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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 806
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
वृ꣢षा꣣ शो꣡णो꣢ अभि꣣क꣡नि꣢क्रद꣣द्गा꣢ न꣣द꣡य꣢न्नेषि पृथि꣣वी꣢मु꣣त꣢ द्याम् । इ꣡न्द्र꣢स्येव व꣣ग्नु꣡रा शृ꣢꣯ण्व आ꣣जौ꣡ प्र꣢चो꣣द꣡य꣢न्नर्षसि꣣ वा꣢च꣣मे꣢माम् ॥८०६॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣡षा꣢꣯ । शो꣡णः꣢꣯ । अ꣣भिक꣡नि꣢क्रदत् । अ꣣भि । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । गाः । न꣣द꣡य꣢न् । ए꣣षि । पृथिवी꣣म् । उ꣣त꣢ । द्याम् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । इ꣣व । वग्नुः꣢ । आ । शृ꣣ण्वे । आजौ꣢ । प्र꣣चोद꣡य꣢न् । प्र꣣ । चोद꣡य꣢न् । अ꣣र्षसि । वा꣡च꣢꣯म् । आ । इ꣣मा꣢म् ॥८०६॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा शोणो अभिकनिक्रदद्गा नदयन्नेषि पृथिवीमुत द्याम् । इन्द्रस्येव वग्नुरा शृण्व आजौ प्रचोदयन्नर्षसि वाचमेमाम् ॥८०६॥
स्वर रहित पद पाठ
वृषा । शोणः । अभिकनिक्रदत् । अभि । कनिक्रदत् । गाः । नदयन् । एषि । पृथिवीम् । उत । द्याम् । इन्द्रस्य । इव । वग्नुः । आ । शृण्वे । आजौ । प्रचोदयन् । प्र । चोदयन् । अर्षसि । वाचम् । आ । इमाम् ॥८०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 806
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा ही मेघों को गर्जाता है।
पदार्थ
हे सोम परमात्मन् ! (वृषा) वर्षा करनेवाले, (शोणः) क्रियाशील आप (गाः) विद्युद्वाणियों को (अभि कनिक्रदत्) गर्जाते हुए, तथा उससे (पृथिवीम्) भूमि को (उत) और (द्याम्) आकाश को (नदयन्) नादयुक्त करते हुए (एषि) व्यवहार करते हो। उस समय ऐसा लगता है कि (आजौ) युद्ध में (इन्द्रस्य इव) मानों सेनापति का (वग्नुः) दुन्दुभि आदि का नाद (आ शृण्वे) सुनाई दे रहा हो। आप ही (इमाम्) इस (वाचम्) मनुष्यों से उच्चारण की जानेवाली व्यक्त वाणी को (प्रचोदयन्) प्रेरित करते हुए (आ अर्षसि) आते हो ॥१॥ इस मन्त्र में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
जल-वाष्पों का उपर जाना, मेघघटाओं का निर्माण, विद्युत् का चमकना, मेघों का गरजना इत्यादि सभी कार्य सूर्य, पवन आदि के माध्यम से परमेश्वर ही करता है। इसके करने में हम जैसों का सामर्थ्य नहीं है। वही मनुष्यों को व्यक्त वाणी प्रदान करता है ॥१॥
पदार्थ
(गाः-अभिक्रन्दत्) उपासक आत्मा जब आरम्भ सृष्टि में परमात्मन्! तेरी स्तुतियाँ करता है, तब हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (वृषा शोणः) सुखवर्षक—कामनापूरक स्वज्ञान से प्रकाशमान हुआ (पृथिवीम्-उत द्यां नदयन्-एषि) ज्ञान का प्रवचन करता हुआ प्राण और उदान को हृदय को प्राप्त होता है “इमे हि द्यावापृथिवी प्राणोदानौ” [श॰ ४.३.१.२२] तब (इन्द्रस्य वग्नुः-इव) विद्युत् के स्तयित्नु मेघ में शब्द की भाँति (आशृण्वे) वह उपासक सुनता है ‘पुरुषव्यत्ययः,’ हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू जिस (इमां वाचम्-आजौ प्रचोदयन्-आ-अर्षसि) इस वाणी—कल्याणी वाणी—वेद को प्रेरित प्रकाशित करने के हेतु जीवन संग्राम स्थल संसार या आजवन या महत्त्वपूर्ण हृदयस्थान में समन्तरूप से प्राप्त होता है “परमं वा एतन्महो यदाजिः” [जै॰ २.४०५]।
