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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 807
    ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    2

    र꣣सा꣢य्यः꣣ प꣡य꣢सा꣣ पि꣡न्व꣢मान ई꣣र꣡य꣢न्नेषि꣣ म꣡धु꣢मन्तम꣣ꣳशु꣢म् । प꣡व꣢मान सन्त꣣नि꣡मे꣢षि कृ꣣ण्व꣡न्निन्द्रा꣢꣯य सोम परिषि꣣च्य꣡मा꣢नः ॥८०७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र꣣सा꣡स्यः꣢ । प꣡य꣢꣯सा । पि꣡न्व꣢꣯मानः । ई꣣र꣡य꣢न् । ए꣣षि । म꣡धु꣢꣯मन्तम् । अ꣣ꣳशु꣢म् । प꣡व꣢꣯मान । स꣣न्तनि꣢म् । स꣣म् । त꣢निम् । ए꣣षि । कृण्व꣢न् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । परिषिच्य꣡मा꣢नः । प꣣रि । सिच्य꣡मा꣢नः ॥८०७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रसाय्यः पयसा पिन्वमान ईरयन्नेषि मधुमन्तमꣳशुम् । पवमान सन्तनिमेषि कृण्वन्निन्द्राय सोम परिषिच्यमानः ॥८०७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रसास्यः । पयसा । पिन्वमानः । ईरयन् । एषि । मधुमन्तम् । अꣳशुम् । पवमान । सन्तनिम् । सम् । तनिम् । एषि । कृण्वन् । इन्द्राय । सोम । परिषिच्यमानः । परि । सिच्यमानः ॥८०७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 807
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में जीवात्मा में ब्रह्मानन्दरस का प्रवाह वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (पवमान सोम) सम्पूर्ण जगत् के स्रष्टा, शुभगुणों के प्रेरक, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (रसाय्यः) रस से पूर्ण, (पयसा) रस से (पिन्वमानः) मुझ उपासक के हृदय को सींचते हुए आप (मधुमन्तम्) मधुर (अंशुम्) आनन्द को (ईरयन्) प्रेरित करते हुए (एषि) मुझे प्राप्त होते हो। (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिषिच्यमानः) झरते हुए आप, वहाँ (सन्तनिम्) विस्तार को (कृण्वन्) प्राप्त करते हुए (एषि) व्याप्त होते हो ॥२॥

    भावार्थ

    आनन्दरस से पूर्ण परमात्मा की आनन्दरस की धारा से सिंचे हुए स्तोताओं के हृदय सरस हो जाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (पवमान सोम) हे आनन्दधारा में प्राप्त होते हुए शान्तस्वरूप परमात्मन्! (रसाय्यः) उपासनारस योग्य (पयसा) उपासनारस के द्वारा “रसो वै पयः” [श॰ ४.४.४.८] (पिन्वमानः) सेवन किया जाता हुआ “पिवि सेवने” [भ्वादि॰] (मधुमन्तम्-अंशुम्-ईरयन्-एषि) कामभाव वाले कामना वाले मन को “सर्वे वै कामा मधु” [ऐ॰ आ॰ १.१.३] “मनो ह वाऽअंशुः” [श॰ ११.५.९.२] उत्कृष्ट करता हुआ उपासक को प्राप्त होता है तथा (परिषिच्यमानः) उपासनारस से परितृप्त किया जाता हुआ (इन्द्राय) उपासक आत्मा के लिए (सन्तनिं कृण्वन्-एषि) प्राण—प्राणशक्ति को जीवन को भी सुसम्पन्न करता हुआ आता है।

    भावार्थ

    आनन्दधारा में आने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा उपासनारस प्राप्त करने योग्य पात्र उपासनारस के द्वारा सेवन किया जाता हुआ कामना विषय वाले मन को उत्कृष्ट करता हुआ उपासक को प्राप्त होता है तथा उपासनारस से तृप्त हुआ प्रसन्न हुआ परमात्मा उपासक आत्मा के लिये प्राणशक्ति जीवन को भी सुसम्पन्न बनाता हुआ प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    लोकसंग्रहमय जीवन

