तः । ईडते । इत्था । विप्रासः । वि । प्रासः । ऊतये । सबाधः । स । बाधः । वाजसातये । वाज । सातये ॥८०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 801
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
(ता हि) उन दोनों इन्द्र और अग्नि अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा की (इत्था) सत्यभाव से (शश्वन्तः) बहुत से, (सबाधः) बाधाओं से पीड़ित (विप्रासः) विप्र जन (ऊतये) रक्षा के लिए और (वाजसातये) बलप्राप्ति के लिए (ईडते) स्तुति करते हैं, अर्थात् उनके गुण-कर्म-स्वभावों का वर्णन करते हैं ॥२॥
भावार्थ
सांसारिक दुःखों को दूर करने के लिए तथा विपत्तियों में रक्षा की प्राप्ति और बल की प्राप्ति के लिए जगदीश्वर की उपासना करनी चाहिए और जीवात्मा को उद्बोधन देना चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(इत्था) सचमुच “इत्था सत्यनाम” [निघं॰ ३.१०] (शश्वन्तः-विप्रासः) बहुत विप्र—मेधावी विद्वान् (ऊतये) रक्षा के लिए (ता हि ईडते) उन ऐश्वर्यवान् और अग्रणायक परमात्मा को ही स्तुत करते हैं (वाजसातये) अमृत अन्नभोग प्राप्ति के लिए (सबाधः) समान बाध पीड़ा वाले होकर।
भावार्थ
यह सत्य है कि उपासकजन एक साथ बाधा पीड़ा या संकट आ जाने पर सब दशा में परमात्मा की शरण लेते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
सक्रिय जीवन
पदार्थ
(ता) = उस इन्द्र और अग्नि का हि निश्चय से (शश्वन्तः) = [शश् प्लुतगतौ] स्फूर्ति से - प्रमादालस्यादि तामसी वृत्ति से दूर रहकर कार्य करनेवाले ही (ईडते) = उपासन करते हैं। प्रभु का उपासक वही है, जो 'स्व-कर्म' को निरालस्य होकर करने में प्रवृत्त रहता है । २. (इत्था) = सचमुच (विप्रासः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले लोग ही (ऊतये) = अपनी रक्षा के लिए (ईडते) = उस प्रभु के उपासक होते हैं । यदि हम अपना पूरण करने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहे तो हमारी उपासना ‘दम्भमात्र' रह जाती है। ३. (सबाधः) = [ऋत्विङ्नाम – निघण्टौ ३.१८] समय-समय पर यज्ञ करनेवाले लोग (वाजसातये) = शक्ति प्राप्त करने के लिए हे प्रभो! आपका उपासन करते हैं । वस्तुतः प्रभु की उपासना से ही वह शक्ति व प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे कोई भी यज्ञ पूर्ण हो पाता है। प्रभु से शक्ति प्राप्त करके ही ये ऋत्विज् अपने यज्ञों में सफल हो पाते हैं ।
भावार्थ
प्रभु का सच्चा उपासक – १. कर्मशील होता है, २. अपना पूरण करता है, ३.यज्ञिय जीवन बिताता है ।
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरपि स एव विषय उच्यते।
पदार्थः
(ता हि) तौ खलु इन्द्राग्नी जीवात्मपरमात्मानौ (इत्था) सत्यभावेन। [इत्था इति सत्यनाम। निघं० ३।१०] (शश्वन्तः) बहवः। [शश्वत् इति बहुनाम। निघं० ३।१] (सबाधः) बाधाभिः पीडिताः (विप्रासः) विप्रजनाः (ऊतये) रक्षायै (वाजसातये) बलप्राप्तये च (ईडते) स्तुवन्ति, तद्गुणकर्मस्वभावान् कीर्तयन्तीत्यर्थः ॥२॥
भावार्थः
संसारदुःखदलनाय विपत्सु रक्षाप्राप्तये बलप्राप्तये च जगदीश्वर उपासनीयो जीवात्मा चोद्बोधनीयः ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।९४।५।
इंग्लिश (2)
Meaning
The learned, since times immemorial, for self-protection and acquisition of knowledge, laud their excellent preceptors. The learned joked together sing their praise.
Meaning
Be set with difficulties, saints and sages, scholars and pioneers always look up to them and thus pray for protection and guidance to move further and win their goal. (Rg. 7-94-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इत्था) ખરેખર (शश्वन्तः विप्रासः) ખૂબજ વિપ્ર-મેધાવી વિદ્વાન (ऊतये) રક્ષાને માટે (ता हि ईडते) તે ઐશ્વર્યવાન અને અગ્રણી પરમાત્માને જ સ્તુત કરે છે (वाजसातये) અમૃત અન્નભોગ પ્રાપ્તિને માટે (सबाधः) સમાન બાધા-પીડા વાળા બનીને. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : એ સત્ય છે કે ઉપાસકજનો એક સાથે બાધા, પીડા અથવા સંકટ આવી જાય છતાં સર્વ સ્થિતિમાં પરમાત્માનું શરણ લે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सांसारिक दु:खांना दूर करण्यासाठी व विपत्तीमध्ये रक्षण व्हावे, तसेच बल प्राप्त व्हावे यासाठी जगदीश्वराची उपासना केली पाहिजे व जीवात्म्याला उद्बोधन केले पाहिजे. ॥२॥
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