भावार्थ
आरम्भसृष्टि के उपासक जब परमात्मा की स्तुतियाँ करते हैं तो शान्तस्वरूप परमात्मा सुखवर्षक स्वज्ञानप्रकाशस्वरूप बन उस के प्राण और उदान को उनसे पूरित हृदय देश को प्रत्येक श्वास प्रश्वास के साथ आता है, प्रवचन करता है। उसे उपासक सुनते हैं। इस कल्याणी वाणी वेद को प्रेरित करने के हेतु तू समन्तरूप जीवनसंग्रामस्थल संसार में या आजवन या महत्त्वपूर्ण हृदयस्थान में समन्तरूप से प्राप्त होता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—उपमन्युः (परमात्मा का उपमनन करने वाला उपासना करने वाला)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में आता हुआ शान्त परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
उपमन्यु का सुलझा हुआ जीवन
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘उपमन्यु वासिष्ठ' है। उपमन्यु का अर्थ है – १. [Intelligentunderstanding] जो बुद्धिमान् है, वस्तुस्थिति को समझता है। [Zealous, striving after]=उत्साही है, लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है । यह उपमन्यु ‘वासिष्ठ' है, वसिष्ठ पुत्र है—अत्यन्त उत्तम निवासवाला व वशी है । प्रभु द्वारा इसका जीवन निम्न शब्दों में चित्रित हुआ है
१. (वृषा) = यह शक्तिशाली है - सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला है । २. (शोण:) = [शोणति To go, move] अत्यन्त क्रियाशील है । To become red इसके चेहरे पर तेजस्विता की लालिमा है । ३. यह (गाः) = वेदवाणियों का (अभिकनिक्रदत्) = खूब ही उच्चारण करता है । ४. (नदयन्) = प्रभु का स्तवन करता हुआ, स्तुति-वचनों से (पृथिवीम्-उत द्याम्) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (नदयन्) = गुँजाता हुआ तू (एषि) = जीवनपथ पर आगे बढ़ता है । ५. (आजौ) = इस संसार संग्राम में (वग्नुः) = इसकी गर्जना (इन्द्रस्य इव) = मेघगर्जना की भाँति (आशृण्वे) = सुन पड़ती है अथवा इसकी वाणी प्रभु की वाणी के समान सुनाई पड़ती है । यह ऐसे प्रभावशाली प्रकार से प्रचार करता है कि प्रभु ही बोलते सुन पड़ते हैं । ६. प्रभु कहते हैं कि हे उपमन्यो ! (इमां वाचम्) = हमसे दी गयी इस वेदवाणी को (प्रचोदयन्) = प्रेरित करता हुआ तू (आ अर्षसि) = सर्वत्र गति करता है, अर्थात् सर्वत्र इस वेदवाणी के सन्देश को सुनाता हुआ भ्रमण करता है । यही तो सच्चा परिव्राजकत्व है ।
भावार्थ
उपमन्यु के जीवन में 'शक्ति, गति, ज्ञान, प्रभु-स्तवन, प्रचार व वेद-सन्देश' का प्रसार है।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ परमात्मैव मेघान् गर्जयतीत्याह।
पदार्थः
हे सोम परमात्मन् ! (वृषा) वर्षकः, (शोणः) क्रियाशीलः त्वम् [शोणृ वर्णगत्योः, भ्वादिः।] (गाः) स्तनयित्नुवाचः (अभिकनिक्रदत्) अभिक्रन्दयन्, तेन च (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि च (द्याम्) आकाशम् (नदयन्) शब्दापयन् (एषि) व्यवहरसि। (आजौ) युद्धे (इन्द्रस्य इव) सेनापतेः इव (वग्नुः) दुन्दुभ्यादिनादः। [वग्नुः वाङ्नाम। निघं० १।११।] (आशृण्वे) आश्रूयते। त्वमेव (इमाम्) एताम् (वाचम्) मनुष्यैरुदीर्यमाणां व्यक्तां वाणीम् (प्रचोदयन्) प्रेरयन् (आ अर्षसि) आगच्छसि ॥१॥ अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
