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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 802
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ता꣡ वां꣢ गी꣣र्भि꣡र्वि꣢प꣣न्यु꣢वः꣣ प्र꣡य꣢स्वन्तो हवामहे । मे꣣ध꣡सा꣢ता सनि꣣ष्य꣡वः꣢ ॥८०२॥
स्वर सहित पद पाठता꣢ । वा꣣म् । गीर्भिः꣢ । वि꣣पन्यु꣡वः꣢ । प्र꣡य꣢꣯स्वन्तः । ह꣣वामहे । मेध꣡सा꣢ता । मे꣣ध꣢ । सा꣣ता । सनिष्य꣡वः꣢ ॥८०२॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वां गीर्भिर्विपन्युवः प्रयस्वन्तो हवामहे । मेधसाता सनिष्यवः ॥८०२॥
स्वर रहित पद पाठ
ता । वाम् । गीर्भिः । विपन्युवः । प्रयस्वन्तः । हवामहे । मेधसाता । मेध । साता । सनिष्यवः ॥८०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 802
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा और परमात्मा का आह्वान किया गया है।
पदार्थ
(ता) उन (वाम्) तुम दोनों जीवात्मा और परमात्मा को (विपन्युवः) विशेष स्तुति से युक्त, (प्रयस्वन्तः) पुरुषार्थ से युक्त, (सनिष्यन्तः) पाने के इच्छुक हम श्रद्धालु लोग (मेधसाता) सङ्गम की प्राप्ति के निमित्त (गीर्भिः) वेदवाणियों से (हवामहे) पुकारते हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा और जीवात्मा को अनुकूल करने के लिए वाणी से स्तुति, शरीर से प्रयत्न और मन से श्रद्धा तीनों अपेक्षित होते हैं ॥३॥ इस खण्ड में विविध अग्नियों का, आचार्य और राजा का, प्राण-अपान का, ब्रह्म-क्षत्र का और जीवात्मा-परमात्मा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तृतीय अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(विपन्यवः) हम स्तुति करने वाले (प्रयस्वन्तः) स्तुतिरूप भेंट वाले (सनिष्यवः) सम्भजन करने वाले—उपासकजन (ता वाम्) उन तुम (मेधसाता) अध्यात्मयज्ञ में सेवन करने योग्य परमात्मा को (हवामहे) आमन्त्रित करते हैं।
भावार्थ
हम स्तोता स्तुति भेंट देने वाले उपासकजन अध्यात्मयज्ञ में सेवनीय उस ऐश्वर्यवान् तथा ज्ञानप्रकाशवान् अग्रणेता परमात्मा को आमन्त्रित करें॥३॥
विशेष
<br>
विषय
शक्ति व प्रकाश
पदार्थ
(ता वाम्) = हे इन्द्र और अग्नि आप दोनों को हम (हवामहे) = पुकारते हैं । हम ‘शक्ति व प्रकाश' के पुञ्ज आपकी उपासना करते हैं । कैसे हम ? १. (गीर्भिः विपन्युव:) = वेदवाणियों से आपका विशिष्ट स्तवन करनेवाले । ‘विपन्यवः' का अर्थ निरुक्त में 'मेधावी' भी है, वेदवाणियों— ज्ञान के वचनों से अपने को मेधावी बनानेवाले । २. (प्रयस्वन्तः) = उत्तम प्रयत्नोंवाले– उद्योगशील, ३. (मेधसातः) = यज्ञों को प्राप्त करनेवाले, अर्थात् यज्ञशील जीवनवाले, ४. (सनिष्यवः) = निः श्रेयसरूप धन को प्राप्त करने की इच्छावाले, प्रभु को प्राप्त करने की प्रबल कामनावाले ।
भावार्थ
हम मेधावी, श्रमी, यज्ञशील व प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाले होकर प्रभु से शक्ति व प्रकाश प्राप्त करें ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मपरमात्मानौ आह्वयति।
पदार्थः
(ता) तौ (वाम्) इन्द्राग्नी जीवात्मपरमात्मानौ युवाम् (विपन्युवः) विशिष्टस्तुतिमन्तः। [विपूर्वात् पण व्यवहारे स्तुतौ च इत्यतो बाहुलकादौणादिको युच् प्रत्ययः। जसि छान्दसः उवङादेशः।] (प्रयस्वन्तः२) प्रयासवन्तः पुरुषार्थिनः। [प्रयः प्रयासः तद्वन्तः, प्रपूर्वाद् यसु प्रयत्ने इत्यतः क्विप्।] (सनिष्यवः) संभजनकामाः श्रद्धालवो वयम्। [षण सम्भक्तौ, सनिशब्दात् आत्मन इच्छायामर्थे क्यचि लालसायां सुक्, तत उः।] (मेधसाता) मेधसातौ संगमप्राप्तिनिमित्ताय। [मेधः संगमः, मेधृ हिंसायां संगमे च, तस्य सातिः प्राप्तिः तन्निमित्ताय, निमित्तसप्तम्येषा। ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति विभक्तेर्डादेशः।] (गीर्भिः) वेदवाग्भिः (हवामहे) आह्वयामः ॥३॥
भावार्थः
परमात्मानं जीवात्मानं चानुकूलयितुं वाचा स्तुतिः, कायेन प्रयासः, मनसा श्रद्धा च त्रयमप्यपेक्ष्यते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे विविधानामग्नीनाम् आचार्यनृपत्योः प्राणोदानयोः ब्रह्मक्षत्रयोः जीवात्मपरमात्मनोश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिर्वेद्या ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।९४।६। २. प्रयस्वन्तः हविर्लक्षणेन अन्नेनोपेताः—इति सा०। प्रकर्षेण यजमानगृहान् प्रति गच्छन्तः—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
We learned and intellectual eulogisers, for acquiring knowledge, longing for wealth, praise ye both.
Translator Comment
Ye both: Agni and Indra occurring in the previous verse. The words refer to excellent preceptors.
Meaning
With songs of praise, bearing homage and havi for the holy fire, we invoke and invite you to our yajna in search of higher initiative and further self advancement. (Rg. 7-94-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विपन्यवः) અમે સ્તુતિ કરનારા (प्रयस्वन्तः) સ્તુતિરૂપ ભેટવાળા (सनिष्यवः) સંભજન-સારી રીતે ભજન કરનારા-ઉપાસકજન (ता वाम्) તે તને (मेधसाता) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં સેવન કરવા યોગ્ય પરમાત્માને (हवामहे) આમંત્રિત કરીએ છીએ. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમે સ્તોતા ભેટ આપનારા ઉપાસકજનો અધ્યાત્મયજ્ઞમાં સેવનીય, તે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન પ્રકાશવાન અગ્રણી પરમાત્માને આમંત્રિત કરીએ. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा व जीवात्म्याला अनुकूल करण्यासाठी वाणीने स्तुती, शरीराने प्रयत्न व मनाने श्रद्धा, तिन्ही अपेक्षित आहेत. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात विविध अग्नीचे, आचार्य व राजाचे प्राण-अपानचे, ब्रह्म-क्षत्रियाचे व जीवात्मा परमात्म्याचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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