    पदार्थ

    प्रभु उपमन्यु से कहते हैं— हे (सोम) = सौम्य स्वभाववाले उपमन्यो ! १. (रसाय्यः) = रसमय शब्दोंवाला, २. (पयसा) = वेदवाणीरूप गौ के दूध से अपने को तृप्त करता हुआ, (पिन्वमानः) = नैत्यिक वेदाध्ययनरूप ब्रह्म-सूत्र द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाता हुआ ३. (मधुमन्तम्) = माधुर्य से परिपूर्ण (अंशुम्) = जीवन के लिए शान्ति देनेवाली ज्ञान की किरणों व प्रकाश को (ईरयन्) = सर्वतः प्रेरित करता हुआ तू (एषि) = गति करता है, ४. (पवमान) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले उपमन्यो ! ५. तू (सन्तनिमेषि कृण्वन्) = उत्तम गुणों—दैवी सम्पत्ति का विस्तार करता हुआ, ६. और इस प्रकार (इन्द्राय) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए–परमैश्वर्य लाभ के लिए (परिषिच्यमान:) = करुणा से आर्द्र हृदयवाला होता हुआ मैत्री-करुणामुदिता-उपेक्षारूप जीवन्मुक्त के लक्षणों से अपने को परिपूर्ण करता हुआ तू (एषि) = मुझे प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    उपमन्यु के जीवन में 'माधुर्य, ज्ञानतृप्ति, मधुर - प्रकाश, प्रसार, पवित्रता, दिव्य गुणविस्तार व करुणार्द्रहृदयता' अंकुरित हो उठती हैं।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवात्मनि ब्रह्मानन्दरसप्रवाहो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे (पवमान सोम) सर्वजगत्स्रष्टः शुभगुणप्रेरक सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (रसाय्यः) रसेन पूर्णः। [रसेर्बाहुलकादौणादिक आय्यप्रत्ययः।] (पयसा) रसेन (पिन्वमानः) उपासकस्य मम हृदयं सिञ्चमानः, त्वम् (मधुमन्तम्) मधुरम् (अंशुम्) आनन्दम् (ईरयन्) गमयन् (एषि) मां प्राप्नोषि। (इन्द्राय) जीवात्मने (परिषिच्यमानः) निर्झरन् त्वम् तत्र (सन्तनिम्) विस्तारम् (कृण्वन्) कुर्वन् (एषि) व्याप्नोषि ॥२॥

    भावार्थः

    आनन्दरसपूर्णस्य परमात्मन आनन्दधारया सिक्तानि स्तोतॄणां हृदयानि सरसानि जायन्ते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।१४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O All-creating God, full of happiness, satisfying all with knowledge, urging the learned soul. Thou manifestest Thyself. Purifying all souls, meditated upon repeatedly for the amelioration of the soul, strengthening the steady abstraction of the mind, dwell in the heart !

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    Meaning

    O Soma, stream of divine joy exalted with songs of praise, inspiring honey sweets of vital growth and enlightenment, you go forward, pure and purifying, and release continuous showers of ecstasy for the soul for its grandeur and glory when you are honoured and adored by the celebrants. (Rg. 9-97-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पवमान सोम) હે આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (रसाय्यः) ઉપાસનારસ યોગ્ય (पयसा) ઉપાસનારસ દ્વારા (पिन्वमानः) સેવન થતાં (मधुमन्तम् अंशुम् ईयरन् एषि) કામભાવવાળા કામનાવાળા મનને ઉત્કૃષ્ટ કરતાં ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે તથા (परिषिच्यमानः) ઉપાસનારસને પરિતૃપ્ત કરતાં (इन्द्राय) ઉપાસક આત્માને માટે (सन्तनिं कृण्वन् एषि) પ્રાણ-પ્રાણશક્તિનો-જીવનને પણ સારી રીતે સંપન્ન કરતાં આવે છે. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આનંદધારામાં આવનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસનારસ પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પાત્ર ઉપાસનારસના દ્વારા સેવન થતાં, કામના વિષયવાળા મનને ઉત્કૃષ્ટ કરતાં, ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે; તથા ઉપાસનારસથી તૃપ્ત થઈને, પ્રસન્ન બનીને પરમાત્મા ઉપાસક આત્માને માટે પ્રાણશક્તિ-જીવનને પણ સુસંપન્ન બનાવીને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आनंदरसाने पूर्ण असलेल्या परमात्म्याची आनंदरसाच्या धारांनी सिंचित झालेल्या स्तोत्यांची हृदये सरस होतात. ॥२॥

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