जलवाष्पाणामुपरिगमनं, मेघघटानां निर्माणं, विद्युच्चाकचक्यं, मेघगर्जनमित्यादि सर्वमपि कार्यं सूर्यपवनादिमाध्यमेन परमेश्वर एव करोति, नास्य सम्पादनेऽस्मादृशां सामर्थ्यमस्ति। स एव मनुष्यान् व्यक्तवाचः करोति ॥१॥
टिप्पणीः
२. ऋ० ९।९७।१३, ‘न॒दय॑न्नेति’ ‘प्र॑चे॒तय॑न्नर्षति॒’ इति भेदः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The AD-pervading God, the Bestower of happiness, preaching knowledge to humanity, fittest the Earth and Heaven with His vibrations, just as a cloud fills the earth with water, or an ox imparts semen to a cow, or an Acharya fills a pupil with knowledge. I listen m the heart to the voice of the inner souk O God, granting knowledge to all souls. Thou preachest the Veda, this Word of Thine to all !
Translator Comment
The thundering and roaring of the clouds and lightning are metaphorically spoken of as God’s vibrations.
Meaning
Generous, joyous and refulgent Soma spirit divine pervades the stars and planets and vibrates in the sun rays, making the heaven and earth resound. It is the very voice of Indra, lord omnipotent, heard in the dynamics of existence, awakening the spirit, and it inspires this holy speech to burst forth in adoration. (Rg. 9-97-13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गाः अभिक्रन्दत्) ઉપાસક આત્મા જ્યારે સૃષ્ટિના આરંભમાં પરમાત્મન્ ! તારી સ્તુતિ કરે છે, ત્યારે હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (वृषा शोणः) સુખવર્ષક-કામના પૂરક સ્વજ્ઞાનથી પ્રકાશમાન થઈને (पृथिवीम् उत द्यां नदयन् एषि) જ્ઞાનનું પ્રવચન કરતાં પ્રાણ અને ઉદાનને હૃદયને પ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે (इन्द्रस्य वग्नुः इव) વિદ્યુત્ની કડાકા સાથે મેઘગર્જનાની સમાન (आश्रृण्वे) તે ઉપાસક સાંભળે છે.
હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું જે (इमां वाचम् आजौ प्रचोदयन आ अर्षसि) એવી વાણી-કલ્યાણી વાણી-વેદને પ્રેરિત પ્રકાશિત કરવા માટે જીવન સંગ્રામ સ્થાન સંસાર અથવા આજવન અર્થાત્ મહત્ત્વપૂર્ણ હૃદયસ્થાનમાં સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : આરંભ સૃષ્ટિના ઉપાસકો જ્યારે પરમાત્માની સ્તુતિ કરે છે, ત્યારે શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મા સુખવર્ષક સ્વજ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ બનીને તેઓના પ્રાણ અને ઉદાનને તેથી પૂરિત હૃદયદેશમાં પ્રત્યેક શ્વાસ પ્રશ્વાસની સાથે આવે છે, પ્રવચન કરે છે. તેને ઉપાસક સાંભળે છે. તે કલ્યાણી વાણી વેદને પ્રેરિત કરવાને માટે તું સમગ્ર રૂપમાં જીવન સંગ્રામ સ્થાન સંસારમાં અથવા આજવન અર્થાત્ મહત્ત્વપૂર્ણ હૃદયસ્થાનમાં સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जलबाष्प वर जाणे, मेघघटांची निर्मिती, विद्युतची चमक, मेघांची गर्जना इत्यादी सर्व कार्य सूर्य, पवन इत्यादींच्या माध्यमाने परमेश्वरच करतो, हे करण्याचे आमचे सामर्थ्य नाही. तोच माणसांना व्यक्त वाणी प्रदान करतो. ॥१॥
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